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कर्म पथ पर - 48



कर्म पथ पर
Chapter 48



स्टीफन अस्पताल से लौट कर आया तो माधुरी अपनी पढ़ाई में व्यस्त थी। उसे स्टीफन के आने का भी पता नहीं चला। स्टीफन भी बिना कोई आहट किए चुपचाप उसे पढ़ते हुए देख रहा था।
इस समय स्टीफन एक पति या हितैषी के रूप में उसे नहीं देख रहा था। बल्कि एक प्रेमी की तरह उसे निहार रहा था। ऐसा वह पिछले कई दिनों से कर रहा था। जब भी माधुरी पढ़ाई करती या किसी काम में व्यस्त होती थी तो वह चुपचाप उसे निहारा करता था।
जिन हालातों में उनका रिश्ता आरंभ हुआ उनमें पहले आपसी विश्वास का पैदा होना बहुत आवश्यक था। एक दूसरे पर विश्वास मित्रता में बदल गई। कठिन समय में दोनों एक दूसरे का सुख दुख बांटने लगे। एक दूसरे को हिम्मत बंधाने लगे।
परंतु उनके रिश्ते में प्रेम का माधुर्य नहीं था। स्त्री पुरुष के प्रेम में जिस श्रृंगार की जरूरत होती है स्टीफन उसकी कमी महसूस कर रहा था। वह चाहता था कि माधुरी और उसके रिश्ते की ये कमी दूर हो जाए।
उसके अपने ह्रदय में तो उस प्रेम का बीज अंकुरित हो चुका था। पर माधुरी के ह्रदय को वह अभी नहीं समझ पा रहा था। ऐसा मौका ही नहीं मिलता था कि वह उसका मन टटोल सके। परंतु ऐसा करना बहुत जरूरी था।
माधुरी पढ़ते हुए बार बार आगे आ गई अपनी लट को पीछे कर रही थी। ऐसा करते हुए वह बहुत सुंदर लग रही थी। स्टीफन कल्पना करने लगा कि वह माधुरी के पास है और आगे आ गई लट को प्यार से पीछे कर रहा है। उसका स्पर्श माधुरी के शरीर में सिहरन पैदा कर रहा है। वह उठकर उसे अपने आलिंगन में कस लेती है।
"स्टीफन... स्टीफन...."
माधुरी ने हल्के से उसके कंधे को हिलाया। स्टीफन अपने खयालों से बाहर निकल आया।
"कब आए आप ? अचानक निगाह पड़ी तो आपको खड़े देखा।"
"बस अभी आया था। तुम पढ़ रही थी तो डिस्टर्ब नहीं किया।"
"बहुत देर से पढ़ रही थी। मैंने सोंचा था कि आप आएंगे तो आपसे बातें करूँगी।"
स्टीफन अभी भी उसे वैसे ही देख रहा था। माधुरी हंसकर बोली,
"क्या हुआ ? जाकर हाथ मुंह धो लीजिए। मैं तब तक चाय बनाती हूँ। फिर बैठकर बातें करेंगे।"
स्टीफन चला गया। माधुरी ने अपनी किताबें समेटीं और रसोई में चली गई।

दोनों मकान की छत पर बैठे थे। यहाँ से बहती हुई गंगा नदी दिखाई पड़ती थी। आज शाम मौसम सुहावना था। ढलते सूरज ने आसमान को सिंदूरी रंग में रंग दिया था। उसकी आभा माधुरी के चेहरे पर पड़ रही थी।
माधुरी स्टीफन को अपने पिता के पत्र के बारे में बता रही थी। पत्र में उसके बाबूजी ने स्टीफन की जो तारीफ की थी उसे बताते हुए उसे गर्व की अनुभूति हो रही थी।
स्टीफन उसकी सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था। अपनी बात बताते हुए माधुरी ने कहा,
"पता नहीं जय भैया कैसे होंगे। उनकी कोई भी खबर नहीं मिली।"
"जय ने अपना घर छोड़ दिया है। वो अब अपने जीवन के लिए नए उद्देश्य की तलाश कर रहा है।"
माधुरी ने अचरज से कहा,
"आपको कैसे पता ?"
"मुझे भी उसकी फिक्र हो रही थी। मैंने ललित नारायण मिश्र जी से पूँछा था। उन्होंने बताया कि जय के पिता श्यामलाल टंडन ने उनसे जय के बारे में पता करने के लिए फोन किया था। उनका कहना था कि जय ना जाने किस उद्देश्य की तलाश में घर छोड़कर चला गया है।"
"आपने मुझे बताया नहीं।"
"मुझे खुद ये बात आज पता चली।"
माधुरी सोंच में पड़ गई। जय को उसने दिल से अपना भाई माना था। जय के कारण ही वह दोबारा अपने अम्मा बाबूजी से मिल पाई थी। स्टीफन उसकी परेशानी का कारण समझ गया।
"माधुरी हर किसी की अपनी एक तलाश होती है। कुछ लोग तलाश की इस चाह की अनदेखी कर देते हैं। कुछ लोग इस तलाश में निकल पड़ते हैं। जैसे जय निकल पड़ा।"
माधुरी कुछ देर तक स्टीफन की बात पर विचार करती रही। सचमुच जीवन एक तलाश का ही तो नाम है। हम सब उसे महसूस करते हैं। पर जानने का प्रयास बिरले ही करते हैं कि उन्हें क्या चाहिए।
स्टीफन की बात ने माहौल को गंभीर बना दिया था। अपनी मुस्कान से उसे हल्का करते हुए वह बोली,
"मुझे यह बताइए कि आपको किस चीज़ की तलाश है ?"
स्टीफन भी मुस्कुरा कर बोला,
"फिलहाल तो तुम्हारे साथ कुछ पल बिताना चाहता हूँ।"
"तो अभी हम क्या कर रहे हैं।"
स्टीफन ने ‌महसूस किया कि आज माधुरी की आँखों में भी सिंदूरी रंग लहरा रहा था।
"चलो आज गंगा की धारा के बीच में चल कर कुछ वक्त बिताते हैं।"
माधुरी ने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा कर कहा,
"तो ले चलिए...."
घाट से दूर नदी के किनारे पर स्टीफन एक मल्लाह की तलाश कर रहा था। तभी एक मल्लाह ने आवाज़ लगाई।
"नाव पर बैठेंगे साहब ?"
स्टीफन माधुरी का हाथ पकड़ कर उसकी नाव की तरफ बढ़ गया। मल्लाह एक गोरे साहब के साथ एक हिंदुस्तानी लड़की को देखकर मल्लाह कुछ असहज हो गया। स्टीफन उसकी दुविधा समझ गया। माधुरी को अपने करीब लाकर बोला,
"मेरी पत्नी है।"
पता नहीं मल्लाह को उस पर कितना यकीन हुआ। पर एक अंग्रेज़ से वह कुछ कह भी नहीं सकता था। स्टीफन ने कहा,
"मेरी पत्नी नाव में बैठकर बीच धार में जाना चाहती है।"
मल्लाह ने अपनी नाव ऐसे लगा दी कि उन्हें बैठने में कोई असुविधा ना हो। स्टीफन ने पहले माधुरी को चढ़ने में मदद की उसके बाद खुद नाव में बैठ गया।
मल्लाह नाव बीच धार में ले गया। सूरज डूब चुका था। आसमान अब सुरमई दिखाई पड़ रहा था। हवा के मंद मंद झोंके बहुत सुखद लग रहे थे। दूर किनारे पर बने मंदिरों से घंटे घड़ियाल और उपासना के स्वर सुनाई पड़ रहे थे। माधुरी को बहुत अच्छा लग रहा था।
माधुरी भी कई दिनों से स्टीफन में आए बदलाव को महसूस कर रही थी। उसने पहले भी उसे खुद को चोरी चोरी निहारते हुए देखा था। उसने कुछ कहा नहीं था क्योंकी उसे भी यह अच्छा लगता था। उसके दिल में भी प्रेम की अग्नि ने प्रकाश और ऊष्मा फैला रखी थी। पर अपने प्रेम को महसूस करते हुए भी वह उसकी अभिव्यक्ति करने में संकोच का अनुभव करती थी।
स्टीफन की भांति उसने भी कई बार अपनी कल्पनाओं में उसके स्पर्श को अनुभव किया था। कई बार उसने अपने सर को उसकी छाती में छिपाकर परम सुख की अनुभूति की थी।
पर प्रत्यक्ष में अपने प्रेम का प्रदर्शन वह नहीं कर पाई थी। वह चाहती थी कि इस संबंध में स्टीफन की तरफ से पहल की जाए।
स्टीफन शांत था। वह केवल माधुरी के साथ इन खूबसूरत पलों को जी रहा था। माधुरी ने ‌उसकी तरफ देखा। उसकी आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। स्टीफन भी उसकी ओर प्रेम से देखने लगा।
उन दोनों के आसपास की दुनिया जैसे उनके लिए अस्तित्वहीन हो गई थी। बस केवल वही दोनों रह गए थे। एक दूसरे की आँखों के रास्ते दिल में उतर रहे थे। जहाँ अपने लिए बहते सागर को देखकर उसमें मस्त होकर गोते लगा रहे थे।
मल्लाह इस बात की प्रतीक्षा में था कि साहब कब उसे वापस चलने को कहेंगे। वह चाह रहा था कि अपनी मजूरी लेकर घर जाए। पर साहब और मेमसाहब अपने में ही खोए थे।
पास से गुजरती दूसरी नौका के मल्लाह ने अपने साथी को पुकारा,
"जय भोलेनाथ भइया.... कैसे हो ?"
मल्लाह ने उत्तर दिया,
"भोले बाबा की किरपा है।"
स्टीफन ने देखा कि अंधेरा गहरा गया है। उसने मल्लाह से वापस चलने को कहा।
लौटते हुए माधुरी के कहने पर स्टीफन ने बाजार से कचौरियां खरीदीं। लौटते हुए उसने एक आदमी को देखा। उसे याद आया कि जब वो और माधुरी गंगा किनारे जा रहे थे तो भी वह उनकी गली के मोड़ पर दिखा था।
स्टीफन को ऐसा लग रहा था कि जैसे उस आदमी को कहीं और भी देखा है। रास्ते भर वह इसी बात पर विचार करता रहा। घर पहुँच कर उसे याद आया कि उसने उस आदमी को अपने अस्पताल के पास भी देखा था।
स्टीफन के दिमाग में आया कि वह आदमी उसका पीछा कर रहा है। यह बात सही नहीं थी। पर अभी वह माधुरी को कुछ नहीं बताना चाहता था।
रात को माधुरी बिस्तर में लेटी गुनगुना रही थी। प्रेम का गीत था। स्टीफन ने उसे पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया। माधुरी ने अपने आप को उसके आलिंगन में छुपा दिया।

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