अमेरिका में 45 दिन - सोनरूपा विशाल राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अमेरिका में 45 दिन - सोनरूपा विशाल

किसी भी देश, उसकी सभ्यता, उसके रहन सहन..वहाँ के जनजीवन के बारे में जब आप जानना चाहते हैं तो आपके सामने दो ऑप्शन होते हैं। पहला ऑप्शन यह कि आप खुद वहाँ जा कर रहें और अपनी आँखों से...अपने तन मन से उस देश...उस जगह की खूबसूरती...उस जगह के अपनेपन को महसूस करें। दूसरा ऑप्शन यह होता है कि आप वहाँ के बारे में किसी ऐसे व्यक्ति से जानें जो वहाँ पर कुछ वक्त बिता चुका हो।

अब ये तो ज़रूरी नहीं कि आपकी किस्मत इतनी अच्छी हो कि आप चाहें और तुरंत ऐसा व्यक्ति आपके सामने हाज़िर नाज़िर हो जाए और अगर हो भी जाए तो ये कतई ज़रूरी नहीं कि वह आपको...अपने अनुभव..आपकी ही सुविधानुसार..आपके द्वारा ही तय किए गए समय के मुताबिक अपने अनुभव आपको सुनाने को बेताब हो। यहाँ ये बात काबिल ए ग़ौर है कि बेताब व्यक्ति ही आपके सामने खुले मन और खुले दिल से अपने दिल की...अपने मन की बात रख सकता है।

ऐसे में हमारे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि अव्वल तो ऐसे आदमी को ढूंढें कहाँ से और चलो..अगर घणी मशक्कत के बार अगर ऐसा मानुस मिल भी गया तो क्या गारेंटी है कि वह अपने अनुभव सुनाने को हमारी ही जितनी उत्कंठा और बेताबी को महसूस कर रहा होगा? ऐसे में काम भी बन जाए और लाठी भी ना टूटे, इसके लिए बढ़िया यही होगा है कि हम किसी के लिखे यात्रा वृतांत को पढ़ें।

अब उस यात्रा वृतांत को लिखने वाले ने खामख्वाह ही तो लिख नहीं डाला होगा। जब उसके जज़्बातों ने मन की चारदीवारी से बाहर निकल औरों को भी अपने अनुभव का साझीदार बना डालने की ठानी होगी, तभी उसने अपने कीमती समय में से समय निकाल अपने भावों को...अपने अनुभवों को...अपने उदगारों को अपनी लेखनी के ज़रिए पहले शब्दों के रूप में और फिर उन्हीं शब्दों को किताब का रूप दिया होगा।

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध मंचीय कवियत्री सोनरूपा विशाल जी के द्वारा लिखे गए "अमेरिका में 45 दिन" नामक यात्रा वृत्तांत की। इस किताब में 1980 में अमेरिका जा कर बस गए भारतीयों द्वारा स्थापित 'अंतराष्ट्रीय हिंदी समिति' द्वारा आयोजित उनके अमेरिका और कनाडा के अलग अलग शहरों में हुए 24 कवि सम्मेलनों और उनके चक्कर में हुए 45 दिन के प्रवास की बातें हैं। इस सफ़र में उनके साथी थे हास्य व्यंग्य के प्रसिद्ध मंचीय कवि सर्वेश अस्थाना और मुम्बई से गौरव शर्मा। मूलतः कवियत्री होने की वजह से उनके लेखन में जगह जगह पद्य की झलक भी दिखाई देती है।

उनकी इस यात्रा संस्मरण में ज़रिए हम अमेरिका के डैलस, इंडियाना पोलीस, डेट्रॉयट, डेटन, शिकागो, टोलीडो और क्वींस लैंड आदि शहरों के बारे में जान पाते हैं कि किस तरह अमेरिका के विभिन्न शहरों में भारतीय अपने अथक परिश्रम के बल पर आज उस देश का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन बैठे हैं और वहाँ पर अपने देश की संस्कृति तथा अपने देश के रीति रिवाजों को शिद्दत के साथ संजोए बैठे हैं।

बेशक अमेरिका में रहने वाले भारतीयों की वेशभूषा पर पाश्चात्य की झलक ने अपना थोड़ा बहुत असर दिखाया हो लेकिन अपनी मिट्टी से अपने जुड़ाव...अपने लगाव की वजह से तीज त्योहारों के मौके पर वे अपने भारतीय परिधानों को पहनना नहीं भूलते हैं। देसी व्यंजनों और उनके तड़के की महक अब भी उनकी रसोई से निकल अपने आसपास के वातावरण को महकाती है।

इस वृतांत में उन्होंने बात की अपने प्रवास के दौरान आने वाले विभिन्न शहरों और उनकी खासियतों की। उन्होंने बात की कोलंबस में बसे उर्दू पसंद करने वाले पाकिस्तानी और भारतीय श्रोताओं की। उन्होंने बात की अटलांटा के युवा वालेंटियर्स और हिंदी के प्रति उनके लगाव की। उन्होंने बात की वहाँ पढ़ाई जाने वाली हिंदी और वहाँ के स्वामी नारायण मंदिर की।उनकी इस किताब से एक और खासियत अमेरिका के मंदिरों की पता चली कि वहाँ एक ही मंदिर में साथ साथ भारत के सभी भगवानों की मूर्तियां विराजमान होती हैं भले ही वह दक्षिणी राज्यों में पूजे जाने वाले कोई भगवान हों अथवा भारत के किसी अन्य हिस्से के।

इस किताब में उन्होंने बात की अमेरिका और कनाडा के दोनों तरफ से बहते नियाग्रा प्रपात की। इसमें बात है नैशविल, पिट्सबर्ग, हैरिसबर्ग, फिलाडेल्फिया, फीनिक्स और न्यूयॉर्क आदि शहरों की। इसमें बात है
बोस्टन, वाशिंगटन, रिचमंड और रालेह की। उन्हीं की किताब से जाना की ह्यूस्टन के डाउन टाउन और सिएटल की ख़ासियत वहाँ के टनल्स हैं। वहाँ गर्मी से बचने के पूरा शहर ज़मीन के ऊपर और आवाजाही के लिए टनल्स ज़मीन के नीचे बनी हुई हैं।

इस किताब के ज़रिए हमें पता चलता है कि अमेरिका में होने वाले किसी भी शादी अथवा रिसैप्शन में खाना और ब्रंच तो मेज़बान देते हैं लेकिन होटल और कार रेंट वगैरह का खर्चा मेहमान खुद वहन करते हैं। और बहुत महँगा देश होने की वजह से वहाँ पर घर-दफ़्तर की सफाई से ले कर अपने आसपास उग आई बेतरतीब घास काटने तक के काम खुद ही करने पड़ते हैं लेकिन इस स्वावलंबन और आत्मनिर्भर होने के चक्कर में सब वहाँ आत्मकेंद्रित से होते जा रहे हैं।

आमतौर पर कवि सम्मेलनों में भारी भीड़ का समावेश होता है लेकिन जब एक कवि सम्मेलन के लिए श्रोताओं की भारी कमी पड़ गयी तो भी इन कवियों की तिकड़ी की दाद देनी होगी कि इन्होनें कार्यक्रम को कैंसिल करने के बजाय आयोजक का मनोबल बढ़ाना उचित समझा और महज़ 16 श्रोताओं के लिए भी पूरे मनोयोग से कार्यक्रम किया।

इस किताब के ज़रिए पता लगा क्लीवलैंड के नज़दीक एक आदिम प्रवृत्ति वाले गांव की जो आज भी सरकार द्वारा प्रदत्त बिजली और तमाम तरह की आधुनिक सुविधाओं से दूर है। वहाँ पर आज भी बैलों द्वारा ही खेतों को जोता जाता है तथा लैंप द्वारा घरों में रौशनी की जाती है। अब चूंकि वे सरकार द्वारा दी जाने वाली किसी भी सुविधा का उपयोग नहीं करते हैं तो टैक्स भी नहीं देते हैं। इसके ठीक विपरीत हमारे देश में बहुत सी सरकारी सुविधाओं का प्रयोग करते हुए भी बहुत से लोग डायरेक्ट टैक्स के रूप में सरकार को धेला तक नहीं थमाते हैं।

इसी किताब से हमें पता चलता है कि हमारे यहाँ लोग जबकि ठीकठाक...ज़िंदा...स्वस्थ आदमी की भी परवाह नहीं करते और बेधड़क अपनी गाड़ी उन पर चढ़ा देते हैं वहीं अमेरिका में विकलांगों और बच्चों और जानवरों तक की तरफ भी इस हद तक ध्यान दिया जाता है कि जिस कॉलोनी में ऑटिज़्म की बीमारी ग्रस्त अगर कोई बच्चा रहता है तो कॉलोनी के बाहर एक बोर्ड लगा दिया जाता है 'ऑटिज़्म चाइल्ड' के नाम से कि वहाँ चालक गाड़ी धीरे से चलाएँ।

इस यात्रा वृतांत को पढ़ते वक्त दो बार सुखद एहसास से मैं रूबरू हुआ जब इसमें मुझे हमारे समय के दो महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों...तेजेन्द्र शर्मा और सुधा ओम ढींगरा जी का जिक्र मिला। पहली बार तब, जब बारिश के बीच जॉन एफ कैनेडी की कब्र देखने का कार्यक्रम और वहाँ की पार्किंग में गाड़ियों की भीड़ की बात हुई कि उसमें प्रख्यात साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा जी का उनकी कहानी 'ओवर फ्लो' (जो हंस पत्रिका में छपी थी) का जिक्र आया कि उसमें भी बारिश और क्रेमेटोरियम का जिक्र है। और दूसरी बार तब जब अमेरिका में रह रही विख्यात लेखिका सुधा ओम ढींगरा जी से उनकी मुलाक़ात और उनसे हुए लेखिका के साक्षात्कार को उन्होंने अपने इस यात्रा वृतांत का हिस्सा बनाया।

इस किताब में लेखिका ने कई स्थानों पर अपने अमेरिका प्रवास के फोटो भी लगाए हैं जो किताब के कंटैंट को विश्वसनीय तो बनाते हैं मगर उन फोटोग्राफ्स को किताब में स्थान देते वक्त प्रकाशक से चूक हो गयी है कि उसने फोटोग्राफ्स की ब्राइटनेस और क्लीयरिटी पर ध्यान नहीं दिया जिसकी वजह से ज़्यादातर फोटो एकदम काले आए हैं जिसकी वजह से किताब की साख पर एक छोटा सा ही सही मगर बट्टा तो लगता है। उम्मीद है कि किताब के आने वाले संस्करणों को इस तरह की त्रुटियों से मुक्त रखा जाएगा।
अगर आप अमेरिका और वहाँ के शहरों के बारे में जानने और उसे ले कर अपने मन में फैली हुई भ्रांतियों को दूर करने के इच्छुक है तो सरल...प्रवाहमयी भाषा में लिखी गयी यह किताब आपके मतलब की है। 120 पृष्ठीय इस यात्रा वृतांत की किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ब्लू ने और इसका बहुत ही जायज़ मूल्य मात्र ₹100/- रखा गया है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।