एक अप्रेषित-पत्र - 4 Mahendra Bhishma द्वारा पत्र में हिंदी पीडीएफ

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एक अप्रेषित-पत्र - 4

एक अप्रेषित-पत्र

महेन्द्र भीष्म

अब नाथ कर करुणा....

कुछ दिनों से क्या; बल्कि काफी दिनों से उसे सीने के ठीक मध्य से थोड़ा—सा दाहिनी ओर पसलियों के आस—पास, मीठा—मीठा—सा दर्द महसूस होता रहता था। विशेषकर तब, जब कुछ ठंडा—गर्म खा—पी लेने के बाद आने वाली स्वाभाविक खाँसी या तेज छींक से उसके दर्द की मिठास कुछ बढ़ जाती थी। मीठा दर्द उसे अच्छा लगता था। एक दो बार खाँसकर या छींक कर वह इस मीठे दर्द को और महसूस कर लेता था।

पुलिस की नौकरी ने उसकी बेरोजगारी तो खत्म कर दी थी, परन्तु दिन—भर का सुख—चैन उससे छिन—सा चुका था। सुबह—सवेरे जूते के फीते कसने के बाद, देर रात ही उनको खोलने की नौबत आ पाती थी। प्रायः यह प्रतिदिन का नियम बन चुका था; जिसका वह धीरे—धीरे अभ्यस्त हो चला था।

कविता रचना ईश्वर प्रदत्त वरदान के रूप में उसे बचपन से मिली थी। एक कविता रच चुकने के बाद उसे जो आत्मसन्तुष्टि मिलती थी, वह अवर्णनीय है। किशोरपन में उसने कल्पना की थी कि वह शिक्षक और कवि के रूप में स्थापित होकर समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभायेगा, किन्तु उसकी यह कल्पना केवल सपना बनकर रह गयी।

हाँ! सब—इन्सपेक्टर के पद पर उसका चयन सिविल पुलिस में अवश्य हो गया था। घर, परिवार और गाँव के लोगों ने उसके भाग्य को सराहा, ‘‘फलाँ का लड़का कितना होनहार निकला, देखो! दारोगा बन गया है। अब उनके सारे दुःख—दरिद्‌दर दूर हो जायेंगे।''

अभी नौकरी का नया—नया उत्साह था ही कि इसी बीच माता—पिता ने आ चुके कई रिश्तों में से एक को पसन्द कर उसका विवाह धूमधाम से कर दिया। विवाह के ठीक एक वर्ष पश्चात्‌ उसे कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। अब वह नौकरी और परिवार के झमेलोें के बीच भली—भाँति फँस चुका था। उसकी कविता इन झमेलों में कहीं खो—सी गयी थी। सोची गयी कविता का जन्म मस्तिष्क में जब—तब होता रहता, किन्तु उसे कागज पर उतारकर उसका पालन—पोषण वह समयाभाववश नहीं कर पाता। अपना स्वयं का कहने के लिए उसके पास एक क्षण भी नहीं था। सुबह जल्दी जागो, दैनिक क्रियाओं के बीच प्रतिदिन दाढ़ी छीलो,..... बेल्ट, बैज चमकाने के बाद दारोगा की वर्दी में वह खूब जँचता था। अपने द्वारा निभाये गये अच्छे कार्य व व्यवहार से उसके अधिकारी उससे सदैव खुश रहते और विभाग के महत्त्वपूर्ण दायित्व उसे ही सौंपे जाते, जो उसकी व्यस्तता को और बढ़ा देते थे।

कभी—कभी वह स्वयं से प्रश्न करता— ‘‘यदि वह नहीं होता तो क्या इतने सारे काम रुक जाते?'' उसके अन्तर्मन से आवाज आती, ‘‘नहीं, दूसरा कोई करता, संस्था कभी मरती नहीं है, बल्कि उसके अंगों में फेर बदल होता रहता है, उसको चलाने वाले अपने निर्धारित समय को पूरा कर चले जाते हैं और उनके द्वारा रिक्त किए गए स्थान को दूसरे ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार संस्था कभी मरती नहीं वह जीवित बनी रहती है।'

नित—नूतन कार्यों की जिम्मेदारियाें को निपटाते—निपटाते वह देर रात गये बहुत थकान बटोरे अपने क्वार्टर लौटता, जहाँ अपनी पत्नी का सानिध्य और नन्हीं बेटी की तोतली बातों से उसकी सारी थकान मिट जाती। उसे अपनी पत्नी और बेटी से बहुत लगाव था। दोनों उसके जीवन के आधार बन चुके थे। एक रात उसने अपने सीने से निरन्तर उठने वाले मीठे दर्द की बात को जब अपनी पत्नी को प्यार के क्षणों में बताया, तो सीने के दर्द को सुन घबराई हुई उसकी पत्नी ने उसे अच्छे डॉक्टर से अपना चेकअप करा लेने की सलाह दी। अगली सुबह जब दोनों गहरी नींद ले चुकने के बाद सोकर उठे, तब तक वे दोनों रात की बात को लगभग भूल चुके थे।

उसकी बेटी के दाँत निकल रहे थे। जब तब उसे दस्त हो जाते थे; परन्तु आज कुछ ज्यादा ही दस्त हो रहे थे। बच्चों के विशेषज्ञ डॉक्टर ने दवा दे दी थी, जो उसे क्रमशः पिलायी जा रही थी। पत्नी के बार—बार आग्रह करने पर उसने एक दिन का अवकाश ले लिया था। एक दिन का यह अवकाश उसे इस प्रकार लग रहा था, जैसे उसने किसी विशेष अभियान में सफल हो जाने के बाद कोई पुरस्कार पाया हो।

धूप में लेटे हुए उसके शरीर की तेल से मालिश कर रही उसकी पत्नी ने उसके सीने पर उभरे दो छोटे—छोटे दानों को छूकर उससे प्रश्न किया। वह भी चौंका उसे इन दानों का कुछ दिनों से मच्छर के काटने जैसा आभास हो रहा था, जिसे छूकर उसने दानों में हल्की खुजलाहट महसूस की थी। आज भी जब उसकी पत्नी ने दानों के सिरों पर अपने नाखून लगाए, तो उसे उन दानों के आस—पास उभरी खुजली अच्छी लगी। उसने पहली बार अपने सीने पर उग आए दोनों दानों को देखा, जो लालिमा लिए मटर के दाने से कुछ छोटे पास—पास उभरे थे; जिसमें एक का मुँह शिखर काले तिल के बराबर काला था। पत्नी ने घबड़ाकर पूछा, ‘‘यह कब से हैं....?'' उसने कुछ कहना चाहा ही था कि एस.पी. कार्यालय में तत्काल पहुँचने का बुलावा आ गया। बिना नहाये, केवल हाथ—मुँह धोकर उसने वर्दी पहनी, मोटर साइकिल स्टार्ट की और कुछ ही समय बाद वह एस.पी. कार्यालय पहुँच गया। सर्किल आफीसर ने उसे निर्देश दिया कि पुराने शहर में गृह राज्यमंत्री का अचानक दौरा है; जिसकी तैयारी अभी से होनी है। पूरे चौबीस घंटे लगातार बिना विश्राम किये वह अपनी ड्‌यूटी में व्यस्त रहा।

गृह राज्यमंत्री का दौरा शांतिपूर्वक निपट गया। सभी ने राहत की साँस ली।

देर रात, जब वह अपने क्वार्टर पहुँचा, तब उसकी पत्नी उसे जागती मिली और बेटी निश्चिन्त सोती। पत्नी से उसने पहला प्रश्न अपनी बेटी के स्वास्थ्य के बारे में किया। उत्तर सकारात्मक था। बच्ची के दस्त कम हो रहे थे। दोपहर से उसे काफी आराम था। उसने पलंग पर लेटी बेटी के माथे पर हाथ फेरा, फिर पास खड़ी पत्नी को आलिंगन में भींच लिया।

‘‘आपके सीने पर दाने कैसे और कब से हैं ?‘‘ उसकी पत्नी ने वर्दी के बटन खोलते हुए उससे पूछा।

‘‘यही कोई दो—चार दिन से।'' वह कुछ लापरवाह—सा बोला, ‘‘ड्‌यूटी के मारे अपने शरीर की सुध कहाँ रहती है।'' उसके कहे शब्दों में झुँझलाहट स्पष्ट झलक रही थी।

‘‘डॉक्टर को कल दिखला लो, इसमें लापरवाही नहीं करनी चाहिए....।''

पत्नी की राय मन ही मन स्वीकारकर उसने अपने शरीर को वर्दी से मुक्त कर दिया। स्नानागार में हाथ—मुँह धोते समय उसने दर्पण में अपने सीने पर उभरे दानों को गौर से देखा, दोनों दाने पहले से कुछ बड़े और सुर्ख हो गये थे। उसने उन्हें छूकर देखा उनमें मीठी—सी खुजलाहट थी। उसकी इच्छा उन्हें खुजलाने की हुई पर उसने ऐसा नहीं किया। ‘एक—दो दिन में यह दोनों फुन्सियाँ स्वतः ही पक—फूटकर ठीक हो जायेंगी।' उसने अपने मन को तसल्ली दी। ‘कच्ची फुन्सियों को छेड़ना ठीक नहीं।' उसे किसी के द्वारा कही गयी बात याद आ गयी।

रात्रि भोजन कर चुकने के बाद उसकी आँखें नींद से बोझिल हो चली थीं। वह बहुत थका हुआ था। बिस्तर पर पत्नी का साथ मिल जाने के बाद वह करवट लेकर गहन निद्रा में सो गया। उसकी पत्नी उसके सो जाने के बाद कुछ देर जागती रही; फिर वह भी सो गयी।

कविताएँ लिखना उसने बचपन से ही शुरू कर दी थीं, परन्तु बेरोजगारी के दिनों में उसकी कविताएँ अधिक मुखरित हुई थीं। अन्तःकरण के समग्र विचारों को व्यक्त करने के लिए एकमात्र कविता ही उसकी अभिव्यक्ति का सरल माध्यम थी; जिसके द्वारा वह जीवन के प्रत्येक कोण का बखूबी वर्णन करने में सक्षम हो गया था। छोटे—बड़े कवि सम्मेलनों में वह बुलाया जाने लगा। नामवर कवि उसे नवोदित रचनाकार कहते हुए प्रोत्साहित करते। मंत्र—मुग्ध श्रोतागण उसकी रचनाओं पर उसे दाद देते।

दीर्घ प्रतीक्षित नौकरी मिलने के बाद उसकी बेरोजगारी समाप्त होने के साथ ही कार्य की अधिकता और समय की कमी के रहते उसकी रचनाधर्मिता कहीं खो चुकी थी। फिर धीरे—धीरे उसकी मानवीय सोच भी इस ओर मृत—सी हो गयी।

आज जब वह अस्पताल से अपना चेकअप करा कर लौट रहा था, तब उसका कवि मन उस पर हावी हो गया। जीवन के बहुमूल्य चार वर्ष उसने पुलिस सेवा में व्यतीत कर दिये, वह भी अपनी कविता का गला घोंटकर। क्यों नहीं, उसने अपना लेखन नियमित रखा? व्यस्तता के कारण क्या सभी लोग अपनी अभिरुचियों का त्याग कर देते हैं? भोजन, पानी व अन्य शारीरिक क्रियाओं के लिए जैसे समय निकाला जाता है, ठीक वैसे ही उसने अपनी कविता लिखने की अभिरुचि के लिए समय क्यों नहीं निकाला?'' अपने आप से खीज और क्षोभ भरे प्रश्न करते वह अपने क्वार्टर में आ गया और अपनी कैद पाण्डुलिपियों को बन्द बक्से से बाहर निकाल, एक—एक कर उन्हें देखने लगा। प्रत्येक कविता के साथ उसे वह क्षण याद आते, जब उसने उस कविता को पहली बार लिखा था और उस कविता विशेष पर उसे कहाँ—कहाँ श्रोताओं से दाद मिली थी। किस कविता को श्रोताओं के द्वारा कितना सराहा गया था और किस कविता पर श्रोता मस्त हो वाह—वाह कर उठे थे। उसे सब याद आ रहा था और उसके इस मुक्तक ने तो उस दिन के कवि सम्मेलन के हास्य भरे माहौल को एकाएक कैसा गम्भीर बना दिया था—

‘‘प्रथम मिलन की रात, किसी का पिया रूठ जाए।

सजी महफिल में, वीणा का कोई तार टूट जाए।।

बोलो! कौन व्यथा से परचित होगा उसकी।

कच्चा घड़ा एक हो घर में, वही फूट जाए।।''

और ऐसी ही छोटी—बड़ी बहुत सी उसकी रचित कविताएँ आज पाण्डुलिपियों के रूप में बक्से में बंद हैं।

‘‘सोचा था जो उनके बारे में, वह ख्याल बेगाना निकला।

उनकी उल्फत का चप्पा—चप्पा, इबादत के काबिल निकला।।''

‘रोशनी' रोशनी से होती है, ‘अंधेरा' किसी का सहारा नहीं लेता।'

उसके द्वारा रचित एक या दो पंक्तियों की रचनाओं की तो एक समय

धूम—सी मची थी। काव्य गोष्ठियों में उससे एक या दो पंक्ति वाली रचना को सुनने के लिए श्रोताओं की फरमाइश होती, तभी उसे अपने साथी कवि ‘स्वप्निल' की वह कविता वरबस याद आ गयी—

नौकरी के पिंजरे में बन्द हुई जिन्दगी ;

घुट—घुट कर जीने का अनुबन्ध हुई जिन्दगी।

रुचियाँ सब लुप्त हुईं, खुशियाँ सब सुप्त आज;

कागज के फूलों—सी सुगन्ध हुई जिन्दगी।।

वह अपनी पुरानी रचनाएँ बहुत देर तक उलटता—पलटता रहा, फिर वहीं दीवान पर झपक गया। पत्नी ने नींद में व्यवधान नहीं डाला और उसे सहारा देकर, दीवान पर ही ठीक से लिटा दिया। सिर के नीचे तकिया लगा दिया, सीलिंग फैन दो से चार पर कर दिया और अपने पति की लिखी रचनाएँ समेटकर पास रखे बक्से में सहेजकर रख दीं और अपने घरेलू कार्यों में व्यस्त हो गयी।

दोपहर के बाद जब वह सो कर उठा, तब उसका मन हल्का था। नींद में देखे गए स्वप्न में उसने अपने बचपन से लेकर बीते कुछ दिन तक की घटनाओं को फिल्म—सा अनुभव किया।

कुछ देर तक वह स्वप्न में देखे अपने बीते दिनों की पुरानी यादों में खोया रहा।

शाम को सब्जी मंडी में उसे ‘पड़ोरा' (कंटीले परवल) दिख गए, जिसकी सब्जी वह बहुत चाव से खाता था। गरम—गरम पराठों के साथ पड़ोरा की तली सब्जी उसे बहुत पसन्द थी। गाँव में बचपन के दिनों में वह अपने मित्रों के संग बिरवाई (खेत की बाड़) पर फैली पड़ोरा, व करेला की बेलों में से पड़ोरा और करेला तोड़ने जाया करता था। माँ के द्वारा बनायी गयी मीठी नीम के पत्ते और जीरे से छुँकी अरहर की दाल, जिसमें कच्चे आम की फाक और मुनगॉ (सहजन) की फली पड़ी होती थी। पड़ोरा, करेला की सूखी तली सब्जी, छुँका हुआ मट्‌ठा और नैनू (मक्खन) लगी गरमा—गरमा रोटियाँ, थोडे़ भात से भरी थाली देखकर उसकी भूख हजार गुना बढ़ जाया करती थी। ‘कितने स्वाद भरे व्यंजन होते थे, माँ के द्वारा परोसी गयी थाली में।

अच्छी कीमत देकर कुल जमा तीन पाव पड़ोरा वह सब्जी वाले से ले आया, जिसके पास एक—दो सब्जी के अलावा बेचने के लिए और कुछ नहीं था।

शाम को उसने अपनी पसन्द का भोजन, अपनी पत्नी से बनवाया; किन्तु पड़ोरा की सब्जी में उसे वह स्वाद नहीं मिला; जो उसके गाँव के पड़ोरों में मिलता था। देसी चीजों में मौलिकता होती है, जबकि बाहरी चीजों में कृत्रिमता अधिक होती है, जिसमें स्वाद पौष्टिकता और संस्कार की सदैव कमी पायी जाती है।

कल मिलने वाली अपनी मेडिकल रिपोर्ट और बचपन की सुखद स्मृतियों के साथ वह सारी रात जागता रहा। बीच—बीच में सीने पर उभरे दानों से हो रहे श्राव को वह पोंछता भी रहा।

सुबह—सवेरे, जब वह उठा तब, उसने अपने सीने पर रोज की तरह से कुछ भिन्न मीठा—मीठा—सा दर्द महसूस किया। उसने अपने सीने पर दोनों बड़े दानों को जो परस्पर एकाकार होकर अंगूर बराबर लालिमा लिए कच्चा फोेड़ा जैसे बन चुके थे, जिनके दोनों मुहानों पर निकला श्राव सूख चुका था। उसने अपने सीने पर बन आए नन्हें ज्वालामुखी के दोनों क्रेटरों पर जमी सूखी पपड़ी हटायी, अन्दर मच रही खुजली को बाहरी दबाव मिला, फलस्वरूप गाढ़ा मटमैला मवाद लावा—सा बह निकला। उसके मुुँह से दर्द—मिश्रित चीख अपनी पत्नी के लिए निकली, जो तत्काल किचन से भागकर उसके पास आ गयी।

लगभग चालीस—पैतालीस बूँदों को मिलाकर इकट्‌ठा हो चुका मवाद आश्चर्यजनक रूप से बड़ा घेरा लग रहा था। उसने अपने फोड़े को गुनगुने पानी से धोया, फिर कुछ देर आराम करने की गरज से वह पुनः लेट गया। पत्नी ने उसके माथे पर उभर आयीं पसीनें की बूँदोें को अपने आँचल से पोंछा और उसका सिर हौले—हौले दबाने लगी। पति—पत्नी दोनों के माथे पर खिच आईं चिन्ता की रेखाएँ स्पष्ट दिखायी दे रहीं थीं। दोनों आने वाले समय में किसी भयावह आशंका से बुरी तरह ग्रसित हो चुके थे।

इमरजेंसी ड्‌यूटी कर रहे डॉक्टर ने सीने पर दवा लगाकर पट्‌टी बांध दी। संबंधित डॉक्टर से फोन पर बात हुई। वह कुछ ही देर बाद अस्पताल पहुँच गये। उन्होंने नर्स से पट्‌टी खुलवाई घाव को जाँचा—परखा, चालीस—पैंतालीस बूँद मवाद के निकलने की बात से सभी को ताज्जुब हो रहा था; किन्तु सभी को विश्वास करना पड़ा; क्योंकि जब डॉक्टर ने स्वयं फोड़े को दबाकर देखा तो दस—बारह बूँद मवाद और निकला डॉक्टर हैरान हो उठे। उन्होंने कहा, ‘दस बजे के बाद मिलने वाली रिपोर्ट को देखने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है।' समय पर दस भी बज गये ग्यारह बजे तक सारी रिपोर्टें प्राप्त हो गयीं। डॉक्टर ने बारीकी से सभी रिपोर्टोें का अवलोकन किया। डॉक्टरों के चेहरे पर अपने मरीज व उसकी पत्नी के प्रति घोर सहानुभूति उमड़ आयी थी; क्योंकि रिपोर्टों के अवलोकनोपरांत यह स्पष्ट हो चुका था कि मरीज को कैंसर है। वह भी ‘लास्ट स्टेज' में।

डॉक्टर ने अपने मरीज को सब कुछ स्पष्ट बता दिया और सलाह दी कि वह मुम्बई स्थित टाटा कैंसर रिसर्च इंस्टीट्‌यूट में तुरन्त भर्ती हो जाए।

डॉक्टर की सलाह सुनते ही वह सकते में आ गया। एक पल के लिए उसकी आँखों के सामने अँधेरा—सा छा गया। ‘सब कुछ समाप्त हो जाने वाला है।'

‘नहीं' उसके मुँह से एक तेज चीख निकली और आँखों से अविरल अश्रु बह निकले। उसने डॉक्टर का हाथ थामते हुए बच्चे की तरह गिड़गिड़ा कर कहा, ‘प्लीज, डॉक्टर साहब! मुझे बचा लीजिए, मैं अभी मरना नहीं चाहता।' डॉक्टर ने उसकी पीठ थपथपाई और उसे दिलासा देते हुए कहा, 'परेशान मत हो, धैर्य रखो सब ठीक हो जायेगा। ईश्वर सब अच्छा करेंगे।' यद्यपि वह स्वयं जानते थे कि यह दिलासा झूठी और औपचारिक है।

वह चाहता था कि उसकी पत्नी को डॉक्टर की कही बातों का पता न चल सके; परन्तु उसकी चाह पूरी न हो सकी, केबिन के बाहर बैठी उसकी पत्नी ने अन्दर हो रही सारी बातें सुन ली थीं। वह केबिन में आ गयी और इसके पहले कि कोई उसको संभाल पाता, वह फर्श पर गिरकर बेहोश हो गयी। कुछ देर तक डॉक्टर के केबिन में नन्हीं बच्ची का रुदन गूँजता रहा, जो माँ के एकाएक फर्श पर गिर जाने से घबड़ा गयी। थी पानी के छीटें उसकी पत्नी के चेहरे पर छिड़के गये। कुछ देर बाद उसकी चेतना लौटी और वह अपने पति से चिपट कर फूट—फूट कर रो पड़ी।

कुछ घंटों में ही उसके पड़ोसियों, उसके सहकर्मियों को उसकी इस भयावह बीमारी का पता चल गया। उसके शुभचिन्तक उसे देखने अस्पताल में आने लगे। सभी अपनी—अपनी संवेदना प्रकट करते। कुछ औपचारिक कुछ अनौपचारिक, किन्तु सभी के मन में जवान सुन्दर पत्नी और नन्हीं बच्ची के भविष्य के प्रति गहरी संवेदना जरूर उमड़ आती।

‘हाय! क्रूरकाल की नियति...... अब उसकी बीबी—बच्ची का क्या होगा'..... ‘कितना स्वस्थ था वह'...... 'अरे कल तक तो कुछ पता नहीं था।' अचानक..... आने वाले सभी के पास अपना मुँह अपनी बातें थीं; जो अपने—अपने अनुसार कुछ न कुछ सही—गलत कह जाते थे।

तत्काल उसके गाँव, उसकी ससुराल टेलीग्राम कर दिया गया। मुसीबत के समय मायके या ससुराल वाले ही काम आते हैं। वह भाग्यशाली होता है, जिसे दूर—दराज ड्‌यूटी क्षेत्र में कोई एक भी ऐसा मित्र मिल जाता है, जो उसके लिए हर वक्त मद्‌दगार साबित होता हो; परन्तु अभी तक उसका ऐसा कोई भी मित्र नहीं बन सका था।

दो दिन बीत चुके थे। इस बीच कुछ रुपयों की व्यवस्था बन चुकी थी। तीसरे दिन उसके गाँव से बूढ़े माता—पिता और ससुराल से पत्नी का छोटा भाई आ गया। बेटी माता—पिता को सौंप, वह पत्नी और साले के साथ मुम्बई के लिए रवाना हो गया।

मुम्बई में, टाटा कैंसर रिसर्च इंस्टीट्‌यूट में उसे तुरन्त भर्ती कर लिया गया। पूरे पन्द्रह दिन गहन चिकित्साकक्ष में रखा गया; परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। कैंसर अपनी अन्तिम अवस्था में पहुँच ही चुका था। जब पूरे एक माह के बाद भी मरीज की हालत सुधरने के स्थान पर बिगड़ती चली गयी तब डॉक्टरों ने उसके जीवन को बचा पाने की उम्मीद छोड़ दी। उसे डिस्चार्ज करते हुए डॉक्टरों ने कहा कि, ‘वह एक माह बाद पुनः आकर दिखा जाए।' तब तक के लिए दवाएँ इत्यादि उसे बता दी गयीं। एकान्त में जूनियर डॉक्टर ने उसके साले से इतना जरूर संकेत कर दिया कि, ‘‘आपके मरीज का जीवन एक माह से कम है, जब वह जीवित नहीं रहेगा, तब एक माह बाद किसे दिखलाने लाओगे। यहाँ पर इसी तरह कहा जाता है........ यह सब तो आप लोगों को ढ़ाढ़ँस बनाए रखने के लिए हम लोगों को कहना ही पड़ता हैै।''

मुम्बई से वापस आने पर उसके शरीर का वजन इस एक माह में आधा रह गया था। गले के नीचे आहार नली घाव—ग्रस्त हो चुकी थी। फलस्वरूप मुम्बई के डॉक्टरों ने पेट के रास्ते अमाशय तक नली लगा दी थी। जिसमें लगे ढक्कन को हटाकर पिचकारी बराबर इन्जेक्शन के द्वारा पेय रूप में बारीक पिसा भोजन तथा फलों का रस उसके अमाशय में पहुँचाया जाता था। प्यास लगने पर पानी भी इसी रास्ते पहुँचाया जाता। मुँह व नाक के रास्ते वह साँस के अलावा और कुछ नहीं ले सकता था। उसकी आहार नली कैंसर से पूरी तरह अवरुद्ध हो चुकी थी। हाँ! मुँह से बात करने में उसे कोई कठिनाई नहीं होती थी। एक प्राइवेट मेडिकल प्रेक्टिशनर अपने कम्पाउंडर के साथ उसे देखने नियमित आता; उसके सीने पर दवा का लेप लगाता और पट्‌टी बदलता, पेट में पड़ी नली के सहारे दवाएँ पेट के अन्दर पहुँचाता, सीनियर डॉक्टरों की तरह हिदायतें देता और पचास रुपये का नोट अपनी जेब के हवाले कर चलता बनता ।

उसका हाल—चाल जानने के लिए आने वाले उसके संगी—साथी उसकी अचानक हुई इस दशा से अचम्भित रह जाते। जो आता वह कोई न कोई इलाज या नुस्खा जरूर बता जाता। कोई कहता, ‘फलां स्थान के फलां बाबा को दिखा दो, तो कोई कहता, फलां दरगाह में चादर चढ़वा दो। घर वालों ने सब करके देख लिया; परन्तु तनिक भी लाभ नहीं हुआ। उसकी दशा दिन प्रतिदिन बिगड़ती चली जा रही थी।

बीते दिनों में वह जिस तरह से मानसिक व शारीरिक यंत्रणा से गुजरा था, मृत्यु—भय से भयाक्रान्त था, उससे अब वह कुछ—कुछ मुक्त हो चला था। उसकी सोच बदलती जा रही थी। अब उसने शीघ्र आने वाली मृत्यु को स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया था। ऐसा करने से उसके अन्दर स्वाभाविक आत्म—बल और नवीन उत्साह का संचार होने लगा था। अब वह स्वयं को देखने आने वालों से, अपनी पत्नी से ‘मृत्यु' के ऊपर निःसंकोच बात करने लग जाता था।

उसकी शय्या जो भीष्म पितामह की शय्या से कम न थी के आस—पास फल—फूल, दवाओं के अलावा गीता, रामायण जैसे ग्रन्थ, दयानन्द, विवेकानन्द, ओशो जैसे महापुरुषों के साहित्य रखे रहते। वह पढ़ते—पढ़ते जब थक जाता, तो किसी से उन्हं पढ़ने को कहता और उसे सुनता, जब कोई सुनाने वाला भी पास नहीं होता, तब वह टेपरिकार्डर में ऑडियों कैसेट लगाकर ‘ओशो' के द्वारा ‘मृत्यु' पर दिये गये व्याख्यानों को सुनता। गीता का श्लोक

‘‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे, न त्वं शोचितुमर्हसि।।

उसके होठों पर हर समय रहता, जिसे उच्चारित कर वह जीवन—ऊर्जा प्राप्त करता।

मृत्यु भय उसके मन से निकल चुका था। ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या' सूत्र उसके मन मस्तिष्क में पैठ बना चुका था। जब तक कि देह है तभी तक सांसारिक सम्बन्ध हैं। देहावसान के बाद सभी देह के सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं।

उसे अपनी अकाल मृत्यु पर उतना दुःख नहीं था, जितना दुःख था कि वह अपने इस जीवन में स्वयं के कवि रूप को मुखरित नहीं कर सका। काश! वह जानता होता कि उसकी अकाल मृत्यु होनी है, तो वह पुलिस सेवा में नहीं आता, विवाह न करता। अपने अल्प जीवन में अपनी अभिरुचियों को, अपनी सोची कल्पना को साकार रूप देकर अपने आप को एक कवि के रूप में स्थापित कर मृत्यु को प्राप्त होता। उसका यह स्वप्न अधूरा रह जायेगा, इस बात का उसे दुःख था।

सारी रात वह अपनी धर्म—पत्नी से बातें करता। आगे के एकाकी जीवन के लिए उसे साहस बँधाता। वह बेचारी सिर्फ आँसू बहाती, उसे चूमती, अपना प्रेम प्रदर्शित करती। उसकी नन्हीं बेटी उससे तुतला कर बातें करती। वह भी मोह—मायावश आँखों में उमड़ आये आँसुओं को रोक न पाता। कभी—कभी ऐसा कारुणिक दृश्य उपस्थित हो जाता कि यदि क्रूर—काल भी आकर इस दृश्य को देखे तो उसकी आँखें पसीजे बिना न रहें।

....... और फिर धीरे—धीरे वह काली अँधियारी अमावस की रात भी आ गयी, जो उसके लिए इस जीवन की अन्तिम रात होने वाली थी। उसके साले ने कई रातों से जागी बहन को सोने के लिए मजबूर कर दिया और स्वयं अपने बहनोई के पास आकर बैठ गया।

रात्रि के ग्यारह बज चुके थे। आज उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी। उसकी इच्छा हो रही थी कि वह अपनी पत्नी को अपनी बेटी को अपने पास बैठाये और उनसे बातें करे; परन्तु गाँव से आज ही वापस आए साले साहब ऐसा नहीं चाहते थे। ‘ठीक भी तो है, बेचारी दिन—रात खटती रहती है, रात में भी ठीक से उसे सोने को नहीं मिलता। साले साहब ने ठीक ही किया।'

—‘सुनो! जरा तकिया ठीक कर देना।'

—‘‘अच्छा!..... जीजाजी, आपको नींद नहीं आ रही?'' तकिया ठीक करते हुए उसका साला बोला।''

—‘‘नहीं''

—‘‘अच्छा चलो मैं आपको कुछ सुनाता हूँ। आप सुनिये, शायद सुनते—सुनते नींद आ जाये।''

—‘‘अच्छा ठीक है, तुम मुझे गीता के अध्याय दो के बाइसवें श्लोक से सुनाना शुरू करो।''

—‘‘अच्छा, तो सुनिये—

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्‌णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय, जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

जैसे मुनष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीर को प्राप्त होता है।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेद्‌यन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता।

अछेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।

क्योंकि यह आत्मा अछेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाली और सनातन है।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकारोऽयमुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित, कही जाती है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे शोक करना उचित नहीं है।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।

किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने के योग्य नहीं है।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है।

—‘‘अब तुम जाकर सो जाओ मुझे नींद नहीं आयेगी”, वह बोला।

—‘‘नहीं जीजा जी आगे सुनिए।''

—‘‘नहीं अब तुम सो जाओ।''

—‘‘नहीं, जीजा जी..... अच्छा अब यह ओशो की किताब में से सुनिए। साले ने पास रखी ओशो की किताब उठायी, जिसमें पहले से चिन्हित पंक्तियों को वह पढ़ने लगा, ‘‘मैं कहता हूँ कि मौत को देखें, न बचे, न घबडा़एँ, न भागें।'' साले ने अपने बहनोई के चेहरे की ओर देखा, जो उसे पढ़ते देख रहा था।

—‘‘हाँ! हाँ! आगे पढ़ो।''

—‘‘देखें...... और देखने से आपको लगेगा कि जो उस तरफ से मौत थी; वह थोड़े......भीतर...... ‘उसने खाँसकर अपना गला साफ किया फिर आगे पढ़ने लगा...., जाने से पता चलता है कि वही जीवन हैै। जब लहर सागर हो जाती है, तब वह सख्त होकर बर्फ नहीं बनना चाहती, तब वह जितनी देर आकाश में नाचती है, सूरज की रोशनी में खुश है और जब विश्राम करती है, तब विश्राम में खुश है। इसीलिए वह जीवन में खुश है, मृत्यु में खुश है, क्योंकि वह जानती है, जो है, वह न मरता है न जलता है, जो है, वह हैैै। रूप बदलते रहते हैं....।''

ड्राइंगरूम में लगी दीवार घड़ी ने रात्रि के दो बजाये। —‘‘अच्छा अब सो जाओ।''

उसे खाँसी आ गयी। साले साहब ने थूक—दान उसके मुँह के पास किया..... फिर तेज खाँसी बलगम के साथ खून।

—‘‘जीजाजी खून!'' उसका साला खून देख घबड़ाया।

थूकदान में खून देख वह विचलित होने के स्थान पर मुस्कराया, ‘‘अब चला—चली की बेला लगता है नजदीक आ पहुँची है।''

—‘‘नहीं—नहीं..... जीजाजी..... मैं दीदी को जगाता हूँ।''

—‘‘नहीं.... नहीं उसे सोने दो, तुम—तुम मेरे पास यहाँ बैठो, जो मैंने डायरी में इन दिनों लिखा है..... मुझे पढ़कर सुनाओ। उसने अपने साले का हाथ पकड़कर उसे जबरन अपने पास बैठाते हुए कहा, अच्छा वह कविता सुनाओ जिसे मैंने कल ही लिखी है —

साला किंकर्तव्यविमूढ़—सा डायरी में मुड़े पृष्ठ को खोलकर पढ़ता है—

‘‘ऐ! मृत्यु तू शाश्वत सत्य है, तुझे प्रणाम!

यह भी सच है कि तू किसी की मीत नहीं है।

किन्तु तू इतनी निष्ठुर क्यों है ?'

समय से पहले प्राण हरना,

क्या सूखी सम्वेदना और मृत हुई नैतिकता,

का प्रतीक नहीं है ?

तू कैसे समझेगी क्योंकि तुझे तो मौत कभी आती ही नहीं।

काश! तुझे भी मृत्यु का भान होता,

काश! तू भी मृत्यु का संताप समझ पाती।''..........

उसके साले से रहा नहीं गया। वह डायरी टेबिल पर रख अपनी बहन को जगा लाया। पति की बिगड़तीे हालत को देख उसकी पत्नी घबड़ा उठी। उसे दोबारा खाँसी आयी, फिर उल्टी हुई इस बार खून पहले से ज्यादा आया था। सीने पर अन्दर ही अन्दर मवाद व खून निकल आने से घाव पर लगी पट्‌टी खून व मवाद से भीगने लगी उसकी पत्नी उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगी।

—‘‘तुम!..... तुम आगे पढ़ो।'' वह अपने साले से बोला

—‘‘नहीं..... नहीं.... मैं डॉक्टर को लेने जाता हूँ।''

—‘‘नहीं..... नहीं.... तुम आगे पढ़ो।'' वह जोर देकर कहता है और पास खड़े साले का हाथ सख्ती से पकड़ लेता है। मजबूरीवश वह सिरहाने रखे स्टूल पर पुनः बैठकर आगे पढ़ने लगता है.....

‘‘जीवन की अन्तिम यात्रा जिसे मृत्यु कहते हैं। जीव के क्रमशः विकास की एक कड़ी होती है। यात्रा प्रारम्भ करते समय ईश्वर नाम स्मरण परम्‌ आवश्यक है। अतः उपस्थित जनों के लिए यह उचित है कि वे यात्री को इस ओर प्रेरित करते हुए शुभ—शकुनों का भी निर्माण करें। वेदमंत्र, गायत्री मंत्र, हरि नाम उच्चारण करें। प्रसन्नता के पुष्प बरसाते हुए विदाई देने से जीव अधिक उत्साह के साथ कुशलता पूर्वक अपने गंतव्य की ओर अग्रसर होगा। विपरीत आचरण जीव को मोहित कर उसके मार्ग को भ्रमित या नीरस बनायेगा।

ईश्वर का कोई विधान सत्यं, शिवम्‌ सुन्दरम्‌ से रिक्त नहीं होता। जीव स्वयं ईश्वर अंश होने के कारण अपना मार्ग चुनने में स्वतंत्र है, जो उस के स्वभाव कर्मोंं पर निर्धारित होता है। शुभाशुभ कर्मो के फल—भोग का नियम भगवद्‌भक्तों पर नहीं लगता, जबकि कारण—कार्य नियम अटल है, केवल ईश्वर शक्ति ही सर्वोपरि है।

इस बीच, उसके बूढ़े माता—पिता उसकी शय्या के पास आ चुके थे। केवल उसकी पुत्री उस समय निश्चिन्त सो रही थी। उसके साले ने लाल स्याही से अंगे्रजी में लिखी उसकी कविता पढ़नी शुरू की —

ळववकइलम उल तिपमदके प् ंउ कमचंतजपदह ेपदबमए

च्तंल वित उल ैवनस ंदक चंतकवद उल ेपदेए

प् ेींसस इम ूपजी लवन ेीवनसक दमगज इपतजी इम जतनमए

ज्व मदरवल ंसस ेबमदमे वि जीम ूवतसक ंदमूण्श्श्

उसने अपने सिर के नीचे रखी तकिया अपने हाथ से ठीक की फिर उसने अपनी आँखें छत पर टिका दीं, उसकी पत्नी घबराई—सी इस समय उसके तलवे मल रही थी। उसकी बूढ़ी माँ सिरहाने बैठकर उसके सिर को सहला रही थी और बूढ़ा पिता उसकी हथेलियाँ रगड़ रहे थे। इसी समय उसके साले ने बड़े—बड़े अक्षरों में लिखी पंक्तियाँ पढ़नी शुरू की—

‘‘अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो वर मागऊँ।

जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।''

एक पल के लिए उसके दोनों हाथ आपस में प्रार्थना की मुद्रा में जुड़े, तत्क्षण निर्जीव होकर अलग हो गये। उसका सिर एक ओर लुढ़क गया। उसकी दृष्टि अपनी डायरी में लिखे पन्ने पर गड़ गयी।

सभी के मुँह से तेज चीख निकल गयी। वे सब उसके मृत शरीर पर झुके और बिलख कर रो पड़े। कुछ पल बाद ही एक नन्हा स्वर गूँजा ‘‘तुप रइईये..... पापादी दग दायेंगे।'' यह स्वर नींद से जाग चुकी उसकी नन्हीं बच्ची का था, जो अपने मुँह पर अभी भी अँगुली रखे सबकी ओर देख रही थी।

कुछ देर के लिए कमरे में निस्तब्धता छा गयी। सभी शान्त बच्ची के मासूम चेहरे की ओर देखते रह गए।

..... तभी दूर कहीं मुर्गे ने बाँग दी.... ब्रह्म मुहूर्त हो चला था.... चिड़ियों ने चहचहाना प्रारम्भ कर दिया था।

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