मिलूंगा तुमसे वादा निभाने के बाद  Dhiraj Jha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मिलूंगा तुमसे वादा निभाने के बाद 



"सुनो, अगर फिल्मों की तरह मेरी डिलिवरी के वक्त भी तुम्हें डाॅक्टर पूछेंगे कि हम बेबी या माँ में किसी एक को ही बचा सकते हैं तो तुम्हारा जवाब क्या होगा ?"


"तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया ना ? कितनी बुरी बात करती हो ।"


"प्लीज़ बताओ ना, मुझे जानना है कि तुम क्या कहोगे ।"


"मैं बिना देर किए कहूंगा कि वो तुम्हें बचा लें । हो सकता है ये सही ना हो मगर जब बात तुम्हारी हो तब मुझे सही गलत नहीं दिखता । मैं तुम्हारे नौ महीने की तकलीफ़, तुम्हारे दर्द, तुम्हारे मातृप्रेम और पिता बनने के अपने सबसे प्यारे सपने को बिना एक पल की देर किए तोड़ दूंगा और तुम्हें बचा लूंगा । क्योंकि जिस पल तुम ना रही उसके बाद एक सांस लेने पर भी मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी ।"


"नहीं तुम मुझे नहीं हमारे बच्चे को बचाना और उसे इतना प्यार देना कि उसे महसूस ही ना हो कि माँ ना होने से कोई तकलीफ़ भी होती है ।"


"आज कैसी बहकी बहकी बातें कर रही हो तुम यार, चरस की लत लगा ली है क्या ?"


"नहीं मैं मज़ाक नहीं कर रही । आज पता नहीं क्यों ये बात दिमाग में आ गई । तुम्हें वादा करना होगा कि तुम मेरे बाद अपने आप को कुछ नहीं होने दोगे और हमारे बच्चे को......।"


"मिस्टर कबीर ।" किसी के अचानक पुकारने से कबीर की यादों ने उसे हकीक़त की ओर धकेल दिया । सामने डाॅक्टर वर्मा खड़े थे ।


"डाॅक्टर साहब, प्रतिमा अब कैसी है ?" कबीर ने हड़बड़ाहट में सबसे पहला सवाल प्रतिमा के बारे में ही पूछा ।


"मुबारक हो कबीर, आपको बेटी हुई है ।" कबीर की बात को अनसुना करते हुए डाॅक्टर ने कबीर के कंधे पर हाथ रख कर ज़बरदस्ती मुस्कुराते हुए कहा ।"


"वाह डाॅक्टर साहब आपने बहुत अच्छी खबर सुनाई । जानते हैं मैं शर्त जीत गया । मैने कहा था कि हमें पहले बेटी ही होगी मगर प्रतिमा ही ज़िद्द पर अड़ी थी कि नहीं पहले लड़का होगा । प्रतिमा खुश है ना हमारी बेटी को देख कर । मुझे ले चलिए उनके पास जल्दी से ।" कबीर की खुशी संभाले नहीं संभल रही थी ।


डाॅक्टर वर्मा ने कबीर के कंधे पर रखे हाथ की पकड़ को इस तरह मज़बूत किया जैसे वो उसे संभालने के लिए खुद को तैयार कर रहे हों और फिर अपने चेहरे की झूठी मुस्कुराहट को हटाते हुए गंभीर हो कर कहा "देखिए कबीर, हम सब बस कोशिश कर सकते हैं और हमने वही किया मगर हमारे हाथ में कुछ नहीं होता ।"


"मतलब ? आप क्या कह रहे हैं मुझे समझ नहीं आ रहा । देखिए मैं अपनी उत्सुकता को और नहीं रोक सकता मुझे उन दोनों के पास ले चलिए । मुझे प्रतिमा का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखना है ।" कबीर आगे की तरफ बढ़ते हुए बोला


डाॅक्टर ने पीछे से कहा "कबीर हम लाख कोशिशों के बाद भी प्रतिमा को नहीं बचा पाए । खून बहुत बह चुका था । बच्ची को तो बचा लिया मगर प्रतिमा अपने दर्द से और लड़ नहीं पाई ।"


"नहीं नहीं नहीं, डाॅक्टर आप ये सही नहीं कर रहे ऐसे मत बोलिये । उसने आपको कहा है ना मुझे डरा देने को । वो जानती है मैं डर जाऊंगा और मैं डर गया अब प्लीज़ मुझे उसके पास ले चलिए ।" कबीर अब अपने आप में नहीं था ।


"कबीर खुद को संभालिए । आइए आपको आपकी बेटी से मिलवा दूं ।" डाॅक्टर वर्मा कबीर की हालत को अच्छे से समझ रहे थे ।


कबीर अब मौन था एक दम मौन जैसे हज़ारों बेचैन लहरों को समेटे सागर मौन रहता है, जैसे भयावह काले बादलों को अपनी गोद में लिए हुए कई बार आसमान मौन हो जाता है । वैसे ही कबीर मौन हो गया था अपनी अथाह बेचैन वेदनाओं को समेटे हुए । कई बार अचानक लगी चोट आपको समझने का मौका ही नहीं देती कि आप उस चोट की पीड़ा को किस तरह बाहर लाएं । कबीर की चोट तो इतनी गहरी थी जिससे उसकी आत्मा तक तड़प उठी थी ।


"जानती हो ये कहना नहीं चाहिए क्योंकि इस वक्त तुम्हें इतनी तकलीफ़ सहनी पड़ रही है और फिर इतना ज़्यादा दर्द भी सहना पड़ेगा मगर फिर भी मुझे बहुत खुशी हो रही है । हमारे एक हो जाने के बाद अगर कोई और सपना मैने देखा है तो वो है हमारे बच्चे का सपना ।"


"जितनी खुशी तुम्हें है उससे ज़्यादा खुशी मुझे है कबीर । एक माँ बनने की खुशी दूसरा तुम्हारे सपने को पूरा करने की खुशी और जहाँ एक साथ दो दो खुशियाँ मिलें वहाँ दर्द भी स्नेह भरे सहलाहट सा लगता है जाना ।"


"कबीर ये देखिए आपकी प्यारी बिटिया ।" डाॅक्टर की आवाज़ से कबीर को उसकी यादों ने फिर से हकीक़त की ज़मीन पर ला पटका ।


मगर इस बार हकीक़त पहले से कुछ खूबसूरत थी । और खूबसूरती की वजह थी इस बगीचे में खिली नन्हीं सी एक कली । कबीर कुछ वक्त के लिए सब कुछ भूल कर अपनी बेटी के मासूम से चेहरे में खो गया । उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे उसके चेहरे की ओट में प्रतिमा ही मुस्कुरा रही है । कबीर ने डरते डरते उस नन्हीं सी जान को गोद में उठाया ।


एक पुरुष अपनी जवानी से ले कर बुढ़ापे की हद में कदम रखने तक एक ही चीज़ पर हमेशा गर्व करता है और वह है उसका बल । मगर जब वो अपने नवजात शिशु को गोद में उठा रहा होता है तो यही बल उसका सबसे बड़ा डर बन जाता है, उसे लगता है कहीं उसके सख़्त हाथों से उसके बच्चे की नर्म त्वचा छिल ना जाए, कहीं उसके ज़ोर से पकड़ने पर उस मासूम की कोई हड्डी ना टूट जाए, कहीं वो उसके हाथों से फिसल कर गिर ना पड़े ।


कबीर को भी इस वक्त ऐसा ही डर महसूस हो रहा था । बड़ी सावधानी से बच्ची को उठाने के बाद वह कितनी देर तक उसे निहारता रहा । उसने मन ही मन प्रतिमा के वादे को याद करते हुए कहा कि वह जब तक इसके कदमों में वह वे सारी खुशियाँ नहीं रख देता जिसके बारे में ये सोचेगी तब तक वह खुद को हर मुसीबत से बचा कर रखेगा । ये मेरी बेटी ही नहीं प्रतिमा की अंतिम इच्छा भी है ।


वक्त अपनी रफ्तार में चलता रहा । कबीर एक पिता और माँ दोनों का फर्ज़ अपनी औकात से ज़्यादा बढ़ कर निभाता रहा । इस बीच कई हितैषियों ने यह समझाने की कोशिश की कि अभी आधी से ज़्यादा उम्र बाकी है इसीलिए उसे दूसरा विवाह कर लेना चाहिए । तो इस पर हमेशा कबीर यह जवाब देता कि अगर मैने प्रतिमा की देह से शादी की होती तो शायद दूसरी देह की लालसा में मैं दूसरी शादी कर भी लेता मगर हमने तो एक दूसरे की आत्मा से शादी की थी और हमारी शादी तब तक मान्य रहेगी जब तक आत्मा अपने अस्तित्व में रहेगी ।


आज छब्बीस साल बीत गये थे प्रतिमा को गये हुए मगर कबीर अब भी उससे बातें किया करता था । उसे हर रात सोने से पहले बताया करता कि आज उसने और रिधिमा ने क्या क्या किया । उसने हर एक बात प्रतिमा की कल्पना को बताई जो इन छब्बीस सालों के बीच रिधिमा और उसके बीच हुई । उसने जब पहली बार पापा कहा, वो जब पहली बार हंसी, उसने जब अपना पहला कदम उठाया, वो जब पहली बार चलने की कोशिश करते हुए गिरी, वो जब पहले दिन स्कूल गई, उसने जब पहली बार प्रतिमा के बारे में पूछा, उसने जब जब क्लाॅस में टाॅप किया, उसके काॅलेज का पहला दिन, उसकी एम बी ए कंप्लीट होना, उसका सुमित से प्यार हो जाना और पहली बार डरते डरते उसके बारे में बताना यह सब उसने प्रतिमा से बताया था ।


इन सब के बीच वह हमेशा माँ और पिता के रुप में बेहतर रहा मगर तब वह बहुत बुरी तरह उलझ गया था जब एक दिन रिधिमा स्कूल से रोते रोते घर आई और बार बार पूछने पर भी उसे कुछ नहीं बता पाई थी । और फिर कुछ देर बाद डरते डरते बोली थी कि "पापा मैं मरने वाली हूँ । मुझे बिमारी हो गई है, मुझे आज ब्लॅड आया...... पापा मुझे बचा लीजिए, मैं आपको छोड़ कर नहीं जाना चाहती ।" रिधिमा की बातों ने उस दिन कबीर को अधर में डाल दिया था कि वो अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को निभाता आया था मगर अब इस ज़िम्मेदारी को कैसे निभाए । वो माँ का फर्ज़ निभा रहा था मगर माँ नहीं था । उसने बड़ी आशा से यह सोच कर प्रतिमा की तस्वीर को देखा कि वही उसे रास्ता दिखाए और तब उसे लगा कि जैसे प्रतिमा कह रही हो कि "डरो मत जाना, तुम में मैं हमेशा रही हूँ कुछ देर के लिए पुरुष या पिता होने का ख़याल भुला दो, ये सोचो की तुम नहीं मैं उसे समझा रही हूँ । आज अगर तुमने उसे नहीं समझाया तो शायद हमेशा वो इसे ले कर घबराती रहेगी ।"


कबीर में एक अजीब सी हिम्मत आ गई, उस दिन उसने अपने अंदर मातृत्व को महसूस किया और रिधिमा को समझाते हुए कहा "नहीं बच्चा तुम्हे कुछ नहीं हुआ । जानती हो जब भगवान ने दुनिया बनाई ना तो लड़कियों को एक पावर दी जिससे वो हमेशा सुंदर रहें । इसीलिए हर लड़की के साथ ऐसा होता है और इस ब्लॅड के साथ साथ उनके अंदर के सारे वो किटाणु निकल जाते हैं जो उन्हें सुंदर होने से रोकते हैं । अब आप बड़ी हो गई हो और मेरा बच्चा तो सबसे सुंदर बनेगा ना इसलिए उसे इससे घबराने की कोई ज़रूरत नहीं । बस कुछ बातें हैं जिनका ध्यान देना होता है और कोई प्राब्लम नहीं है । ये सभी लेडीज़ को होता है । हाँ एक बात याद रखना जब उन किटाणुओं को बाहर निकाला जाता है तो वो आपस में लड़ते हैं और उनकी लड़ाई से बाॅडी में दर्द होता है उससे घबराना नहीं । आपको कुछ ला कर दूंगा उसे कैसे यूज़ करना है इसके लिए आपको मैं एक वीडियो दिखा दूंगा और आप उसे तब तब यूज़ करना जब जब ये प्राब्लम हो ।" इतना सब बोलने के बाद कबीर ने प्रतिमा की तस्वीर की तरफ देखते हुए लंबी सांस ली थी । उस दिन उसे ये अहसास हो रहा था कि एक पिता का माँ बनना आसान नहीं ।


कल रिधिमा की शादी है । उसे अब सुमित के साथ अपनी नई ज़िंदगी शुरू करनी है । शाम से ही रिधिमा कबीर के पीछे पीछे है । कबीर शादी की तैयारियों में व्यस्त होने के बावजूद भी रिधिमा की मायूसी को महसूस कर रहा है । मगर उसे पता है कि यह मायूसी बस कुछ वक्त के लिये है क्योंकि फिर सुमित उसे इतनी खुशियाँ देगा कि वह कभी मायूस नहीं होगी । रिधिमा ने जब कबीर को सुमित के बारे में डरते हुए बताया तब कबीर ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए एक ही बात कही थी कि "बेटी मैने तुम्हारी माँ के बाद बस यही चाहा कि मैं माँ और बाप दोनों का प्यार देते हुए तुमें हमेशा खुश रखूं । मुझे खुशी है कि तुमने अपना जीवन साथी चुन लिया है मगर मैं भी तो बाप हूं और मेरी यही इच्छा कि जिसके हाथ में तुम्हारा हाथ दूं वो तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यार दे । मुझे सुमित से मिलना है और अगर मुझे लगा कि वह तुम्हारे लायक है तो फिर मुझे कोई ऐतराज़ नहीं ।"


रिधिमा ने मायूस होते हुए कहा "फिर तो कोई चाँस नहीं क्योंकि आपसे ज़्यादा प्यार मुझे कोई कर ही नहीं सकता ।"


कबीर ज़ोर से हंस पड़ा । उसकी हंसी में संतोष था यह सोच कि उसने प्रतिमा से किया वादा अच्छे से निभाया । कबीर हंसते हुए बोला "मिलवाओ तो सही उससे, मुझ से थोड़ा कम भी प्यार करेगा तो चलेगा ।" रिधिमा ने कबीर को बड़ी ज़ोर से गले लगा लिया था ।


सुमित से मिलने पर उसकी एक बात ने ही कबीर का मन जीत लिया था । जब कबीर ने जब पूछा कि "अगर मैं रिश्ते के लिए ना कर दूं तो क्या करोगे ?" तब सुमित मुस्कुराते हुए बोला था "संतोष कर लूंगा । मैं जानता हूँ रिधिमा को आपने कैसे पाला है और वो आपके लिए क्या मायने रखती है और मैं ये भी जानता हूँ कि रिधिमा आप से ज़्यादा किसी से प्यार नहीं करती । उसने पहले ही वार्न कर दिया है कि "अगर पापा ने मना कर दिया तो उसके बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी मत करना ।" और मैने उसे यही वादा किया है । मेरे लिए वो जितनी मायने रखती है उतना ही आप और आपकी खुशी भी ।"


सुमित की बातों ने कबीर का मन जीत लिया था । उसने उसी वक्त उसे गले लगा कर कहा "शुक्रिया मुझे मेरी ज़िम्मेदारियों से मुक्त करने के लिए । उसे इतना प्यार देना कि वह मुझे भूल जाये ।" सुमित ने जवाब दिया था कि " 'आप' बन जाना बहुत मुश्किल है मगर कोशिश करता रहूंगा ।"


शाम से ही खुद को रोके रखा था रिधिमा ने लेकिन आखिर वो रात होते होते कबीर के कंधे पर टूट कर बिखर ही गई । अपनी अब तक की ज़िंदगी में रिधिमा जितना नहीं रोई होगी उतना वो आज कबीर के कंधे पर सिर रखे रखे रोई । कबीर बस उसका सिर सहलाता रहा और उसे वह सब समझाता रहा जो उसे उचित लगा । रोते रोते रिधिमा कबीर की गोद में सिर रख कर सो गई ।


कबीर आज से पहले जब भी प्रतिमा की तस्वीर देखता था तो उसके चेहरे पर यह चिंता होती कि वो जिस तरह अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रहा है वह सही हैं या नहीं मगर आज उसके चेहरे पर संतोष था ।


रिधिमा की शादी हो गयी । उस दिन वो बहुत रोई और उसके जाने के बाद कबीर उससे भी ज़्यादा रोया । आज उसने प्रतिमा के बाद अपनी सबसे अनमोल संपति को सुमित के हाथों में सौंप दिया था ।


रिधिमा की शादी को छः महीने बीत गये थे । शादी के बाद पहली बार वो दस दिनों के लिए कबीर के पास रहने आई थी । इस बीच हनीमून, कबीर के घर के रस्म रिवाज इन सब में ही व्यस्त रही थी रिधिमा । रिधिमा ने बताया कि "वह बहुत खुश है । सुमित का परिवार बहुत अच्छा है और सुमित तो जैसे आपका ही क्लोन है ।" फिर हंसते हुए बोली पर क्लोन तो क्लोन होता है ना पापा ! ओरिजनल की बात ही अलग है ।" कबीर मुस्कुरा दिया ।


कल रिधिमा को चले जाना था । कबीर से बहुत सी बातें करने के बाद रिधिमा सोने चली गई । इधर कबीर बहुत खुश था । वो प्रतिमा की तस्वीर को मुस्कुराते हुए देख रहा था । उसने मन ही मन प्रतिमा से कहा "देखो आज मैं अपने वादे से आज़ाद हो गया । मैने हमारी बेटी के चेहरे की खुशी में महसूस किया कि मैने अपना फर्ज़ अच्छे से निभाया है । तुम्हारे बिना एक पल काटना संभव नहीं था मगर तुम्हारे वादे की वजह से बहुत लंबा सफर काटाना पड़ा है तुम्हारे बिना ।" सोचते सोचते कबीर की आँखों का वह बांध टूट गया जो उसने छब्बीस सालों से बांध रखा था ।


कबीर ने महसूस किया कि प्रतिमा तस्वीर से निकल कर मुस्कुराती हुई उसके सामने खड़ी है और उसके आँसू पोंछ रही है । कबीर खड़ा हुआ और प्रतिमा की परछाईं को गले लगा लिया ।


"पापा पापा उठिए पापा । पापा नहीं आप नहीं जा सकते पापा । मैं इतनी बड़ी नहीं हुई कि आपके बिना रह सकूं । पापा रात ही तो हमने कितनी बातें कि थीं । कितना कुछ प्लाॅन किया था ।" रिधिमा कबीर के मृत शरीर से लिपटी हुई फूट फूट कर रो रही थी । सुमित उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था । रात का सूना घर सुबह अफसोस जताने वालों की भीड़ से भर गया था । सुबह जब रिधिमा के बार बार दरवाज़ा खटखटाने पर भी कबीर ने दरवाज़ा नहीं खोला तो रिधिमा ने घबरा कर सुमित को फोन किया और सुमित के आने पर जब दरवाज़ा तोड़ा गया तो वहाँ कबीर का मृत शरीर मिला । मृत होने के बाद भी कबीर का चेहरा संतोष से भरा हुआ था ।


संस्कार के वक्त जब कबीर की देह पंचतत्व में विलीन हो रही थी तब एक कोने में वो प्रतिमा के साथ खड़ा था । दोनो मुस्कुरा रहे थे । वर्षों बाद फिर से मिलने की खुशी दोनों के चेहरे पर झलक रही थी । उधर सूर्य अस्त हो रहा था और इधर इन दोनों कि आत्माओं के मिलन की सुबह ने बड़ी शिद्दत से अंगड़ाई ली थी । प्रेम सच्चा होना चाहिए मिलन हो ही जाता है फिर चाहे इस जहान में या फिर उस जहान में ।


धीरज झा