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कोमल वाली गली

बात उन दिनों की है जब मै कक्षा 8वी में पढ़ता था, अर्द्धवार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और हम सभी वार्षिक परीक्षाओं की तैयारियों में जोर शोर से लगे हुए थे। दिसम्बर-जनवरी का महीना था, और वातावरण में अब ठंड का प्रभाव थोड़ा कम होने लगा था, प्रकृति अपनी ठंडक भरी हवाओं को छोड़कर हल्की हल्की गुनगुनी धूप के साथ अपने बासंती रंग में लौट रही थी।
इस स्कूल में मै इसी साल आया था और अब तक लगभग पूरे स्कूल में मेरी सभी से अच्छी जान पहचान हो चुकी थी, कई लोगों से तो प्रगाढ़ मित्रता हो गई थी जो अब भी कायम हैं।मेरे दोस्तो में अक्सर लड़के ही ज्यादा थे, लड़कियों से दोस्ती करने में तो अपने को नानी याद आ जाती थी, जाने क्या शर्म थी उस समय,जिसका बहुत सा अंश अभी भी शायद मेरे अंदर रह गया है।हमारे स्कूल के कमरे रात भर में ओंस के कारण बहुत ठंडे हो गये थे इस कारण सुनीता मेम हम सभी को बाहर वाले ग्राउंड में धूप में टाटपट्टी और दरियाँ बिछाकर पढ़ा रही थी, हम शायद वो आखरी पीढ़ी हैं जिन्होंने फर्श पर दरी और टाटपट्टियाँ बिछाकर, बैठकर पढ़ाई की है।स्कूल का वो समय बड़ा सुहावना लग रहा था, एक अलग प्रकार की आत्मीयता आपस मे सभी की हो गयी थी, चूंकि ये स्कूल 8वी तक ही था, तो सबके मन मे ये बात थी कि अब इस स्कूल में ये हमारा आखरी साल होगा, और फिर सब जाने कहाँ-कहाँ पढ़ने निकल जाएंगे। थोड़ी दूरी पर अलग अलग कक्षाएं लग रही थी। रोड से आने जाने वाले वाहन और घरों के बाहर काम करने वाले लोग दिखाई दे रहे थे। दुर्गेश, मै, अंशुल, (अंशुल ओर मै दोनों भाई हैं, वो मुझसे छोटा है लेकिन हम शुरू से साथ मे ही पढ़े हैं) प्रवीण, जितेंद्र और गोलू हम सभी एक ही कक्षा के थे तो ग्रुप बनाकर मेम के दिये हुए पाठ की पढ़ाई कर रहे थे, साथ ही थोड़ी थोड़ी देर में हँसी मजाक भी चल रही थी, इसी बीच अचानक कानों में एक आवाज आई..

"भारत को सोने की चिड़िया क्यों कहते हैं? इसका उत्तर मिल गया क्या दीदी??"
मेरा ध्यान आवाज की दिशा में गया, आवाज 10 फुट दूर लग रही 7वी कक्षा से आई थी, मैने देखा सामने ही एक लड़की मेरी क्लास में पढ़ने वाली मोनिका से पूछ रही थी, एकदम से नजर पलटने के कारण सामने वाली लड़की का ध्यान भी मेरे तरफ आया और दोनों की नजरें मिल गयी...अचानक से भैया का दिया सबक याद आया,
"बेटा अगर कोई नजरे मिलाए ना, तो डरना मत..बस आँखो में आंखे डालकर देखते रहो, सामने वाला खुद डर जाएगा।"
मेरी नजरें अब स्थिर थी और सामने से लड़की की भी, दोनों एक दूसरे की आंखों में आंखे डालकर देखे जा रहे थे, होगा शायद उसको भी कहीं उसकी दीदी का दिया हुआ सबक याद...
थोड़ी देर तक ऐसे ही रहने के बाद अचानक से एक झटका सा महसूस हुआ, सामने से लड़की की नजर झुकी, इधर से मेरी...लगभग साथ-साथ,,
सोचा चलो कुछ भी हो, मैने नजरें तो नही हटाई, भैया का मान रख लिया,,थोड़ी देर के इस अन्तर्द्वन्द्व में महसूस हुआ कि, भाई मामला डर का नही था..
फिर भी.. कुछ तो था जो अचानक से हुआ था, पर क्या था? पता नहीं, छोड़ो...
तभी,
ओ भाई! कहाँ ध्यान है तेरा??
अचानक से दुर्गेश की आवाज और कंधे पर हाथों के स्पर्श ने तंद्रा तोड़ी।

"अरे यहीँ तो हूँ यार तेरे सामने.." बोल क्या हुआ? मै बोला,
"कुछ नही, बैग पैक करलो, बेल लगने वाली है।"
दिख नही रहा सब तैयार बैठे हैं।
मैने देखा सब वास्तव में बैग पैक करके घर जाने के लिए तैयार बैठे थे, मैने भी फुर्ती से सभी कॉपी किताब समेटकर बैग में रखी और बैग बन्द किया, इतने में ही कमला ताई ने बेल बजा दी।
हम सभी उठे और राष्ट्रगान के बाद मेम के पैर छूते हुए, अपने अपने घर की तरफ जाने लगे।
आज घर जाने का मन तो था, पर कुछ था जो रोक रहा था।
हम सभी दोस्त साथ ही पैदल-पैदल रास्ते भर बातें करते, मस्ती करते हुए जाते थे,
आज पैर तो घर की और बढ़ गए थे पर मस्ती का मूड बिल्कुल नही हो रहा था,,
रह रहकर वही बातें दिमाग मे आती थी, "कौन थी यार ये लड़की?" और "इससे ऐसे नजर कैसे मिल गयी?"
चलो नजर मिल गयी, ठीक है। मिल गयी होगी गलती से, पर..फिर "मन मे वो एकदम झटका सा आया वो क्या था?"कैसा अलग सा अहसास था वो?
ऐसे ही सोंचते, दोस्तों की बातें सुनते, उनकी रास्तेभर की गई हरकते देखते देखते आखिर घर आ गया।

घर आते ही वो सब अन्तर्द्वन्द्व जो रास्तेभर चलता आ रहा था, थोड़ा शांत हुआ।
हाथ धोये, खाना खाया और बिना यूनिफॉर्म बदले ही चल दिये दोस्तो के साथ खेलने,,आज हमारे और पास वाले मोहल्ले के लड़कों की गैर पेशेवर कुश्ती थी,अपन ने भी दांव आजमाये और पास वाले मोहल्ले के नरेंद्र, और सुनील को बुरी तरह पिटते हुए हराया।
और फिर विजयी मुस्कान लिए, और दिल मे स्वाभिमान लिए, पांच- दस अपने मोहल्ले के लड़कों के साथ जीत हार का तरह तरह से विश्लेषण करते हुए घर को चले।
घर आते ही दीदी सामने आ गयी..
"ड्रेस भी नही बदल सकता था तू?"
ऐसे ही चल दिये खेलने, पढ़ने लिखने की सूझ पड़ती नही है,, खेलने का बोल दो बस इनको"
दीदी कहे जा रही थी, अपन सुने जा रहे थे...
दादी ने जरूर बीच बचाव की कोशिश की..
पर दीदी तो कहां मानने वाली थी,
" नही जी(दादी), होमवर्क करना चाहिए इनको इस समय, फिर 8 बजे नही की नींद आ जाएगी इनको,,
"और कविता कह रही थी कि आज पड़ोस वाले मोहल्ले में लड़ाई करके आये हैं ये दोनों।"
इस वाली बात ने बीच बचाव का काम वहीं रोक दिया।
अब यहाँ से तो बागडोर मुझे ही सम्भालना थी, सो संभाली,

"अरे वो हम लड़ थोड़ी ना रहे थे, हम तो खेल रहे थे,...ये कविता दीदी तो पागल है, कुश्ती को लड़ाई बोलती है।"
"चल अब ज्यादा बोल मत, पढ़ने बैठो चुपचाप.." दीदी बोली,
क्या करते., मुँह लटकाया और चले साहब...स्कूल बैग उठाकर पढ़ने..
स्कूल बैग सामने आते ही कुश्ती जीतने की खुशी, दीदी की डांट, सब जाने कहा रफूचक्कर हो गयी, दिमाग घूमकर वापस स्कूल वाली घटना पर गया...
"कौन थी यार ये लड़की??
मोनिका को दीदी कह रही थी, मतलब उसकी बहन होगी..
पर वहाँ तो सब बड़ी क्लासेस की लड़कियों को दीदी ही बोलते है। कुछ भी हो सकता है..
चलो कल पता करेंगे, पर क्यों??
क्या करना है पता करके, रिश्ता थोड़ी न है अपना कोई उससे।।होमवर्क करो और सो जाओ शांति से आज तो....टीवी तो आज दीदी देखने देगी नही।
होमवर्क पूरा किया और चले सोने, बिस्तर पर जाते ही वही खयाल रह रह कर आ रहे थे, पता नही वो एकदम से क्या हुआ था यार अपने को,
फिर दिमाग जीत की खुशी पर गया, गर्व से आंखे एकबारगी खुल गई।
"अच्छा हराया आज तो, कल से सामने नही आएगा अपने"
ऐसे ही विचार करते जाने कब नींद लग गयी पता ही नही चला।
सुबह होते ही वापस से वही रोज वाली जद्दोजहद शुरू हो गई... उठे, नहाये, टिफिन उठाया और कंधों पर बैग टांगकर स्कूल निकले...स्कूल पहुंचे तो आज क्लासेज़ अंदर ही लगी थी,, मेरा मन वहीं बैठने लगा..आंखे आज उसी को ढूंढ रही थी।
यार आज भी क्लास बाहर लगती तो पता चल जाता..कौन थी।
इसी बीच खयाल आया कि मोनिका से पूछा जाए,
सामने गया ही था कि वो बिल्कुल हैरानी लिए मुझे देखने लगी,
"जिस लड़के ने आजतक बात नही कि, वो आज एकदम से किस कारण से ऐसे सामने आया होगा"??

मै कुछ अव्यवस्थित सा हो गया उस पल,
" कुछ नहीं वो...वो मै टेस्ट का पता करने आया था,, कब है अगला?" मैने जो उस समय दिमाग मे आया बोल दिया.. क्या करते...सिट्टी पिट्टी गुल हो गयी थी..

"अभी तो बताया था मेम ने, तब तुम कहाँ थे?" वो शिकायती लहजे में बोली, आखिर क्लास मॉनिटर जो थी।

"चल ठीक है, पता है सब मुझे, ज्यादा भाव मत दिखा है ना.." मैने भी जवाब दिया और चल दिया।

ये प्लान तो फेल हो गया,अब पता किया जाए तो किससे?
एकदम से विचार आया.."जितेंद्र का भाई मोहित भी तो 7th में है, और छोटा भी है, पूछने में आसानी होगी"
लंच ब्रेक में सबसे पहला काम यही किया,मोहित को पास बुलाया और पूछा, उसने बताया कि..."कोमल नाम है उसका...और वो मेरी क्लास मॉनिटर मोनिका की बहन ही है।"
बाप रे! इस दूसरी खबर ने तो अरमानों पे जैसे पानी फेर दिया।
"अच्छा सुन, आज आयी है क्या वो?" मैने पूछा,
"हाँ आयी है ना भैया, बुलाऊँ, कोई काम था?" वो एकदम से बोल उठा
"अरे नही, तू जा अब..जा तेरे दोस्तो के साथ खेल।" आदेशात्मक लहजा देखकर वो दौड़ते हुए वहाँ से निकल गया।
लंच ब्रेक खत्म होने के बाद पता चला कि सभी की दोपहर वाली क्लास बाहर ही लगने वाली है, इस खबर ने तो जैसे बिजली दौड़ा दी रगों में, तुरंत बैग पैक किया दरियाँ बाहर बिछवाई और चले...
कल वाला नजारा वापस से सामने था, रोड से जाते वाहन, बाहर काम करते लोग, और ग्रुप बनाकर बैठे हुए हम,, मै इंतजार में था कि कब दिखे वापस ये लड़की,इतने में नजर घुमाई ही थी कि वो वहीँ जाकर टिकी जहाँ उसे जाना चाहिए था,, वो नजरे झुकाये आंख बंद किये, एक हाथ से कॉपी की लाइन्स को ढँके, और दूसरे हाथ से पेन को घुमाते हुए कुछ याद कर रही थी। और मैं अब लगातार उसे देखे जा रहा था, कुछ बहुत ही सुखद अहसास था जो इससे पहले कभी अनुभव नही किया था मैंने...
धीरे से उसने आंखे खोली, और मेरी नजर एकदम से झुक गयी, और उसी वक्त उसने भी ये देख लिया,,
5 मिनट तक तो फिर मैंने उस ओर देखा भी नही,,इसी बीच मैने अनुभव किया कि वो भी नजरें चुराते हुए मुझे ही देख रही है, मै भी नजर घुमाकर कुछ कुछ देर में एकबारगी देखने लगा, इस माहौल में हमारी नजर दो तीन बार मिली भी, जैसे ही नजर मिलती,मारे शर्म के वापस झुक जाती, उस दिन दिनभर ये सिलसिला चला।।
सोचा कि दोस्तो को बताऊं, पर जाने क्या सोचेंगे,?
फिर भी मन माना नही, और बता ही दिया मैने आखिर...
गोलू ने प्रतिकार किया," अरे नही भाई, वो तो उसकी बहन की तरफ देख रही होगी"
"तू कल देख लेना, होता है कि नही ऐसा" मैने कहा,
दुर्गेश, जितेंद्र बाकी सभी दोस्तों ने मेरा समर्थन किया,,
हाँ कल देखते हैं..पर सबकी सहमति बनी,
दूसरे दिन क्लास लगी, सभी को यही इंतजार था कि कब कल वाली बात सिद्ध हो, और वो समय भी आखिर आ ही गया, उसने सामने से मेरी ओर देखा,और साथ ही मैने भी,, पूरी क्लास इस नजारे को देख रही थी, सहसा मैने गोलू की तरफ देखा..उसने थम्स अप दिया..
"मान गए भाई"

उसके बाद तो ये सिलसिला लगभग रोज चलने लगा,इन सभी सिलसिलों में पता ही नही चला कब दिल मे इश्क़ नाम का रोग चढ़ गया। वो मेरी तरफ देखा करती मै उसकी तरफ, बेहद खूबसूरत पल होता था वो...
धीरे धीरे सबमे खबर फैली और दूसरे दोस्तो ने भी अन्य लड़कियों के साथ नैन मटक्के शुरू कर दिए। सामने से भी अच्छी प्रतिक्रिया मिलने लगी थी,
इसका परिणाम ये हुआ कि अब सबकी अपनी-अपनी अलग आंखे थी,(यहाँ आंखे कहना ही ठीक होगा, क्योंकि हमारी किसी की भी सोच कभी गलत रास्ते नही गयी थी, सबका ही ये पहला अनुभव था।) सब आपस मे इस बारे में बाते करते घर को जाते थे,हाँ जितेंद्र हम सबमे जरूर बड़ा था, तो स्वभाववश वो हमें हर मामले में अक्ल दिया करता था।

तरह तरह की योजनाएं बनाई जाने लगी, स्कूल से छूटने के बाद रोज ही चंदन की दुकान पर बैठकर, घण्टो तक मीटिंगे चलने लगी, सब अपनी अपनी रोज की कहानी कहता था, सब बड़े दिलचस्पी लेकर सुनते थे, पढ़ाई में भी सब एक दूसरे की मदद करने लगे, क्योंकि किसी का भी रिजल्ट खराब होने का मतलब था ग्रुप का नाम खराब होना।
अब वो समय आ गया था कि रविवार की छुट्टी का दिन काटना मुश्किल हो जाता था,,मैने धीरे से कोमल के घर का पता लगा लिया था,, रविवार और अन्य छुट्टी के दिनों में मै और अंशुल उन गलियों का चक्कर लगा लेते थे तब कहीं जाकर सुकून मिलता था।
परीक्षा के दिन नजदीक आ रहे थे, हम सभी मनोयोग से पढ़ भी रहे थे, और एक तरफ ये प्यार परवान भी चढ़ रहा था। बातों के सिलसिले शुरू हो चुके थे, इतनी नही, बस काम पड़ने पर, वो भी कोई बहाना ढूंढ कर लाते तब कही जाकर और ये सब भी बस स्कूल के दौरान ही हो पाती थी, वो भी कभी कभी, घर पर तो कोई किसी के जाता नही था, और टेलीफोन का दौर तो था मगर वो भी सभी के घर पर नही था। मोनिका का व्यवहार भी दुर्गेश से मिलने के बाद हम सबके प्रति बदलने लगा था, अब हम सभी एक ही ग्रुप के लोग थे।

मेरे लिए कोमल को एक नजर देखना भी जैसे स्वर्ग का सुख मिलने जैसा हो गया, और वो भी शायद स्कूल में मेरा इंतजार करती थी। साईकल की घण्टी बजाते हुए उसकी गली से निकलना और उसका दीदार हो जाना, मेरे पूरे दिन की ताजगी के लिए बहुत होता था। मेरे जीवन का ये सबसे सुखद एहसास है और हमेशा रहेगा।
मन में सभी को पता था कि इसके बाद हम साथ साथ नही रहने वाले..किसी को उज्जैन पढ़ने जाना था तो किसी को इंदौर..थोड़ी उदासी, थोड़ा सा डर, स्कूल बदलने का और दोस्तो से बिछड़ने का वो मासूम सा अहसास..कभी कभी यादों के सागर में हम सभी को डुबो देता था।
फिर याद आ जाता की "यार अभी तो परीक्षा नही हुई ना, तब तक तो हम सब साथ ही है"...ये बात वापस से हमें तरोताजा कर जाती..
फिर एक दिन वो समय भी आ गया जब हमारा टाईमटेबल आया, इम्तिहानों का दौर शुरू हो गया, सभी ने अपने अपने पेपर अच्छे से दिए,
परीक्षा खत्म होने से पहले विदाई समारोह का आयोजन रखा गया,,छोटी क्लास के बच्चो ने सभी तैयारियां की, सभी बच्चे और कोमल की क्लास के लोग तो जैसे कृतज्ञता की मूर्ति बने हुए थे आज... गाने कविताओं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का माहौल बना, सब अपनी अपनी तैयारियों से आये थे,
मैने वहाँ दोस्तो के बहुत आग्रह करने के बाद कुमार विश्वास की कविता,"कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है" सुनाई,, बहुत आग्रह इसलिए करवाना पड़ा, क्योकि सिर्फ मुझे पता था कि इसके बाद क्या होने वाला है...
और हुआ वही जिसका डर था...
जैसे ही ये पंक्तियां मेम और बाकी टीचर्स के कान में पड़ी, उन्हें 4 महीने पहले वाला कांड याद आ गया,,दरअसल ये कविता मेने दुर्गेश के आग्रह करने पर उसको लिखकर दी थी, और उसने मोनिका के बैग में चुपके से बिना नाम लिखे इसको रख दिया था, मोनिका ने ये घर जाकर देखा तो उसके पापा को बता दिया, ओर फिर मोनिका के पापा स्कूल में आये और क्या हंगामा हुआ इसका शायद जिक्र करना जरूरी नही होगा।। सभी की हैंडराइटिंग चेक करवाई गई, संयोग से मेरा नँबर ही नही आया और कमला ताई ने बेल बजा दी।
पर अब क्या था, सभी को पता हो गया था कि लिखी तो इसने ही है....
खैर हम सब जाने वाले थे तो किसी ने कोई ज्यादा परेशान नही किया, मगर पूरी कहानी प्रिंसिपल ऑफ़िस में जरूर सुनाना पड़ी। अब ये बाते भी याद आती है तो बड़ा रोमांच हो जाता है।
उसदिन कोमल मेरे पास आई थी पहली बार, कुछ था जो मेरे और उसके लबों पे आते आते रह गया....वो उससे आखरी मुलाक़ात थी..
परीक्षा के दौरान रोज की परिचर्चाएँ चल निकलती थी, सब अपने अपने दूसरे स्कूल और बड़े सपनों के बारे में बाते किया करते थे, एक तरफ मंदिर में मिन्नतों का दौर चलता था, तो दूसरी तरफ सभी को पता था कि ये कहानी बस यहीं तक है... वो कहते हैं ना..

लड़कपन की मोहब्बत का कोई मोल नही होता,,
अंगूठी हाथ मे रहती है, मंगनी टूट जाती है।

इसलिए सभी आखरी बार एक दूसरे को बस जी भरकर देख लेना चाहते थे। इससे ज्यादा कुछ होना भी नही था।
परीक्षा के बाद कुछ दिनों तक तो कोमल की गली में आना जाना लगा रहा, सिर्फ देखने तक, मुलाकातें तो ना तब हुई थी, न अब होना थी। उज्जैन निकलने के बाद धीरे धीरे उधर जाना भी बंद हो गया, वो अपनी जिंदगी जी रही थी और मै मेरी जिन्दगी में व्यस्त था।
कुछ करीबी सूत्रों से कभी कभी खबरें आ जाया करती। धीरे धीरे वो भी सबकुछ बन्द हो गयी। आगे से उसका कुछ पता नही चला, नए शहर की नयी रौनक, नए दोस्त और नये स्कूल की चकाचौन्ध में अब मेरा इधर से लगाव भी कम हो गया था।आज उस गली में फिर जाना हुआ तो बस सभी यादें घूमकर आ गई, पुराना स्कूल अब बहुत छोटा हो गया है, कुछ थोड़े ही छोटे बच्चे पढ़ रहे हैं, कोमल की गली में भी अब कोमल नही रहती, पता चला कि वो कुछ सालों से कहीं और है। कहानी तो वहीं खत्म हो चुकी थी, मगर यकीन है, दोस्ती तो रहेगी....कभी न कभी वो आएगी जरूर...ज्यादा कुछ नही तो ये कहने कि...
"अच्छा लिखने लगे हो, मेरे उनको सुनाऊँगी" 😁😇

©अनुराग माण्डलीक "मृत्युंजय"


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