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गंगादेई

गंगादेई

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उम्र का एक पड़ाव पार कर लेने पर मनुष्य न जाने क्यों अपनी पिछली ज़िंदगी में झाँकता ज़रूर है,वह स्थिर रह ही नहीं पाता | वैसे ज़िंदगी का अटूट सत्य यह है कि मनुष्य जाने के लिए ही इस दुनिया में आता है | यह बहुत अजीब सी बात है जो सबके मन में उमड़ती-घुमड़ती है फिर भी हम सभी साँस लेते हैं,हमें ज़िंदा रहना है जब तक जीवन है | लीजिए ,अब साठ साल की उम्र में उसे गंगादेई की याद 'क्या ---पापा भी किसी न किसीको घर में उठा लाते हैं !'माही के बाल-मन ने सोचा था |

पहले भी न जाने किसके कहने से घर के काम के लिए एक नौकर उठा लाए थे जिसने पहले तो माँ को व उसको खूब नाच नचाया |हर चीज़ में उछलकर सबके सामने आ खड़ा होता और अपने आपको इस परिवार का बड़ा बेटा दिखाने का पूरा प्रयास करता | माँ जितने पैसे दें सब्ज़ी खरीदने के लिए ,वो सारे ही खर्च करके आ जाए ,एक पैसा भी बचाकर न ला पाता | कुछ न कुछ ऎसी चीज़ खरीद लाता जिसकी घर में कोई ज़रुरत न होती | मसलन--माँ ने टमाटर आधा किलो मंगवाए हैं तो जनाब किलो भर ले आएँगे | हरी सब्ज़ियों का ढेर लगाकर रख देंगे | अब बनाए कौन ? माँ को तो कॉलेज के काम से ही फ़ुरसत नहीं मिलती थी |

ठीक था कि उन्हें एक 'हैल्पिंग हेंड 'की ज़रुरत थी पर इतनी भी नहीं कि उनका बेकार का काम बढ़ जाए| उन दिनों में फ़्रिज़ तो होते नहीं थे और कमाई भी कोई इतनी नहीं कि पेड़ से पत्ते तोड़ लो और उड़ा दो उन्हें हवा में |बढ़ती हुई उम्र के युवा को खाना भी अधिक चाहिए था जो स्वाभाविक भी था,माँ इसको समझती थीं और उसके लिए खाने का पूरा प्रबंध करतीं लेकिन उनके लिए काम का बोझ कम होने की अपेक्षा और अधिक बढ़ गया था |

बाद में तो उसने पापा के सामने सोफ़े पर पसरना शुरू कर दिया था और उसके कपड़े पापा के कपड़ों के साथ लॉन्ड्री में जाने लगे थे ,जाने क्या लगे थे वह स्वयं ही जब घर के कपड़े देने जाता ,अपने भी साथ में डाल आता यूँ तो पापा काम के सिलसिले में दिल्ली रहते थे पर उन्हें भी कुछ दिनों में ही लड़के का व्यवहार उश्रृंखल लगने लगा ,हर बात में माही की बराबरी! हर बात में अपनी नाक ज़रूर घुसाना | एक-दो बार उन्होंने उसे समझाने की कोशिश की भी किन्तु जब देखा कि कोई भी बात उसके दिमाग़ में नहीं आती है तो पापा भी खीज उठे थे और उन्होंने अपने किसी मित्र के होटल में उसे काम के लिए भिजवा दिया था |
अब ये औरत ! पता नहीं पापा घर को क्या समझते थे ?जैसे कोई अनाथ आश्रम हो और जहाँ पर कोई भी घुसपैठ कर सकता हो | ख़ैर अब आ गई थी तो माही बेचारी कर क्या सकती थी ? अपने से काफ़ी अधिक उम्र की गंगादेई नाम की उस औरत को देखकर माँ भी कुछ अधिक प्रसन्न नहीं हुईं थी और ऊपर से उसकी चिलम पीने की आदत तो माँ को बेहद असहज कर गई थी |

चूल्हे में खाना बनता था उन दिनों और चूल्हा ठंडा होने से पहले वह अपनी चिलम भरकर बान की चारपाई पर गुड़गुड़ करने बैठ जाती जिसके धूएँ व गंध को बर्दाश्त करना न तो माही के लिए सहज होता था और न ही उसकी माँ के लिए | लेकिन अब वो आ ही गई थी तो कुछ किया भी नहीं जा सकता था ,उसे सहन करने के अलावा | सो चलते रहे दिन ---और चलती रही ज़िंदगी | कभी-कभी माँ को कुछ सुकून सा भी मिलता कि चलो गंगादेई खाना बनाने के साथ और सब छोटे-मोटे काम भी कर लेती है |माँ को एक बहुत बड़ी तसल्ली यह भी थी कि उनके कॉलेज के व माही के स्कूल के समय में काफ़ी फ़र्क था ,माही सुबह जाती और बारह बजे तक वापिस आती किन्तु माँ को शाम के चार तो बज ही जाते थे | माही को अब अकेला नहीं रहना पड़ता था ,दूसरा --माँ ने गंगादेई को खूब ठोक-बजाकर कह दिया था कि माही के आने पर उसे गर्म रोटी सेककर दे ,दही अच्छी तरह से दे | दही के साथ माही अच्छी तरह खाना खा लेती थी | माँ चीनी मिट्टी का बड़ा कटोरा भरकर दही जमवातीं |

माही की एक लंगोटिया मित्र थी ,स्नेह! जो घर के सामने रहती थी , उन दोनों का अधिक समय एक साथ ही व्यतीत होता |स्कूल से लौटने के बाद वह माही के पास आ जाती और पूरा दिन साथ में पढ़ते,खेलते दोनों | अधिकतर स्नेह की मम्मी दोनों को बुलाकर साथ में गर्मागर्म खाना खिलातीं | अब माही की माँ के कहने से गंगादेई उन दोनों को साथ में गर्म खाना खिला देती |पिता के आदेशानुसार माही गंगादेई को माँ जी कहती ,साथ ही स्नेह भी इसी संबोधन से उसे पुकारती | तात्पर्य यह कि कुछ ही दिनों में गंगादेई की परिवार में एक बुज़ुर्ग की सी हैसियत बन गई थी |

"माही ! ये गंगादेई कुछ अजीब हरकतें नहीं करती?" स्नेह की दृष्टि बहुत चौकन्नी और तेज़-तर्रार थी |

"क्यों? क्या हुआ ?" माही ने सहजता से पूछा |

"वो इसका एक दोस्त नहीं आता ---वो बढ़ई --"

"हाँ,इन्होंने बताया था माँ को ,कोई दूर का रिश्तेदार है माँ जी का !"

"तो उसे हलुआ बनाकर खिलाने की क्या तुक है? मौसी जी को पता है ?"

"मुझे तो पता नहीं --" माही ने कहा तो स्नेह उस पर ही तो बिगड़ गई |

"तू तो बेवकूफ़ है ,देखकर भी कुछ नहीं देख पाती |" स्नेह ने कुढ़कर कहा |

'कुछ हुआ भी है ?"माही खीज गई |

"मौसी जी रोज़ इतनी दही की बड़ी कुण्डी (चीनी मिट्टी का कटोरा ) जमवाकर नहीं जातीं ? कहाँ जाती है वो?"उसने शिकायती सुर में कहा | स्नेह व उसका परिवार इसी परिवार के सदस्य जैसे थे और उनका इस प्रकार बोलना कोई अजूबा न था |स्नेह की माँ सामजिक रूप से बहुत समझदार थीं और माही की माँ को दुनिया की ऊँच-नीच के बारे में समझाती रहती थीं |

गंगादेई घर का सारा काम निपटाकर अपने मित्र के इंतज़ार में बैठ जाती और फिर माँ के आने से पहले तक उसके साथ चुहलबाज़ी करती रहती जो माही की तो समझ में नहीं आई थी ,हाँ ,स्नेह को ज़रूर समझ आ रहा था |

'ये आटा इतनी जल्दी कैसे ख़त्म हो रहा है?'एक दिन माही की माँ ने सोचा |

"मौसी जी ये दही भी बहुत कम देती है ,आप तो इतना सारा दही जमाती हैं ---" स्नेह की बात सुनकर माही की माँ को लगा कुछ गड़बड़ तो हो रही थी | उन्हें बहुत सी चीज़ें कम दिखाई देने लगीं थीं |

'बताओ,घी इतनी जल्दी कैसे कम हो जाता है ?'एक दिन बड़बड़ा रही थीं ,उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था | माही घी खाने की चोर थी ,अब घी-दूध भी घर में ज़्यादा आ रहा था और जैसे कोई चाट रहा था |

"रोज़ हलुआ बनाकर खिलाओगी तो जल्दी ख़तम नहीं होगा क्या?"एक दिन स्नेह की मम्मी ख़ास इसीलिए बात करने आ गईं थीं |

"ये चल क्या रहा है घर में ?" उन्होंने माही से पूछा |

"कौन खा रहा है रोज़ हलुआ ?"माही की माँ ने चौंककर उनके सामने ही प्रश्न परोस दिया |

"तुम्हारे नए मेहमान ! बढ़ई राजा ,जो हर रोज़ तुम्हारे घर में तशरीफ़ लाते हैं |

"हाँ,कुछ कह तो रही थीं लड़कियाँ ,मैंने सोचा आ गया होगा कभी --पर ---" वो आवाक थीं |

"मैंने तो मौसी जी को बताया था कि ये कढ़ाई में से दूध की मलाई भी उतार लेती है ,बाद में माही को दूध देती है |" स्नेह कहाँ चुप रहने वाली थी |

"भई ! मुझे तो समझ में आती नहीं ऎसी नौकरी ---" स्नेह की माँ के मुँह से निकल ही तो गया |

माही की माँ के मस्तिष्क में विचारों की उथल-पुथल होने लगी | अभी वो अपने कॉलेज में स्थाई भी नहीं हुईं थी केवल एक आशा में तीन साल से काफ़ी कम तनख़्वाह पर काम किए जा रही थीं | सोच रही थीं कि जब वे स्थाई हो जाएंगीं तब आर्थिक रूप से उन्हें काफ़ी लाभ होगा लेकिन इस समय तो क्षति ही हो रही थी |

माही के पिता के आने पर उन्होंने ये सारी बातें उनके सामने खोलीं | माही के बड़े हो जाने पर फिर से वे अवसर मिलने पर बाहर काम कर सकती थीं लेकिन इस उम्र में उनका बेटी के साथ ,उसके पास होना अधिक ज़रूरी था |

माही के पिता को पत्नी के काम करने ,न करने में कोई रूचि नहीं थी किन्तु वो अपनी उस माँ जी के विरुद्ध एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं कर रहे थे |गंगादेई को बुलवाया गया और उनसे जब सारी बातें पूछी गईं ,वो तो बुक्का फाड़कर ऎसी रोई कि माही की माँ ही अचकचा गईं |

"मैं तो चली जाऊँगी इस घर से ,मुझे क्या है?मैं तो ---" हो--हो करने लगी गंगादेई |

माही के पापा बड़ी दुविधा में पड़ गए ,आखिर गंगादेई की भलाई और घर की सहायता के लिए ही तो वो उसे लाए थे |

गंगादेई जाने के लिए अपने टीन के बक्से में कपड़े भरकर ले आई थी और हाथ जोड़कर जाने की तैयारी दिखा रही थी | सामने माही और स्नेह खड़े तमाशा देख रहे थे | अचानक स्नेह को कुछ याद आया ,वह भागकर अंदर गई ;

"चली जाना माँ जी ,अब तो आपका दोस्त भी आ गया है --" गंगादेई का दोस्त रामू बढ़ई को अचानक दरवाज़े पर देखकर सब चौंक गए | लगभग छह माह में एक दिन भी माही की माँ ने उसको नहीं देखा था |

"बस ,अपना बक्सा खोलकर दिखा दो ,फिर चली जाना ---" स्नेह ढीठ की तरह अड़ गई थी | सबको बहुत अजीब लग रहा था |

"लो,अब म्हारी यो इज्जत भी उतरवावेगी यो लौंडिया ---"गंगादेई के मुख से शब्द निकले और उसने अपने बक्से को पीछे कर लिया |

"ये तो दिखाना पड़ेगा --"अब माही भी उसके पीछे पड़ गई थी | एक दिन माँ के रखे पैसों की चोरी उसने दोनों लड़कियों के नाम लगा दी थी |

आगे-पीछे करते हुए स्नेह को गंगादेई की सूती साड़ी में से कुछ अजीब कड़ा सा महसूस हुआ | आगे बढ़कर उसने गंगादेई की साड़ी पर हाथ फिरा दिया था और मुस्कुराने लगी थी | सब लोग तमाशबीन बने खड़े थे ,किसीको कुछ भी समझ नहीं आ रहा था | हड़बड़ाहट में गंगादेई के हाथों में से संदूक गिर गया जिसमें मेहमानों के आने पर निकाले जाने वाला 'टी-सैट'था जिसे माही के पापा कुछ दिन पहले ही दिल्ली से लाए थे | अपनी माँ जी पर ज़रुरत से अधिक विश्वास करने वाले पापा को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था | वे हताश होकर एक ओर बैठ गए थे |

अब तो अजब ही नज़ारा था ,स्नेह भी उत्साहित हो गई थी | कोने में ले जाकर उसने गंगादेई के पेटीकोट पर लगी हुई बड़ी-बड़ी जेबों में से शीशियाँ निकालनी शुरू कीं जिनमें घी,तेल भरे हुए थे | पेटीकोट में कई छोटी-बड़ी जेबें लगी हुईं थीं जिनमें न जाने कितनी कई छोटी-बड़ी शीशियाँ थीं | इसके अलावा एक तरफ़ की जेब में पावडर,सुगंधित तेल के साथ ही माही के सिर में लगाने के कितने ही रंग-बिरंगे पिन्स ,रिबिंस ---और भी छोटी-बड़ी चीज़ें भरी पड़ी थीं |

अब माही साठ की हो चुकी है ,जीवन में न जाने कितनी तरह के लोगों से उसका साबका पड़ा है |अपनी ज़रुरत के अनुसार बहुत से 'हेल्पिंग हैंड्स'उसके पास रहे हैं |किन्तु अपने बचपन की गंगादेई को वो अब तक भुला नहीं पाई है जो रोते-कलपते,गाली देते हुए उस समय घर से निकली थी | पापा का खेद से बुरा हाल हो गया था फिर उन्होंने यह डिपार्मेंट माँ के सुपुर्द कर दिया था वो जिसको रखें या न रखें ,अब यह माँ की मर्ज़ी थी |

कभी -कभी माही का मन अपने उन सभी बीते क्षणों को जी लेने का होता है जिनमें काले-सफ़ेद दोनों प्रकार के चित्र होते हैं और वह उन्हें पूरी शिद्द्त से एक बार फिर जी लेती है |

डॉ.प्रणव भारती

pranavabharti@gmail,com

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