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फादर्स डे

फादर्स डे

(सरिता में प्रकाशित)

अंकिता भार्गव

मुझे रात को जल्दी सोने की आदत है। अपने बेटा बहू की तरह मैं देर रात तक जागना पसंद नहीं करता। शाम का खाना जल्दी खाना और खाने के बाद थोड़ी देर टहलने जाना और फिर एक गहरी निद्रा का आनंद उठाने के लिए बिस्तर पर लेट जाना यह मेरी हर रोज की दिनचर्या है। जिसमें मैं थोड़ा सा भी परिवर्तन नहीं करता। उस दिन भी मैं अपनी इसी दिनचर्या के अनुसार अपने बिस्तर पर आकर लेट गया। किन्तु जाने क्या हुआ आज मुझे नींद ही नहीं आ रही थी। बिस्तर पर करवटें बदलते बदलते जब मैं उकता गया तो सोचा क्यों ना कुछ देर पोता पोती के साथ खेल कर मन बहला लूं।

मैं अपने पोता पोती के कमरे में पहुंचा तब वो लोग कुछ काम कर रहे थे। पहले तो मुझे लगा कि शायद वो पढाई कर रहे हैं और उनकी पढाई में खलल डालना उचित नहीं होगा। मगर फिर ध्यान से देखने पर पता चला कि वो दोनों तो चित्रकारी कर रहे थे। मैं उनके पीछे जाकर खड़ा हो गया और उनकी चित्रकारी देखने लगा। जल्द ही उन दोनों को अहसास हो गया कि मैं उनके पीछे खड़ा हूं। उन्होंने कुछ आश्चर्य से मेरी ओर देखा मानो पूछ रहे हों कि ‘आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

”क्या कर रहे हो बच्चो किसका चित्र बना रहे जरा मुझे भी दिखाओ?“

आंखें ही आंखें में दोनों की कुछ इशारेबाजी हुई और फिर दोनों लगभग एकसाथ बोले,”कुछ खास नहीं दादाजी, हमें स्कूल में एक प्रोजेक्ट मिला है वही कर रहे हैं।"

”अच्छा, लाओ मुझे दिखाओ क्या प्रोजेक्ट मिला है? मैं मदद कर देता हूं।"

”नहीं, नहीं दादाजी मुश्किल नहीं है हम कर लेंगे, वैसे भी थोड़ा काम ही बचा है। आप अभी तक सोए नहीं, काफी देर हो गई है।“ मेरी पोती ने पूछा।

”मैं पानी पीने उठा था। तुम्हारे कमरे की लाइट जल रही थी इसलिए तुमसे मिलने आ गया।“

”मैं आपके लिए पानी लाती हूं।“ मेरी पोती ने उठते हुए कहा।

”नहीं रहने दो मैं पानी पी चुका हूं।“

”मैं आपको कमरे तक छोड़ आऊं दादाजी।“ मेरे पोते ने बड़ी मासूमियत से कहा तो मुझे उन दोनों पर बड़ा प्यार आया। मैं उन दोनों के सर पर हाथ फेर कर अपने कमरे में चला आया। यूं तो मेरे पोता पोती बड़े ही सभ्य बच्चे हैं, मेरा हमेशा ही आदर भी करते हैं और मेरी परवाह भी। किन्तु उनका आज का व्यवहार मेरे प्रति कतई सम्मान प्रदर्शन का नहीं था अपितु वे दोनों तो मुझे जल्दी से जल्दी अपने कमरे से बाहर करना चाहते थे।

खैर मैं वापस अपने कमरे में आ गया। हालांकि बच्चों ने तो छुपाने की भरसक कोशिश की थी पर मुझे पता चल ही गया कि वो दोनों क्या कर रहे थे। वो ‘फादर्स डे’ के उपलक्ष्य में अपने पापा के लिए कार्ड बना रहे थे और कहीं मैं उनके इस सरप्राइज के विषय में जान ना जाऊं इसीलिए उन्होंने जल्द से जल्द मुझे अपने कमरे से टालने की कोशिश की।

‘फादर्स डे’, जाने क्यों मेरे कदम अपने आप ही मेरी अलमारी की तरफ उठ गए। मैंने अलमारी खेली और उसमें से एक डब्बा निकाला. यह डब्बा टाई का था। मैं डब्बे में से टाई निकाली और उसे प्यार से सहला दिया। यह टाई मुझे मेरे बेटे वरुण ने तोहफे में दी थी। वह इसे ‘फादर्स डे’ के उपलक्ष्य पर इसे मेरे लिए अपनी पहली तनख्वाह से खरीद कर लाया था। हालांकि मुझे इसे कभी पहनने का मौका नहीं मिला किन्तु यह मेरे दिल के बेहद करीब है। मैंने इसे बड़े जतन से संभाल कर रखा है।

सुबह नाश्ते की मेज पर दोनों बच्चों ने अपने पिता को कार्ड भेंट किया। मेरा बेटा कार्ड देखकर अपने बच्चों पर निहाल हो गया। उसने उन दोनों को अपनी गोद में बैठा लिया और उन्हें अपने हाथों से नाश्ता करवाने लगा। बच्चों द्वारा बनाया कार्ड देखने का सौभाग्य मुझे भी मिला। उनके द्वारा बनाई गई अपने बेटे की कार्टून जैसी सूरत देख कर मेरे होठों पर मुस्कान आ गई जिसे मैं बहुत प्रयत्न करके भी अपने बेटे से छुपा नहीं पाया।

”बच्चों की कोशिश बहुत अच्छी थी, हमें उन्हें प्रत्साहित करना चाहिए। प्यार से दिया गया हर तौहफा अनमोल होता है हमें यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए। मगर कुछ लोग दूसरों की भावनाओं को समझते ही नहीं रहता, या तो तौहफा देने वाले को डांट देते हैं या उसका मजाक उड़ाने लगते हैं।“ वरुण ने सख्त षब्दों में अपनी नाराजगी व्यक्त की।

उसकी यह नाराजगी उसके बच्चों के कार्ड का मजाक उड़ाने के कारण नहीं थी। वरन उसकी इस नाराजगी का असली कारण वह टाई थी जिसे खरीदने पर मैंने उसे डांटा था। वह पुराना वाकया हम पिता पुत्र के बीच आज भी मौजूद है। ना उस वाकए को कभी मैं भुला पाया और ना ही कभी ही वो। यह बात उसके दिल में ऐसी घर कर गई कि उसके बाद मेरा बेटा मुझसे दूर हो गया।

हालांकि कोई भी यह कह सकता है कि मुझसे तब बहुत बड़ी गलती हो गई। मैं खुद भी कभी इस बात के लिए स्वयं को माफ नहीं कर सका. सफाई भी क्या दूं जब यह हुआ उस समय मेरे हालातों से वह बिल्कुल अंजान तो नहीं है। एक तो उस समय मेरी आर्थिक स्थिति काफी नाजुक थी उस पर उसकी मां का स्वास्थ्य दिन पर दिन उसका साथ छोड़ रहा था और वह हमारा साथ छोड़ने की तैयारी में थी। ऐसे में इन चोंचलों के लिए जिन्दगी में जगह ही कहां थी।

मैं कुछ कहता और बात और बढती उससे पहले मेरी बहू सुमी हमेशा की तरह फरिश्ते की भांति आगे आई, ”अच्छा अब छोड़ो ये बातें और जल्दी से नाश्ता खत्म करो। फिर बाजार भी जाना है आज बच्चे अपने पापा के लिए दोपहर के खाने में कुछ खास बनाना चाहते हैं।“ वह बातें करते करते सबके लिए नाश्ता भी परोसती जा रही थी। सब पनीर सैंडविच खा रहे थे जबकि मुझे उसने दूध कॉर्नफ्लेक्स खाने को दिया। यह भेदभाव देख कर मुझे बुरा लगा।

वरुण ने बाजार जाने में असमर्थता व्यक्त कर दी। उसे दफ्तर की कोई जरूती फाइल देखनी थी। सुमी भी इतवार की सुबह काफी व्यस्त रहती है, अतः बाजार जाने की जिम्मेदारी मैंने ले ली। सुमी ने सामान की सूची और झोले के साथ यह हिदायत भी दे डाली कि मैं अधिक दूर ना जाकर पास के बाजार से ही सामान ले आऊं।

सुमी की हिदायत के बावजूद मैं दूर सब्जी मंडी चला गया। शायद सुबह की खीज मिटाने और रास्ते में अपने मित्र रामलाल हलवाई की दुकान तक पहुंच कर मेरा सब्र टूट गया और वहां मैंनें डट कर कचौरी और जलेबी का नाश्ता किया। नाश्ता करते समय मैंनें ‘फादर्स डे’ के मौके पर बड़े ही भावपूर्ण तरीके से अपने पिताजी को याद किया और बेटे को दिल से दुआएं दी।

”बड़ी देर लगा दी पापाजी, कहां चले गए थे?“ घर पहुॅंचते ही सुमी ने इस सवाल के साथ मेरा स्वागत किया।

”मैं मंडी चला गया था। वहां सब्जी सस्ती और अच्छी मिलती है ना।“ अपनी इस समझदारी पर दाद मिलने की उम्मीद से मैंने उसकी ओर देखा पर उसने मेरा दिल तोड़ दिया।

”सब्जी लेने ही गए थे ना या फिर कुछ और भी...?“ उसके इस आधे अधूरे सवाल का मतलब मैं बखूबी समझ गया था और प्रतिकृया स्वरूप उसे घूर कर भी देखना चाहता था मगर चोरी पकड़ी जाने के डर से ऐसा कर ना सका और थकान का बहाना बना कर अपने कमरे में चला आया।

रसोई में हंगामा सा मचा हुआ था। बच्चे खाना बना रहे थे और उनके माता पिता उनकी मदद कर रहे थे। पता नहीं खाना ही बना रहे थे या कोई खेल खेल रहे थे मुझे समझ नहीं आया। अच्छा ही हुआ जो मैं बाहर से खा कर आ गया पता नहीं घर में तो आज खाना बनेगा भी या नहीं।

मेज पर खाना लग चुका था। मेरा पोता मुझे बुलाने आया। मेरा पेट जरा भारी सा हो रहा था, इस समय भोजन करने का बिल्कुल भी मन नहीं था पर मना करने का तो सवाल ही नहीं उठता, कमजोरी मेरी ही थी। मैं मन ही मन अपनी मधुमेह आदि बिमारियों को कोसते हुए जो मुझे अपने बच्चों से झूट बोलने पर मजबूर कर देतीं हैं बाहर चला आया।

यूं तो आज भी मेरे लिए लौकी की सब्जी और चपाती बनी थी पर शायद आज बच्चों को मुझ पर थोड़ा ज्यादा प्यार आ गया इसलिए उन्होंने अपने खाने में से भी थोड़ा सा चखने के लिए दे दिया। खाना बेहद स्वादिष्ट था शायद इसलिए भी कि उसमें बच्चों का प्यार भी मिला था। पर मजा नहीं आ रहा था, और इसका कारण भी मैं जानता था।

”क्या बात है पापाजी आप खाना नहीं खा रहे? अच्छा नहीं लग रहा क्या? “बहू ने मुझे प्लेट में चम्मच घुमाते देख पूछा. वह खोजी नजरों से मुझे देख रही थी। मुझे उसकी इस अदा से बड़ा डर लगता है, लगता है मानो अन्दर झांक कर सारे राज मालुम कर लेगी।

”नहीं बेटे ऐसी कोई बात नहीं है। खाना बहुत अच्छा बना है।“ मैनें जल्दी जल्दी निवाले निगलते हुए कहा। उस समय मुझे अपनी पोल खुलने से अधिक फिक्र अपने बच्चों की भावनाओं की थी। मैंने सबके साथ भरपेट भोजन किया और दिल खोल कर भेजन की तारीफ भी की।

शाम को बच्चों का बाहर जाने का कार्यक्रम था। जब वो लोग मुझसे इजाजत लेने आए तब मेरे पेट में बड़े जोर से दर्द हो रहा था। किन्तु मैनें उन्हें इस बाबत बताना ठीक नहीं समझा। खांमखां वो लोग अपना कार्यक्रम रद्द कर देते। मेरे पोता पोती मुझे बाय बोल रहे थे और मैं किसी तरह अपने दर्द को दबाए मुस्कुराने की कोशिश कर रहा था। सुमी अब भी मेरे लिए खाना बना कर गई थी। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई यह देख कर कि वह मेरी हर छोटी बड़ी जरूरतों का पूरे मनोयोग से ध्यान रखती है। मन तो किया कि उसके लिए ही सही दो कोर खा लूं मगर नहीं हुआ मुझसे। हार कर मैं अपने बिस्तर पर पड़ गया।

मैं इतनी तकलीफ में था कि बच्चे कब घर वापस आए मुझे पता ही नहीं चला। मुझे सोया जान उन्होंने भी मुझे नहीं जगाया। मैं रात भर दर्द से तड़पता रहा। सुबह खाई कचौरियां मेरे पेट में कोहराम मचाए हुए थी। ऐसे में ठीक तो सही रहता कि मैं अपने बेटा बहू को जगा देता पर सब थके हुए थे और मुझे उस समय उन्हें परेशान करना ठीक नहीं लगा। मगर परेशान तो वो लोग फिर भी हो गए। मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें मेरी तकलीफ के बारे में पता चल गया। मेरे वॉशरूम से बार बार आती फ्लश की आवाज ने चुगली जो कर दी थी।

वरुण और सुमी मेरे कमरे में चले आए। मेरी हालत देख कर बेचारे घबरा गए। वो तो उसी समय डॉक्टर को बुलाना चाहते थे मगर इतनी रात डॉक्टर का आना मुश्किल था अतः खुद ही मेरी तिमारदारी में जुट गए। मुझे उस समय अपने बच्चों पर प्यार आ रहा था और शायद उन्हें क्रोध तभी तो वरुण मुझे घूर कर देख रहा था। मुझे उसकी इस मुखमुद्रा से डर लगता है अतः उसके गुस्से से खुदको बचाने के लिए मैं आंखें बंद करके लेट गया। थोड़ी देर में मुझे दवा के कारण नींद आ गई।

दस बजे के करीब मेरी नींद टूटी। मैं चौंक कर उठ बैठा सुमी के दफ्तर जाने का समय हो रहा था। आज मैं अपनी आदत के विपरीत बहुत देर तक सोता रहा। मैंने उठने की कोशिश की पर उठ नहीं पाया। बड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी. कुछ ही देर में सुमी मुझे देखने आई। मुझे जागा हुआ देख कर वह चाय बना लाई तब तक वरुण ने मुझे सहारा देकर बैठा दिया। दोनों को उस समय घर के कपड़ों में देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ,”तुम दोनों अब तक तैयार नहीं हुए, आज ऑफिस नहीं जाना है क्या?“

”आपको ऐसी हालत में छोड़ कर कैसे जाएं। आज हम दोनों ने दफ्तर से छुट्टी ले ली है।“ वरुण ने जवाब दिया।

”नहीं बेटा इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं अब ठीक महसूस कर रहा हूं। तुम लोग आराम से दफ्तर जाओ।" जाने मैं बच्चों से झूठ बोल रहा था या फिर खुद से मुझे समझ नहीं आया।

"हां पता है हमें कितना ठीक महसूस कर रहें हैं आप। आपका चेहरा देख कर ही पता चल रहा है। अब आप कुछ नहीं बोलेंगे सिर्फ आराम करेंगे। आज हम आपको छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे। पूरा दिन आप पर नजर रखेंगे और आप वो करेंगे जो हम कहेंगे। चलिए लेट जाइए।“ बहू की यह मीठी झिड़की मुझे अच्छी लगी। इसके बाद दोनों पूरा दिन मेरी इस तरह देखभाल करते रहे जैसे कि मैं एक छोटा बच्चा हूं और वो दोनों मेरे अभिभावक, और मैं भी उनकी हर आज्ञा का पालन करता रहा।

शाम तक मेरी हालत में काफी सुधार हो चुका था। मैं अपने कमरे में बैठे बैठे बोर हो गया था अतः उठ कर हॉल में चला आया। मुझे देख कर सुमी ने चाय का कप और एक तश्तरी में बिस्कुट परोस कर मेरे सामने रख दिए। मुझे बड़ी हसरत से पेस्ट्री और समोसों की ओर ताकते देख उसके होंठों पर एक शरारती मुस्कान आ गई जिसे देख कर मैं शर्मा गया।

”कल आप कहां गए थे पापा?“वरुण ने मेरी ओर प्रश्न दागा।

उसके इस सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था इसलिए कुछ पल के लिए तो हड़बड़ा गया पर फिर विरोध करने वाले अंदाज में बोला,”तुम्हारी याददाश्त अभी से कमजोर हो गई है क्या? याद नहीं तुम्हें सब्जी लेने गया था। बहू ने ही तो भेजा था।“

”मेरी याददाश्त बिल्कुल ठीक है। आपकी बहू ने तो आपको पास वाले बाजार भेजा था पर आप रामलाल चाचा की दुकान पर पहुंच गए। पूछ सकता हूं क्यों?“

”मैं रामलाल की दुकान पर नहीं मंडी गया था अच्छी और सस्ती सब्जी लेने।“ मैं जानता था अब मेरी झूठ ज्यादा देर तक नहीं चलेगा पर फिर भी मैंनें एक आखिरी कोशिश की।

”मेरे दोस्त दिनेश ने आपको रामलाल चाचा की दुकान पर देखा था वो भी जलेबी और कचौरी खाते हुए।“

मेरे बेटे के बिगड़े तेवरों ने मुझे सीधा कर दिया। दिनेश को तो मैनें भी देखा था उस दिन पर यह नहीं सोचा था कि वह मेरे बेटे से मेरी ही चुगली कर देगा। चुगलखोर कहीं का। आजकल के लड़कों में बड़ां के प्रति आदर सम्मान रहा ही नहीं। मैनें अपने बेटे की ओर देखा वह सच सुनने के इंतजार में लगातार मुझे घूर रहा था। अब और किसी झूठ के लिए जगह नहीं थी, फिर बहाने भी लगभग खत्म हो चुके थे अतः अब सच बोलने में ही भलाई थी।

”कल तुम लोगों को फादर्स डे मनाते देख मेरा भी मन कर गया, मैं वहां फादर्स डे मनाने गया था।“ मेरा यह मासूमियत से भरा जवाब सुन कर मेरी बहू की हंसी छूट गई। जाने उसकी हंसी में क्या था कि पहले मैं और फिर मेरा बेटा भी उसके साथ खुल कर हंस दिए। हम हंसे जा रहे थे और दोनों बच्चे हमारी ओर आश्चर्यचकित से देख रहे थे।

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