होने से न होने तक
41.
सुबह देर से ही ऑख खुली थी। मानसी जी शायद रसोई घर में हैं। सूजी भुनने की सोंधी सी महक चारों तरफ फैली हुयी है। शायद मानसी जी हलुआ बना रही हैं। अचानक शिद्दत से यश की याद आयी थी। क्या कर रहे होंगे यश? मेरे बारे मे सोच रहे होगे क्या ?मन में अचानक कितना कुछ घुमड़ने लगा था। वे बातें, वे यादें, जिनका कोई अर्थ नहीं।
चाय नाश्ता कर के हम लोग घर के पीछे के ऑगन में बैठ गये थे। मानसी जी अन्दर से अख़बार ले आयी थीं और दोपहर में कहीं चलने का प्रोग्राम बनाने लगी थीं। मेरे कुछ समझ ही नही आ रहा कि मैं इस समय क्या चाह रही हूं। इसलिए दर्शक की मुद्रा में चुपचाप बैठी हूं।वैसे भी जानती हूं कि अगर मानसी जी कुछ तय कर लें तो उसे टाल पाना आसान नही है। तभी बाहर की घण्टी बजी थी। मानसी जी दरवाज़ा खोलने के लिए उठ कर चली गयीं थी। मैं वहीं बैठे बैठे अख़बार पलटने लगी थी। लगा था बाहर से बुआ की आवाज़ आ रही है। फिर लगा था बुआ मानसी जी और कई लोग एक साथ बात कर रहे हैं। आश्चर्य हुआ था, बुआ यहॉ? इस समय? कुछ ही क्षणों में मानसी जी के साथ बुआ दिखलायी दी थीं। बस वे दोनो ही हैं पर दोनो इतने ज़ोर से बोल रही हैं शायद इसलिए कई सारे लोग होने का भ्रम हो रहा है।
‘‘नमस्ते बुआ’’ मैं उठ कर खड़ी हो गयी थी,‘‘मैं कल आपके घर आने की सोच रही थी।’’मुॅह से सच ही निकला था। फिर लगा था बेकार ही कहा ऐसा। अब बुआ बहुत सारे शिकवे शिकायत दोहराऐंगी। यह भी कहेंगी कि तुम तो बस सोचती ही हो, आने और बुआ से मिलने का तो तुम्हारा मन करता ही नही है। पर बुआ ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा था। बड़े प्यार से उन्होने मुझे अपने दॉए हाथ से अपने पास को समेट लिया था,‘‘चलो तुम्हारा बुआ के पास आने का मन किया और बुआ ख़ुद चल कर तुम्हारे पास आ गयी।’’
हम तीनो लोग आस पास की कुर्सियों पर बैठ गये थे। बुआ मानसी जी की तरफ देख कर मुस्कुरायी थीं ‘‘यह तो बहुत अच्छा है मानसी तुम अम्बिका के इतना नज़दीक में रहती हो। हम तो इतनी दूर रहते हैं। वैसे भी भई हम दोस्तों की बराबरी तो कर नही सकते।’’बुआ मानसी जी को अच्छी तरह से जानती हैं।मैं कई बार उनके साथ बुआ के घर जा चुकी हूॅ।
उनके स्वर में कोई व्यंग नही है। फिर भी मैंने उनकी बात काटनी चाही थी,‘‘बुआ आप, कुछ भी सोचती हैं।’’
‘‘नहीं बेटा। सच में एक अच्छे दोस्त की बराबरी कोई नही कर सकता। जिस तरह से इंर्सान दोस्तो से अपने सुख दुख बॉट लेता है-अपने मन की बात कह सकता है वैसे किसी दूसरे से...’’ बुआ का स्वर अचानक पिघलने लगा है,उन्होंने अपनी बात आधी ही छोड़ दी थी।वे कुछ देर चुप ही रही थीं।अचानक उन्होने मानसी जी की तरफ जैसे चौंक कर देखा था, ‘‘मानसी अम्बिका का ख़्याल रखना बेटा।’’उनकी आवाज़ भर्रायी हुयी है।
‘‘जी बुआ जी।’’ मानसी जी ने हड़बड़ा कर कहा था और अचानक बुआ की ऑखों से झर झर ऑसू गिरने लगे थे। पर्स से रुमाल निकाल कर बुआ अपने ऑसुओं को जल्दी जल्दी पोंछने लगी थीं,‘‘कल रात लौट कर आए हम लोग बंगलौर से। लैटर बाक्स में मिसेज़ सहगल के हाथ की लिखी पर्ची पड़ी थी।’’ बुआ कुछ क्षण अपने आप को संभालती रही थीं,‘‘मैं तो पूरी रात सवेरा होने का इंतज़ार करती रही। सारी रात अम्बिका के बारे में ही सोचती रही। यही सोचती रही कैसा तो लग रहा होगा उसे अकेले घर में। मैं तो...’’
‘‘क्यो बुआ।’’मैंने उनकी बात आधे में ही काट दी थी। बुआ का विलाप मुझे परेशान करने लगा था।
बुआ ने अपनी पसीजी निगाहों से मेरी तरफ देखा था,‘‘हम क्या यश के लिए तुम्हारी फीलिंग्स जानते नही बेटा। बचपन का साथ है तुम दोनों का। छोटी बड़ी हर बात में यश का मुह देखती रही हो तुम।’’
मेरे मन में झुंझलाहट भरने लगी थी,‘‘बुआ ऐसा कुछ भी नही है। आप लोग भी न जाने क्या क्या सोच लेते हैं।’’
बुआ ने जैसे मेरी बात पर ध्यान ही नहीं दिया था,‘‘क्या कमी थी अम्बिका में जो समय आने पर मिसेज़ सहगल ने उसे यूॅ दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया।’’
‘‘क्या कमी थी ?’’मैं सोचती हॅू। बुआ ने गौरी को देखा होता तो शायद यह बात ऐसे न कह पातीं। वैसे भी कमी का भी क्या कोई एक अकेला आयाम होता है...उसके तो न जाने कितने मापदण्ड होते हैं...शायद अनगिनत। अचानक याद आया था कि उस दिन बुआ मेरे घर आयी हुयी थीं। जौहरी आण्टी और शिवानी मेरे पास ही बैठे हुये थे। बुआ शिवानी को कुछ देर तक ध्यान से देखती रही थीं,‘‘आपकी बिटिया तो बहुत सुन्दर है मिसेज़ जौहरी।’’बुआ ने कहा था। शिवानी मुस्कुरा कर सामने से हट गयी थी और जौहरी आण्टी की आखों में चमक आ गयी थी। थोड़ी देर बाद बातों के बीच जौहरी आण्टी बुआ से बुआ के बेटे नितिन के बारे में पूछती रही थीं। पता नहीं अन्जाने ही या जानबूझ कर। जौहरी आण्टी के जाने के बाद बुआ देर तक हॅसती रही थीं,‘‘इनकी बिटिया की ज़रा सी तारीफ क्या कर दी कि लगता है यह तो समधिन बनने के सपने देखने लगीं।’’बुआ के स्वर में कुछ ऐसा भाव था जैसे कह रही हों कि ‘कहॉ राजा भोज कहॉ गंगुआ तेली।’
मुझे न बुआ की बात अच्छी लगी थी न बात कहने का वह ढंग ही। उस समय मेरे मन में भी यही आया था कि क्या कमी है शिवानी में। पर मैं चुप ही रही थी। कुछ कहती तो मैं जानती थी कि बुआ दो चार टिप्पणी और कर देतीं और मुझे बुरा लगता। पर काफी समय तक मेरा मन ख़राब रहा था। आज इतने समय बाद वह बात अचानक याद आ गयी थी। लगा था फिर बुआ क्यों नाराज़ हैं सहगल आण्टी से। वह क्यो नही समझ पा रहीं यह बात। पर बुआ जैसे लोगों के पास सही ग़लत के कोई एक मापदण्ड नही होते।
तभी बुआ की आवाज़ कानों मे पड़ी थी,‘‘अम्मा शायद सही कहती थीं,’’वह चुप हो गयी थीं।मैने उनकी तरफ देखा था।
‘‘क्या बुआ जी ?’’मानसी जी ने पूछा था।
बुआ ने उन की तरफ देखा था,‘‘अम्मा ठीक ही कहती थीं कि दोस्ती और आपसदारी बराबर वालों में ही सही रहती है।’’
मुझे लगा था शायद दादी सही ही कहती थीं। पर फिर वही बात...सही और ग़लत का कहीं कोई एक मापदण्ड होता है। मैं यह बात कभी नही भूल सकती कि सहगल आण्टी की गार्जियनशिप ने मेरी ज़िदगी में बहुत कुछ बेहतर किया है।
तभी बुआ की गुस्से से भरी आवाज़ कानों में पड़ी थी,‘‘सारी दुनिया को छोड़कर भाभी ने उन्हे तुम्हारा गार्जियन बनाया था। वाह रे, क्या गार्जियनशिप निभायी है उन्होने।’’
बुआ अब मेरे लिये अझेल होती जा रही हैं। मैंने दो तीन बार प्रतिवाद करना चाहा था पर बुआ कुछ सुनने के मूड में ही नही हैं। वह तो सामने मानसी जी हैं...कोई और होता तो ? पर शायद वे सब किसी के सामने ऐसे बात न करतीं। वे मानसी जी से मेरी निकटता जानती हैं। तब भी मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं उठ कर खड़ी हो गयी थी,‘‘बुआ नहा लूं ज़रा। मानसी जी के साथ बाहर जाने का प्रोग्राम है। आप भी चलिये न बुआ।’’
‘‘नही बेटा तुम लोग जाओ। फूफा आज घर पर हैं।’’
चलते समय बुआ ने बाहों में ले कर बहुत ही अपनेपन से मेरी पीठ थपथपायी थी,‘‘मैं तो तुम्हे घर ले चलने के लिये आयी थी अम्बिका।पर शायद तुम्हारा मानसी के साथ ज़्यादा मन लगे।’’उस स्पर्श में ईमानदार प्यार है,‘‘तुम्हे जो ज़्यादा अच्छा लगे बेटा। अब उधर कब आओगी?’’ उन्होंने बहुत ही दुलार से पूछा था।
‘‘जल्दी ही आऊॅगी बुआ।’’ मैंने कहा था। बुआ के लिये एक अजब सा लगाव महसूस हुआ था। मैं मन ही मन अगली छुट्टी के दिन ऊंगली पर गिनने लगी थी।
मेरी ऑखों में ऑसू तैरने लगे थे। अचानक मॉ बहुत शिद्दत से याद आयी थीं। आज वह होतीं तो उनके सीने से लग कर मन की बहुत सी पीड़ा उनसे बॉट लेती।
क्लास फोर को लेकर कुछ माह बाद ही एक बार फिर प्रिंसिपल दीपा वर्मा और प्रबंधक गुप्ता के बीच तनाव हुआ था। कालेज में चपरासी की एक पोस्ट ख़ाली हुयी थी। प्रबंधक गुप्ता ने दीपा दी को बुलावाया था। नियमानुसार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नियुक्ति का पूरा अधिकार प्राचार्या को होता है। वह ‘‘वन मैन’’ कमेटी होती है। उसमें प्रबंध तंत्र का कोई हस्तक्षेप नही होता। प्रबंधक गुप्ता ने दीपा दी को बुला कर पर्ची पर एक नाम लिखकर दिया था,‘‘ज़रा इसको देख लीजिएगा। यह मेरे घर पर काम कर रहा है। मैंने इससे हॉ कह दिया है।’’ उन्होने बड़े अधिकार से कहा था।
दीपा दी को लगा था कि पूरी स्थिति अभी इसी क्षण स्पष्ट कर देना ही सही है,‘‘मैं इसका ज़रूर कर दूॅगी। पर इस बार नहीं,अगली बार। हमारे यहॉ बहुत जल्दी ही दो पोस्ट और आने वाली हैं। हमारी लाइब्रेरी में आठ साल से एक लड़का डेली वेजेस पर काम कर रहा है। मैं उसे न जाने कब से रैगुलराइज़ करना चाह रही हॅू। अभी नही किया तो वह ‘दो महीने में एज बार’ हो जाएगा। उसका बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा। बहुत अच्छा वर्कर है, बहुत ईमानदार। उसकी उम्र न निकल जाए इसलिए बहुत दौड़ भाग कर यह पोस्ट मैंने जल्दी एप्रूव करायी है।’’
गुप्ता हॅसे थे,‘‘अरे भई आप उससे पार्ट टाइम काम करा रही थीं तो क्या उसे तन्ख़ा तो मिल रही थी न। इसका यह मतलब भी नही कि उसका आने वाली परमानैन्ट पोस्ट पर हक बन गया।’’
‘‘पर यह उसके साथ अन्याय ही तो होगा। पूरे क्लास फोर का एडमिस्ट्रेशन पर से भरोसा उठ जाएगा। फिर मैं अपने हाथां से उसके साथ यह अन्याय नही कर सकती।’’
‘‘दीपा जी आप बहुत सोचती हैं। इस क्लास को सिर पर चढ़ाने की कोई ज़रुरत नही है। आप वही करिए जो आपको’’ कुछ क्षण के लिए वे रुके थे,‘‘और हम सब को सूट करता है।’’
दीदी को लगा था जैसे उनके स्वर में हल्की सी धमकी है। कुछ क्षण को दीपा दी ने सोचा था,‘‘ठीक है मैं देखूॅगी’’ कह कर वे उठ कर खड़ी हो गयी थीं। उन्होने लौट कर आ कर यह बात हम लोगों को बतायी थी और यह भी कहा था कि वे जानती हैं कि इस बहस से कोई फायदा नहीं था उससे स्थितियॉ बिगड़ने का ख़तरा भी हो सकता था। पर उन्होने उसी क्षण तय कर लिया था कि उन्हे जो करना है वह करके वे कागज़ ज़ोनल आफिस को भेज देंगी,‘‘मुझे केवल राम प्रसाद का एपायन्टमैंण्ट करना है। उसके बाद जो भी पोस्ट आऐंगी उस पर यह लोग चाहे जिसका कराऐं मुझे फरक नहीं पड़ता। जो कहेंगे वह मैं कर दूंगी।’’
‘‘क्यो दीदी तब भी आप उनकी मनमानी क्यों चलने देंगी। यह कोई बात नही हुयी।’’मानसी ने उनका विरोध किया था।
‘‘नहीं मानसी। मेरा कोई कैन्डिडेट नही है। बस राम प्रसाद के साथ मैं अन्याय नही होने दे सकती।’’ वे थोड़ी देर चुप रही थीं। दुबारा बोलीं तो उनकी आवाज़ बेहद थकी और बुझी सी लगी थी,‘‘बात बात में तनाव लेना आसान है क्या ? वह मैं चाहती भी नहीं। फिर उससे फायदा। उन के कैन्डिडेट का करने मे मुझे कोई ईगो प्राब्लम भी नही है।’’
दूसरे दिन उन्होंने अपने साथ मदद के लिए किसी बाबू को नही बैठाया था और अपायन्टमैंन्ट लैटर स्वयं सील करके वे उसे क्षेत्रीय कार्यालय ले गयी थीं और क्षेत्रीय अधिकारी से उसके तुरन्त निस्तारण की बात भी कर ली थी। इसके बाद वे निश्चिंत हो गयी थीं। उन्होने अपने धर्म का निर्वाह कर लिया था अब आगे जो भी तांडव होगा उसके बारे मे उस समय सोच कर वह अपना मन ख़राब नही करना चाहती थीं। हाल फिलहाल उन के मन मे सही के साथ खड़े रह पाने की तसल्ली थी।
Sumati Saxena Lal.
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