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मेरा बचपन और ऊंट वाली तकनीक

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कल रात को ही मैं अपने गांव आया ये सोचकर कि कुछ आराम करूँगा घर जाकर, पर जब मैं यहाँ आया तो कुछ अलग ही अहसास हुआ,जिसे मैं सोचता हूँ कि हर किसी में ये एहसास भीतरी रूप से समाये होते हैं।
तो, मैं बात कर रहा था उस अहसास की, अब मैं अपनी बात पर आता हूँ,,

आज सुबह कुछ चिर परिचित से नजारे देखकर या यूँ कहें कि अपने बीते हुए कल से जुड़े हुए कुछ दृश्य देखकर बरबस ही बचपन की सारी यादें मानस पटल पर अठखेलियां करने लगी।
क्या दिन थे वो जब हम चारो पहर सिर्फ खेल में मस्त रहते थे। सभी भाईबहन साथ रहते थे और कुछ दोस्त भी प्रतिदिन आ जाया करते थे। स्कूल से छूटने के तुरंत बाद दौड़ते हुए घर आना, रास्ते में पानी से भरे गड्ढो में कूद लगाना और घर का कोई सदस्य दिख जाने पर बिलकुल गाय की तरह सीधे बन जाना।
सबसे ज्यादा याद मुझे अपने गांव में बिताये ठण्ड के दिनों की आती है, जब मैं,अभिषेक भैया और रानू दीदी पलंग लगाकर चौक में बैठते और देश दुनिया की बातें करते थे।
मैं सभी भाईबहनों में सबसे छोटा था तो अवश्य ही मुझे सबका बड़ा प्यार मिला, और यही कारण है कि आज मेरे दिल ने ये सब लिखने की ठानी है, क्या पता कल जिंदगी कहाँ ले जाये?
मेरे घर के सामने एक सौ एकड़ का खेत है जहां पर सोयाबीन की फसल कट जाने के बाद दूर प्रदेश से लोग अपनी अपनी भेड़ें एवं ऊंट लेकर आते हैं और उनका ठिकाना वही होता है खाली खेत।
मुझे आज भी याद है वो भेड़ो का मिमियाना, रातभर ऊँटो की चहलकदमी, गडरियों के साथ आये बच्चों की रोने की आवाज, और इन सबकी आवाज से पैदा एक अलग प्रकार के प्राकृतिक और मधुर संगीत में गाँव के स्थायी कुत्ते भी भौंक-भौंककर उन्हें अपने क्षेत्र के मालिकाना हक होने का अहसास दिलाते थे।
सुबह उठते ही गड़रिये अपनी भेड़ो एवं ऊँटो को खाली हो चुके खेतों में चराने निकल पड़ते थे, और हम स्कूल।
शाम होने का इंतजार करते हुए हम सब स्कूल का समय निकाल लेते और छुट्टी होते ही घर की और ऐसे दौड़ते थे जैसे बहुत दिनों के बाद घर लौटे हो।घर लौटते ही मम्मी से ऐसे जाकर लिपट जाना जैसे बहुत सारे सालों के बाद मम्मी से मिले हों। आज तो मेरे साथ ना तो कीर्ति दीदी है न रानू दीदी,बस अभिषेक भैया और मैं। और कुछ छोटे भाईबहन जो मेरे अंकल आंटी के बच्चे हैं, इनके साथ रहा तो अपने स्वभाव के अनुसार हमेशा बड़ा बनकर ही रहा, मुझे इन सभी ने कभी अपने छोटे होने का ज्यादा अहसास नही होने दिया।
आज अभिषेक भैया इंदौर में है और मैं उज्जैन मे।
फिर भी अपने बीते समय को याद करके उनसे जुड़ा रहता हूँ।
आज कोई चीज गुम हो जाने का उतना गम नही होता जितना बचपन में हुआ करता था पर ना ही उस चीज के मिल जाने पर इतनी ख़ुशी होती है जितनी उस समय होती थी। बचपन में जब हमारी कोई चीज गुम हो जाती थी तो हमारे पास तीन विकल्प होते थे, पहला, मम्मी के सामने रोते हुए मिन्नते करके ढुंढवा लेना। दूसरा, भगवान से हाथ जोड़कर आँखे मूंदकर मिन्नतें करना और जब कोई रास्ता ना बचे तो फिर तीसरा ठण्ड के दिनों में ऊँटो के आने आने का इंतेजार करना, ताकि हम ऊँटो के सडकों से गुजरने के पहले मिट्टी के ढेले बनाकर रख दें और जिस ढेले पर ऊंट पैर रखे, उस ढेले को बिखेरकर उस वस्तु को ढूँढना। आज यह सब हास्यास्पद लगता है परंतु मुझे याद है एक बार बड़ी मम्मी की चांदी की बिछिया जो बरसात में चौक में हुए कीचड़ में कहीं गिर गयी थी, वो मुझे, हाँ मुझे,, इस ऊँट वाली तकनीक से मिल गयी थी तब से मेरा और मेरे सभी दोस्तों का इस तकनीक पर अटूट विश्वास हो गया था और इस समय से भी बेहद प्यार हो गया था जो की अब तक कायम है। मैं आज सोचता हूं कि वो दृश्य मुझे फिर से दिखे और मैं अपने जीवन के स्वर्णिम पलों से जुड़ सकूँ..और उन्ही ऊँट के पैर रखे हुए मिटटी के ढेलों को बिखेरकर कुछ यादों को समेट लूँ और..काश मैं मिल सकूँ वापस से अपने सभी भाई बहनों से बिलकुल उसी अंदाज में..जैसे मैं बचपन में हुआ करता था...
आज खुदा से बस यही मिन्नतें करता हूँ कि
"ये दौलत भी लेलो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,,
पर लौटा दो मुझको वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी"।
©अनुराग मांडलिक "मृत्युजंय"

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