एक बूँद इश्क - 7 Chaya Agarwal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक बूँद इश्क - 7

एक बूँद इश्क

(7)

उसे चिन्ता है कल परेश आ जायेगा और वह वापस दिल्ली लौट जायेगी। इन नये रिश्तों का क्या जो अभी-अभी ही बने हैं? पनपने से पहले ही मुरझा न जायेगें? और फिर कौन जाने कब दोबारा आना हो? लेकिन अब परेश को लौटाना संभव भी नही है।

ख्यालों को तिनका-तिनका संजोती रीमा ने तय कर लिया कि आज जी भर जियेगी। काबेरी के परिवार की आत्मियता और उसकी खुश्बू से मन को महकायेगी। गणेश और शंकर से बातों की अंताक्षरी खेलेगी। गणेश ने दो दिन की छुटटी ले ही रखी है सो समय का आभाव भी नही रहेगा। रिजार्ट में वो एक वेटर हैं जहाँ उनकी सीमायें हैं, पर यहाँ पर नही, यहाँ खुल कर बातें की जा सकती हैं। परेश कितना सीमित बोलता है? उसे ज्यादा बोलना पसंद नही। वह इसे समय की बर्बादी कहता है। शादी के बाद हमनें कभी साथ बैठ कर घण्टें भर भी बात नही की अगर हनीमून को छोड़ दें तो।

यह अहसास उससे बिल्कुल इतर है।

आज दोपहर से गणेश और शंकर को भी बतियाने का खूब समय मिला है। गणेश की थकान भी अब उतरने लगी है। शंकर के तीन बेटे और एक बेटी है जिसमें से संतोष तो शहर में पढ़ाई कर रहा है बाकि दो बेटे और एक बेटी घर पर ही हैं। जो रीमा से हिल-मिल गये हैं। दूसरा बेटा चोदह बरस का है जो गाँव के ही स्कूल में पढ़ता है तीसरा बेटा और बाटिया जुडवां हैं जो छटी में पढतें हैं।

कुल मिला कर पूरा परिवार सधा हुआ है। कमाने वाला अकेला शंकर ही है। काबेरी भी समय निकाल कर अपने चाय के खेतों की देखभाल खुद ही करती है। दो बिसवे का छोटा सा जमीन का टुकड़ा है जो पुरखों से मिला है उसमें इतनी आमदनी हो जाती है कि बरस भर की दाले दलहन और तेल खरीदा जा सके। वाकि शंकर भी गणेश की तरह छोटी सी नौकरी करता है। छुटटी के दिन वह भी खेत पर जाता है। इसी तरह उनकी छोटी सी दुनिया चल रही है इस उम्मीद पर कि संतोष पढ़ लिख कर बड़ी नौकरी में लग जायेगा फिर उनके बुरे दिन बुहर जायेगें।

शाम हो चुकी है और छोटे दोनों बच्चे भी घर में ही हैं। बड़ा चेतन बकरियों को चराने निकला है लौटता ही होगा। वह रोज स्कूल से लौट कर बकरियों को लेकर निकल जाता है। शंकर और गणेश सुस्ताने के लिये झोपड़े के बाहर पड़े तख्त पर लेट गये हैं। शाम को सबके आने पर चाय बनती है। वैसे आज घर में एक मेहमान भी है सो कुछ अलग बनाने की इच्छा हो रही है।

काबेरी ने चाय की डेकची चढ़ा दी है और साथ में आलू के पकौड़े की तैयारी भी चल रही है।

"काकी, लाइये मैं कुछ मद्द करूँ? वैसे किचिन का काफी काम आता है मुझे" रीमा ने दुपट्टा कमर में किसी एक्सपर्ट की तरह खोस लिया।

"न..न..बिटियां हमारे यहाँ मेहमान भगवान होता है, तुम जाकर बाहर खुली हवा में घूम आओ। आस-पास ही रहना ताकि बच्चे बुला सकें। तब तक चाय भी बन जायेगी।"

'काबेरी का सुक्षाव अच्छा है। सुबह से कमरें में कैद हूँ। माहौल का जायजा लेने में हर्ज ही क्या है?' वह बाहर आकर चारों तरफ देख रही है हर तरफ पहाड़ जैसे सिर पर ही खड़े हैं और ठीक सामने बल खाती ऊखड़-खाबड़ पखडंडी जो लगता है अपने-अपने झोपड़ों तक आने के लिये खुद ही बनाई गयीं हैं। दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा है एक अकेला शंकर का झोपड़ा है जो दिखाई दे रहा है। वह पखडंडी से आगे बढ़ने ही वाली है कि गणेश ने पुकार कर रोक दिया है- "मेमशाव कहाँ जा रही हो आप? कुछ चाहिये क्या?"

"हाँ दादा, कल तो मैं दिल्ली वापस लौट ही रही हूँ, मेरे पति जो आ रहे हैं लेने। आज जरा इन हवाओं से बातें कर लूँ कल तो नही मिलेगें ये पहाड़, ये रास्तें, ये पंखडंडी और आप लोग।"

रीमा मन में सोच रही है ' मैं खाली हूँ बिल्कुल जितना भर सकूँ भर लूँ...अब न रोको कोई मुझे।'

"मेमशाव शंभाल के, राश्तें मुश्किल हैं और आपको आदत भी नही..कहें तो हम चलें शाथ में?" गणेश तख्त से उठ खड़ा हुआ है।

"ज्यादा दूर नही जाऊँगी आप घबरायें न, बस आस-पास ही हूँ।" रीमा कहती हुई आगे बढ़ गयी है।

गणेश को डर है कि कहीं सुबह वाली घटना की पुनरावृत्ति न हो जाये? नदी किनारे का परिणाम उसके आँखों से गया नही है अभी। कभी वह उसे देख रहा है और कभी उसका फूट-फूट कर रोना...बैजू- बैजू पुकारना और सारी कहानी स्वत:ही व्यान करना...सब घूम रहा है। कुछ भी दिमाग से हटा नही है। उसने भी आज तक ऐसी घटना नही देखी..वास्तव में यह आश्चर्यजनक है। रिजार्ट में काम करते-करते उसे बरसों हो गये। कितने टूरिस्ट आये और चले गये, कभी किसी ने ऐसा आश्चर्य जनक व्यवहार नही किया। कितने लोगों को उसने घुमाया भी है? और कितने लोग उसके काम से खुश होकर टिप में दो-चार सौ रुपये भी देकर जाते हैं मगर कोई मेमशाव की तरह नही था। यह उन सबसे बिल्कुल अलग हैं। न कोई बनावट, न दिखावा और न ही ऊँचें होने का घमंड।

उसे खुद भी किसी से इतना लगाव कभी नही हुआ था। यह रिश्ता शायद जागेश्वर बाबा का मर्जी से बना है। वह रीमा को मेमशाव भले ही कहता हो मगर दिल ने उसे एक बेटी की तरह ही देखा। वह बदनसीब, बेऔलाद जो ठहरा। खैर, वह इस निर्णय पर पहुँचा है मेमशाव को अकेले जाने देना उचित नही होगा। उन्हें बुरा लगे तो लगे, पर उनकी जान को जोखिम में नही डाल सकते। गणेश ने अपनी चप्पल पहनीं और रीमा के पीछे चल दिया।

रीमा संकरी पंखडंडी से यूँ लहरा कर उतर रही है जैसे वह उन रास्तों से परिचित हो? वह अपनी ही धुन में है। बार- बार ऊपर- नीचे न जाने क्या देख कर खुश हो रही है। एक बार वह खुशी के आवेग में गोल-गोल घूमने लगी है तो झट गणेश झाड़ी की ओट में छुप गया। उसे डर है मेमशाव के पीछे आने पर उन्हें बुरा न लगे। हर कोई अपने व्यक्तिगत क्षण अकेले ही जीना चाहता है। ये उनकी भावनाओं के साथ खिलबाड़ ही होगा। मगर क्या किया जाये? एक तरफ वह मेहमान हैं तो दूसरी तरफ एक भावात्मक रिश्ता जुड़ चुका है तीसरा वह सामान्य नही हैं। इन्हींं कारणों से सत्यता को मापते हुये गणेश कुछ मीटर की दूरी बनाये हुये चल रहा है।

रीमा ने पलट कर देखा- "मैं जानती हूँ दादा आप मेरे पीछे आ रहे हैं। मैं ये भी जानती हूँ आप मेरे वैलविशर हैं।"

"वैलविशर...?" गणेश उसका अर्थ नही समझा।

"वैलविशर मतलब शुभचिंतक " वह खिलखिला पड़ी।

"ओह...अच्छा...." गणेश भी हँस दिया। वह झेप भी गया अपनी चोरी पकड़े जाने से।

"आओ दादा, कुछ देर इस पेड़ के नीचे बैठते हैं।" कह कर वह एक समतल पत्थर पर बैठ गयी।

"बताओ दादा, अपने बारे में सब बताओ? क्या आप बताओगे मुझे?" उसने आग्रह करते हुये पूछा।

" मेमशाव हमारी जिन्दगी में कुछ ऐशा कहाँ है जिश पर बात की जा शके?"

उसके चेहरे पर उदासी उभर आई है फिर गणेश ने बात को बदलते हुये कहा- "आप कल चली जायेगीं लेकिन हम कभी नही भूल पायेगें आपको।"

""मैं आपसे मिलने जरुर आऊँगी और आती रहूँगी।" रीमा की आवाज़ में भी उदासी है।

गणेश भी एक छोटे पत्थर पर बैठ गया और कहने लगा-

"अच्छा ठीक है मेमशाव! बताता हूँ, यह हमारे जीवन की महज कहानी नही है वरन एक सच्चाई है जिसने हमारी जिन्दगी में तूफान लाकर खड़ा कर दिया। ऐशा तूफान जिशने हमारा शब कुछ तबाह कर दिया। जहाँ भावनाओं की लहरों ने स्नेह का सुख भी दिया और तबाही भी।

"कई बरस पहले की बात है। आप ही की तरह एक परिवार आया था कोसानी। पति-पत्नी और एक बिटिया थी। पत्नी तपेदिक की मरीज थी। जो लम्बी बीमारी के चलते बेहद कमजोर हो चुकी थी। डॉक्टर होते हुये भी ऊपर वाले के आगे उनकी एक न चली। लाख इलाज करवाया मगर उनकी बीमारी ठीक होने का नाम नही ले रही थी। फिर किसी ने पहाड़ी हवाओं के सानिध्य में रहने का सुक्षाव दिया इसलिये वह यहाँ ठहरे थे आकर।"पेशे शे वो शहर के बड़े डॉक्टर थे।'कान्हूँ रिजार्ट' में ही ठहरे थे। तब सारे होटल फुल हो गये थे मजबूरन उन्हें यहाँ आना पड़ा था। आये तो वो लोग मजबूरी में थे मगर ऐशे जुड़े कि वापस जाते-जाते उनकी आँखें भरी हुईं थीं।

"हममम..." सुना है यहाँ बहुत से मरीज ठीक होकर जाते हैं?"

"हाँ मेमशाव, ये सच है। वो लोग भी इसी लिये यहाँ आये थे, मगर छोटा बच्चा और पत्नी की कम उम्र में बड़ी बीमारी इन सब ने डॉक्टर साहब को अन्दर-ही-अन्दर तोड़ दिया था। जिशे वह ऊपर शे भले ही नही दिखा रहे थे लेकिन हम शब शमझ रहे थे। बिटिया की देख-भाल डॉक्टर साहब उतने अच्छी तरह से नही कर पा रहे थे जिस तरह एक माँ करती है। "

"ओह...! " रीमा उस कहानी से चिन्तित हो रही है।

बड़ी प्यारी बेटी थी। मेरे कन्धें पर चढ़ जाती और कहती-" चलो अंकल मुझे घुमा कर लाओ।"

"ओह...अच्छा" रीमा चहक पड़ी फिर हँस दी।

क्रमशः