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कहाँ से छेड़ूं फ़साना

सुकून-ए-दिल के लिए कुछ तो एहतमाम करूं

ज़रा नज़र जो मिले तो फिर उन्हें सलाम करूं

मुझे तो होश नहीं आप मशविरा दीजै

कहां से छेड़ूं फसाना कहां तमाम करूं


अखबार के प्रतिनिधी से सौम्या की सफलता पर बातचीत के दौरान मेरे हाठों पर अनायास ही ये पंक्तियां चली आईं। इन्हें लिखते समय शायर के मन में चाहे कुछ भी रहा हो पर मेरी आंखों के सामने तो सिर्फ और सिर्फ सौम्या ही थी जो अपने मुख पर एक तेज और होठों पर मुस्कान लिए आगंतुकों से बधाई स्वीकार कर रही थी। आज खुशी के इस मौके पर मुझे बरसों पहले लिये फैसले के लिए मम्मा-पापा पर गर्व हो रहा था और कुछ हद तक खुद पर भी कि मैने उसमें उनका साथ दिया था।

हमारे घर में बहुत भीड़ थी। सुबह से बधाई देने वालों का तांता सा लगा था। बात ही कुछ ऐसी थी मेरी छोटी बहन सौम्या आर. जे. एस. की परीक्षा पास कर मजिस्ट्रेट बन गई थी। इस खुशखबरी ने उस वासंती सुबह को और भी खूबसूरत बना दिया था। सबसे बधाई बटोरते पापा की आंखों में सौम्या के लिए गर्व की अनुभूती देख कर मुझे बेहद खुशी हो रही थी और साथ ही थोड़ी सी जलन भी। हां जलन! मैं पापा की लाडली बेटी विधी, जब कैरियर चुनने का वक्त आया तो उन्हीं की तरह मैंने भी वकील बनना ही पसंद किया मगर यह‘ऑल टाइम फेवरेट’सौम्या तो मुझसे भी दो कदम आगे चली गई।

"मेरी सौम्या बिल्कुल विधी की परछाई है।" मम्मा कह रही थीं, मैंने उनकी ओर आश्चर्य से देखा तो वह शरारत से मुस्कुरा दी। मम्मा का यह डायलोग मैं बचपन से सुनती आ रही हूं पता नहीं उन्हें सौम्या मेरी परछाई क्यों लगती है। असल में तो हम दोनों बिल्कुल अलग हैं। मैं पूर्व और वह पश्चिम। मैं एकदम शांत, अनुशासित और सलीका पसंद हूं। जबकी सौम्या लापरवाह व नटखट है। और यह भी मम्मा ही कहती हैं, मैं नहीं।

सौम्या बचपन में बहुत शरारती थी, सारा दिन धमाचौकड़ी मचाती रहती थी। सौम्या की शरारतें याद करते करते मैं बचपन की गलियों में पहुंच गई। वह पहले पूरा घर फैला देती और जब पूछा जाता ‘ये किसने किया’तो डांट से बचने के लिए अपनी छोटी सी उंगली मेरी ओर करके कह देती‘ईदी।' मम्मा पापा उसकी इस हरकत पर हंस हंस कर दोहरे हो जाते और मैं कुढ कर रह जाती।

मेरे बड़ा होने के बाद अपने जीवन में आया खालीपन मेरे माता पिता शायद सौम्या के साथ खेल कर भरना चाहते थे। पर मैं थी कि उनका प्यार किसी के साथ बांटने को तैयार ही नहीं थी, सौम्या के साथ तो बिल्कुल भी नहीं। इसीलिए अकसर मैं आक्रोश में भर कर किसी ना किसी बहाने से उसकी पिटाई कर देती। वह रो देती और मम्मा मेरी पेशी पापा की अदालत में कर देती। पापा से डांट खा कर मैं गुस्से में बिना कुछ खाए ही स्कूल चली जाती, पर मेरा गुस्सा अधिक समय तक नहीं चल पाता, शाम को भूख से बेहाल होकर मैं मम्मा से सॉरी कह देती और फिर उनके बनाये स्वादिष्ट नाश्ते पर टूट पड़ती।

सौम्या के कारण मेरी जिंदगी बहुत उलझ गई थी और मैं चाहती थी वह हमसे दूर बहुत दूर चली जाए ताकि मेरे माता-पिता फिर से सिर्फ मेरे हो जाएं। मगर अकसर जो इनसान चाहत है वह नहीं होता और हार कर उसे अपने हालात से समझौता करना पड़ता है, मेरे साथ भी हुआ। सौम्या मेरे करीब और भी करीब आ गई।

उस दिन की सर्द सुबह इतनी सुहानी ना थी बल्कि दर्द और भय के कोहरे में लिपटी सी थी। मुझे आज भी याद है उस दिन इतवार था, हम नानी के घर जाने की तैयारी कर रहे थे। पापा कुछ काम से बाहर गए थे और मुझे उनके आने का बेसब्री से इंतज़ार था। फोन की घंटी बजी, शायद पापा का था। मम्मा ने फोन उठाया और बात करते करते चीख पड़ीं। कुछ देर में मम्मा मुझे साथ लेकर हॉस्पिटल रवाना हो गई।

मुझे ऑटो वाले के पैसे देने को कह वो दौड़ कर हॉस्पिटल के अंदर चली गईं। पापा वहां पहले से मौजूद थे। हमारे पड़ोसी रमन अंकल और प्राची आंटी का एक्सिडेंट हो गया था। बाजा़र जाते हुए उनका स्कूटर ट्रक से टकरा गया। रमन अंकल तो वहीं काल के गाल में समा गए, प्राची आंटी अभी जीवित थीं, किन्तु उनकी हालत बेहद गंभीर थी। इतने भयंकर हादसे में भी उनकी ढाई साल की बेटी सौम्या को खरोंच तक नहीं आई थी और यह किसी चमत्कार से कम नहीं था।

बुझती जीवन ज्योति के बीच प्राची आंटी की आंखों में अपनी बेटी की फिक्र थी। वह नन्हीं सी बच्ची एक तरफ बेंच पर सहमी सी बैठी थी। जाने आसपास के माहौल का असर था या अपनों के खो जाने का दुख जो उसकी आखों से आंसू बन कर टपक रहा था। ‘ईदी’ कहते हुए सौम्या ने मेरी ओर अपने दोनों हाथ फैला दिए, मैं उसकी ओर बढी तो वह मेरी गोद में समा गई। आज पहली बार मुझे उस पर प्यार आया था। मैं उसे लेकर घर आ गई। उस दिन शाम को प्राची अांटी की आंखें भी हमेशा के लिए बंद हो गईं।

इतनी छोटी उम्र में माता-पिता खो चुकी उस बच्ची का अब इस दुनिया में कोई नहीं था। रिश्तेदार उसके साथ सहानुभूति तो रख रहे थे किन्तु उसकी ज़िम्मेदारी लेने से कतरा रहे थे। ऐसे में हालात को देखते हुए पापा ने सौम्या को गोद लेने के बारे में सोचने लगे थे। मम्मा भी उनसे सहमत तो थीं मगर मेरी प्रतिकृया को लेकर चिंतित भी थी। मेरी मौन स्विकृति ने उनके हर संशय का निवारण कर दिया और सौम्या हमारे परिवार की स्थायी सदस्य बन कर हमारे घर आ गई। उसकी मासूम शरारतों की शिकार अब भी सबसे अधिक मैं ही बनती थी किन्तु अब मुझे बुरा नहीं लगता था। मैंने अब उसे दिल से अपना लिया था।

सौम्या जैसी पहले थी वैसी ही अब भी है उतनी ही शरारती उतनी ही नटखट। अगर हमारी ज़िंदगी में कुछ बदला था तो सिर्फ इतना कि अब सौम्या अपने जन्म के सत्य से परिचित है। रमन अंकल की एक दूर की रिश्तेदार का किसी काम से इस शहर में आना हुआ था। वो हमारे घर भी मिलने आईं थी। सौम्या को अपनी आंखों के सामने देख वे अपनी भावनाओं पर काबू ना रख सकीं और आंखों से बहते आंसुओं के बीच सारी कहानी उसे सुना गईं।

उस दिन हमारी सौम्या टूट कर बिखर गई थी। फूट फूट कर रोई और ना जाने कितने ही दिनों तक गुमसुम रही। एक बार तो लगा था हमने शायद सौम्या को खो दिया। हमने कैसे उसे संभला ये हम ही जानते हैं। पर धीरे धीरे वह संभल गई और जब संभली तो हमारे और भी ज्यादा करीब हो गई। इसके लिए भी रमन अंकल की उन्हीं रिश्तेदार का शुक्रिया क्योंकि उन्होंने सौम्या सारा सच इमानदारी से बताया था, कुछ भी छुपा ना रखा।

“दीदी सबने मुझे कॉंग्रेचुलेट किया पर आपने अब तक नहीं किया।" बार बार पलकें झपका कर सौम्या रूंआसी मुखमुद्रा बनाने की असफल कोशिश कर रही थी।

“लो! शुरू हो गई इसकी नौटंकी।" पापा के होठों से निकले शब्द अभी पूरे भी नहीं हुए थे कि वह खिलखिलाती हुई मेरी बाहों में समा गई बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन में आई थी, बस फर्क था तो इतना कि तब उसकी आंखों में दर्द के आंसू थे जबकी आज वह सफलता की खुशी से सराबोर थीं।


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