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कर्म पथ पर - 51



कर्म पथ पर
Chapter 51



वृंदा दुखी थी‌। उसने लता और अन्य लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए गांव वालों को समझाने का प्रयास किया। पर उन्होंने उसकी बात नहीं मानी। बल्की उन चार लड़कों को भी स्कूल भेजना बंद कर दिया।
वह सोंच रही थी कि जो समाज को एक दिशा दिखाते हैं। उनके भले के लिए काम करते हैं। समाज उनके ही खिलाफ क्यों हो जाता है। उनका अपमान और तिरस्कार क्यों करता है। इतिहास में बहुत से ऐसे उदाहरण हैं जिनमें समाज का ऐसा बर्ताव सामने आया है।
उसने सावित्री बाई फुले का जीवन चरित्र पढ़ा था। स्त्री शिक्षा के विषय में उनका काम अभूतपूर्व था। पर उन्हें उसके लिए कितनी कठिनाइयां सहनी पड़ी थीं।‌
वृंदा अपने में खोई हुई थी। यही सारे विचार उसके मन को मथ रहे थे। जय आंगन में खड़ा चुपचाप उसे देख रहा था। उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह बहुत व्यथित है।
जय मौरांवा किसी काम से गया था। लौटते हुए यहाँ आ गया था। बंसी ने उसे बताया कि भुवनदा और मदन गांव की किसी सभा में गए हैं। वृंदा दीदी आंगन में बैठी हैं। वह जब यहाँ आया तो वृंदा को किसी गहन विचार में मग्न पाया। उसने टोकना उचित नहीं समझा।
वृंदा की नज़र अचानक जय पर पड़ी। वह चौंक कर बोली,
"तुम....कब आए ?"
"बस कुछ ही क्षणों पहले।"
वृंदा खुद मोंढ़े पर बैठ गई। जय को चारपाई पर बैठने को कहा। जय के बैठने के बाद बोली,
"भुवनदा और मदन हैं नहीं।‌ वो..."
जय ने उसे रोकते हुए कहा,
"बंसी ने बताया। पर ये सभा किस चीज़ के लिए हो रही है ?"
वृंदा ने उसे सारी बात बता दी। सब सुनकर जय बोला,
"तो तुम इसी बात से इतनी अधिक चिंता में थीं ?"
"बात चिंता की है। पता नहीं क्या होगा। आखिर लोग अपना भला बुरा भी क्यों नहीं समझ पाते हैं ? मैं उनके भले की ही तो बात कर रही थी।"
"क्योंकी उनके लिए उनकी परंपराएं ही सब कुछ हैं। उनका भला समझाने के साथ साथ यह समझाना भी आवश्यक है कि हर परंपरा को सहेज कर रखना आवश्यक नहीं है। जो परंपराएं रास्ते की रुकावट बनें उन्हें समाप्त कर देना चाहिए।"
जय की कही बात वृंदा को अच्छी लगी। सचमुच बात तो यही थी। गांव वालों की परंपरा में लड़कियों को पढ़ाने का कोई स्थान नहीं था। इसलिए वो विरोध कर रहे थे। पहले उन्हें यह समझाना आवश्यक था कि लड़कियों की शिक्षा क्यों जरूरी है। तब शायद वो अपनी ‌परंपरा को बदलने को तैयार हो जाएं। उसने जय से कहा,
"बात तो ठीक है। पहले उन्हें जड़ परंपराओं के नुकसान के बारे में बताया जाना चाहिए। उसके बाद ही वो आगे आएंगे।"
"हाँ...पर ये काम इतना आसान नहीं है वृंदा। बहुत धैर्य और साहस की आवश्यकता है इसके लिए। यह सब एकदम से नहीं हो जाएगा।"
वृंदा एक बार फिर जय की इस बात पर विचार करने लगी। जय ने आगे कहा,
"हममें से बहुत से लोगों को लगता है कि अंग्रेज़ो के छोड़कर चले जाने से ही हमारी सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा। पर ऐसा है नहीं।"
"क्यों ?"
"वो इसलिए कि हमारी समस्याओं में से अधिकांश अंग्रेज़ों की पैदा की हुई नहीं हैं। उनमें से बहुत सी हमारे सामाजिक ढांचे की देन हैं।"
वृंदा ने सोंचते हुए कहा,
"सही है। ये जो परंपराएं हैं वो हमारी ही बनाई हुई हैं। इनमें से बहुत सी हमारे आगे बढ़ने में बाधा उत्पन्न करती हैं।"
"बिल्कुल....लता जैसी बच्चियों का बेमेल विवाह करवा देना। विधवा हो जाने पर उन्हें सभी सुखों से दूर कर देना। ये परंपरा तो हमारे समाज की बनाई हुई है। एक बड़े वर्ग को शिक्षा से वंचित रखना, ऊँच नीच का भेदभाव यह सब भी हमारी ही देन है।"
"लेकिन अंग्रेजों ने यूं तो बहुत कुछ बदला। पर इन सबको हटाने में काम क्यों नहीं किया ?"
"अंग्रेज़ ये क्यों करते ? बल्कि इन सबके ऐसे ही चलते रहने में उनका फायदा है। इस तरह वो हम पर आसानी से राज कर सकते हैं। याद रखो वो हम पर राज करने आए थे। हमें सुधारने नहीं।"
वृंदा बड़े ध्यान से उसकी बात सुन रही थी। जय ने याद दिलाते हुए कहा,
"विलास रंगशाला में जब तुम हम लोगों से झगड़ने आई थीं तो तुमने भी तो यही कहा था कि अंग्रेजों ने जो कुछ भी किया वह अपने लाभ के लिए किया है।"
जय के मन में वृंदा की वह छवि फिर से उभर कर आ गई। वह किस तरह से बेधड़क अपना पक्ष रख रही थी। वृंदा ने कहा,
"अगर सती जैसी कुप्रथा के खिलाफ कानून बना है तो उसके लिए हमें ही लड़ाई लड़नी पड़ी।"
"अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है। हमारे लिए अंग्रेजों को भारत से बाहर करने की लड़ाई ज़रूरी है। ताकि कल बागडोर हमारे हाथ में हो तो हम अपनी भलाई के काम स्वयं कर सकें। लेकिन साथ ही ऐसे लोगों को तैयार करना भी बहुत आवश्यक है जो बाद में समाज निर्माण में हमारी सहायता कर सकें।"
"तुमने ये बात पहले भी कही थी जय। मैं वही करने की कोशिश कर रही हूँ।"
"तुम्हारे इस प्रयास की मैं प्रशंसा करता हूँ। पर वर्षों से रूढ़ियों में जकड़े समाज को आसानी से नहीं बदला जा सकता है। बहुत समय लगेगा इसमें। शायद दशक लग जाएं।"
बंसी ने आकर बताया कि भुवनदा और मदन लौट आए हैं।‌ जय दोनों से मिलने के लिए बाहर बैठक में चला गया। वृंदा सबके जलपान की व्यवस्था करने लगी।
जलपान के बाद भुवनदा ने बताया कि गांव वाले इस बात के लिए तैयार हैं कि लड़के फिर से स्कूल आना शुरू कर दें। बल्कि और भी लड़के स्कूल आएंगे। संख्या बढ़ेगी इसलिए स्कूल के लिए गांव के सरपंच अपनी हवेली का एक कमरा देने को तैयार हैं। लेकिन कोई भी अपनी बेटी को स्कूल नहीं भेजना चाहता है। यह सब जान कर वृंदा को बुरा लगा। पर उसे जय की बात याद आ गई कि ये काम धैर्य का है। वह भी धैर्य के साथ गांव वालों को मना लेगी।
रात को खाना खाने के बाद वृंदा, मदन और जय देर तक बातें करते रहे। बातचीत का विषय मुख्यता वही था जो दोपहर को वृंदा और जय के बीच हुई थीं।
वृंदा थक कर सोने चली गईं। उसके जाने के बाद मदन और जय भी छत पर अपनी अपनी चारपाइयों पर लेट गए। कुछ देर तक दोनों शांत लेटे रहे। मदन के मन में एक ही बात चल रही थी। वह जय से पूँछने के लिए परेशान हो रहा था। पर संकोचवश पूँछ नहीं पा रहा था। पर पूँछे बिना रहा भी नहीं जा रहा था।
"जय...सो गए क्या ?"
"नहीं..."
"एक बात कहूँ ?"
"तुम कब मुझसे इतना संकोच करने लगे ?"
मदन चुप हो गया। जय ने कहा,
"कहो भी क्या बात है ?"
"जय तुम वृंदा से अपने मन की बात क्यों नहीं करते। उसे बता दो कि तुम उसे प्यार करते हो। तुमने उसके लिए ही तो अपना घर छोड़ा है।"
जय समझ रहा था कि मदन उससे यही बात करने वाला है। यह बात कई बार उसके मन में भी उठी थी। पर हर बार उसने अपने मन को एक ही जवाब से संतुष्ट किया था। उसने वही जवाब मदन को भी दिया।
"मदन ये सही है कि मैं वृंदा से प्यार करता हूँ। पर घर मैंने इसलिए छोड़ा था कि अपनी पहचान बना सकूँ। ऐसा कुछ कर सकूँ जिससे देश और समाज का कुछ भला हो। पर अभी तक मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया हूँ। जब ऐसा होगा मैं हिम्मत करके उसे सब बता दूँगा।"
"क्या सोंचा है तुमने ? क्या करोगे तुम ?"
"कह नहीं सकता अभी। पर अब और देर नहीं करूँगा। जल्दी ही निर्णय लूँगा।"
"जय एक बार जब तुमने वृंदा से कहा था कि तुम उसकी राह पर चलना चाहते हो तो उसने कहा था कि यह राह सबके लिए खुली है। तो फिर तुम वृंदा की राह पर ही क्यों नहीं चलते हो ?"
मदन का सुझाव जय को अच्छा लगा। वह सोंचने लगा कि इस तरह एक राह पर चलते हुए शायद वह वृंदा के मन में अपनी जगह बना सके।
बहुत देर तक मदन की बात पर विचार करते हुए जय सो गया।

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