एक बूँद इश्क - 12 Chaya Agarwal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक बूँद इश्क - 12

एक बूँद इश्क

(12)

उसका बेपरवाह उन्माद जोर-जोर से गरज रहा है। परेश हड़बड़ा कर उठ बैठा है- "रीमा...रीमा.....क्या हुआ है तुम्हें???"

गणेश बुरी तरह घबरा गया है उसी के लाये तोहफे की बजह से रीमा की हालत बिगड़ी है। वह खुद को अपराधी मान कर काँप रहा है, नदी वाली घटना बिल्कुल ऐसी ही थी। बस इतना शुक्र था आज वह अकेला नही है।

परेश ने गणेश को पानी देने का इशारा किया। तब तक रीमा बेसुध होकर परेश की बाँहों में झूल चुकी है। सहारा देकर बैड पर लिटा दिया।

गणेश लगातार पानी के छीटें मार रहा है और परेश उसकी हथेलियों को रगड़ कर गरम कर रहा है। क्षण भर में उस कमरें का रुख ही बदल गया।

गणेश ने काउंटर से फोन करके बैध जी को इत्तला कर दी है। रिजार्ट का मैनेजर, और कुछ स्टाफ कमरें में जमा है। सब दबी जुबान से काना- फूसी कर रहे हैं। बैजू और रीमा के बीच संबंधों के चर्चे अब उड़ने लगे हैं। उनमें से कोई भी बैजू को नही जानता, 'फिर यह शहर से आई मेमशाव बैजू को क्यों ढूँढ रही हैं?' सभी के मुँह पर एक ही सवाल है। आखिर क्या रिश्ता है इन दोनों का?

यह एक ऐसी अनसुनी कहानी है जो आज तक इस गाँव में कभी नही घटी...'फिर मेमशाव क्या रिश्ता लेकर आई हैं हमारे गाँव यह तथाकथित बैजू से?' सभी अपनी तरह से सोच रहे हैं। कोई गहरे उतरा है तो कोई उथला ही मान कर चला गया हैं।

बैध जी ने नाड़ी जाँच ली, सब ठीक है उस दिन की तरह ही- "चिन्तित न हों कुछ ही देर में होश आ जायेगा।"

फिर से वह वही सलाह देकर चले गये कि- "शहर के किसी बड़े डॉक्टर को दिखाना ठीक रहेगा।"

अभी रात बाकी है। गणेश रिजार्ट का कुछ काम निबटा कर फिर रीमा के पास आ गया है। वह बेहद परेशान है। परेश कमरें में लगातार चहल-कदमी कर रहा है। बीच-बीच में वह रीमा को देख रहा है। सब लोग चले गये, अकेला गणेश गमगीन अवस्था में एक कोनें में बैठा ईश्वर से प्रार्थना कर रहा है-

"हे जागेश्वर बाबा! बिटिया को जल्दी शे ठीक कर दो..हमारी जिन्दगी भर की पूजा प्रार्थना ले लो..बिटिया को ठीक कर दो..उन्हें उनकी खुशियाँ वापस कर दो प्रभु....उनकी जितनी भी यादें हैं सब भुलवा दो बाबा..वह अपनी वर्तमान जिन्दगी को जियें और वापस लौट आयें....बैजू को उनके दिमाग से निकाल दो बाबा।"

रात भर रीमा सोती रही। उसे रात की घटना बिल्कुल याद नही। सारी स्मृतियां विलुप्त हो चुकी हैं। रीमा के समक्ष उन पर चर्चा करना उचित नही। गणेश, शंकर और काबेरी विदाई के लिये रिजार्ट पहुँच चुके हैं। सभी के चेहरे पर उदासी है। काबेरी ने उपहार स्वरुप अपनी भुजनी (कान में पहनने वाला एक आभूषण) भेंट करनी चाही थी मगर गणेश ने रात घांघरी वाली घटना बता कर मना कर दिया। वह लोग उसकी सलामती चाहते हैं बस। उपहार का क्या है? वह तो यादें हैं जो हमेशा रहेगीं। न जाने क्या निचोड़ कर ले जा रही है रीमा? काबेरी की डबडबाई आँखें धुँधला रही हैं। जैसे वह अपनी बेटी की विदाई में हो। गणेश की शून्यता किसी से छुपी नही है। वह और शंकर परेश की मद्द कर बैग गाड़ी तक पहुँचा रहे हैं।

रीमा इस तिलिस्मी दुनिया के दूसरे मुहाने पर खड़ी है जहाँ आँख में आँसू नही होते, नयन बस द्रष्टा होते हैं। ऐसी रिक्तता, जिसने शरीर को शिथिल कर दिया है। वह अब दोबारा कब मिलेगी किसी को नही पता?

रीमा की शून्यता छुप न सकी। काबेरी ने उसे आगे बढ़ कर गले लगा लिया, वह भी लिपटी रही। शंकर का आभार व्यक्त किया और गणेश को देख कर हाथ जोड़ दिये। गणेश को उससे ऐसी उम्मीद नही थी। रीमा भी तान्या की तरह ही निष्ठुर हो गयी है। न तो वह गणेश को देख कर भावुक हुई, न रोई, न कुछ कहा...ऐसा औपचारिक व्यवहार? गणेश को उम्मीद नही थी। खैर, वह गरीब लोग हैं न जाने कितने लोग आते हैं और चले जाते हैं रिश्ता जोड़ना उसकी ही कमजोरी थी। अपेक्षायें भी उसी की हैं फिर रीमा का क्या दोष?

भावनाओं का मोम कहीं बहने न लगे, गणेश व्यर्थ ही बोलना लगा- "सब ठीक तो है न? रास्ते के लिये कुछ काफल और लीची डिक्की में रखवा दी हैं साहब"

परेश अहसानमंद सा खड़ा है । उसने अपना पर्स खोल कर कुछ रुपये निकाल कर गणेश की तरफ बढ़ा दिये-

"यह रख लो, कीमत नही है उपहार है हमारी तरफ से।"

गणेश ने खुद को अपमानित महसूस किया और फिर भावनाओं का बाँध टूट पड़ा-

"साहब, बिटिया माना है हमने मेमशाव को....गरीब लोग हैं बेटी को खाली विदा कैसे करते? बस जो बन पड़ा ले आये हैं, अब यह पैसे देकर हमारा अपमान मत करिये।"

आज पहली बार परेश की आँखें भी भीगी हैं, वह लज्जित है, बेशक उसकी भावना मूल्य चुकाने की नही थी मगर किया तो उसने वही न जो उनकी भावना को आहत करे?

"हमें माफ करें गणेश.....गणेश दादा, हमारा मकसद आपका दिल दुखाना नही है बस उपहार ....."

उसकी बात को काट कर शंकर ने कहा- "हमारी बिटिया जल्दी से अच्छी हो जाये यही उपहार होगा हमारा।"

सभी का मन भारी है। माहौल गमगीन है बिल्कुल बेटी की विदाई जैसा भारीपन। रीमा गाड़ी में बैठ चुकी है और परेश ने भी ड्राइविग सीट संभाल ली है। रिजार्ट का पेमेंट, काउंटर पर पहले ही हो चुका है। चलते-चलते परेश ने सबके साथ एक ग्रुप फोटोग्राफ ले ली है। जाने-अनजाने परेश को भी वहाँ एक आत्मियता की जो अनुभूति हुई वह अवर्णनीय है। भले ही अपने उसूलों के चलते वह उन्हें स्वीकर नही करता, लेकिन सच अपने रास्तें तलाश ही लेता है। अनुग्रहित परेश ने बारी-बारी से सबको पलट कर देखा और बायें पैर से एक्सीलेटर दे दिया।

अपने पीछे असीम संवेदनाई सैलाब को छोड़ती हुई गाड़ी रिजार्ट से आगे बढ़ने लगी। बाहर भी मौन है और भीतर भी ठहराव। यह ठहराव सुकून का नही, खालीपन का है। स्नेहिल सुख की लहरों ने तटों को छोड़ दिया था। अधभीगे गणेश, काबेरी और शंकर अपने वास्तविक दुनिया में लौटने लगे।

गाड़ी रिजार्ट, कोसानी और उन सुनहरी पहाड़ियों को पीछे धकेलती लगातार आगे बढ़ती जा रही है। ढलान पर उतरते वक्त शारीरिक भार हीनता के साथ मन भी भार शून्य में चला जाता है। ऐसे में शाब्दिक बुहारी स्वतः ही लगती है। फिर से भराव समय लेता है। परेश सन्तुष्ट है कि रीमा ने चलने में आना-कानी नही की। उसे भय था उसके बज्र निर्णयों का, जहाँ एक ओर वह अत्यधिक कमजोर है वहीं दूसरी ओर भावुकता के परिप्रेक्ष्य में अडिग भी।

दिल्ली आने में अभी समय है, फिर लगातार गाड़ी चलाना भी ठीक नही। एक-दो जगह ब्रेक लेते हुये चाय-नाश्तें के लिये रूके भी, मगर रीमा ने कुछ नही खाया। जैसे वह लम्बी बीमारी से उठी है।

वहीं नैसर्गिक सौन्दर्य, वही सड़कें, वही आसमान और वही वादियां सब एक-एक कर पीछे छूटते जा रहे है लेकिन वह वैसे नही हैं जैसी जाते वक्त थे खजाना लुट जाने के उपरांत जैसे मन चित्कारता है वैसा ही अवसाद का प्रवाह है। उसकी खामोशी में तनावपूर्ण भय है जिसका सिरा कहीं खो गया है।

परेश के दिल की हलचल सब सामान्य होने का सपना बुन रही है। जबकि उलझनें अब पहले से ज्यादा विस्तार ले चुकी हैं- "डॉक्टर का प्रिसकिप्शन न जाने क्या होगा? उसके जीवन में किसी और पुरुष का पदार्पण है या अतीत का भूचाल? कौन यकीन करेगा इस अविश्वसनीय कहानी पर? वह भी आज के वैज्ञानिक युग में....जहाँ आदमी चाँद पर पहुँच गया...दूसरे ग्रहों पर बस्ती बसाने की सोच रहा है......हाथ में दुनिया सिमट कर आ गयी.......जैविक हथियार की तैयारी में लगें हैं लोग.......ऐसे में यह कहानी उपहास न होगी?? पढाई- लिखाई पर धब्बा न कहलायेगी?? डॉक्टर भी हँसेगा मेरी अन्धविश्वासी मूर्खता पर....और घर के लोग, या तो सहानुभूति बरसायेगें या फिर उपहास करेगें....सामने हमदर्दी भी हो तो भी पीठ पीछे तरीका बदल जाता है यह इन्सानी फितरत है।"

परेश गाड़ी चला जरूर रहा है मगर पूरा जहान उसके दिमाग में छाया हुआ है।

समय प्रतिकूल हो तो भारी होता है पर कट ही जाता है। दिल्ली करीब है, इस तनावपूर्ण सफर के दौरान, जरूरी बातों के अलावा रीमा और उसके बीच और कोई बात नही हुई। हालात को देखते हुये यही श्रेयस्कर था।

क्रमशः