एक अप्रेषित-पत्र - 5 Mahendra Bhishma द्वारा पत्र में हिंदी पीडीएफ

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एक अप्रेषित-पत्र - 5

एक अप्रेषित-पत्र

महेन्द्र भीष्म

कोई नया नाम दो

‘‘जागते रहो''

मध्य रात्रि की निस्तब्धता को भंग करती सेन्ट्रल जेल के संतरी की आवाज और फिर पहले जैसी खामोशी।

मैं जाग रहा हूँ। 3श् ग 6श् की काल कोठरी में काकरोचों की चहल कदमी और मच्छरों की उड़ानों के बीच इस कोठरी में मुझे आये अभी चार दिन ही हुए हैं। यहाँ मुझे अन्य कैदियों से एकदम अलग रखा गया है। सभी मुझे नृशंस हत्यारा समझते हैं। चार दिन पहले की बात है, जब सेशन जज ने भरी अदालत में अपना फैसला सुनाया था, ‘‘तमाम गवाहों के बयानात व दोनों पक्षों के विद्वान अधिवक्ताओं के द्वारा प्रस्तुत किये गये तथ्यों एवं स्वयं अभियुक्त के द्वारा अपराध की स्वीकृति के आधार पर यह अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि अभियुक्त सुधीर मिश्र वल्द स्वर्गीय दिवाकर मिश्र उम्र चालीस वर्ष ने अपनी धर्मपत्नी श्रीमती उषा सिंह एवं मनोज कुमार की हत्या की है। अतः यह अदालत अभियुक्त सुधीर मिश्र को उम्र कैद की सजा सुनाती है। अभियुक्त इस अदालत के फैसले के खिलाफ माननीय उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।''

हाँ मैं अपनी जिंदगी, अपनी धर्मपत्नी, जिसे संसार में शायद ही कोई पति अपनी पत्नी को इतना चाह सकता है, जितना मैंने उसे चाहा था, सदा के लिए खो चुका हूँ।

मैं अपनी ऊषी को अब भी बहुत चाहता हूँ। हमारा प्रेम विवाह हुआ था। वर्षों पहले तब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एम.एससी. फाइनल ईयर का स्टूडेंट था और अपने माता—पिता के मित्र ऊषी के डैडी की कोठी के एक कमरे में परिवार के सदस्य की भाँति रहता था। ऊषी के डैडी मेरे पिताजी के घनिष्ठ मित्रों में से थे। अतएव मुझे उनके यहाँ रहते हुए किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं थी। मैं सिंह परिवार के सदस्य के रूप में रहता था। तब मैं इक्कीस वर्षीय शर्मीला, स्वस्थ, सुन्दर, हँसमुख, नवयुवक हुआ करता था। ऊषी उस समय इण्टरमीडियट की अन्तिम वर्ष की छात्रा थी। वह अपने मम्मी—डैडी की इकलौती संतान थी। स्वभाव से चंचल, अप्रतिम सुन्दरता के साथ ही उसकी आवाज भी बहुत मीठी थी, उसने इण्टरमीडियट में गणित विषय चुन रखा था। वह मुझसेे चार वर्ष छोटी थी। मैं उसे ऊषी कहकर पुकारता था और जब—तब उसे उसके गोरे मुख—मण्डल पर उसकी बिल्लौरी आँखें होने के कारण ‘पूसी' कहकर चिढ़ाता भी था। एक दिन उसके डैडी, जिन्हें मैं अंकल कहा करता था, ने ऊषी को गणित पढ़ा देने के लिए कहा। मैं उसे प्रतिदिन नियमित एक घंटे गणित के सवाल हल कराने लगा। ऊषी पढ़ने में आम लड़कियों से काफी तेज थी। एक बार समझा देना ही उसे पर्याप्त होता था। कभी—कभी तो वह उल्टे मुझे ही सवाल हल करने का दूसरा तरीका बता देती थी। अतः मुझे पहले से ही तैयारी करके उसे पढ़ाना पड़ता था।

गणित के सवाल हल कराते—करते कब मेरे दिल में ऊषी के प्रति प्रेम की पौध पनपने लगी, मुझे कुछ पता नहीं चला। अक्सर उसकी हँसी, खिली श्वेत—दंत—पंक्ति और गालों पर उभरी मुस्कान मेरे हृदय में उतर जाती। मैं अधिकतर ऊषी के बारे में ही सोचता रहता।

एक दिन, जब मैं उसकी वार्षिक परीक्षाओं की तैयारी करा रहा था, तब—जबकि मैं उसको पढ़ाकर उसके पास से जाने लगा उस समय ऊषी ने काँपते हुए मेरे हाथ पकड़़ लिए और बिना कुछ बोले मेरे सीने पर अपना सिर टिकाकर खड़ी हो गयी।

ऊषी को पढ़ाते—पढ़ाते लगभग एक वर्ष होने को आ रहा था, कभी याद नहीं पड़ता कि मैंने उसको स्पर्श भी किया हो। इस तरह एकाएक उसका मेरे सीने से लग जाना मेरे लिए घोर आश्चर्य की बात थी। यद्यपि मेरे मन में कई बार इस इच्छा ने जन्म लिया था कि मैं उसका स्पर्श किसी न किसी बहाने करूँ। उसे अपने सीने से लगाकर उसके लम्बे काले बालों को उपनी उँगलियों से कंघी करूँ। उससे प्यार भरी बातें करूँ, परन्तु यह सब मेरे लिए सोचने तक ही सीमित रहा। संकोची स्वभाव के कारण मैं ऊषी से अपना पे्रम अभिव्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

मैंने उसके सिर पर अपना बायाँ हाथ रख दिया। वह मुझसे और चिपट गयी। कुछ पल के लिए मैंने उसे अपनी बाँहों में भर लिया, फिर अपने से अलग करते हुए पूछा, ‘‘ऊषी क्या बात है।'' मैंने उसकी ठुड्‌डी में हाथ रख कर उसके चेहरे को ऊपर किया, तो देखा उसकी आँखों से अविरल अश्रु धारा बह रही थी। मैं उसे रोते देख घबड़ा गया। ''क्या बात है?'' मैंने उससे पुनः पूछा, परन्तु वह मौन रही। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था, आखिर वह क्या चाहती है। मैं सोच ही रहा था कि वह अपनी मुट्‌ठी में दबोचे हुए एक मुड़े—तुड़े कागज के टुकड़े को मेरे कुर्ते की जेब में डालकर भाग गयी। मैं किंकर्तव्यविमूढ़—सा दरवाजे की ओर उसे जाते देखता रहा, जहाँ से वह भाग कर अंदर गयी थी। कुछ पलों बाद जब मुझे अपनी स्थिति का भान हुआ, तो मैं भी वापस अपने कमरे में आ गया, जो वहाँ से मुश्किल से तीस—चालीस कदम दूर कोठी के बाहरी ओर पड़ता था। सुराही से एक गिलास पानी पी लेने के बाद मैने काँपते हाथों से कुर्ते की जेब से उस कागज के टुकड़े को निकाला, जो कुछ देर पहले ऊषी ने उसमें डाला था।

मैं लिख नहीं सकता और न ही उन क्षणोंं को शब्दों मे व्यक्त कर सकता हूँ। जब मैने उस कागज पर लिखे वह चार शब्द पढ़े थे ..... ‘‘हमें आपसे प्यार है।'' मुझे कितनी अपरिमित खुशी हुई थी, मैं बता नहीं सकता.....। मैैंने बीसियों बार उन चार शब्दों को पढ़ा था। मेरा शरीर हवा में तैर—सा रहा था और हृदय प्रसन्नता से इतना भर उठा था कि लगता था, अब प्राण निकले।

जिसे मैं महीनाें से मन ही मन चाहता चला आ रहा था और अपनी चाहत को व्यक्त नहीें कर पाया था। उसे ऊषी ने स्वयं व्यक्त कर मुझे हत्‌प्रभ कर दिया था। ऐसा शायद मेरा उम्र में बड़ा व समझदार होना और उसका बालपन था।

वह निर्भीक लड़की थी। सुन्दरता के साथ—साथ वह पढ़ने में तेज और खेल—कूद में अव्वल रहती थी। अपने मम्मी—डैडी की इकलौती सन्तान होने के बावजूद उसके अन्दर इकलौती सन्तान जैसी लापरवाही या ढ़िठाई नहीं थी। मैं ब्राह्मण परिवार से था और वह क्षत्रिय। इस घटना के एक सप्ताह तक वह मुझसे कतराती रही थी। स्त्री—सुलभ—लज्जावश उसने उन सात दिनों में मुझसे आँख तक नहीं मिलाई थी। मैं हर पल उसकी मोहनी सूरत को अपनी आँखों में बसाये सपनों की दुनियाँ में खोया रहता। उसके पेपर समाप्त हो चुके थे।

एक दिन अंकल व आण्टी घर में नहीं थे। मैं कालेज से जल्दी आ गया था। ऊषी मुझे छत पर दिखायी दे गयी। वह नहाकर ऊपर गयी थी और अपने घने लम्बे काले बालों को फैलाए धूप में सुखा रही थी उसके ठीक पीछे सूरज था। वह इस समय अप्रतिम सुन्दर दिखाई दे रही थी। मैं चाहते हुए भी उसकी ओर नहीं देख सका। उसकी झील—सी गहरी बिल्लौरी आँखें मेरी आँखोें के रास्ते मेरे हृदय में समा गयी। मैंने अपने कमरे को खोलकर किताबेंं टेबिल पर रख दीं और बाहर लान में आ गया। मैंने छत की ओर दृष्टि घुमायी, किन्तु ऊषी छत में नहीं दिखी। शायद वह छत पर बैठ गयी थी। मैंने छत में जाने का निश्चय किया और आण्टी—आण्टी पुकारता अन्दर चला गया, परन्तु आन्टी का कोई जवाब मुझे नहीं मिला। वह होतीं, तब तो जवाब मिलता। बाहर लॉन में माली काम करते दिखा था। अन्दर कोई नौकर भी मुझसे नहीं टकराया। आँगन से छत की ओर जाने वाले जीने की सीढ़ियों पर मैंने तेजी से अपने कदम बढ़ायेे। जल्दीबाजी के कारण मैं जीने से नीचे उतरती ऊषी को देख नहीं सका। फलस्वरूप हम दोनों में जबरदस्त टक्कर हो गयी। सम्भवतः वह भी मेरी जैसी स्थिति में रही होगी या बालों के फैलाव के कारण वह मुझे देख न सकी। मैं इस असंयोजित टक्कर की उम्मीद में नहीं था और नीचे की ओर होने के कारण एकाएक ऊषी का सारा भार मेरे ऊपर आ गया, जिसे मैं सम्हाल न सका और ऊषी सहित पीठ के बल नीचे आँगन में गिर गया। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं रहा।

दिन ढल जाने और सारी रात बीत जाने के बाद सुबह की पहली किरण के साथ मेरी बेहोशी टूटी। आँख खुलते ही मैंने देखा मेरी जिन्दगी मेरे चेहरे पर झुकी थी। ऊषी का चेहरा मेरी आँखाें के बहुत करीब था। पूर्ण चन्द्रमा भी ऊषी के उजले चेहरे के सामने फीका था। उसकी साँसें मेरी पलकों से टकरा रही थीं। उसने मुझे आँखें खोलते हुए नहीं देख पाया था। मैंने फिर अपनी आँखें बन्द कर लीं। मैं खुली आँखों से देखे गये एक पल के सच्चे सपने को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था। सच वह पल मेरे जीवन का कितना हसीन पल था, जब ऊषी ने मेरे माथे को चूम लिया था, फिर कुछ पल के लिए अपने कोमल गाल मेरे माथे पर टिका दिये थे। वह अविस्मरणीय पल था, जो मुझे आज इस समय भी अच्छी तरह से याद है। मैं अपने शरीर के दर्द को भूल चुका था। वह पल जल्दी ही बीत गया और ऊषी मुझे बेहोश समझकर कमरे से बाहर चली गयी।

मैंने पुनः आँखें खोलीं। मैं बेहोश बना रहना चाहता था। मेरे बाएँ हाथ मै प्लास्टर चढ़ा हुआ था जिस कारण मैं उठ सकने में असमर्थ था, फिर पहली बार एक दर्द भरी हिलोर उठी और न चाहते हुए भी मेरे मुँह से एक हल्की—सी कराह निकल गयी, जिसे सुन ऊषी तुरन्त कमरे के अन्दर आ गयी और मैं चाह कर भी दोबारा बेहोश बने रहने का नाटक न कर सका। ऊषी की आँखें बता रही थीं कि वह घण्टों सोई नहीं थी। मुझे होश में आया देख वह एक पल के लिए प्रसन्नता से मुस्करायी, फिर अगले ही पल उसकी आँखों में आँसू आ गये। वह मेरे सीने पर अपना सिर रखकर फूट—फूटकर बच्चों की तरह रोने लगी। मैंने उसके सिर पर हाथ रखा, उसके बालों पर हाथ फेरा, उसे चुप कराया। बड़ी मुश्किल से उसकी हिचकियाँ रुकीं। इस बीच मैं उसे बता चुका था कि मैं भी उसे बहुत चाहता हूँं। ऊषी को कहीं चोट नहीं आई थी।

पूरे पन्द्रह दिन की अथक सेवा से ऊषी ने अपने आपको मेरे बहुत निकट ला दिया था। हमारे मन प्राण एक हो चुके थे। मैंने उसे अपना जीवन साथी बनाने का निर्णय ले लिया था। मेरे निर्णय से वह पूरी तरह सहमत थी। मेरी माँ व पिताजी कुछ दिन के लिए मुझे देखने के लिए आये और चले गये। मुझे लेकर वह अधिक चिंतित नहीं हुए, क्योंकि ऊषी के मम्मी—डैडी मुझे पुत्रवत्‌ चाहते थे।

‘‘जागते रहो'' संतरी की आवाज ने विचार क्रम भंग किया। दो मोटे काकरोच एक ओर तेजी से भागे। बाहर मैदान में पोस्ट लैम्प की मद्धिम पीली रोशनी टिमटिमा रही है, जिसका कुछ प्रकाश इस काल कोठरी में आ रहा है, जिससे मैं डायरी में यह सब लिख पा रहा हूँ। डायरी के इस पृष्ठ के ठीक ऊपर लिखा है—

‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।''

सभी सोच रहे होंगे कि अपनी पत्नी को इस हद तक चाहने वाला व्यक्ति कैसे अपने ही हाथों से उसे मार सकता है?

...... खैर जो सत्य है वह आगे क्रमशः स्पष्ट होता जायेगा। कोई भी प्रश्न निरुत्तर नहीं रहता।

हमारा प्यार दिन—दूना रात चौगुना बढ़ता गया। अब हालात यह हो गये थे कि लम्बी छुटि्‌टयों में अपने घर जाने की इच्छा नहीं होती थी। ऊषी को बिना देखे कुछ एक घण्टा बीत जाने पर अजीब—सी बेचैनी होने लगती थी। हम दोनों के बीच पवित्र प्रेमियों का प्यार था। हम दोनों बहुत कुछ अपनी—अपनी आँखों से कह जाते थे।

चाँदनी रात के वह पल जब छत पर हम दोनों खाना खा कर टहला करते उन क्षण़ों को मैं भूल नहीं सकता। तब इच्छा होती थी कि काश! चन्द्रमा स्थिर हो जाए। समय रुक जाए। मैं अपनी प्यारी ऊषी का हाथ अपने हाथ में लिए यूँ ही टहलता रहूँ।

उसे मैंने दिल से चाहा था। वह भी मुझे दिलोजान से चाहती थी। उसके प्रति मेरी चाहत दिन—दूनी रात चौगुनी बढ़ती गयी।

ऊषी के डैडी शहर के जाने—माने एडवोकेट थे, जो सुबह से देर रात तक व्यस्त रहते थे और उसकी मम्मी धार्मिक प्रवृत्ति की सम्पूर्ण भारतीय नारी की प्रतिमूर्ति थी। क्षत्रिय होते हुए भी क्या मजाल कि उनके घर में माँस—मदिरा का सेवन या किसी भी प्रकार के नशे के सेवन का जिक्र भी कोई कर जाये। मुझे आण्टी जी बहुत चाहती थीं। शायद उनकी इच्छा एक पुत्र पाने की रही थी। मुझमें वह अपना पुत्र ढूँढ़ा करती थीं। मेरे खाने पहनने और रहने इत्यादि का वह पूरा—पूरा ध्यान रखती थीं। मुझे किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं होने देती थीं। उन्होेंने ऊषी को मेरी देख—रेख में लगा रखा था।

कभी—कभी मुझे यह सोच कर बेहद ग्लानि होती थी कि माता—पिता के समान अंकलजी व आण्टीजी की इकलौती पुत्री से मैं छिपकर प्यार कर रहा हूँ। क्या मैं उन्हें धोखा नहीं दे रहा हूँ ? जो हम दोनों के बीच बड़े भाई व छोटी बहन जैसा पवित्र रिश्ता समझते हैं।

समय कुछ आगे खिसका। मैंने एम.एससी. गणित विषय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और ऊषी ने इण्टरमीडियट बोर्ड की परीक्षा में अपने कॉलेज में टॉप किया। हम दोनों के मध्य आत्मिक प्यार था। एक दूसरे के प्रति चाहत थी। हमारे प्यार के बीच पढ़ाई नहीं थी। दोनों अपनी—अपनी जगह पर पूर्ण रूप से थे। मुझे अच्छी तरह से याद है। उसके कालेज में टॉप करने पर मैंने उससे पूछा था कि, ‘मैं उसे क्या भेंट करूँ' तब वह गम्भीर विचार मग्न रहने के बाद एकाएक दार्शनिक अंदाज में बोल पड़ी थी, ‘‘अपने आपको।''

मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया ही था कि उसने मुझे कसकर अपनी बाँहों में भींच लिया और ताबड़तोड़ मेरे चेहरे को चूमने लगी। ऐसे समय में वह एकाएक अपना होश खो बैठती थी, जबकि मैं ऐसे मौकों पर संयम से काम लेता था और उसके बालों को अपनी उँगलियों में उलझाने—सुलझाने लग जाता था। अक्सर प्रेम—विह्नल हो ऊषी की आँखों में आँसू भर आते थे।

एम.एससी. की डिग्री लेने के बाद मैं प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया और ऊषी ने कालेज ज्वाइन कर लिया। एक वर्ष बाद ही मैं भारतीय रिजर्व बैंक में प्रोबेशनरी आफीसर के पद पर चुन लिया गया। मैंने रिजर्व बैंक में ज्वाइन भी कर लिया। मेरे इस चयन से जहाँ मेरे माता—पिता व ऊषी के मम्मी—डैडी प्रसन्न थे, वहीं ऊषी से बिछुड़ने का मुझे बेहद दुःख था। मैं उसकी जुदाई सहन कर पाने में असमर्थ था। यही कारण था कि प्रोबेशनरी आफीसर की अधूरी टे्रनिंग बीच में ही छोड़कर मैं वापस ऊषी के पास आ गया। मैंने सबसे बहाना किया कि मैं यह नौकरी नहीं करूँगा। मैं आई.ए.एस. में बैठूँगा, जिसकी तैयारी नौकरी में रहते नहीं कर सकता हूँ।

सभी ने मुझे अपने ढंग से समझाया पर मेरे सामने किसी की न चली। अन्ततः मेरे तर्क के सामने सभी को झुकना पड़ा।

आई.ए.एस. के प्रथम प्रयास में ही यद्यपि मैंने लिखित परीक्षा पास कर ली, परन्तु में साक्षात्कार से आगे नहीं बढ़ पाया था। उस दिन मुझे ऊषी ने बहुत समझाया था। अपना चयन न होने पर मैं बहुत उदास था।

एक वर्ष बाद मैंने पुनः आई.ए.एस. की परीक्षा दी, परन्तु पहले जैसी स्थिति इस बार भी रही।

मैं हताश हो उठा।

उन हताशा से भरे दिनों में ऊषी ने मुझे सहारा दिया।

ऊषी के ही सतत्‌ प्रयास से मेरा चयन कुछ ही माह बाद पी.सी.एस. में हो गया। इस बीच ऊषी अपना ग्रेजुएशन प्रथम श्रेणी में पूरा कर एम.एससी. के अन्तिम वर्ष में पहुँच चुकी थी।

ट्रेनिंग पूरी होने के बाद ऊषी के सामने मैंने आण्टीजी से अपने प्रेम की बात की और ऊषी से विवाह करने का प्रस्ताव रखा। आण्टीजी कुछ पल अपलक मेरे चेहरे की ओर देखती रही, फिर हम दोनों को उन्होंने अपने गले से लगा लिया और आशीर्वाद दिया।

आण्टीजी व अंकलजी हम दोनों के विवाह की बात से आसानी से सहमत हो गये। मेरे माता—पिता को उन्होंने बुलवाया, वह आए। मात्र एक घण्टे में ही हमारा विवाह आसानी से तय हो गया। मेरे पिताजी तथा ऊषी के डैडी अपनी मित्रता को रिश्तेदारी में बदल कर प्रसन्न थे।

विवाह के दस—बारह दिन पहले से मुझे ऊषी से मिलने पर और ऊषी को मुझसे मिलने पर रोक लगा दी गयी। यह पाबंदी मेरी बुआजी के द्वारा लगाई गयी थी, पर मुझे अच्छी तरह से याद है कि हम दोनों एक—आध दिन के अन्तराल में कहीं न कहीं मिल लेते थे। इसमें टेलीफोन ने हम दोनों की बहुत मदद की।

ऊषी के साथ अपने विवाह की कल्पना मात्र से मैं प्रसन्नता से पागल—सा हो गया था। उन दिनों मैं अपने आप को संसार का सबसे भाग्यशाली पुरुष समझता था.... और फिर वह प्रतीक्षित दिन भी आया जब हम दोनों दाम्पत्य सूत्र में बँध गये।

दुल्हन के रूप में ऊषी स्वर्ग से उतरी कोई अप्सरा लग रही थी। वह पहले से कुछ लम्बी और तंदुरुस्त हो गयी थी। मैंने उसे किशोर अवस्था से देखा था। दुल्हन के रूप में देखकर मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि वह इतनी सुन्दर लगेगी। विवाह पूर्ण होने के बाद हम दोनों की सुहागरात के वे अविस्मरणीय क्षण अब भी मेरे मन—मस्तिष्क मे ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। उस समय मेरी उम्र पच्चीस वर्ष के आस—पास थी और उसकी बीस वर्ष के आस—पास।

फूलों से महकती सेज पर हम दोनों एक दूसरे मै सारी रात भींगते रहे। बीते चार वर्षों की कठिन तपस्या के बाद प्राप्त वरदान को हम दोनों पा रहे थे।

मेरी पे्रयसी, मेरी पत्नी ऊषी मेरी बाँहों में रात भर सारी जिन्दगी के लिए बँध चुकी थी। हम दोनों की सुहागरात कुछ घण्टों की नहीं थी।

हनीमून के उन सुहावने दिनों में हर रात हमारे लिए सुहागरात थी, और दिन सुहागदिन की तरह था।

मैंने डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्ति लेने के बाद पूरे तीन माह का अवकाश ले लिया था। उन तीन महीनों में हम दोनों ने भारत वर्ष के अनेक धार्मिक एवं दर्शनीय स्थलों का भ्रमण कर डाला। विभिन्न मौकों के सैकड़ों फोटो खिंच चुके थे। ऊषी को फोटाग्राफी का बहुत शौक था। भारत—भ्रमण के बाद जब हम दोनों वापस लौटे तो हम सिर्फ दो ही न रहे, बल्कि हम दोनों के प्यार ने एक नन्हें पौधे को ऊषी के गर्भ में अंकुरित कर दिया था।

जी हाँ...... वह मेरी प्यारी बेटी श्वेता है, जो इस समय पन्द्रह वर्ष की छोटी उम्र में अपने ग्यारह वर्षीय छोटे भाई शशांक के साथ दुःखों के सागर में डूब—उतरा रही है। मेरे दोनों बच्चे अपने नाना—नानी के पास इलाहाबाद में भौतिक सुख—सुविधाओं से पूर्ण उनकी आलीशान कोठी में रह रहे हैं, किन्तु जिस सामाजिक और मानसिक यंत्रणा को वे दोनों इस छोटी उम्र में झेल रहे हैं। उन दोनों अबोध बच्चों के लिए कितना असहनीय और कष्टकारी है, यह मैं उनका अभागा पिता भली भाँति समझ रहा हूँ। मैं अपनी आप बीती इस डायरी के पन्नों पर इसलिए भी लिख रहा हूँ कि कम से कम मेरे बच्चे समाज के दूसरे लोगों की तरह अपने पापा को अपनी माँ की नृशंस हत्या का नृशंस हत्यारा न समझें, बल्कि वे वास्तविकता से परिचित हों।

‘‘जागते रहो'' संतरी की आवाज के साथ ही दूर कहीं घण्टाघर से रात्रि के दो बजने का ध्वनि—संकेत सुनाई दिया। मैं अभी और लिखना चाहता हूँ, परन्तु शायद बालपेन की स्याही खत्म होने को है। कल फिर लिखूँगा, तब तक सोचने में समय बीतेगा।

मेरे सुखद दाम्पत्य जीवन में ग्रहण लगना तब प्रारम्भ हुआ, जब मेरा बेटा शशांक पाँच वर्ष का रहा होगा। उस समय मेरी पोस्टिंग फतेहपुर में उप—संचालक चकबंदी के पद पर हुई थी। यहीं पर मनोज ने नायब तहसीलदार के पद पर नियुक्ति पायी थी। वह मेरी तरह इलाहाबाद का पढ़ा हुआ प्रतिभा सम्पन्न ऊँचा पूरा गौरवर्ण नवयुवक था, जिसके अन्दर बहुत कुछ कर गुजरने की ढेर सारी इच्छाएँं थीं। वह अपनी वर्तमान नौकरी से सन्तुष्ट नहीं था और आई.ए.एस. बनना चाहता था। जिसकी तैयारी व मार्गदर्शन की गरज से वह मेरे पास यदाकदा आता रहता था। उसकी वाकपटुता और हाजिर जवाबी प्रशंसनीय थी। वह स्वभाव से सरल व मिलनसार था, जिसके कारण वह जल्दी ही मुझसे व मेरे परिवार से इस तरह घुल—मिल गया जैसे उससे हमारा कोई नजदीकी रिश्ता हो। शीघ्र ही मनोज मेरे बच्चों का मामा बन गया। ऊषी ने रक्षाबन्धन के अवसर पर उसे राखी बाँधकर अपना धर्म भाई बना लिया। श्वेता व शशांक के मित्र भी उसे मामा कहकर पुकारने लगे।

ऊषी के कोई सगा भाई तो था नहीं, वह मनोज को अपने भाई के रूप में पाकर खुश हुई थी, जो उससे उम्र में लगभग आठ—दस वर्ष छोटा था। मैं अपनी ऊषी को जीवन के प्रत्येक कोण में तृप्त व खुश देखना चाहता था। एक भाई की कमी थी, जो उसे वर्षों से सालती चली आ रही थी। वह मनोज ने पूरी कर दी।

यहाँ तक तो सब ठीक रहा, परन्तु दूसरे रक्षाबंधन के आने के कुछ दिन पूर्व ही एक रात जब ऊषी मेरी बाँहोें में थी तब बातों ही बातों में वह एकाएक मनोज के बारे में बातें करने लगी। वह मनोज की तारीफ पर तारीफ किये जा रही थी। यह तारीफ एक भाई की तारीफ न होकर एक सुन्दर पुरुष की तारीफ स्पष्ट प्रतीत हो रही थी। मै झुँझलाया। मेरे झुँझला उठने से वह शांत हो गयी, फिर कुछ देर बाद हम दोनों सो गये।

अगले दिन मैं लखनऊ में होने वाली आवश्यक विभागीय मीटिंग में सम्मिलित होने के लिए लखनऊ चला गया।

रक्षाबन्धन की ठीक पहली रात ऊषी ने सोने से पूर्व मुझसे कहा कि ‘‘वह मनोज को कल रक्षाबन्धन में राखी नहीं बाँधेगी।'' मेरा माथा ठनका। मुझे उस रात का स्मरण हो आया, जिस रात ऊषी मनोज की प्रशंसा कर रही थी। मेरे द्वारा कारण पूछने पर ऊषी ने भावुक होकर कहा, ‘‘मनोज के प्रति उसके सेण्टीमेण्ट बदल चुके हैं।''

‘‘क्या वह भाई नहीं रहा?'' मैंने वैसे ही प्रश्न किया?

‘‘हाँ'' वह बोली।

‘‘भाई नहीं रहा तो क्या अब वह तुम्हारा पे्रमी हो गया है।'' मैने बिना सोचे समझे कह दिया।

‘‘हाँ।'' वह तपाक से बोली।

मुझे इस उत्तर की कतई उम्मीद नहीं थी। एक पल के लिए मेरे ऊपर गाज—सी गिरी। मेरी नींद काफूर हो गयी। ऊषी न तो झूठ बोलती थी और न ही झूठ छिपाती थी। मजाक में भी वह झूठ का सहारा नहीं लेती थी, तब क्या उसने जो कहा वह सच है। मेरे मन को विश्वास नहीं हुआ। मैंने पुुनः स्पष्ट जानने की गरज से प्रश्न किया, ‘‘क्या कहा तुमने?''

‘‘हाँ', मनोज के प्रति मेरी भावनाएँ बदल गयी हैं। वह मुझे वैसे ही अच्छा लगता हैं, जैसे.... तुम।'' ऊषी दृढ़ता से बोली।

मैंने नाइटलैम्प की मद्धिम रोशनी में उसकी आँखों में झाँका उसकी आँखों में कोई बनावटीपन नहीं था। मेरा हृदय मथने लगा। रक्तचाप बढ़ने लगा। मैं पुनः चुप—चाप लेट गया। ऊषी मेरी परवाह किये बिना दूसरी ओर करवट लेकर मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगी।

मेरी आँखों से कब अश्रुधारा बह निकली, मुझे पता नहीं चला। मेरा गला रुँधने लगा।

तभी मैंने महसूस किया कि ऊषी मेरे सीने पर सिर रख मेरे बालों में उँगलियों से कंघी करने लगी। मेरे गालों पर बह रहे आँसुओं के गीलेपन ने उसे मेरे रोने का आभास दिया। वह उठकर बैठ गयी।

मैंने उसे अपने सीने से भींच लिया, ‘‘ऊषी मैं तुम्हें अपने प्राणों से भी

अधिक चाहता हूँ। तुम्हारे अलावा संसार में मैंने किसी को नहीं चाहा है। मैं यह कदापि सहन नहीं कर सकता कि तुम किसी और को चाहो। मुझ पर तुम्हारा और तुम पर मेरा सम्पूर्ण अधिकार है। हम दोनों के बीच किसी तीसरे की उपस्थिति असंभव है......।'' मैं रो रहा था।

ऊषी मेरे सिर को अपनी गोद में रखे मेरे चेहरे के ऊपर झुक गयी। मेरे आँसुओं से उसका चेहरा भीगने लगा।

‘‘सुधीर मुझे माफ कर दो। मैं तुम्हारी अपराधिनी हूँ। मैं भटक गयी थी। मनोज को अभी कुछ भी पता नहीं है कि मैं उसके प्रति क्या सोचने लगी हूँ। मैं उसे मन ही मन चाहने लग गयी थी। प्लीज रोओ मत। मुझे माफ कर दो...... मैं तुम्हारी.... और सदा तुम्हारी ही रहूँगी। मुझ पर केवल तुम्हारा ही अधिकार है। प्लीज मुझे माँफ कर दो।'' ऊषी फूट—फूटकर रोने लगी। मैं उसकी बातें सुनकर पिछला, सब भूलने लगा और उसे बेतहाशा चूमने लगा। वह भी मेरे प्यार का जवाब दे रही थी। आलिंगनबद्ध हम दोनों एक दूसरे को समर्पित गहरी नींद मे सो गये।

अगले दिन रक्षाबन्धन था। हम दोनों रात की घटना लगभग भुला चुके थे। मनोज पहले की तरह आया। हर्षोल्लास के साथ रक्षाबन्धन त्यौहार मनाया गया। ऊषी ने मनोेज को राखी बाँधी, श्वेता ने अपने छोटे भाई शशांक को राखी बाँधी। पूरा दिन त्यौहारमय व्यतीत हुआ।

दिन सप्ताह और महीने गुजरने लगे। हम दोनों सुखमय दाम्पत्य जीवन जीने लगे। किसी के द्वारा हम दोनों को आदर्श दंपति मात्र कह देने से मेरा सीना गर्व से फूल जाता था। मैंने ऊषी से मनोज को विषय बनाकर कभी चर्चा नहीं की। मैं उसे कुरेदना नहीं चाहता था। मुझे कुछ भय—सा था कि कहीं मेरे कुरेदने से ऊषी के मन में पुनः मनोज के प्रति आकर्षण पनपने न लग जाए।

राज्य में नयी सरकार ने सत्ता सँभालते ही स्थानान्तरण करने शुरू कर दिये, इसी क्रम में, मुझे भी स्थानान्तरित कर ए.डी.एम. (परियोजना) के पद पर मेरठ भेज दिया गया। अपने स्थानान्तरण को रुकवाने के मेरे तमाम प्रयास निरर्थक गये। इस प्रक्रिया में एक माह की मेडिकल लीव भी बेकार चली गयी। दोनों बच्चों की स्कूल में पढ़ाई शुरू हो चुकी थी। इस उम्मीद के साथ कि मैं एक दो माह के अन्दर ही इलाहाबाद या आसपास के जनपद में वापस किसी मैदानी जगह पर अपना स्थानान्तरण करवा लूँगा। मैने मेरठ जाकर ज्वाइन कर लिया और अपने परिवार को फतेहपुर में ही रहने दिया, लेकिन स्थानान्तरण वापसी के मेरे सारे प्रयास असफल रहे।

इस तरह छः माह बीत गये। इन बीते छः माह में मैं माह में एक या दो बार ही फतेहपुर अपने परिवार के बीच पहुँच पाता था। बच्चों की वार्षिक परीक्षाएँ नजदीक थी। अतः मैं पन्द्रह दिन का अवकाश लेकर फतेहपुर आ गया। एक दिन श्वेता ने मनोज की शिकायत करते हुए मुझसे कहा, ‘‘पापा मनोज मामा मुझे अच्छे नहीं लगते वह आपकी अनुपस्थिति में मम्मी को बहुत तंग करते हैं।''

श्वेता के इस उलाहने की बात जब मैंने ऊषी से कही तब वह बिल्कुल नकार गयी।

मैंने भी बात आगे नहीं बढ़ाई, परन्तु मेरा मन पहले की भाँति शंकित और अशान्त हो उठा। छुटि्‌टयाँ समाप्त होने के बाद मैं वापस मेरठ आ गया, जहाँ पर मेरे मन मस्तिष्क में श्वेता के उलाहने भरे शब्द गूँजते रहे। एक बार मेरा हृदय व्यथित हो उठा। फलस्वरूप मैं एक सप्ताह बाद ही आशा के विपरीत अचानक फतेहपुर पहुँच गया।

दरवाजेे पर ताला लटका देख मैं परेशान हो उठा। मैं मनोज के र्क्वाटर गया तो वहाँ मनोज भी अनुपस्थित था। उसके नौकर ने बताया कि ‘‘साहब कानपुर गये हैं।'' वह रात मैंने बड़ी बेचैनी की स्थिति में अपने घर के बाहर बरामदे में पड़े तख्त पर किसी तरह बिताई। अगले दिन प्रातः मैं परेशानी की हालत में वहीं लॉन में टहल रहा था कि ऑटो रिक्शा सड़क पर आकर रुका; जिसमें से ऊषी मनोज व बच्चों के साथ उतरी। ऊषी व मनोज मुझे अचानक आया देख चौंक पड़े, जबकि मेरे दोनों बच्चे मुझसे लिपट गये।

मनोज मेरी कुशलक्षेम पूछ उसी ऑटो रिक्शा में बैठ कर चला गया। न ही ऊषी ने मुझसे बात की और न ही मैंने उससे कुछ पूछना ठीक समझा।

रात, जब बच्चे अपने कमरे में जाकर सो गये, तब मैंने ऊषी से पूछा, ‘‘कल तुम सब कहाँ गये थे?...... मैं यहाँ कल का आया हूँ। मुझे सारी रात बाहर बरामदे में गुजारनी पड़ी। तुम कहाँ चली गयी थीं।'' मैंने मनोज के साथ जाने की बात जानबूझकर नहीं की...... सो गयी हो क्या?'' मैंने नाइट लैम्प जलाते हुए कहा।

‘‘नहीं। जाग रही हूँ।'' उसने हाथ बढ़ाकर नाइट लैम्प बन्द करते हुए पहली बार जवाब दिया।

‘‘तब फिर मेरे प्रश्न का जवाब क्यों नहीं दे रही हो?''

‘‘कानपुर गये थे।''

‘‘क्यों?''

‘‘बच्चों के पेपर समाप्त हो चुके थे और उन्होंने ‘‘जुरासिक पार्क'' फिल्म देखने की जिद ठान ली थी।''

‘‘अच्छा..... मनोज भी साथ गया था क्या?'' मैंने पहली बार मनोज के बारे में पूछा।

‘‘हाँ।''

‘‘तुम लोग कल रात में ही वापस क्यों नहीं आए? कानपुर में रात बिताने की क्या जरूरत पड़ गयी।''

‘‘हम लोग ईवनिंग शो चूक गए थे, फिर चिड़ियाघर देखने के बाद नाइट शो में जुरासिक पार्क फिल्म देखी। देर रात जब फतेहपुर के लिए कोई साधन नहींं मिल सका तब फिर वहीं रुकना पड़ा।''

‘‘अच्छा कहाँ पर रुके थे तुम लोग?''

‘‘वहीं एक होटल में......।''

मैं उच्छवास ले सोच में पड़ गया। ऊषी मेरे अगले प्रश्न की प्रतीक्षा करते—करते सो गयी। पर मैं सारी रात सो न सका। अगले दिन मैं श्वेता को लेकर कानपुर आया। फिर उस होटल में पहुँचा। जहाँ कल रात ऊषी व मनोज बच्चों के साथ रुके थे। होटल के अतिथि रजिस्टर में ऊषी के साथ मनोज की जगह अपना नाम अंकित देख मेरी शंका को बल मिला। होटल के डबल रूम सेट में पहुँच कर श्वेता ने पूछने पर बताया ‘‘पापा पिक्चर देखने के बाद हम लोगों ने खाना खाया था..... खाना खाने के बाद मनोज मामा ने मुझे व शशांक को मिठाई खाने को दी थी, फिर हम दोनाें सो गये थे।''

आगे मैंने उससे कुछ न पूछा और वापस फतेहपुर आ गया। बच्चों को मिठाई में नींद की गोली मिलाकर दी गयी होगी, जिससे वह अपनी माँ का घृणित रूप न देख सकें। मेरा मन उद्वेलित होता गया। हमारा वर्षों के प्यार का महल वासना के एक झाेंके में भरभरा कर गिर चुका था।

ऊषी सारे दिन चुप रही। वह मुझसे कुछ न बोली। हम दोनों के मध्य की यह शान्ति आने वाले भूचाल का आभास दे रही थी।

रात मैंने ऊषी से अपने मन की भड़ास निकाली, ‘‘ऊषी तुमने मुझमें ऐसी क्या कमी पाई, जो क्षुद्र वासना के वशीभूत मनोज से सम्बन्ध जोड़ बैठी?''

‘‘.....................''

‘‘हमारा वर्षों का प्यार और बच्चों की भोली सूरत ने भी तुम्हें ऐसा कुकृत्य करने से रोका नहीं।''

‘‘......................''

‘‘मेरी चाहत में क्या कमी रह गयी थी .......‘‘ मेरा गला भर आने को हुआ पर मैंने अपने आप को काबू में रखा। कुछ देर के लिए मौन—सा छा गया, फिर वह बोली,

‘‘सुधीर''

‘‘हाँ .......” बोलो तुम अपनी सफाई में क्या कहना चाहती हो?'' मैं तैश में बोला।

‘‘कुछ नहीं।''

‘‘तब क्या यह सही है, जो इस समय मैं सोच रहा हूँ और जो कानपुर जाकर पता करके आया हूँ।‘‘

‘‘हाँ..... वह पलंग पर उठकर बैठ गयी।

धुप्प अँधेरे मै उसकी काया मुझे स्पष्ट दिखाई दे रही थी। मैंने उसके दोनों कंधे पकड़े। वह अपना बचाव नहीं कर रही थी। मैंने उसके कंधे झकझोरते हुए उससे रुँधे गले से कहा, ‘‘तुमने ऐसा क्यों किया?..... उस रात तुमने जो वादा किया था कि मनोज को तुम भाई के अलावा और किसी रूप में नहीं देखोगी फिर..... फिर...... ऐसा क्यों किया ऊषी! आखिर क्यों?''

‘‘परिस्थितियाँ ही ऐसी बन गयी थीं।''

‘‘झूठ, सफेद झूठ..... परिस्थितियाँ पैदा किसने की?'' मैं तिलमिलाया।

‘झूठ, नहीं यह सच है।.... मैं कानपुर में कतई रुकना नहीं चाहती थी, परन्तु वापसी के लिए कोई साधन नहीं मिला फिर वहाँ रुकना पड़ गया। हो सकता है मनोेज की पहले से यह योजना रही हो तभी....

‘‘तभी क्या.....?'' मैं ऊषी के मुँह से सुनना चाहता था।

‘‘....तभी होटल में मनोज ने हम सभी को मिठाई में कुछ मिलाकर खिला दिया। जिससे मुझे अपना होश नहीं रहा..... और....

‘‘और..... और क्या?''

‘‘और ..... और...... जब मेरी नींद टूटी तो मैंने अपने आप को निर्वस्त्र मनोज की बाँहों में पाया। वह मुझे भोग कर खर्राटे भर रहा था।''

यह सुनते ही मुझे गहरा धक्का लगा मानोंं एक साथ सैकड़ों बिजलियाँ तड़क कर मेरे ऊपर समा गयी हों। कुछ देर के लिए मेरे मुँह से बोल नहीं निकला। मैं परेशान हो उठा।

‘‘.....तुमने ..... तुमने जागने पर क्या किया....?'' मैं थूक गुटकते हुए बोला।

‘‘क्या करती मनोज के प्रति मेरे मन के किसी कोने में दबी प्रेम की पौध को सिंचित होने का मौका मिला और मैं अपने आप को रोक न सकी। मैं रोमांच और उत्तेजना से भर उठी। मैंने मनोज को जगाया, उसने मुझे बेहोश कर मेरे अनजाने में मुझे निद्रावस्था में भोगा था.... मैंने उसे जाग्रत अवस्था में भोगा।''

चटाक....चटाक.... ऊषी के दोनों गालों पर मेरे हाथ स्वतः पहुँच गये, ‘‘निर्लज्ज, बेशर्म, शर्म नहीं आती तुम्हें अपनी इस बेहयाई पर तुम डूब कर मर क्यों नहीं गयी?.... तुम इतनी हद तक गिर सकती हो मैं सोच भी नहीं सकता था।''

‘‘...........................''

ऊषी के शरीर में कोई हरकत तक नहीं हुई। वह और पिटने की प्रतीक्षा करने लगी। पर मैंने उस पर दोबारा हाथ नहीं उठाया और मैं गुस्से की हालत में बहुत कुछ अंट—शंट बकता रहा, जिसे वह सुनती रही। मुझे अपने आप पर रोना आ रहा था।

बच्चे और पड़ोस के लोग जाग न जाएँ, इसका भी ध्यान रखना था। एकाएक आत्मा और परमात्मा का ज्ञान, जीवन और संसार की नश्वरता का भान हो आया।

मेरे जिस दाम्पत्य जीवन के महल की नींव प्यार और विश्वास के मजबूत मसाले से बँधी थी। वह क्षुद्र वासना और विश्वासघात के सम्मिलित आघात से टूटकर बिखर चुका था।

अगले दिन मैंने श्वेता ओर शशांक को मेरठ जाने के लिए तैयार किया। बीती घटनाओं से अनभिज्ञ मेरे दोनों अबोध बच्चे छुुट्‌टी होने के कारण और दीर्घ प्रतीक्षित मेरठ जाने की इच्छावश मेरे साथ चलने के लिए तुरन्त तैयार हो गये।

प्रातः बिस्तर पर ही ऊषी ने मुझसे कहा था, ‘‘सुधीर तुम मुझे तलाक दे दो। मैं तुम्हारे बिना तो जिंदा रह सकती हूँ, परन्तु मनोज के बिना एक पल भी जीवित नहीं रह सकती । तुम भी किसी और से शादी कर अपना नया जीवन शुरू करो। बच्चों को बोर्डिंग स्कूल भेज दो।''

ऊषी को मैं मन ही मन त्यागने का संकल्प ले चुका था। मैं उसकी परवाह किये बिना कि वह आगे क्या करेगी। मैं अपने दोनों बच्चों को लेकर मेरठ चला आया। धीरे—धीरे एक माह बीत गया। बच्चे अपनी माँ की याद करने लगे। वह उसे मेरठ लाने की जिद करने लगे धीरे—धीरे उनका धैर्य जवाब देने लगा और मैं नित नये बहाने गढ़कर..... अन्दर ही अन्दर घुलता जा रहा था।

पद, पैसा, समाज में प्रतिष्ठा क्या नहीं था मेरे पास.... सिवाय एक पत्नी के, जो शारीरिक वासना को प्राथमिकता देकर अपने बच्चों व मुझसे दूर किसी और की हो चुकी थी।

हमारे सुखद दाम्पत्य—जीवन को पूर्ण ग्रहण लग चुका था।

ऊषी के साथ बीते जीवन की एक—एक घटनाएँ याद आतीं। प्यार के वह पल याद आते, जब वह सिर्फ मेरी हुआ करती थी। इसी बीच एकाएक उसकी बेवफाई सामने आ जाती और मैं उसके प्रति घृणा से भर उठता। कितनी उम्मीदें हम दोनों ने साथ—साथ बाँध रखी थी। कितने सपने सोच रखे थे। आदर्श दाम्पत्य जीवन की वह दृढ़ साख टूट चुकी थी। कल समाज के मध्य उसी आदर्श दाम्पत्य जीवन का मखौल उड़ने वाला था।

मेरे अन्दर जीने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी, परन्तु बच्चों के कारण मर भी नहीं सकता था।

घुटन, अवसाद और तनाव भरे, उन पलों ने मुझे ऊषी के प्रति नफरत से भर दिया था। मनोज मेरा सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका था।

मैंने एक रिवाल्वर खरीदी और बच्चों को यह बताया कि मैं टूअर पर जा रहा हूँ और फतेहपुर आ गया।

मनोज ऊषी के साथ रहने लगा था।

मुझे एकाएक आया देख दोनों चौंके नहीं और न ही उनमें कोई परिवर्तन आया उन दोनों को प्रसन्न देख मेरे तन—बदन में आग लग गयी; परन्तु मैं अपने आप को संयत किये रहा।

मनोज ने मेरे हाल—चाल पूछे, श्वेता व शशांक के बारे में पूछा। उससे बात करना मेरे लिए असहनीय हो उठा।

ऊषी मुझसे बिना दृष्टि मिलाए अन्दर चली गयी।

मैंने ब्रीफकेस से रिवाल्वर निकाल लिया और उसे मनोज की कनपटी पर लगा दिया।

‘‘हैंड्‌सअप.... मनोज तुम्हारा खेल अब खत्म हुआ..... गद्‌दार, नीच, कमीने, तूने जिस थाली में खाया, उसी में छेद किया। पापी, मैं तुझे जिन्दा नहीं छोडूँगा, तुझे जीने का कोई अधिकार नहीं। कुत्ते।'' मैं गुस्से में भरकर बोला।

मनोज की घिग्घी बँध गयी। वह भय से काँपने लगा, मेरी गर्जना सुनकर ऊषी ड्राइंगरूम में आ गयी। अन्दर का दृश्य देखकर वह घबड़ा उठी।

‘‘साले! मेरी पत्नी को मुझसे छीन मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा को धूल में मिला देने पर तू तुला है।'' मैं अपने आपे में था फिर भी अपने आप में भयानकता पैदा किये हुए था।

‘‘तू ऊषी को बहुत प्यार करता है न..... बोल.....' मैंने अपनी जेब में रखी दूसरी पिस्तौल निकालकर मनोज को पकड़ाकर कहा ‘ले पकड़ यह पिस्तौल तू..... तू ऊषी को गोली मार..... नहीं तो मैं तुझे गोली मारता हूँ..... बोल तू मारता है या मैं तुझको गोली मारूँ.... बोल कमीने।'' मैंने मनोज की कनपटी में अपना रिवाल्वर गड़ाते हुए तेज स्वर में कहा।

अगले ही पल मनोज ने ऊषी की ओर निशाना साधकर ट्रेगर दबा दिया। रिवाल्वर की नकली गोलियाँ ‘‘धाँय—धाँय'' कर उठी। ऊषी अपने स्थान पर हल्की—सी लड़खड़ाई फिर पास रखे सोफे पर सँभलकर बैठ गयी। मनोज हैरत में पड़ गया। कभी वह ऊषी की ओर देखता तो कभी पिस्तौल की नाल को, जिसमें से धुआँ निकल रहा था। मारे घबराहट के उसके हाथ से नकली पिस्तौल छूटकर फर्श पर गिर गयी। काँपते पैरों के सहारे वह अधिक देर खड़ा न रह सका और वहीं बैठ गया। मैंने आवेश में आकर एक तेज जूते की ठोकर उसकी कमर पर जमाई वह कराह कर वहीं फर्श पर लुढ़क गया।

ऊषी सोफे पर बैठी भय से काँप रही थी। मैंने सेन्टर टेबल पर रखे पानी से भरे गिलास को उठाकर उसे पीने को दिया। वह एक साँस में गिलास का सारा पानी पी गयी। फिर भी उसकी घबराहट कम न हुई। उसके माथे पर पसीने की बूँदें चुह—चुहाँ आयीं थीं। वह इस एक माह में काफी कमजोर और दुबली हो चुकी थी।

‘‘देखा तुमने ऊषी तुम्हारा मनोज तुम्हें कितना प्यार करता है। अपने प्राण की रक्षा के लिए उसने तुम्हारे ऊपर गोली चलायी। सोचो अगर यह गोलियाँ असली होती तब क्या होता।''

मनोज फर्श से उठकर भागने के उपक्रम में था। मैंने उसके ऊपर रिवाल्वर तान कर कहा, ‘‘कायर, पापी तू वहीं पड़ा रह, किसी मुगालते में न रहना इस रिवाल्वर की सारी गोलियाँ असली हैं।

मैं ऊषी की तरफ हुआ और उससे मैंने पूछा, “क्या अब भी तुम इस विश्वासघाती के साथ रहना चाहती हो?........ बोलो........ ऊषी बोलो मैं तुम्हें अब भी माफ कर सकता हूँ। चलोगी मेरे साथ। अपने बच्चों के पास। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है मैं तुम्हें अपनाने को तैयार हूँ। बच्चों को भी कुछ नहीं मालूम। बोलो जवाब दो ऊषी।''

ऊषी बिलख कर रो पड़ी और मेरे पैरो से लिपट गयी, ‘‘नहीं—नहीं मैं पापिन हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बेवफाई की है। मैंने अपने बच्चों को धोखा दिया है। मैं अब तुम जैसे देवता के लायक नहीं रही। मुझे अब जीने का कोई अधिकार नहीं है। चला दो मुझ पर गोली..... मैं अब और जीना नहीं चाहती।'' उसने घृणा से फर्श पर औंधे पड़े मनोज के ऊपर थूक दिया।

मैंने उसका कंधा पकड़कर उसे खड़ा किया और अपनी बाँहों में भरकर आँसू रूमाल से पोंछे फिर कहा ‘‘नहीं! ऊषी तुम जियोगी मेरे लिए अपने बच्चों के लिए, तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। मेरे लिए इतना ही काफी है। सुबह का भूला शाम को लौट आता है, तो वह भूला नहीं कहलाता.......।'' मैंने फर्श पर भय से काँप रहे मनोज की ओर देखकर कहा, ‘‘कमीने तू मेरी नजरों से दूर हो जा..... मैं तेरा खून करके फाँसी पर चढ़ना नहीं चाहता...... भाग यहाँ से, अब कभी भी तू हम दोनों के बीच आया, तो मैं तुझे जिन्दा नहीं छोड़ूँगा।''

अपने प्राणों की भीख पाकर मनोज वहाँ से ऐसे भागा जैसे शेर की माँद से जान बचाकर खरगोश भागा हो।

ऊषी को मैंने अपनी बांहों का सहारा देते हुए उसे सोफे पर पुनः बैठा दिया। फ्रिज से पानी की बोतल निकालकर उससे दो गिलास पानी ऊषी को पिलाया, फिर भी उसकी रुलाई बन्द नहीं हुई। वह मुझसे लिपटकर पश्चाताप के आँसू बहाती रही।

अगली सुबह फतेहपुर के उस मकान में ताला लगाकर मैं ऊषी को लेकर मेरठ चला आया। बच्चे अपनी माँ को पाकर बेहद प्रसन्न हुए। ईश्वर की कृपा से मुझे इसी समय अपना स्थानान्तरण पत्र बनारस के लिए प्राप्त हुआ। अगले दो दिन बाद हम सब बनारस आ गये।

कुछ दिन बाद मैं फतेहपुर गया। वहाँ से सारा सामान ट्रक में लदवाकर बनारस ले आया। सरकारी बँगला खाली न होने के कारण हम लोग विश्वेश्वर गंज में एक अच्छा मकान किराये पर लेकर रहने लगे।

एक दिन गंगा नदी के दशाश्वमेध घाट पर पहुँच कर हम सब ने स्नान किया और वहीं पर सत्यनारायण भगवान की कथा सुनी। रात्रि मैंने ऊषी को दिलासा दिया कि उसके सारे पाप गंगा नदी में स्नान करके धुल चुके हैं। प्यार की गहराइयों में पहुँचते—पहुँचते मुझे लगा कि ऊषी को समझाने का मेरा प्रयास सफल रहा। वह भाव विभोर हो लम्बे अर्से के बाद अपने सच्चे प्यार को अर्पित करने के बाद सो गयी। मैं भी लम्बे अर्से के बाद उस रात गहरी नींद में सो गया।

अगले दिन की सुबह हम दोनों के लिए नयी शुरुआत थी। बीती घटना को हम दोनों बुरा सपना समझ भूलने लगे।

दिन महीने पूर्ववत्‌ सुखमय बीतने लगे।

दो वर्ष बनारस में रहने के बाद मेरा स्थानान्तरण इलाहाबाद के लिए हो गया।

‘‘जागते रहो''

जेल में तैनात संतरी अपनी ड्‌यूटी निभा रहे हैं। भोर होने में अभी एक घंटे का समय शेष है। रात्रि के यही कोई तीन बज रहे होंगे, इस समय।

जेल की कोठरी में कुछ दिनों की कैद से मैं उकता चुका हूँ। कैसे लोग जेल में कैदी के रूप में लम्बा समय काट पाते हैं। मेरी तरह उम्र कैद की सजा पाये कैदियों की तो और भी बुरी हालत हो जाती होगी। मेरी समझ से शायद ही किसी जेल में कैदियोें के लिए बनाये गये जेल मैनुअल के नियमों, मानकों का सही—सही पालन किया जाता हो।

जेल में आना और कैदी के रूप में सजा के दिन व्यतीत करना, किये गये अपराध की सजा कहलाती है, परन्तु मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि इस तरह की सजाएँ कितना प्रायश्चित करा पाती हैं। रोज—रोज मरना है, कैदी का जीवन। जेलों को आश्रम होना चाहिए, जहाँ कैदी को अपने अपराधों का बोध कराया जाये और जब वह अपनी निर्धारित सजा बिताकर समाज में वापस पहुँचे, तब निर्मल हृदय और सात्विक जीवनधारी की भाँति हो, जिसमें वैष्णव गुण समाहित हो चुके हों।

सभी सोच रहे होंगे कि मैं अपनी बीती से भटककर किस दर्शन में खो गया हूँ। नहीं मैं भटका या खोया नहीं हूँ। मुझे तो सूर्योदय के पूर्व न केवल अपनी आप बीती और वास्तविकता से सब को परिचित कराना है, बल्कि वह कार्य सम्पन्न कर देना है, जो मैंने यह सब लिखने से पहले सोच रखा है। क्या सोच रखा है यह आगे स्वतः मालूम हो जायेगा।

मैं कोई कथा लेखक या कवि नहीं हूँ। मुझे तथाकथित शैली, वाक्य विन्यास, शब्दों का चयन करना नहीं आता और न ही मैं कहानी में रोचकता, लाने के लिए कल्पना, मुहावरोें का प्रयोग कर पाने में सक्षम हूँ.... मुझे तो सीधी साफ वस्तुस्थिति से सब को परिचित कराना है, अपनी आप बीती कथा, सरल प्रवाहमय भाषा की अभिव्यक्ति के द्वारा।

हाँ, तो अब आगे, दुर्भाग्य ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा। नियति ने ऐसी परिस्थितियाँ ला दीं, जो मेरे लिए आगे चलकर अभिशाप बन गयीं। इलाहाबाद में हमें आये अभी एक वर्ष भी नहीं बीता था कि मनोज एस.डी.एम. के पद पर स्थानान्तरित होकर इलाहाबाद आ गया। उसका सरकारी आवास हमारे सरकारी बँगले से ज्यादा दूर न था। बच्चे अपने तथाकथित मामाजी को पाकर प्रसन्न हो गये, जो पूर्व घटनाक्रम से अनभिज्ञ थे। हाँ, मेरी व ऊषी की स्थिति विकट हो गयी।

हम दोनों मनोज से कटे—कटे रहते। वह भी हम लोगों से किनारा किये रहता।

सम्भवतः वह मेरे रौद्र रूप से भय खा रहा था। बच्चों के साथ यदा—कदा कहीं पर भेंट हो जाने पर ही बातचीत करता। चाहते हुए भी हम दोनों बच्चों को मनोज से मिलने के लिए मना नहीं कर पा रहे थे। बच्चे इस बात को लेकर अक्सर शिकायत करते कि मामाजी न तो हम लोगों से ठीक से बातें ही करते हैं और न ही पहले की तरह घर आते हैं। ऊषी की सलाह पर हम लोग सरकारी बँगले को छोड़कर ऊषी के पैतृक निवास में आकर रहने लगे, जिससे बच्चों से मनोज की दूरी बनी रहे। मेरे सास—ससुर जो अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में पहुँच चुके थे। वे अपना, शेष जीवन वानप्रस्थी के रूप में चित्रकूट में जानकी कुंड स्थित प्रमोद वन में रहकर बिता रहे थे। हम लोग दो दिन बाद ही चित्रकूट घूमने गये और उनके पास प्रमोद वन मै रुके।

ऊषी के डैडी प्रमोद वन में आश्रम की व्यवस्था अवैतनिक रूप से देखते थे। चित्रकूट, जहाँ शांत प्राकृतिक सुंदरता भरे आध्यात्मिक वातावरण में आँखों को शीतलता और आत्मा को शान्ति मिलती है।

मैं ऊषी की विचलित अवस्था को देखकर एवं उसकी सलाह पर इलाहाबाद से अपना स्थानान्तरण अन्यत्र कराने का प्रयास करने लगा।

मेरे दुर्भाग्य का समय उस काली रात से प्रारम्भ होता है, जब मैं अपने स्थानान्तरण के सिलसिले में लखनऊ से वापस इलाहाबाद आ रहा था। दुर्भाग्यवश उस रात गंगा—गोमती एक्सप्रेस निर्धारित समय से काफी विलम्ब से प्रयाग रेलवे स्टेशन पहुँची। रात्रि के यही कोई ग्यारह—साढ़े ग्यारह बजे का समय हो रहा था। मैं रेलवे स्टेशन से अपने निवास पहुँचा। हमारे निवास के सामने पार्क में नवरात्रि के शुभ अवसर पर माँ दुर्गा की भव्य झाँकी सजी हुई थी। भक्त गणों की इस समय भी काफी भीड़ वहाँ पर एकत्रित थी। जवाबी कीर्तन का आयोजन हो रहा था। वातावरण में देर रात्रि जैसी शान्ति के स्थान पर चहल—पहल, शोर गुल हो रहा था।

मैंने ऑटोरिक्शा वाले का किराया चुकाया और कोठी का बाहरी गेट खोलकर अन्दर चला गया।

गेट पर ताला सम्भवतः मेरे आने की उम्मीद में नहीं लगाया गया था, किन्तु गेट को केवल उढ़का पाया देखकर मुझे ऊषी की लापरवाही में तनिक क्रोध भी आया। अन्दर कोठी की सारी लाइटें जल रही थीं। हाल में तेज टी.वी. चलाने की भला क्या तुक है? ऊषी व बच्चों को चौंकाने के उद्‌देश्य से मैंने कालबेल नहीं बजाई और ड्रांइग रूम होता हुआ हाल में पहुँचा तो मेरा माथा ठनका। उम्मीद के विपरीत हाल में कोई नहीं था। जबकि टी.वी. चल रहा था। बच्चाें व ऊषी के प्रति मेरी नाराजगी बढ़नी स्वाभाविक थी।

मैं तनिक गुस्से में जैसे ही हाल पार कर अन्दर अपने बेडरूम में पहुँचा, तो मेरे होश उड़ गये। मेरे पैरोें के नीचे से जमीन खिसकने लगी। मेरा दिल बैठा—सा जा रहा था, जो कुछ मेरी आँखें देख रहींं थीं। वह शर्मनाक था। मनोज व ऊषी बेड पर आपत्तिजनक स्थिति में थे। ऊषी का मुँह दूसरी ओर था, जब कि मनोज उसके अर्द्धनग्न शरीर पर झुका हुआ था। दोनों में से किसी ने भी मुझे नहीं देखा था। मैंने तत्काल निर्णय लिया और बिना समय गवाए अपने स्टडी रूम में आ गया। मैंने टेबिल की दराज में रखी अपनी सर्विस रिवाल्वर निकाली उसमें गोलियाँ भरीं और अपने बेडरूम में आ गया। मनोज अपने कपड़े लगभग पहन चुका था। ऊषी पहले की तरह दूसरी ओर मुँह किये बेड पर चित पड़ी थी। मेरे हृदय में उस समय दोनों के प्रति घोर नफरत और हिंसा भरी हुई थी। मैंने बिना किसी सम्बोधन के या पूर्व चेतावनी दिये मनोज के ऊपर फायर कर दिया। वह दरिन्दा ठीक से चीख भी नहीं पाया था। रिवाल्वर की गोली उसके भेजे को भेद गयी थी। उसका शरीर एक पल के लिए हवा में लहराया फिर वह वहीं फर्श पर ढे़र हो गया। अब ऊषी की बारी थी, जो बिना हरकत किये अभी भी दूसरी ओर मुँह किये शांत पड़ी हुई थी। मेरे रिवाल्वर से दूसरा फायर हुआ। गोली ऊषी की बाई छाती की पसलियों के पास धँस गयी। उसका शरीर एक पल के लिए हिला। मैं उसे एक और गोली मारने की गरज से उसके निकट पहुँचा। एक पल के लिए ऊषी की आँखें खुली। उसका माथा चोट खाया हुआ था। जिससे खून अभी भी रिस रहा था। उसने प्रयत्न करके अपना दाहिना हाथ उठाया और बेडरूम से लगे स्टोर रूम की ओर इशारा किया। वह कुछ बोलने का प्रयत्न कर रही थी, मुझसे वह कुछ कहना चाह रही थी, तभी उसकी गर्दन एक ओर लुढ़क गयी।

मैं असमंजस में पड़ गया और कुछ समझ न सका। मैं इस हड़बड़ाहट में अपने बच्चों को भूल चुका था। बच्चों का आभास ऊषी के इशारा करने पर हुआ। मुझे तत्क्षण बच्चों का ख्याल आया। किसी गम्भीर आशंका से मेरा मन भर उठा। मैंने रिवाल्वर फेंकी और तत्काल बेडरूम से सटे स्टोर रूम का दरवाजा खोला। मेरे दोनों बच्चे अन्दर बेसुध पड़े थे, जिनके सिर से खून निकल रहा था। मेरी स्थिति पागलों जैसी हो गयी। मैं उन्हें उठाकर बेडरूम में ले आया और पानी के छीटें उनके मुँह पर मारने लगा। मेरी बेटी श्वेता कुछ देर बाद होश में आ गयी। वह ‘‘पापा'' कहकर मुझसे लिपट गयी, किन्तु अगले ही पल अपनी मम्मी को खून में लथपथ देखकर पुनः बेहोश हो गयी।

मैं किंकर्तव्यविमूढ़—सा कभी ऊषी की लाश को देखता, तो कभी बेहोश बच्चों को..... उस वक्त मुझे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। बच्चों को तुरन्त इलाज की जरूरत थी। मैंने पुलिस को फोन किया। फोन करने के बाद अपने दोनों बच्चों को अपनी कार में लेकर कमला नेहरू अस्पताल पहुँचा। बच्चों के सिर पर चोटें उन्हें बेहोश करने के लिए की गयी थी।

भोर होते—होते मेरी तो दुनिया ही लुट चुकी थी। मेरे दोनों बच्चों ने होश मै आने के बाद, जो कुछ मुझे बताया उसे सुनकर मुझे अपने आप से घृणा होने लगी। मैं अपने दुर्भाग्य पर फूट—फूट कर रोता रहा। मेरे हाथों से मेरी निर्दोष धर्मपत्नी ऊषी का मेरी जल्दबाजी के कारण जघन्य कत्ल हो गया था, जिसके लिए मैं आपने आप को कभी माफ नहीं कर पाऊँगा।

श्वेता ने जो बताया उसके अनुसार, मेरी अनुपस्थिति में “रात जब वे माँ दुर्गा की झाँकी देखकर वापस लौट रहे थे, तो रास्ते में मनोेज मामा मिले, जो मम्मी के द्वारा सख्ती के साथ मना करने पर भी कोठी में हमारे साथ चले आये। कोठी में कोई नौकर चाकर नहीं था। चौकीदार को भी मम्मी ने नवरात्रि का त्यौहार होने के कारण छुट्‌टी दे रखी थी। अब तक आप को गंगा—गोमती से वापस आ जाना चाहिए था, किन्तु आप भी नहीं आये थे। हम दोनों बहन—भाई बिना कुछ जाने समझे हाल में आ गये और टी.वी. में आ रहे प्रोग्राम को देखते हुए आप की प्रतीक्षा करने लगे। दूसरे कमरे में मम्मी व मामाजी में किसी बात को लेकर झगड़ा होने लगा। मैं व शशांक मम्मी वाले कमरे में आ गये। वहाँ पर मम्मी ने मनोज मामा के गाल पर एक तेज थप्पड़ मार कर उन्हें डाँटकर ‘‘गेट आउट'' कहा था। हम दोनोें भाई—बहन कुछ सोच पाते इसके पहले मनोज मामा ने मेरे व शशांक के सिर को दीवार से टकरा दिया। उसके बाद हमें कुछ याद नहीं कि क्या हुआ, जब मुझे पहली बार होश आया, तब आप आ चुके थे और मम्मी को मैंने खून से लथपथ देखा।‘'

हुआ यह था कि दोनों बच्चों को बेहोश करने के बाद उस दरिन्दे मनोज ने ऊषी के साथ जोर—जबरदस्ती करनी चाही, जिसका विरोध करने के कारण उसने ऊषी का सिर दीवार से टकरा दिया और बेहोश ऊषी को बेड पर लिटाने के बाद उसकी इज्जत लूटने लगा। उसी समय मैं वहाँ पहुँचा था। आगे जो हुआ वह पीछे लिख चुका हूँ। काश! मैं पाँच मिनट पहले पहुँचा होता।

ऊषी की हत्या का कलंक लिए मैं आगे के जीवन को जीने की इच्छा त्याग चुका हूँ। अपनी मृत्यु के बाद मैं ऊषी से माफी माँगने उसके पास जाऊँगा। काश! मनोज को गोली मारने के बाद मैं ऊषी को ठीक से देख पाता...... पर कहाँ? उस समय तो मेरी आँखों के सामने घृणा और बदले की पट्‌टी चढ़ी हुई थी।

‘‘जागते—रहो!.....''

जेल के संतरी की आवाज शांत वातावरण में गूँजी। सुबह होने में अभी कुछ समय शेष है, इस काल कोठरी में मुझे अभी कुछ देर और बिताना है, इसके बाद...

मैंने अपनी बायीं कलाई में पेन की निब से गहरा घाव कर लिया है। अपनी कलाई की नस को इसी पेन की निब से मैंने किसी तरह काट लिया है......... खून बहना शुरू हो चुका है। जब तक खून बहता रहेगा......... मेरी आँखें झपकेंगी नहीं, तब तक मैं लिखते रहना चाहता हूँ।

‘‘जागते रहो''

जेल के संतरी की आवाज में बहुत कुछ छिपा—जुड़ा हुआ है। सच, हम में से प्रत्येक को अपनी आँखें सदैव खोले रखनी चाहिए..... जागते रहना चाहिए। कुछ भी करने से पहले सारी परिस्थितियाँ भली—भाँति समझ—बूझ लेनी चाहिए। उसके बाद ही अपने निर्णय को अन्तिम रूप देना चाहिए। काश! मैंने ऐसा किया होता, तो आज मैं अपनी प्राणप्रिय ऊषी के बिना न होता...... जीवन में व्यक्ति से कब, कहाँ और कैसी गलती हो जाती है, जिसके लिए सिवाय पछतावे के कुछ शेष नहीं बचता। व्यक्ति को सदैव वस्तुस्थिति भली—भाँति समझने के बाद ही कोई कदम उठाना चाहिए। साथ ही साथ मैं यह भी कहूँगा कि प्रत्येक स्त्री को जिसके साथ जाने—अनजाने में पहले हो चुकी गलती के लिए अपने पूर्व प्रेमी से सदैव सावधान रहना चाहिए, जो कभी भी परिस्थितियाँ व वासनावश अपना पैशाचिक रूप धारण कर सकता है।

प्रिय ऊषी! मैं अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने तुम्हारे पास पहुँच रहा हूँ। मेरे अपराध के लिए कानून जो सजा दे चुका है वह बहुत कम है.... तुम्हारे बिना जीवन स्वयं में बहुत बड़ी सजा है। मैं तुम्हारे बिना इस संसार में जीवित नहीं रह सकता हूँ। मुझे माफ कर देना....।

...... मेरे प्रिय बच्चों.... तुम भी अपने इस अभागे पापा को माफ कर देना, जो तुम दोनों को इस छोटी उम्र में अपने मम्मी—पापा केे बिना जीवन बिताने के लिए छोड़कर जा रहा है......।

..... श्रीमान! जेलर साहब!..... मेरे द्वारा लिखी इस आत्मकथा को मेरे बच्चों को सौंप देने की कृपा करें। आपसे हाथ जोड़कर विनम्र प्रार्थना है।''

पेन की स्याही चुक जाने के कारण आगे की पंक्तियाँ उसने अपने बह रहे रक्त से लिखनी शुरू कीं।

..... मेरे प्रिय बच्चों..... अपने नाना—नानी के पास रहकर अच्छे नागरिक बनना अपनी मम्मी को गलत मत समझना, उसे देवी की तरह पूजना...... और हो सके तो अपने इस अभागे पापा को माफ कर देना......।

उसकी आँखें बोझिल हो चली थीं। उसके शरीर का सारा रक्त कलाई के पास कटी नस के रास्ते बह चुका था। उसने अपने शरीर के अन्दर शेष सारी शक्ति को समेटकर अपने दोनों हाथ उठाये, पेन को अपने दोनों हाथों से पकड़कर फर्श पर बह रहे खून में डुबोया और कागज पर आगे लिखा...... ‘तुम्हारा अभागा पापा'।

तत्क्षण उसका निर्जीव शरीर वहीं फर्श पर एक ओर लुढ़क गया।

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