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वो जो लड़की थी


वो जो लड़की थी

पहला भाग

"पा, हैव यू एवर लव समवन ?" ड्राईंग बुक में कलर करते हुए बड़े सहज तरीके से सागर ने मुझसे ये सवाल पूछा था । लेकिन सवाल सुनने के बाद मैं सहज नहीं था । मेरे होंठों तक आता हुआ चाय का प्याला छलक गया । बदन जो कांप गया था । चाय के कुछ छींटे शर्ट पर भी पड़ गए थे । यही हाल बीवी जी का भी हुआ था । मगर भाव में फर्क था उनकी चाय हंसी फूटने के कारण छलकी थी और मेरी हैरानी के कारण ।

सागर अभी सिर्फ 12 साल का है और मुझसे ऐसा सवाल पूछ रहा है । हमारे समय में पिता के पैरों की आहट सुन कर बच्चे दुबक के कोना पकड़ लेते थे । इतना खौफ था पिता का और एक ये जनाब हैं कि बाप का डर तो छोड़ो लिहाज भी भूल गये हैं ।

"बेटा तुम्हारे पापा को आज भी किसी से प्यार है और शायद ज़िंदगी भर रहे । हम दोनों से भी ज़्यादा ।" सलोनी की बात सुन कर दूसरी बार भी चाय की चुस्की भरने की कोशिश भी नाकाम रही । फिर छलक गई ।

" किससे मम्मी किससे ? बताओ बताओ ?" सागर जिद्द करने लगा ।

"किताबों से । इनको हमेशा से ही किताबों से प्यार रहा है । इतना प्यार कि जनाब ने पहले गिफ्ट के तौर पर भी किताब ही दी मुझे ।" सलोनी ने ताना मारते हुए कहा ।

"वैसे इस तरह के सवाल मम्मी पापा से नहीं पूछे जाते बेटा ।" मैंने सागर को समझाया लेकिन नतीजा वही हर बार जैसा । समझाने के बाद सवालों का सेशन चालू, अब देते रहो जवाब ।

"मगर क्यों ? मेरे तो सारे फ्रेंड्स अपनी मम्मी पापा की लव स्टोरीज़ सुनाते हैं । एक मेरे पास ही कोई स्टोरी नहीं है ।" सागर ने बुरा सा मुंह बना लिया ।

"अरे ऐसे सैड नहीं होते । अच्छा मैं आपको सुनाऊंगी ना लव स्टोरी ?" मुझे कभी कभी सागर की आदतों पर चिढ़ आ जाती है । क्या करूं ऐसे माहौल का आदी नहीं रहा ना मैं । हां लेकिन सलोनी संभाल लेती है । फिर मुझे भी बुरा लगता है ।

"किसकी लव स्टोरी मम्मा ?"

"श्रीराम और सीता जी की ।"

"कौन जिनकी बड़ी सी पिक्चर लगी है मंदिर में ?" सागर ने उत्सुकता में पूछा ।

"हां वही । बहुत मज़ा आएगा ।" मैंने सलोनी को इशारा किया कि मुझे मीटिंग के लिए निकलना है । उसने भी मुस्कुरा कर जाने का इशारा किया । वर्ना इस सागर का दिमाग खिसकता तो कहता साथ बैठ कर स्टोरी सुनो और बात नहीं मानी तो जनाब 2 3 दिन तक मुंह फुलाए रहेंगे । सलोनी ना होती तो इस लड़के को तीनों टाईम दो दो चमाट देता खुद सुधर जाता । वैसे सच कहूं तो मैं भी बस कहने भर ही हूं उसकी उतरी हुई सूरत देख कर मेरा खुद का मन पिघल जाता है ।

मैंने कपड़े बदले और आ कर कार में बैठ गया था । गाड़ी चल पड़ी थी । मैं कोशिश करता हूं कि एसी का कम से कम यूज़ करूं । आज मौसम सुहाना है तो मैंने गाड़ी के शीशे डाऊन करवा दिए हैं । हवा के झोंके से खेल रहा हूं । बचपन याद आ जाता है ऐसे । कैसे मैं तेज़ हवा चलने पर हवा की दिशा में दौड़ा करता था । तब लगता कि जैसे हवा गाल सहला रही है और मैं बिगड़े बच्चे की तरह उसका हाथ झटक रहा हूं । यही सब सोचते हुए अचानक फिर से कानों में सागर की आवाज़ गूंज गई । लगा जैसे पूछ रहा हो 'पा, हैव यू एवर लव समवन ?"

अब क्या बताता उसे कि किस तरह का प्यार किया था मैंने और क्या जवाब देता उसके फिर से पुछने पर कि आगे क्या हुआ ? आगे तो कुछ हुआ ही नहीं । आगे कुछ होने के लिए पीछे मुड़ कर देखना पड़ता है मगर मैंने तो जैसे अपनी आंखें ही बंद कर ली थीं । मेरी आंखें अर्जुन की आंखों की तरह सिर्फ लक्ष्य पर थीं । मैं उस वक़्त को याद नहीं करना चहता लेकिन आज मैं खुद को रोक भी तो नहीं पा रहा ।

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साल 2001

"सच कहूं यार हमें ना अदला बदली कर लेनी चाहिए ।" मैं हांफता हुआ पार्क में पहुंचा ही था कि उसने मुझे देखते ही ताना मार कर अपनी खीज उतार दी ।

किताबें रख कर मैंने हाँफते हुए ही पूछा "अदला बदली ? कैसे ?"

"मतलब तुम लड़की हो जाओ और मैं लड़का ।"

"अरे मैं जो हूं ठीक हूं मगर ये नेक खयाल तुम्हारे दिमाग में कैसे आया ?"

"कब से आ रहा है बस कहा आज है । लड़कियों वाले सारे नखरे तुम्हारे हैं, लेट तुम आते हो, टाईम तुम्हारे पास कम होता है, अरे यार इन सब आदतों पर हमारा कॉपीराइट है । तुम आदतें तो बदलने से रहे तो तुम ना लड़की ही हो जाओ । ये सोच कर मन तो समझा लूंगा ना कि लड़कियों की आदत ही ऐसी होती है ।" वो एक सांस में ही सब कुछ बोल गई । और ये तो अभी शुरुआत थी वो और बोलती अगर मैंने उसके हाथ में डेयरी मिल्क ना थमाई होती तो ।

"घूस दोगे मगर सुधरोगे नहीं ? हर बार लेट आने का इतना महंगा फाइन भरना अच्छा लगता है तुम्हें ?"

"तुम्हारे लिए महंगा सस्ता क्या देखना जी । चलो अब देर हो रही है वर्ना फिर डांट खाओगी ।" मैं खड़ा होने ही लगा था कि उसने फिर से हाथ पकड़ कर खींच लिया ।

"क्या यार फिर से लड़कियों वाले बहाने । लेट मैं हो जाऊंगी, डांट मुझे पड़ेगी उससे तुम्हें क्या ? तुम आराम से जाना रूम पर जा कर पसर जाना । थोड़ी प्यार मोहब्बत की बात तो कर लो ।" उसने थोड़ा नज़दीक खिसकते हुए कहा ।

"कभी देखो आ कर रूम पर कि कैसे यहां से जाने के बाद पसर कर सोते हैं । अभी से जा कर जो पढ़ाई में घुसेंगे फिर सुध ना रहेगी ज़माने की ।"

"जानती हूं बड़े पढ़ाकू हो । तभी तो मेरी भी सुध नहीं रहती ।" उसने मुंह बना कर कहा ।

"अरे तुमको गलतफहमी है कि तुम ज़माने में आती हो । तुम तो खुद हमारा ज़माना हो । किताबों में भी तुम ही दिखती हो । कल तो तुम्हें याद करते रहे तो आधा घंटा पहले आंख लग गई ।"

"ओह हो हो हो, आधे घंटे का जुर्माना भर दें हम ?" एक शरारती सी मुस्कान लिये वो और करीब हो गई मेरे ।

"बड़ी बेशर्म हो कसम से । सच में अब लगता है अदला बदली करानी ही पड़ेगी ।" इसके साथ ही मैं उठ खड़ा हुआ । कुछ देर वो बैठने की ज़िद करती रही फिर पीछे पीछे चली आई । हम दोनों हमेशा की तरह रिक्शा स्टैंड की तरफ बढ़े ।

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दूसरा भाग



मैं कभी इस लड़की को समझ नहीं पाया था । मेरे साथ कॉलेज आ जा सके इसलिए इस लड़की ने मेरा रूम बदलवा कर अपने घर के पास मुझे शिफ्ट करवाया था । पहले इसे रोज़ एक गाड़ी लेने और छोड़ने आती थी मगर जब से हम करीब आने लगे तब से ये ऐसे ही मेरे साथ रिक्शा में आती जाती है ।

मुझे अच्छे से याद है वो दिन जब मैंने इसे पहली बार देखा था । मैं जिन परिस्थितियों से निकल कर यहां तक आया था वहां मेरे अरमानों की ज़मीं इस तरह से बंजर हो चुकी थी कि मेरे सारे अहसास और मोहब्बत की बातें उगने से पहले ही सूख कर उस रेतीली मिट्टी में मिल गई थीं । बचा था तो मेहनत का कांटेदार पौधा जिसे मुझको दिन रात बहाए गये पसीने से सींचते रहना था । मैं अपने इकलौते लक्ष्य को पाने के सपने को मेहनत के पसीने से सींचने में लगा था लेकिन फिर एक दिन ये लड़की आई ।

किसी आवारा बादल की तरह जिसे ना मौसम से कुछ लेना था ना जगह से कोई मतलब । उस दिन ये मुझ पर ऐसे बरसी कि सूखे हुए अहसास और मुर्झाई मोहब्बत में फिर से जान सी लौट आई । ये पहला दिन था जब मेरा किताबों में कम और खयालों में ज़्यादा ध्यान था । हालांकि ऐसा एक दिन ही हुआ उसके बाद मैं अपनी दुनिया और अपनी हक़ीक़त में लौट आया था ।

मुझे खुद पर और अपने हालातों पर पूरा भरोसा था । एक महंगी कार से उतरने वाली परियों जैसी लड़की के लिए मैं तरह तरह की चॉकलेट, आइसक्रीम से लदे फ्रिज में महीनों से पड़े पेठे के डब्बे जैसा था । वो चॉकलेट आइसक्रीम छोड़ कर इस महीनों पुराने पेठे के पास क्यों आती । उसके और मेरे बीच ज़मीन आसमान का नहीं बल्कि पाताल और आसमान से ऊपर वाली दुनिया जितना फर्क था । इसीलिए मैंने कभी इतना लोड ही नहीं लिया था । हां लेकिन कभी कभी उसे चोरी छिपे देख लेता था । समय के साथ ये कभी कभी अक्सर में बदल गया ।

मैं शांत नदी के बहाव जैसा था और वो किसी समुद्री तूफान जैसी । मैं बोलता कम था और वो बेवजह अकेली ही हँसती रहती थी । मुझसे लोगों की मतलब भर की दोस्ती थी, वही प्रॉब्लम सॉल्व कर दो, नोट्स दे दो यही सब वाली लेकिन उसकी दोस्ती इससे अलग थी । वो कई बार क्लास बंक करके घंटों गेटकीपर से बतियाती रहती । मैं सोचता कि उस बूढ़े से इस उम्र की लड़की ऐसा क्या बतियती होगी जो दोनों के चेहरे की मुस्कुराहट कम ही नहीं होती ।

इसी तरह के दोस्त थे उसके । जिससे कोई बात नहीं करता उससे ये घंटों बातें करती । उसमें और मुझमें एक समानता थी और वो ये कि हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में अकेले थे । मुझे किताबों की वजह से ये अकेलापन महसूस नहीं होता था और वो अपनी हंसी में इस अकेलेपन को छुपा लेती थी ।

आखिरकार वो दिन आ ही गया जब उसने पाताल से आसमान पार तक की दूरी तय करते हुए फ्रिज से चॉकलेट आइसक्रीम की जगह मुझ जैसे पेठे की तरफ हाथ बढ़ाया । वो दिन मेरे लिए कैसा था मैं बयान नहीं कर सकता ।

"हेल्लो ।" पार्क में बैठा मैं किताबों में खोया हुआ था तभी एक आवाज़ ने मेरा ध्यान वहां से हटाया । वो आवाज़ जो अभी तक मैंने दूर से ही सुनी थी वो आज मेरे इतने पास थी कि उसमें बिठाए गए हर सुर को मैं अच्छे से सुन सकता था । एक बार आंख जो उठी फिर उसे देखता ही रहा ।

"मैं जानती हूं तुम मुझे घूरते रहते हो ।" ऐसा इल्ज़ाम मेरे लिए उस पाप के समान था जिसकी सज़ा का वर्णन गरुड़ पुराण में भी नहीं किया गया । मगर मैं जानता था कि ये पाप मैंने किया है । यही वजह थी कि मैं डर गया ।

"मैं, म मैंने कब घूरा तुम्हें ? मैं तो पढ़ रहा हूं ।" मैंने खुद को संभालते हुए अपनी सफाई दी ।

"तुम घूरते हो वो भी आज से नहीं बल्कि महीने भर से ।" मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसकी बातों से मुझे डरना चाहिए या उसकी इस आवाज़, उसकी खुशबू, उसके चेहरे पर बिखरे इस मासूम से गुस्से में खो जाना चाहिए ।

"तुमको गलतफहमी हुई है । मैं भला तुम्हें क्यों घूरूंगा ? मैं बस पढ़ने आता हूं यहां ।" मैंने इस बार पूरे आत्मविश्वास से अपनी बात कही ।

"झूठ मत बोलो मैं तुम्हें हमेशा घंटों छुप छुप के देखती हूं और उस दौरान तुम मुझे खोज रहे होते हो । जब मैं सामने आती हूं तो तुम ऐसे दिखाते हो जैसे ना जाने कब से किताबों में घुसे पड़े हो । और मेरी नज़र जब इधर उधर होती है तुम मुझे गौर से देखने लगते हो । बताओ मैंने गलत कहा ।" उसने बड़ी सफाई से सब बता दिया । मैं उसकी बातों से अब डर गया था । कहीं ये मेरी शिकायत ना कर दे ? कहीं मुझे कॉलेज से ना निकाल दिया जाए । नहीं नहीं ऐसा हुआ तो मैं क्या करूंगा । इन सभी बातों के बीच मैंने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि वो भी मुझे घंटों देखती रहती है ।

"म मैं अब यहां बैठूंगा ही नहीं । मैं जा रहा हूं । प्लीज़ किसी से शिकायत मत करना ।" पुलिस के डंडे के डर से सारी सच्चाई उगल देने वाले आरोपी की तरह मैंने सब कह दिया और वहां से भागने की फिराक में जल्दी से उठा ।

"अरे ऐसा गजब मत करो तुम यहां नहीं बैठोगे तो मैं घंटों किसे घूरा करूंगी जानेमन ।" किसी लड़की को छेड़ने वाले लफंगे की तरह उसने शरारती मुस्कान के साथ ये बात कही थी मुझे । मगर मैं डरा हुआ प्राणी उसकी वो प्यारी सी हंसी देखने की बजाए वहां से सिर पर पैर रख कर भाग निकला था ।

उस रात मैं किताबों को सामने रख कर उसकी कही बातों को सोचता रहा और कभी खुद पर शर्मिंदा हुआ तो कभी शर्मा कर हंसने लगा । मेरा रूममेट उस दिन हैरान था उसने कभी मुझे इस हाल में नहीं देखा था । हमारी बात ही नहीं होती थी ज़्यादा इसलिए उसने कुछ पूछा भी नहीं ।

अगले दिन वो मुझे रिक्शा स्टैंड पर मिली और मुझे रिक्शा में ऐसे बैठा लिया जैसे मुझे किडनैप कर रही हो । उस दिन के बाद वो कार कभी नहीं दिखी जिसमें वो कॉलेज आया करती थी । मैंने कभी अपने अहसासों का इज़हार नहीं किया और उसे कभी इज़हार करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी । उसके लिए हम तभी से प्यार में पड़ गये थे जब से उसने मेरे साथ रिक्शा शेयर करना शुरू किया था ।

बिना आई लव यू वाली खाद के हमारी मोहब्बत की फसल फलने फूलने लगी थी । ये तय था कि वो मुझे पढ़ते हुए डिस्टर्ब नहीं करेगी लेकिन उसके साथ रहते हुए मैं पढ़ने की बातें नहीं करूंगा । तब से अब तक ऐसे ही चल रहा है सब । वो जिस तरह से हमेशा खुश रहती है उसे देख कर शंका सी होने लगती है । कोई इंसान हमेशा एक जैसे मूड में कैसे रह सकता है । सुना है अमीरों का मूड तो पल पल बाद स्विंग होता है फिर इसे क्या दिक्कत है ?

खैर हम इस तरह की मोहब्बत में नहीं थे जहां हम एक दूसरे की ज़िंदगी में इतने गहरे से घुस सकें । हम फूल पत्तियों से लेकर कॉलेज में काम करने वाले स्टाफ तक के बारे में घंटों बातें करते लेकिन कभी अपने घर परिवार की बातें नहीं कीं । मैं अपनी गरीबी बता कर झूठी सहानुभूति लेने का आदी नहीं था और उसे अपने बारे में बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी । इसलिए सब ऐसे ही चलता रहा ।

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मैंने ऑटो लेने की जिद्द की लेकिन हमेशा की तरह उसने रिक्शा कर लिया । कवर किए रिक्शे में मुंह पर दुपट्टा लपेटे वो मेरी बांह को अपनी बाहों में लपेट कर बैठ गई । 20 मिनट लगते थे रिक्शा से हमें घर पहुंचने में ।

हम दोनों मेरे रूम के पास वाले स्टैंड पर उतरते थे । फिर मैं उसे उसके घर छोड़ता और उसके बाद रूम पर आता । इतना ही मिलना था हमारा रोज़ का । वो बेफ़िक्री सी थी मेरे दिमाग में हर समय कोई ना कोई चिंता सवार रहती थी ।

लेकिन हां उसका साथ अच्छा लगता था मुझे । उसकी बेतुकी बातें जैसे मेरे तन की सारी थकान मिटा देतीं । उसकी खिलखिलाती हंसी मेरे दिमाग से हर चिंता को कुछ देर के लिए दूर कर देती । अजीब सा नशा था उसकी उन भूरी आंखों में । जब वो मुझे छूती तो एक सिहरन के साथ गुदगुदी जैसा कुछ दौड़ता मेरी रगों में । कुछ दिक्कतें ना होतीं मेरे साथ तो शायद मैं उसके पीछे सब भूल चुका होता । वो और नज़दीक आना चाहती थी मगर मैंने ना चाहते हुए भी एक रेखा खींच रखी थी हम दोनों के बीच ।

"अरे ओ सपनों के सौदागर उठो हमारा स्टेशन आ गया ।" उसने मुझे मेरे ख्यालों की दुनिया से बाहर निकाला । मैंने रिक्शे से उतर कर जेब में हाथ डालते हुए रिक्शे वाले को पैसे देने चाहे मगर उसने रोका और इशारा किया कि उसने दे दिए हैं । ये हर रोज़ का था । लेकिन रोज़ हम ऐसे करते थे जैसे ये पहली बार हुआ है ।

मैं उसे कुछ कहना चाहता तो वो पहले ही चुप रहने का इशारा कर देती । मैं भी चुप हो जाता क्योंकि मैं जानता था रिक्शे का भाड़ा देने का मतलब है आज रात खाने में सिर्फ ब्रेड । असल में घर से आने वाले पैसों को मैंने रोज़ के हिसाब से बांट रखा था । हर रोज़ मैं उतने ही पैसे निकालता जितना रोज़ का खर्च था । उससे एक रूपया भी ज़्यादा नहीं । अब ये चॉकलेट का खर्च नया ऐड हुआ था लेकिन इसकी भरपाई भी वो कर देती थी । कैसे ? ऐसे ।

"भईया वो दूध का पैकेट देना ।" दुकानवाले लेकर उसने दूध का पैकेट मेरी तरफ बढ़ा दिया ।

"अरे मैं बाद में आ कर ले लेता ना ।" मैं सच में दुखी हो कर कहता ।

"तुम भूल जाते हो । खुद ही मानते हो ना पढ़ाई के आगे कुछ याद नहीं रहता । और इतनी पढ़ाई के बाद दूध बहुत ज़रूरी है ।" दरअसल वो जानती है कि मैं दूध के पैसों से चॉकलेट खरीदता हूं और वो ये भी जानती है कि मैं कल के पैसों में से एक रूपया भी आज नहीं खर्च करूंगा । मैं थोड़ा असहाय सा महसूस करता तो वो तुरंत भांप लेती ।

"सब एक बार में वापस करना ना जब ऑफिसर बन जाना ।" इसके साथ ही हम दोनों मुस्कुरा देते । इसी के साथ घर आ जाता उसका और हमारा मिलना कल पर निर्भर हो जाता ।

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भाग तीसरा


"सुनों ।" घर आने से कुछ कदम पहले जब मैं लौटने लगा तो उसने कहा ।

"हां कहो ।" मैं अभी उसे देखते हुए ही उल्टी दिशा में मुंह कर के चल रहा था ।

"वो तुमने पार्क में कहा था कि देखना हो तो रूम पर आ जाना तो आज रात को आऊं क्या ?" इतना कहते ही वो शरारत में खिलखिलाती हुई भागने लगी । उसे पता था कि ऐसा कुछ कहने के बाद अगर वो पास आई तो उसके कान खींचे जाएंगे ।

"सच में हमें अदला बदली कर लेनी चाहिए ।" मैं शर्म में मिली हंसी हँसता हुआ वहां से लौट आया ।

यही था हमारा रोज़ का मिलना । कोई फोन नहीं था जिस पर रात रात बातें हो सकें । कोई वॉट्सएप्प या मैसेंजर नहीं था जहां हम चैट कर सकें । उसके घर जाने के बाद मेरी एक अलग दुनिया थी । इन्हीं के बीच मेरी शामें और रातें कटती थीं । जहां मैं था मेरी चिंताएं थीं और किताबों से झांक रही बेहतर कल की उम्मीद । वो बेहतर कल जिसका सपना मुझ से ज़्यादा मेरी मां ने देखा था ।

संपन्न हम कभी से नहीं थे मगर जिस हाल में थे खुश थे । पिता जी खेती से इतना निकाल लेते थे कि दाल रोटी सही से चल सके । मैं हमेशा से पढ़ने में होशियार था इसीलिए वो चाहते थे कि मैं बड़ा हो के मास्टर बनूं । सपने देखने की कोई सीमा नहीं होती मगर इंसान सपने हमेशा अपनी औकात के हिसाब से ही देखता है । जो अपनी हद से आगे के सपनों को देख लेता है वो इतिहास रचता है । पिता जी के लिए मेरा मास्टर हो जाना ही उनका सबसे बड़ा सपना था । हालांकि ये भी उनकी हैसीयत से ऊपर की बात थी मगर वो इसे पूरा करना चाहते थे ।

लेकिन वक्त कब इंसान के हाथ में रहा है । एक दिन खेतों से लौटते हुए उनकी साइकिल फिसली और वो गिर गये । बरसात के दिनों में गांव देहात में ये आम बात है मगर यहां ये आम ना हो कर दुर्भाग्यपूर्ण हो गई । पिता जी गिरे और उनका सिर पत्थर से जा टकराया । पिता जी का सिर, उनका सपना और परिवार सब बिखर गया । ऐसा लग रहा था जैसे नियति ने जबरदस्ती उनका सिर उस पत्थर से दे मारा था ।

मां कुछ समय के लिए ज़िंदा लाश सी हो गई थी । तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी ऐसी औरत के ऊपर आ गई थी जिसने कभी घर की चौखट के बाहर पैर भी नहीं रखा था । जो आता था वो यही कहता था कि बच्चे अनाथ हो गये । मां को ये बात नहीं पसंद आई । समय के साथ उन्होंने खुद को संभाल और खुद से खेतों का काम संभालने लगी । मेरे बढ़ने के साथ उनकी मेहनत भी बढ़ती रही ।

कॉलेज आने से पहले उन्होंने कहा मुझे कि 'बेटा हम दस्तूर तोड़े हैं तुमको अपना हद तोड़ना होगा । तुम्हारे पिता जी मास्टर बनाना चाहते थे तुमको लेकिन अब तुमको अफसर बनना होगा । हम बहुत सुने हैं तुम्हारे लिए । बहुत बोला है ये लोग हमको । अब तुमको इन सबका बोलती बंद करना है । सरकारी अफसर बन के ही लौटना वर्ना समझ लेना कि मां नहीं रही ।'

मां ने ये बात किस दर्द को दबाने के लिए कही थी ये नहीं जानता लेकिन उसका संघर्ष मैंने देखा था और मुझे उसका सपना पूरा पूरा करना था ।

ये सैकेंड ईयर था । अब बस एक साल बचा था । मुझे इसी में अपना ग्रेजुएशन भी कंप्लीट करना था और यूपीएससी की तैयारी भी । मुझे यकीन था मैं ये दोनों साथ में ही कर लूंगा ।

इसके अलावा अपनी कोई दूसरी दुनिया नहीं थी । हां मेरे अपने ज़रूर थे जिनके लिए मैं उनसे दूर बैठा था । असल में दोनों स्लेबस एक साथ पूरा करने वाली बात ओवर कांफिडेंस में आने जैसा नहीं था बल्कि मजबूरी थी मेरी क्योंकि मेरे पास समय नहीं था ।

खैर फिलहाल ज़िंदगी ऐसे ही दिन के दो हिस्सों में अच्छे से कट रही थी । सेकेंड ईयर के एग्ज़ाम खत्म हो चुके थे । हर बार की तरह मैं क्लास टॉपर होने के साथ साथ और ना जाने क्या क्या टॉपर था और वो मर मरा के पास हुई थी । मैं साइंस से था वो आर्ट्स से । मेरा रिजल्ट सुन कर वो मुझे खुशी से गले लगाते हुए बोली "यहां भी हमें अदला बदली की ज़रूरत है ।"

एक तरफ लड़कियां जहां पढ़ाई को लेकर सीरियस रहती हैं वहीं ये लड़की पढ़ाई की टेंशन को किसी बक्से में बंद कर आई थी । इसका कहना था कि ज़िंदगी को आज ना जिया तो फिर कभी जीने का ये मौका नहीं देगी । यहां भी हमारी सोच अलग थी ।

मुझे लगता था कि इसकी वजह थी और वो ये कि उसे ज़िंदगी से कुछ ऐसा कुछ चाहिए नहीं था जो उसके पास ना हो और मुझे ज़िंदगी ने ऐसा कुछ दिया नहीं था जिसकी मुझे ज़रूरत हो । उसके लिए हर चीज़ आसान थी और मेरे लिए सब कुछ एक जंग की तरह जहां जीते तो मिलेगा वर्ना मारे जाओगे ।

खैर इन बातों का तब कोई ज़्यादा मतलब नहीं था । समझदारी थी मगफ तजुर्बा नहीं था ना । लगता था ऐसे ही एक दिन सब ठीक हो जाएगा । वक्त जैसे जैसे बीत रहा था वैसे वैसे मैं सपने देखने की एक भयानक बीमारी पाल बैठा था । ऐसी बीमारी जिसके कारण गरीब इंसान की जान भी जा सकती है । वो सपने जो अपने हाथ में नहीं हैं, वो गरीब इंसान के लिए कैंसर जैसी बीमारी से भी भयानक हैं । मगर कहा ना तब इन बातों का अहसास कहां था मुझे ।

वक़्त बीतता रहा हम और नज़दीक आते रहे । उसे वक्त ज़्यादा देने लगा । पहले उसके हिस्से का वक़्त उसके पास होने तक ही सिमित था लेकिन अब उसके पास ना होने पर भी उसके लिए वक़्त निकालना पड़ता था । उसकी शरारतें, उसका बेफ़िक्र होने के बावजूद मेरे लिए फिक्रमंद होना, उसकी बातें, उसकी हंसी सब मुझ पर हावी होने लगी थीं । इसका नतीजा आखिरी साल में दिख गया ।
मैं फिर से कॉलेज टॉपर होने के साथ साथ अपने सबजेक्ट में स्टेट टॉपर रहा । हर तरफ मेरा नाम गूंज रहा था मगर मेरे चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी । मैं जानता था कि इस सिस्टम में मेरे जैसे के लिए टॉपर होना आगे की राह आसान नहीं करेगा । मेरे पास ये आखिरी साल था और मैं इस साल में सिर्फ एक तरफ से ही पास हो पाया था । मेरा यूपीएससी क्लियर नहीं हुआ । मैं जनता था ये इतना आसान नहीं है शायद दिन रात इसकी तैयारी करता रहता तब भी ना क्लियर होता ये मगर यहां अफसोस ये था कि मैंने कोशिश ही नहीं की थी । ध्यान देता तो यूपीएससी ना सही कोई और परीक्षा निकाल लेता । कम से कम नौकरी तो लगती । मगर मैं तो यहां प्यार में फंस चुका था । मुझे बस दुख हो रहा था गलती का, कहां हुई है ये मैं अभी भी नहीं समझा था ।

उसने बहुत समझाया मगर वो सच से वाकिफ़ नहीं थी । मेरा सच मेरे आने वाले कल का कत्ल करने पर तुला था । मैं उसे बिना बताए अपने घर लौट आया, अपने सच का सामना करने । मेरे टॉपर होने की खबर पूरे गांव को पता लग चुकी थी । लेकिन सबके पास देने के लिए सिर्फ बधाईयां ही थीं किसी के पास ये हिम्मत नहीं थी कि तू आगे बढ़ हम तेरे साथ हैं । भला होती भी क्यों किस हक़ से मैं मांग करता इनसे ।

घर पहुंचते ही मां ने गले लगा लिया । बड़ी उम्मीदों से मेरी ओर देखा । मैं अंदर से कांप रहा था । खाना खाने के बाद मां ने पूछा "अब तो नौकरी पक्की ना ?"

मैं घबरा गया । दो बहनों और मां की उम्मीद मुझ पर थी मैं कैसे एक झटके में तोड़ देता । जो थोड़ी सी ज़मीन बची थी उसे बेच कर तीन साल मांगे थे मैंने । अब क्या कहूं इन्हें कि मैं भटक गया था । तीन तीन जिम्मेदारियां संभाल नहीं पाया ?

"हां पक्की है मां ।" ज़िंदगी में मैंने पहली बार मां से झूठ बोला था मैंने । वो भी आंखों में आंखें डाल कर । क्योंकि अगर मैं उसकी आंखों में देख कर ना बोलता तो वो मेरा झूठ पकड़ लेती । वैसे भी वो ये मान चुकी थी कि जो उसने चाहा है वो पूरा हो कर रहेगा ।

"बस अब ट्रेनिंग में साल दो साल का समय लगेगा ।" ये सुन कर मां कुछ समझी तो नहीं मगर चिंतित ज़रूर हो गई ।

"दरमाहा तो देंगे ना ?" उसने अपनी चिंता जाहिर की ।

"हां मगर कम देंगे ।" एक झूठ का सूत मुझसे नए ताने बुनवाता चला गया ।

"कोई बात नहीं थोड़ा बहुत भी आता रहे तो काम चल जाएगा । बाक़ी नौकरी लग गई यही बहुत है ।" मां को नहीं पता था यूपीएससी क्या होता है, उसने तो ये भी नहीं सोचा था कि उसका बेटा कलेक्टर बनने की तैयारी कर रहा था । उसके लिए तो बस मेरा सरकारी अफसर बनना ही काफ़ी थी । वो खुश थी, जब से पैदा हुआ हूं उसे पहली बार इतना खुश देखा था मैंने । काश पिता जी होते तो देखते कि उनकी रज्जो को हंसना भी आता है ।

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भाग चौथा

मैं मां से कितना भी झूठ बोल लेता मगर लोगों का मुंह कैसे बंद करता । कहीं ना कहीं से ये खबर मां को मिल ही जानी थी कि मैं झूठ बोल रहा हूं और मां को ये पता लग भी गया । सरोज काका के लड़के ने मां को बता दिया कि मेरी नौकरी वाली बात झूठी है । हालांकि मेरा सरोज काका के लड़के से कभी मिलना जुलना नहीं हुआ था मगर ना जाने उसे कैसे मेरा सच पता लग गया था ।

इसके बाद मां गुस्से में लाल हुई मेरे पास आई और कहने लगी "तू ने मेरा विश्वास तोड़ा है । मैंने तेरे लिए खून पसीना एक कर दिया मगर तू मुझसे झूठ बोलता रहा । बता और क्या क्या झूठ बोले हैं तू ने । ये सब उस लड़की की वजह से है ना ?"

मां की आखिरी बात ने मुझे अंदर तक हिला दिया । मां को कैसे पता लगा उसके बारे में । मैंने बहुत कोशिश की मगर मेरे गले से कोई आवाज़ ही नहीं निकल रही थी । मां का गुस्सा पारे की तरह चढ़ते जा रहा था ।

"अब तू रह खुश मैं अब और नहीं झेल सकती ।" इतना कहने के साथ ही मां ने पास पड़ा चाकू अपने पेट में उतार लिया । मैं रोता रहा चिल्लाता रहा मगर उसे रोक ना पाया मां ने मेरे सामने तड़प तड़प कर दम तोड़ दिया । मैं अपनी जगह से हिल नहीं पा रहा था ।

मैंने अपनी सारी ताकत समेटी और ज़ोर से चीख उठा । चीखने के कुछ समय बाद मुझे होश आया । मेरी दोनों बहनें और मां मुझे घेरे हुई थीं । मां को देख कर मैंने भगवान का शुक्र मनाया कि ये बस एक डरावना सपना ही था । वो तीनों मेरे पास ही बैठ गईं फिर घंटे भर समझाने के बाद उन्हें सोने भेजा । अब कैसे कहता मां से कि मैंने उसे मरते देखा है ।

इसके बाद मैंने तय किया कि मैं मां को सच नहीं बताऊंगा बल्कि इस झूठ को ही सच करूंगा । कुछ दिन घर पर रहने के बाद परिवार को झूठे सपने दिखा कर मैं फिर शहर लौट आया । पहले ही दिन वो मुझे रिक्शा स्टैंड पर मिल गई । ये उसकी खुलेपन का हिस्सा था या फिर इंतज़ार खत्म होने की खुशी पता नहीं लेकिन उसने बिना उस भिड़ की परवाह किए मुझे गले से लगा लिया । बिना इस्त्री की कमीज पहने एक समान्य से दिखने वाले लड़के को एक गोरी चिट्टी लड़की बीच बाजार में गले लगा के रोने लगती है ये दृश्य भला वहां खड़ा कौन ऐसा इंसान होगा जो मिस करना चाहेगा ।

मैंने जल्दी से एक रिक्शे को हाथ दिया और उसके साथ उसमें सवार हो गया । आंसू रुक चुके थे उसके, चेहरे पर बिखरी उदासियाँ जैसे जल कर अब गुस्से की लपटों में बदलने लगी थी । मेरा हाथ झटकते हुए उसने मुझ पर तड़ातड़ थप्पड़ों की बरसात शुरू कर दी ।

"ऐसे कौन गायब हो जाता है ? तुम्हें पता है पिछली 6 रातों से सोई नहीं हूं मैं । डर के मारे लगातार दिल धड़क रहा है तबसे मेरा ।" वो रोते हुए बोले जा रही थी । उसके हाथ इस तरह चल रहे थे जैसे किसी मशीन का बटन ऑन कर के छोड़ दिया हो ।

"घर गया था यार ।" मैंने थप्पड़ों से बचते हुए कहा ।

"बता कर जाते तो मैं कोई साथ तो नहीं आ जाती ना ।" मैंने उसके हाथों को ज़ोर से पकड़ लिया ।

"अब तो मैं आ गया । अब मारना बंद करो प्लीज ।" वो ज़ोर से लिपट गई मुझसे । हम कॉलेज पहुंच गये थे । मुझे कॉलेज में कुछ काम था । प्रोविजनल सर्टीफिकेट लेना था । उसके बाद हम उसी पार्क में आ कर बैठ गए जहां हम हमेशा बैठा करते थे ।

वो मेरे कंधे से सर टिकाए हुए बैठी थी और मैं खुद को तैयार कर रहा था उसे कुछ ऐसा बताने के लिए जो उसे बिल्कुल पसंद नहीं आने वाला था ।

"मैं दिल्ली जा रहा हूं ।" मैंने आखिर कह ही दिया ।

"अभी तो ठीक से आए भी नहीं और जाने की बात कर रहे हो ।" उसने उसी तरह लेटे हुए कहा ।

"अभी दस दिन हूं यहां । पहले बता दिया नहीं तो फिर कहोगी बिना बताए चले गये ।"

"क्या काम है ? जो भी हो जल्दी लौट आना ।" वो अभी तक भी किसी सपने में खोई लग रही थी ।

"हमेशा के लिए जा रहा हूं ।" मेरी इस बात ने उसे जैसे अचानक से नींद के आगोश से बाहर खींच लिया हो । उसने झटके से कंधे पर से सर हटाया ।

"हमेशा के लिए ? तुम पागल हो क्या ? ऐसा क्या है दिल्ली में जो तुम मुझे छोड़ के जा रहे हो ? हमारे सपनों का, हमारी शादी का क्या होगा ?" वो एक सुर में बोले चली जा रही थी ।

"उन्हीं को पूरा करने जा रहा हूं । दिल्ली में एक नौकरी मिल रही है । उसके साथ ही यूपीएससी की तैयारी भी कर लूंगा ।" मैंने बिना सार सच बताए उसे समझाने की कोशिश की ।

"वो सब तो यहां भी हो सकता है लेकिन तुम यहां रहना ही नहीं चाहते । तुम्हारा मन भर गया है मुझसे ।" वो उठ खड़ी हुई और कॉलेज गेट की तरफ चल दी । मैं पीछे पीछे भागा । उसे रोकता रहा मगर वो नहीं मानी । बाहर आई रिक्शा लिया और चली गई । मुझे पता था वो मान जाएगी । मैंने उसे जाने दिया ।

मैं अगले दिन रिक्शा स्टैंड पर गया । पता था वो वहां होगी मगर मैं गलत साबित हुआ । उसके बाद मैं हर रोज़ स्टैंड पर उसकी राह देखता लेकिन वो नहीं आती मैं थक हार कर रूम पर लौट आता । 8 दिन इसी तरह बीत गये थे । मैंने अपने जाने की लगभग सभी तैयारियां कर ली थीं । मैं चाह कर भी देर नहीं कर सकता था क्योंकि बहुत मुश्किल के बाद मुझे एक नौकरी मिली थी । जिन्होंने मेरी नौकरी लगवाई थी उन्होंने सीधे तौर पर कहा था कि जिस दिन कहा है उससे एक दिन भी देर की तो नौकरी गई समझो । मुझे जल्द से जल्द नौकरी चाहिए थी जिससे घर भी पैसे भेज सकूं ।

आज आखिरी दिन था मेरा इस शहर में कल सुबह की ट्रेन थी । इधर ये लड़की थी जिसने अचानक ही मुझे एकदम से भुला दिया था । मैं उसके घर तक भी जाता मगर उसकी एक झलक ना मिलती । मैं उसके घर भी चल जाता तो कोई आफत नहीं आ जाती । मैंने शर्ट पैंट का वो जोड़ा संभाल के रखा था जो पिंकी भईया की शादी में सिलवाया था । सब कहते थे इंग्लिश स्टाईल से सिला है । मैं वो पहन कर जाता तो अच्छा प्रभाव पड़ता, पढ़ने में तो मैं फेमस था ही । उन्हें भी पता होगा कि उनकी बेटी के कॉलेज का ये लड़का टॉप आया था । लेकिन कहते हैं गरीबी पय भारी होता है । ये मजबूत से मजबूत आत्मविश्वास को तोड़ देता है । इस गरीबी ने इतनी हिम्मत ही नहीं दी कि मैं उनके दरवाजे पर जा कर कह सकूं कि मुझे आपकी बेटी से मिलना है वो मेरे साथ पढ़ती है ।

खैर कोई मतलब नहीं रह गया था इन बातों का । मैं फिर से बुझी हुई सूरत ले कर कमरे की तरफ बढ़ गया । अभी कुछ ही कदम चला था कि पीछे से आवाज़ आई "अब पता लगा किसी अपने का दूर जाना कितनी तकलीफ देता है ।" मैं इस आवाज़ के बाद एक कदम आगे ना बढ़ पाया ।

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भाग पांचवां


"हो गया गुस्सा शांत ? क्या मिला ये सब कर के ? बेकार में ये 9 दिन गंवा दिए ।" मैं जो अब तक उसे लेकर फिक्रमंद था अचानक से गुस्से से भर गया ।

"तुमने गंवाये हैं मैंने नहीं ।" उसने कोरा सा जवाब दिया ।

"मैंने भी नहीं गंवाये ।" मैंने भी उसी के लहजे में उसे जवाब दिया ।

"वो तो मैं देख ही रही थी । कैसे उस खम्भे पर रोज़ अपना गुस्सा निकालते थे ।" उसने सामने लगे खंभे की तरफ आंखों से इशारा करते हुए कहा ।

"मतलब तुम यहीं थी ? हर रोज़ ?"

"मैंने कहा ना कि मैंने दिन नहीं गंवाये । मुझे तुम्हें देख के ही सुकून मिल जाता है और मैंने तो तुम्हें रोज़ देखा है । तुम्हीं मुझे नहीं देख पाए ।" उसकी बात सुन कर मेरा सार गुस्सा पिघर कर मेरी आंखों में भर आया और धीरे धीरे किनारों से बहने लगा । मन हुआ मैं भी गले लगा लूं उसे बिना इस भीड़ की परवाह किए मगर मैं कर ना सका ।

उसकी तरफ बढ़ा ही था कि उसने मुझे रोका "दिल्ली जा रहे हो तो पास मत आना ।"

"मैं समझाता हूं ना तुम्हें ।" मैं फिर आगे बढ़ा उसने फिर रोका ।

"मैं बच्ची नहीं हूं जो ना समझूँ । सब समझ आ रहा है मुझे ।" ये बात उसने बच्चों की तरह ही कही थी ।

मैं तेजी से आगे बढ़ा उसका हाथ पकड़ा और सामने खड़े एक रिक्शे पर बैठ गया । उसने हाथ छुड़ाने की कोशिश भी नहीं की । रिक्शेवाले को पार्क चलने का बोल कर मैं चुप हो गया । 15 मिनट तक हम चुप ही रहे । पार्क आ गया हम उतर गये । उसने हमेशा की तरह पहले ही रिक्शेवाले को पैसे दे दिए ।

मैं उसका हाथ पकड़े तेज़ी से पार्क की ओर चल पड़ा । भीड़ से दूर लगे एक बैंच पर उसे बैठते हुए बोला "दिल्ली ना जाऊं तो क्या करूं बताओ मुझे ?"

"जो करना है यहीं कर लो । मैं पापा से कह के अच्छी...." उसकी बात पूरी नहीं होने दी मैंने

"मुझे सिर्फ जॉब नहीं करनी ।"

"हां तो तैयारी भी यहीं कर लो । सानू भईया यहीं से पढ़ कर तो..."

"तुम समझ नहीं रही । तुम्हारे साथ होते हुए मैं पढ़ाई पर फोकस नहीं कर सकता ।" मैंने वो बोल दिया जो कोई भी प्रेम करने वाला अपने साथी नहीं सुनना चाहता ।

"मतलब मैं तुम्हारे लिए एक प्रॉब्लम हूं ?" उसकी आंखों के आंसू पलकों पर झूलने लगे ।

"नहीं यार । तुम प्रॉब्लम होती तो तुमसे छुटकारा चाहता । ऐसे मना नहीं रहा होता । तुम मेरे हालत से वाक़िफ़ नहीं हो ।" मैंने घुटनों पर बैठते हुए कहा ।

"हमारे सपनों का क्या होगा ? और हमारी शादी का ?"

"उसी के लिए जा रहा हूं । तुम ही बताओ क्या एक ऐसे लड़के के साथ सारी ज़िंदगी बिता लोगी जो दूध भी तुम्हारे पैसों से खरीद के पीता है, जिसके रिक्शे का किराया तक तुम देती हो ?"

"हां मैं रह लूंगी ।" वो तपाक से बोली ।

"तुमने गरीबी देखी नहीं ना इसलिए ऐसा कह रही हो । मेरी दो बहनें हैं जिनकी शादी की ज़िम्मेदारी मुझ पर है । ज़मीन बेच कर मां ने पढ़ने भेजा था मुझे इस उम्मीद में कि मैं कुछ बन कर घर लौटूंगा । इस बार घर जाने पर उन्होंने मुझसे पहला सवाल यही पूछा कि नौकरी मिल गई ? मैं उन्हें क्या बताता कि मैं प्यार में हूं इसीलिए मैं नौकरी नहीं पा सका ? गरीब के लिए प्यार से कहीं ज़्यादा रोटी मायने रखती है । मैंने पहली बार मां से झूठ बोला कि मुझे नौकरी मिल गई है । अब मुझे नौकरी भी करनी है पढ़ाई भी करनी है और जल्द से जल्द एक मुकाम भी हासिल करना है । लेकिन मैं नहीं कर पाऊंग अगर तुम्हारे आसपास रहा । मैं 8 दिन से सोया नहीं, ढंग से खाया नहीं सिर्फ़ ये सोच कर की तुम नाराज़ हो । क्या ऐसे हाल में मैं कुछ कर पाऊंगा ?" मैं ये सब कहते हुए रो पड़ा । वो चुपचाप मुझे सुनती रही ।

"आज कहने में बहुत अच्छा लग रहा है कि मेरे साथ रह लोगी लेकिन कल को जब तुम्हें एक एक रुपया खर्च करते हुए सोचना पड़ा तो कोसोगी अपनी किस्मत को । मैं भी तुम्हारी तरह किसी अमीर घर में पैदा होता तो ये सब कभी नहीं जान पाता जो तुम्हें बता रहा हूं । हमें जीने के लिए भी लड़ना पड़ता है यार और ये लड़ाई तुमसे नहीं लड़ी जाएगी । मुझे वक़्त दो मैं कुछ सालों में ही लौटूंगा कुछ बन कर फिर जैसे कहोगी मैं वैसे रहूंगा । हमारे सारे सपने पूरे होंगे हमारी शादी होगी ।" मैंने घुटने पर बैठे बैठे अपना सर उसकी गोद में रख दिया और रोने लगा । रोते हुए मैंने उसकी सूरत नहीं देखी । मैं जान नहीं पाया कि मेरी बातों का उस पर कैसा असर हुआ है

बस उसने इतना कह दिया कि "जाओ ।"

"क्या ?" मैं समझ नहीं पाया उसने ये बात किस लहजे में कही है ।

"जाओ मैं इंतज़ार करूंगी । अब मुझे घर जाना होगा इससे पहले कि मैं टूट जाऊं और तुम मुझे टूटता देख कर अपना इरादा बदल दो ।" वो ऐसे उस पार्क से निकली जैसे मैंने उसके अंदर से उसकी आत्मा निकल ली हो । मैंने उसे सब कुछ बता दिया था लेकिन वो अभी भी बहुत कुछ अपने अंदर दबाए हुए थी । मुझे नहीं पता था कि वो सब क्या है और ना मैंने जानने की कोशिश की थी कभी ।

अगले दिन वो स्टेशन पर भी आई थी मुझे आखिरी बार देखने । जाने से पहले बोली "हमें सच में अदला बदली कर लेनी चाहिए । तुम लड़की की तरह दूर जा रहे हो और मैं लड़के की तरह यहां खड़ी आंसू बहाउंगी ।" मैं मुस्कुरा उठा ।

"लौट कर ज़रूर आना । इंतज़ार करूंगी ।" यही उसके आखिरी शब्द थे । ट्रेन मुझे दिल्ली ले आई । यही दिल्ली मेरी नई किस्मत लिखने वाली थी ।

ये मेरी मजबूरी थी या मेरा स्वभाव नहीं जान पाया मैं मगर सच यही था कि दिल्ली आने के बाद मैं मतलबी हो गया था । कुछ दिन जी भर रोया मगर उसके बाद मेरे सामने था तो सिर्फ मेरा लक्ष्य । जितना मन लगा के नौकरी की उससे कहीं ज़्यादा मन लगाया पढ़ाई में । मां को हर महीने पैसे भेजता रहा और यहां ज़िंदगी से एक लड़ाई लड़ता रहा । ये लड़ाई 3 साल चली । पढ़ता था मगर फिर भी कामयाब ना हो पाता । तब पता चला कि बिना गुरूमंत्र के यहां यूपीएससी का चक्रव्यूह नहीं टूटता । जैसे तैसे गुरू भी तलाश लिया । उसके बावजूद भी नाकामयाबी के अलावा और कुछ हाथ ना लगा ।

इस बीच जब भी मैं हारा हुआ सा महसूस करता तो इसकी यादें मुझे घेर लेतीं । नंबर दिया था उसने, मन होता कि उससे बात करूं, उससे मुझे हिम्मत मिलती थी मगर मैं डरता था कि कहीं थोड़ी सी हिम्मत के बदले मैं उसे इस संघर्षपूर्ण ज़िंदगी का हिस्सा ना बना लूं । कहीं ये सब मुझे फिर से अपने लक्ष्य से दूर ना कर दे । उसकी आवाज़ सुनी नहीं कि ये तपस्या भंग हो जाएगी । यही सब सोच कर कभी फोन नहीं किया मैंने उसे । ना ही कभी इस बीच घर जाना हुआ । मां से और झूठ नहीं बोल सकता था सो फैसला कर लिया था कि किला फतह कर के ही जाऊंगा ।

चौथा साल था इसलिए मैंने अपनी सारी मेहनत झोंक दी थी । कुछ फ़रिश्ते मिले थे यहां, जिन्होंने बहुत सहारा दिया । ऐसे दोस्त भी मिले जिनके लिए उन्के खुद के कामयाब होने से ज़्यादा ज़रूरी मेरा आगे निकलना था । मैं किताबों और नोट्स में इतना खो गया था कि खाने सोने की सुध ही भूल बैठा था । ऐसे हाल में सलोनी मेरे लिए खड़ी हुई । वो हर रोज़ खाने से लेकर मेरी सेहत तक का खयाल रखती थी । उसे मेरे हालातों की खबर थी । वो ना होती तो शायद मैं पढ़ते पढ़ते मर जाता ।

एक दिन मैंने उससे पूछा था "क्यों करती हो मेरे लिए ये सब ? तुम्हें तो अपने लिए भी समय निकालना मुश्किल होता है फिर क्यों ?"

वो पहले मुस्कुराई और फिर बोली "कई सवालों का जवाब नहीं मिलता और ना जानने की ज़रूरत महसूस होती है । बस तुम्हें और तुम्हारी मेहनत को देखती हूं तो लगता है तुम्हारे लिए जितना कर सकूं उतना कम है । यकीन मानों तुम्हारा जीतना मेरे जीतने जितना सुख ही देगा मुझे ।"

उसकी आंखों में ना प्यार का भाव था ना दोस्ती का, ये अलग ही था । जैसे अपने मन में श्रद्धा पाल रखी हो उसने मेरे लिए । मैं ये सब समझ पाने की स्थिति में बिल्कुल नहीं था । इन दिनों मेरे पास दो ही जवाब थे एक मुस्कुराना और दूर ये कहना कि 'फिक्र मत करो सब अच्छा होगा ।'

खैर मेरे लिए करो या मरो का समय आ गया था । मैं अपनी किस्मत लिख आया था । मेहनत का फल मिला और ऐसा मिला कि मुझे हरि दर्शन का सुख मिल गया । परीक्षा क्लियर हो चुकी थी, मैंने लक्ष्य साध लिया था । सालों की मेहनत ने मुझे वो रैंक दिलाया था जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी ।

मोहब्बत एक पूत को कपूत बना सकती है ये बात तब पता चली जब मां को ये खुशखबरी देने की बजाए मैंने पहले उसका नंबर मिलाया । धड़कते दिल के साथ मैंने नामर डायल किया । सब सोच लिया था कि क्या बोलूंगा, कैसे मनाऊंगा उसे । मगर नंबर नहीं लगा । एक बार दो बार कई बार लेकिन लगातार एक ही तरह की टोन । शायद ये नंबर बंद हो चुका था । मेरी बेचैनी जो मैंने तीन सालों से समेट कर रखी थी वो अब और दबने को तैयार नहीं थी ।

मैं एक बार फिर मतलबी हो गया । बिना सलोनी या किसी को मिले मैं उसी रात गायब हो गया वहां से । मैंने किसी को मौका नहीं दिया मेरी खुशी बांटने का । मैं उस शहर के लिए रवाना हो गया जहां से उसे अलविदा कहा था ।

वही स्टेशन, वही सड़कें, वही रिक्शा स्टैंड, और वही मोहल्ला जहां मेरी जान रहती थी । उसके बड़े से घर के पास पहुंचा । मेरी कामयाबी ने उस आत्मविश्वास को फिर से मजबूती दी थी जो गरीबी के कारण कभी टूट गया था । मैं ये सोच कर आगे बढ़ा कि जाते ही कहूंगा मुझे आपकी बेटी से मिलना है मैं उसका दोस्त हूं । जिसने अभी अभी यूपीएससी क्लियर किया है ।

यही सब सोचता हुआ मैं उस बड़े से दरवाज़े तक पहुंचा । धड़कते दिल के साथ बेल बजाई । सामने वो खड़ी थी और मैंने उसे गले लगा लिया । खैर ऐसा सोचना मेरा खयाल मात्र था जो मैं लगातार देख रहा था ।

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भाग छठा


मैं उस बड़े से दरवाज़े तक पहुंचा । धड़कते दिल के साथ बेल बजाई । सामने वो खड़ी थी और मैंने उसे गले लगा लिया, ऐसा सोचना मेरा खयाल था जो मैं लगातार देख रहा था ।

असल बात ये थी कि अभी तक कोई नहीं आया था दरवाज़ा खोलने । मेरे बार बार बेल बजाने पर गेट के बगल से एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति बाहर निकला । जो इस घर का मालिक तो कहीं से नहीं लग रहा था ।

"बहुत जल्दी में लगते हो बेटा ।" उसने पहला सवाल यही पूछा ।

"हां हूं तो पर आपको कैसे पता ?"

"दरवाजे पर टंगा इतना बड़ा ताला जो नहीं दिख रहा तुम्हें । चाहो तो दीवार फांद लो । हम पुलिस को नहीं बुलाएंगे ।" शायद बंद दरवाज़े पर बार बार घंटी बजाने से ये शख्स चिढ़ गया था । मैं भी तो पागल था जो अब तक नहीं देख पाया कि यहां ताला लटका है ।

"कहां गये ये लोग ?" मैंने ताले को गौर से देखने के बाद पूछा ।

" दो साल पहले तो अमरीका के लिए निकले थे पता नहीं पहुंचे की नहीं पहुंचे ।" उसने फिर टेढ़ा जवाब दिया ।

"और उनकी बेटी ?"

"हमें तो नहीं पता कि इनकी कोई बेटी भी है और अगर होगी भी तो इनके साथ ही गई होगी ।" उसकी बातें अब गुस्सा दिला रही थीं लेकिन उसका पता यही बता सकता था सो मैंने प्यार से मामला निपटाने की कोशिश की ।

"बाबा मेरा जानना बहुत जरूरी है है कि वो लड़की जो यहां रहती थी इस घर में जो इनकी बेटी थी वो कहां है ?"

"चाय पियोगे ?" मेरा बाबा कहना काम कर गया था । ये गरीब इंसान की अच्छाई कहिए या भोला पन लेकिन सम्मान के बदले में ये लोग आपका कोई भी काम कर सकते हैं । मैंने हां कह दी और फिर हम उस बड़े से घर के बगल से होते हुए बाबा के क्वाटर में पहुंच गये ।

"बेटा इनकी कोई बेटी नहीं थी, मेरी बात का यकीन करो । वैसे भी मैं तुमसे झूठ क्यों बोलूंगा ।" बाबा ने चाय का बर्तन स्टोब पर चढ़ाते हुए कहा ।

"जानते हैं बाबा मैं कुछ दिनों में कलेक्टर की कुर्सी पर बैठने वाला हूं । जितनी तपस्या के बाद मुझे ये फल मिला है ना उसके लिए मुझे इस समय अपने घर वालों के साथ खुशियां मनानी चाहिए । खुद को बहुत बड़ा आदमी महसूस करना चाहिए लेकिन मैं वो सब छोड़ कर इतनी दूर इस शहर में आया हूं । अब आप बताओ कि क्या मैं फिर्फ एक वहम का पीछा करते हुए यहां तक पहुंचा हूं ।" मेरे मुंह से कलेक्टर होने की बात सुन कर बाबा को अपनी पिछली कही बातों पर शर्मिंदगी महसूस हुई । उनके हाथ कांपने लगे । मैं उनके डर को भांप गया ।

"आप डरिये मत मैं यहां साधारण आदमी के रूप में बस उस लड़की को खोजने आया हूं । मुझे बस उसके बारे में जानना है ।" मैंने बाबा के पास जाते हुए उनके कांपते हाथों पर अपना हाथ रख दिया ।

"बेटा मैं सच ही कह रहा हूं । उनकी कोई बेटी नहीं थी चाहो तो कसम खिलवा लो ।" बाबा ने अपने सिर पर हाथ रखते हुए कहा ।

"नहीं बाबा कसम मत खाइये । आपकी बात मैं सच मान लेता मगर मैंने उस लड़की के साथ अपनी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दौर जिया है । पता नहीं आप कैसे ऐसा कह रहे हैं । खैर आप पर मेरा कोई ज़ोर नहीं । मैं चलता हूं । बस अगर यहां कोई भी लड़की कभी आए तो उसे कह दीजिएगा कि वो लड़का आया था उसे खोजता हुआ जिस पर उसके कई उधार हैं । मैंने उसके साथ गलत किया । मुझे उसे छोड़ना नहीं चाहिए था ।" यही कह कर मैं वहां से चला आया ।

अगले तीन दिनों तक मैं उस शहर में रुका रहा जिसने मुझे ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी देकर उसे मुझसे छीन लिया था । मेरा ज़्यादातर समय उस बंगले के बाहर ही बीतता था जहां से ना जाने कितनी बार मैंने उस लड़की को एक दिन के लिए अलविदा कहा था । हर सुबह वो यहीं से चहकते हुए निकलती होगी मगर आज ऐसे गायब हो गई है जैसे कि वो यहां कभी थी ही नहीं । उस बूढ़े बाबा ने कई बार मुझे देखा और हर बार माथा पीटता हुआ वहां से चला गया । उसके लिए मैं एक पागल था ।

आज मुझे हर वो प्रेम कहानी शिद्दत से याद आ रही थी जहां एक समझदार इंसान प्यार में नौकर से लेकर फ़क़ीर तक हो जाता है अपनी मोहब्बत के लिए । मैं आने वाले कल का डीएम आज इस तरह से सड़कों की धूल फाँक रहा था । अपने तमाम ज़रूरी काम छोड़ कर, इतनी बड़ी खुशी के बावजूद भी अपनों से छुप छुपा कर मैं यहां बैठा उस लड़की का इंतज़ार कर रहा था जिसके वजूद को भी लोग नकार रहे थे ।

उसके लिए मेरा प्यार, मेरे लिए उसका वो दिवानापन, उससे लिया हुआ उधार क्या ये सब एक छलावा ही था ? नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता । उसकी वो मासूम सी सूरत छलावा नहीं हो सकती । एक तरफ उसकी फिक्र थी तो दूसरी तरफ उसकी बदनामी का डर भी । मैं किसी से उसके बारे में खुल कर नहीं पूछ सकता था । तीन दिन के इंतज़ार के बाद मैं अब अंदर ही अंदर टूटने लगा था । इंसान कितना भी बड़ा हो जाए लेकिन जब वो हालातों के हाथों टूटने लगता है तो उसे सबसे पहले मां याद आती है ।

मैं भी अपने बिखरे हुए टुकड़े समेट कर घर की ओर निकल आया । आने से पहले उस बूढ़े बाबा को फिर से याद करा आया कि अगर कोई लड़की आए यहां तो उसे कह देना कि उसका उधार चुकाने कोई लड़का आया था ।

अपने मन पर उस लड़की को अकेला छोड़ जाने का बोझ लिए मैं घर आ गया । घर आने पर पता चला कि एक नई तकलीफ़ मेरा शिद्दत से इंतज़ार कर रही है । गांव पहुंचते ही मुझे जो पता चला उसे सुन कर मैं भागता हुआ घर आया । मैं घर में घुसा ही था कि मेरी दोनों बहनें मुझे देखते ही मुझसे लिपट गईं । ऐसा लगा जैसे उन्होंने किसी फ़रिश्ते को देख लिया था । मां सामने पलंग पर बेसुध सी पड़ी हुई थीं ।

बहनों ने बताया कि तीन दिन पहले उन्हें अचानक से दिल का दौरा पड़ा था । सरपंच चाचा अगर समय पर सारा इंतजाम ना करते तो शायद मां आज हमारे बीच नहीं होतीं । सभी लोग तीन दिन से मुझसे संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे मगर मैं सबकी पहुंच से दूर था । ये ना जाने कैसी परीक्षा थी और ना जाने कितने बोझ मेरे दिल पर लदने बांकी थे अभी । मां को जब होश आया तो उसके आंखों से बह रहे आंसू मेरी आंखों में तैरने लगे । बच्चों जैसी शिकायत थी उसके चेहरे पर । वो बिना बोले ही पूछ रही थी मुझसे कि कहां था तू ? क्या तुझे अपनी मां कि ज़रा भी परवाह नहीं है ?

किस्मत भी मुझे ना जाने कैसे मोड़ पर ले आई थी, जहां मुझे खुद पर गर्व होना चाहिए था वहां मैं लगातार शर्मिंदा हो रहा था । अब उसकी यादों पर मां की फिक्र हावी हो चुकी थी । मुझे मां के लिए अच्छा इंतजाम कर के फिर से मेडिकल के लिए वापस लौटना था ।

"ये क्या कर ली हो मां ? कितनी बार समझाए कि खुद का खयाल रखा करो मगर तुम बात ही कहां मानती हो ।" मां के अच्छी तरह होश में आ जाने के बाद एक दिन मैंने उससे कहा ।

"जब खयाल रखना था तब रख ही ना पाई बबुआ, अब काहे का खयाल । अपना जिम्मेदारी निभा दिए हैं हम । अब तुम अपना निभाना । हमको फरक नहीं पड़ता भले ही…" मां के होंठों पर पर पड़ी पपड़ी उसके आंसुओं से कुछ नर्म पड़ने लगी थी । ये बात उसने किस भाव से कही थी मैं समझ नहीं पाया मगर जो भी कहा था वो मेरे दिल में गहरे से चुभा था ।

"तुम्हारा खयाल रखें, हर वो खुशी तुमको दें जिसके लिए तुम तरसती रही हो ये सब भी हमारा ही जिम्मेदारी है मां । और अभी तो समय आया है ये सब करने का । इसलिए ऐसा कुछ मत सोचना तुम । तुम्हारे बिना हम कुछ भी नहीं हैं अम्मा ।" एक बार मन हुआ कि मां को अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशी बता दें । कह दें कि उसका बेटा अफसर लगने वाला है मगर मैंने नहीं कहा । भले ही सबके लिए ये खुशी की बात थी मगर उसके लिए ये धोखा था । ऐसा धोखा जिसने उसे तीन साल से घेर रखा था । इस हालत में वो ये सब बर्दाश्त ना कर पाती ।

"हम कौन सा मरने का मन बना लिए हैं बबुआ । हम तो बस बात कह रहे हैं । बाक़ी जो राम जी का मर्जी है वही होना है ।"

कुछ दिनों में मां ठीक लगने लगी । अब मेरा निकलना ज़रूरी हो गया था । मेडिकल की डेट नज़दीक आ रही थी । मां ने थोड़ा गुस्सा भी दिखाया मगर नौकरी छूटने का डर दिखा कर मैं वापस दिल्ली लौट आया । मां ने मेरी शादी की चिंता भी जता दी थी इसी बीच । ये भी कह दिया था कि हम पर किसी तरह की बंदिश नहीं है । अपने हिसाब से अगर कोई पसंद हो तो बता दें ।

मगर उन्हें क्या बताता कि शादी के लिए जिसे चुना था वो अब कहीं है ही नहीं । खुशबू की तरह आई, ज़िंदगी महका कर एकदम गायब हो गई ।

वो जो लड़की थी वो मेरे जीवन का सबसे बड़ा रहस्य बन चुकी थी । लेकिन मैं इस परिस्थिती से भी निकल रहा था । जो इंसान किसी लक्ष्य के पीछे होता है वो ना चाहते हुए भी निष्ठुर हो जाता है । जैसे कि अभी मैं हो गया था । मैंने अपने सारे अहसास अपने मन में इतने गहरे से दबा दिए थे कि उनकी किसी को भनक तक ना लग सकी । मैं रोता भी कुछ इस तरह था कि मुझे खुद नहीं अहसास होता था कि मैं रो रहा हूं । मेरे आंसू जब अकेले में कभी मेरे गाल सहलाते तब याद आता कि मुझे रोना आ रहा है । पत्थर बना दिया था मेरे हालात ने मुझे ।

सलोनी अभी भी तैयारी में जुटी हुई थी । ट्रेनिंग के लिए मैं मसूरी आ गया था मगर अभी तक वो मेरे कंटेंट में थी । उसे मेरी फिक्र थी । उसे इस बात का अहसास था कि अंदर ही अंदर कुछ दबा रहा हूं । मगर वो क्या है ना उसने कभी पूछा और मेरे बताने का तो सवाल ही नहीं था । वो बस इतना पूछने के लिए मुझे घंटों फोन मिलाती रहती कि मैं ठीक तो हूं । कई बार तो मुझे उसके फोन की सूचना भी मिलती मगर मैं टाल देता । सिर्फ़ उसी से नहीं बल्कि मैं सबसे भाग रहा था ।

एक दिन मेरे नाम से कैंपस में एक फोन आया । मैं अनमने मन से फोन के पास पहुंचा । फोन उठाया उधर से आवाज़ आई और इस आवाज़ ने मुझे जैसे जड़ कर दिया । मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि पहले सवाल करूं या माफी माँगू । ये वही थी हां वही तो थी, वही लड़की जिसने इस भीड़ भाड़ वाली दुनिया में मुझे एकदम अकेला कर दिया था ।

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भाग सातवां


ये कैसे हुआ मैं नहीं जानता लेकिन फोन का रिसीवर कान से लगाते ही मेरा दिल सालों बाद ठीक उसी तरह धड़कने लगा था जैसे उसके साथ होने पर धड़का करता था । उधर से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी मगर मुझे पूरा यकीन था ये वही थी ।

"कहां हो तुम, कम से कम एक बार बताओ तो सही । तुम ठीक हो ना ?" ये वही थी, इस बात पर मुझे इतना यकीन था कि मैं बिना उधर से कोई आवाज़ सुने ये सब कह गया ।

कुछ देर में उधर से बिना कुछ कहे फोन काट दिया गया । मैं ऐसे तिलमिला उठा जैसे मुझ पर किसी ने खौलता हुआ तेल डाल दिया हो । मैंने वो नंबर दोबारा मिलाया मगर उधर से किसी ने नहीं उठाया । मैं लगातार नंबर मिलाता रहा मगर कोई जवाब नहीं आया ।

मैं सातवीं बार नंबर मिलाने जा रहा था कि फोन की रिंग बजने । ऑफिस टेबल के पीछे बैठा शख्स पहले से ही मुझे घूर रहा था । फोन आने के बाद उसने चाहा कि वो रिसीवर उठा ले मगर जब तक वो वहां तक पहुंचता उससे पहले ही मैंने फोन उठा लिया । उसने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने कोई अपराध कर दिया हो । लेकिन मुझे इस वक़्त किसी की परवाह नहीं थी ।

"ये कोई तरीका होता है ?" फोन उठाते ही मैंने दुख और गुस्से के मिले जुलेभाव में कहा ।

"तरीका नाम की कोई चीज़ नहीं होती । आप जिस ढंग को अपना लें वही तरीका है और वही सही भी । जैसे कि आप जो कर रहे हैं हमारे साथ वो भी आपके लिए सही ही है ।" ये आवाज़ उसकी नहीं थी ।

फिर भी मैंने एक बार सुनिश्चित किया "हेलो, तुम ही हो ना ?"

"और किसी का भी फोन आता है क्या ? शायद इसीलिए हफ्ते भर से मेरे फोन का जवाब नहीं दे रहे थे ।" ये सलोनी थी । उसकी शिकायत सुनने के बाद मैं जैसे नींद से जाग गया था । ऐसी नींद जहां मेरा सपना मेरे एकदम करीब आ गया था ।

"नहीं ऐसी कोई बात नहीं । वो हरीश बार बार फोन कर रहा था तो मुझे लगा वही होगा ।" मैंने झूठ बोल कर पीछा छुड़ाना चाहा । सलोनी की तमाम अच्छी आदतों में ये आदत भी अच्छी थी कि वो किसी बात को जानने के लिए ज़्यादा दबाव नहीं डालती थी । उसका यही जानना बहुत था कि मैं ठीक हूं या नहीं ।

"कैसे हो तुम ? कई बार फोन किया मगर तुमसे बात नहीं हो पाई इसीलिए फिक्र हो रही थी तुम्हारी ।"

"मैं ठीक हूं । आज कल समय नहीं मिल पा रहा ।" हालांकि ये झूठ बात थी । मैं खुद ही किसी से बात नहीं करना चाहता था । घर भी फोन करता तो सिर्फ़ मां की तबियत और घर की किसी ज़रूरत के बारे में जानने के लिए । इतनी चिढ़ और उदासी के बाद भी सलोनी का ऐसे फिक्र करना अच्छा लगता था । इंसान शायद उदास ही इसलिए होता है कि कोई उसके नज़दीक आए । हालांकि वो ये बात मानता नहीं मगर सच यही होता है ।

इसी तरह की कुछ बातों के साथ फोन कट गया । सलोनी घर लौट आई थी । वो अब घर से ही तैयारी करना चाहती थी । उसने कहा कि वो मिलना चाहती है मुझसे । एक बार अपनी आंखों से देखना चाहती है कि मैं ठीक तो हूं । मैंने मना किया मगर वो नहीं मानी । हार कर मुझे कहना पड़ा कि जल्द ही मैं बताऊंगा कि कब मिल सकते हैं । रुड़की से ज़्यादा समय नहीं लगता यहां आने में । ऊपर से उसकी मौसी यहीं मसूरी में ही रहती हैं । वो जितनी बेचैन लग रही थी मैं मैं उससे मिलने से उतना ही घबरा रहा था ।

मेरी ज़िंदगी में ट्रेनिंग के सिवा कुछ खास नहीं बचा था । सुबह 5 बजे उठना और रात तक एकेडमी के बनाए नियमों के हिसाब से चलते रहना । बस इतना ही था । मुझे अब कुछ महसूस ही नहीं होता था । किसी मशीन की तरह अपना काम मैंने दिमाग में फिट कर लिया था । रात जहां बाक़ी साथी थके नज़र आते वहीं मेरे चेहरे पर ना कोई थकान दिखती और ना मुझे कुछ महसूस होता । उस दिन जिस नंबर से फोन आया था उस पर बाद में मैंने बात की थी वो नंबर किसी स्टेशन के टेलीफोनी बूथ का था । उसे याद भी नहीं था कि ये नंबर मिलाने वाला था कौन । उससे बात नहीं हुई थी लेकिन मेरा मन कह रहा था कि ये वही है ।

इस घटना के कुछ दिनों बाद तक मैं उदास रहा लेकिन अब उदासी भी नहीं थी । मैं बिल्कुल अजीब हो गया था । कभी कभी मन होता की खुल के रो लूं मगर ना रोना आता और ना आंसू । नियति मेरी ये हालात बदलना चाहती थी । शायद वो हैरान थी ये देख कर कि मेरे जीवन में इतना कुछ है रोने को फिर भी मैं रो क्यों नहीं रहा ।

फिर एक दिन घर से फोन आया, मां की तबियत बेहद खराब थी । उसे हॉस्पिटल में एडमिट किया गया था । वो बार बार मुझे बुला रही थी । उसके लिए तो मैं एक नौकरी में था जहां से कभी भी छुट्टी लेकर आ सकता था मगर वो नहीं जानती थी कि जहां मैं हूं वहां इतनी आसानी से छुट्टी नहीं मिलती । लेकिन मुझे मिल गई । मेरे पास घर जाने का कारण भी था और मैंने अभी तक एक दिन भी ट्रेनिंग मिस नहीं की थी ।

मां की तबियत मुझे हर बार डरा देती थी । उसे देख कर ऐसा लगता था मानों उसकी जीने की इच्छा ही खत्म हो चुकी हो । घर पहुंचा तो मां की हालत देख कर मेरे अंदर जमा सारा गम पिघलने लगा । सुनीता का रो रो कर बुरा हाल था । डॉक्टर कह रहे थे हालत स्थिर होने में समय लगेगा और समय मेरे पास था नहीं । मुझे समय की चिंता नहीं थी । मुझे बस किस्मत से डर लग रहा था ।

"आ गए बबुआ ?" नींद खुलने पर मां ने पूछा मुझसे ।

"हां मां आ गया । कैसा लग रहा है ?"

"ठीक ही है, बेकार में सब घबरा जाते हैं ।" मां को याद ही नहीं था कि वो इतनी बेसुध हो गई थीं कि बार बार मेरा नाम पुकार रही थीं ।

"सब बहुत प्यार करते हैं ना तुमसे इसीलिए घबरा जाते हैं ।" मैंने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा । मां भी इस पर मुस्कुरा दी ।

"हां सो तो है । तुम्हारा नौकरी कैसा चल रहा है ।" मां के इस सवाल पर हर बार की तरह मुझे झूठ बोलना पड़ता था ।

"अच्छी चल रही है मां । अब जल्दी ही बाबू साहब बन जाएंगे ।"

"दरमाहा भी बढ़ेगा ?" हर बार की तरह मां का पहला सवाल यही था । होता भी कैसे ना दो बेटियों की चिंता जो थी उन्हें । हालांकि मैं अभी उनकी शादी के बारे में सोच भी नहीं रहा था । अभी उन्हें खूब पढ़ना था ।

"हां मां वो भी बढ़ेगा । बस अब तू ठीक हो जा जल्दी से । एतना दरमाहा का हिसाब भी तो रखना होगा ना ।" मां मेरी बात सुन के हल्का सा हंसी । उनकी हालत इससे ज़्यादा हंसी की इजाज़त नहीं दे रही थी ।

"हम कौन पढ़े लिखे हैं । तू खुद ले आ कोई जो तेरा दरमाहा गिन ले और उसका हिसाब भी रखे । पिछली बार भी शादी के लिए कहा था लेकिन तू तो है कि सुनता ही नहीं । अब ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं है बेटा । जाने से पहले...।" शायद ये डायलॉग भारत की हर मां के लिए अनिवार्य कर दिया गया है । मैंने भी हां में सर हिला दिया ।

उस रात हॉस्पिटल में बैठे मैं सोच रहा था कि जिसके लिए मां ने इतने दुख सहे वो खुशी उनसे और नहीं छुपा सकता । वैसे भी मैंने कोई अपराध तो नहीं किया । ये सुन कर उन्हें मुझ पर गर्व होगा कि मैं अपने दम पर एक बड़ा अधिकारी बनने वाला हूं । मैंने तय कर लिया कि मैं कल सुबह ही मां को सब सच बता दूंगा । लेकिन ये तय करते हुए मैं भूल गया कि मेरे तय करने से कुछ नहीं होगा । ये तो वो नियति तय करती है जिसे इंसान के साथ खेल खेलने में मज़ा आता है ।

मां अगले दिन का सूरज भी ना देख पाई । सुबह लगभग साढ़े चार बजे वो हमें हमेशा के लिए छोड़ कर चली गई । मेरे सूख चुके आंसुओं ने आज फिर से बरसना शुरू कर दिया था । खुद के साथ साथ दो छोटी बहनों को संभालना था मुझे । मां ने जितना दुख हमारे लिए झेला था वो सब याद आ रहा था मुझे । वो शायद हमारे हिस्से का दुख कम करने ही आई थी । इसीलिए तो दुखों के बदले एक सुख भी ना ले गई साथ ।

मैं ग्लानि से भरा हुआ था, उसके जाने से पहले उसे वो सच भी ना बता पाया जिसे जानना उसका पहला अधिकार था । पिता जी के जाने के बाद आसमान छिन गया था हमसे और आज मां हमसे ज़मीन भी छीन ले गई । बहनों के लिए मैं था मगर मैं खुद आज अनाथ हो चुका था ।

अब सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि बहनों की देखभाल कैसे करूंगा । गांव अपना था कुछ अच्छे लोग भी थे यहां मगर फिर भी बहनों को यहां अकेला नहीं छोड़ सकता था । ऐसे में फिर एक बार सलोनी मेरे लिए फरिश्ता बन कर सामने आई । उसे जब मैंने सारी बात बताई तो उसने बिना देर किए ये फैसला सुना दिया कि मेरी बहनें अब से उसके घर रहेंगी । उसने अपने घरवालों से भी बात कर ली थी । वहां इनके रहने और आगे पढ़ पाने की समस्या का भी समाधान हो सकता था ।

हमेशा की तरह मैंने पहले बहुत मना किया मगर अंत में मुझे उसकी बात माननी ही पड़ी । और कोई रास्ता भी तो नहीं था । कुछ रिश्तेदार थे जो सालों पहले हमसे संबंध तोड़ चुके थे । अब कुल मिला कर यही एक रास्ता बचा था ।

मैंने सुनीता और लक्ष्मी को सारी सच्चाई बता दी । दोनों के लिए ये खबर सूखे में बारिश की फुहार जैसी थी । मां के जाने से दुखी इन दोनों के चेहरे पर खुशी झलकने लगी । कुछ दिनों बाद मैं अपनी बहनों को सलोनी के घर छोड़ कर एकेडमी लौट आया ।

**************

भाग आठवां

अगर किस्मत मुझ पर मुसीबतों की बारिश कर रही थी तो सलोनी मेरे लिए वो छाता बन गई थी जिससे मैं काफ़ी हद तक इन मुसीबतों से बच पा रहा था । उसके स्वभाव ने कुछ ही दिनों में सुनीता और लक्ष्मी को उसका अच्छा दोस्त बना दिया था । सलोनी के माता पिता भी मेरी बहनों को अपनेपन का अहसास दिलाने में नहीं चूक रहे थे । ये मेरे लिए बहुत बड़ी मदद थी वर्ना ऐसे हालातों में ना जाने मेरी और बहनों की क्या हालत होती । सलोनी का जादू इन पर इस तरह छाया था कि अब ये दोनों हफ्ते में एक बार मुझे फोन करती थीं ।

मैं सलोनी का शुक्रगुज़ार था । उसके प्रति मेरा सम्मान बढ़ गया था मगर मैं अभी भी उस लड़की की यादों से खुद को बाहर नहीं निकाल पाया था । ट्रेनिंग के दौरान मैं जिस भी नई जगह पर गया वहां मैंने किसी तरह के चमत्कार की पूरी उम्मीद की । फिल्में तो उतनी नहीं देखी थीं लेकिन समय मिलने पर रोमांटिक नॉवेल ज़रूर पढ़े थे । ये उन्हीं का असर था जो मुझे लगता था किसी नई जगह पर वो एकदम से सामने मुझे दिख जाएगी और उसे देखते ही ये दुनिया कुछ पल के लिए थम सी जाएगी । होश में रहेंगे तो सिर्फ़ मैं और वो । मैं उसे देखते ही ढेरों सवाल करूंगा और वो उन सवालों का जवाब देने की बजाए मुझसे आ कर लिपट जाएगी । हालांकि मैं मन को ये समझा लेता था कि ये सब सिर्फ़ किस्से कहानियों में होता है मगर फिर भी हर आशिक़ की तरह मैं भी एक कभी ना पूरी होने वाली उम्मीद में जी रहा था ।

ट्रेनिंग खत्म हो गई थी अब मुझे प्रोबेशन पर जाना था । मुझे एम पी कैडर मिला था । पोस्टिंग रुड़की से दूर थी । निकलने से पहले एक बार मैं बहनों से मिलना चाहता था । वो खुद को कितना भी सही बता रही थीं मगर एक बार उन्हें सामने से देख कर तसल्ली करना चाहता था । मैं जानता था कि किसी अनजान घर में बहुत सी ऐसी बातें या जरूरतें होती हैं जो इंसान कह नहीं पाता । यही सब जानने मैं रुड़की पहुंच गया । सलोनी के घर वाले मुझसे मिल कर बहुत खुश थे । उसके पिता से मेरी घंटों बातचीत चली । वे काफ़ी दिलचस्प आदमी थे । उनके फौज के अनुभव जान कर मुझे काफ़ी कुछ नया जानना को मिला । सलोनी से अभी मेरी कोई खास बातचीत नहीं हुई थी ।

"ठीक हो ना तुम दोनों ।" समय मिलने पर मैंने दोनों बहनों से पूछा ।

"हां भईया हम एकदम ठीक हैं ।" सुनीता ने जवाब दिया ।

"कुछ चाहिए हो तो बता दो । फिर मैं चला जाऊंगा तो जल्दी मिलना नहीं हो पाएगा ।" पढ़ाई लिखाई की बात करने के बाद मैंने फिर एक बार दोनों से पूछा ।

"नहीं भईया यहां सब कुछ कहने से पहले ही मिल जाता है । सलोनी दीदी और मां जी दोनों बहुत खयाल रखती हैं । कई बार हमने कई चीज़ों के लिए पैसे देने की कोशिश की मगर दोनों ने डांट दिया । अपनी बेटी की तरह मानते हैं ।" उनकी बातें सुन कर मैं मुस्कुरा दिया । अब कुछ खास नहीं था बात करने को सो मैं उनके पास से उठ कर चलने लगा । मैं जैसे ही मुड़ा वैसे ही मुझे ये अहसास हुआ कि वो दोनों आपस में कुछ बात कर रही हैं ।

"क्या हुआ ? सब ठीक तो है ना ?" मैं फिर उनकी तरफ मुड़ा ।

"हं, हां भईया सब ठीक है ।" सुनीता ने घबरा कर कहा । ये उन दोनों का मेरे लिए लिहाज ही था कि उन्होंने कभी भी मुझसे मतलब की बात के अलावा कुछ और बात नहीं की थी । बचपन से ही हमारे बीच कुछ खास बातचीत नहीं होती थी । कई बार मन होता कि उनसे बात करूं खूब सारी मगर मैं इस चलन को कभी तोड़ ना पाया ।

"तो आपस में क्या खुसरफुसर कर रही थी दोनों ?" मैंने ज़रा सख्त हो कर कहा ।

"भईया वो ना दीदी...।" लक्ष्मी ने सुनीता की तरफ ईशारा कर के कुछ कहना चाहा मगर सुनीता ने उसे कुहनी मार के चुप करा दिया ।

"बताती हो या दोनों के लगाऊं एक एक ।" ये मेरा बचपन का डायलॉग था उनके लिए । आज काफ़ी समय बाद बोलने का मौका मिला था ।

"बता देंगे मगर वादा करो गुस्सा नहीं करोगे ।" सुनीता ने डरते हुए कहा ।

"हम्म्म्मम..।"

"हम्म्म्मम, नहीं वादा करो ।" मुझे अब गुस्सा भी आ रहा था और हंसी भी । मैंने दोनों पर कन्ट्रोल किया ।

"हां वादा करता हूं ।"

"वो ना हमें सलोनी दीदी बहुत पसंद है भईया ।"

"अच्छी बात है । वो लड़की भी अच्छी है । वैसे भी अभी दो साल उसके साथ रहना...।" मेरी बात नहीं पूरी होने दी सुनीता ने ।

"ओफ्फो भईया हमें उस तरह से पसंद तो हैं ही वो मगर हमें दूसरी तरह से भी पसंद हैं ।"

"ये क्या इस तरह उस तरह लगा रखी है । साफ साफ बोलो ना ।"

"हमें वो इस तरह से पसंद हैं कि हम चाहते हैं आप शादी कर लो उनसे ।" लक्ष्मी ने वो बात कह दी जो सुनीता नहीं बोल पा रही थी । मैं उनकी बात पर हैरान था सलोनी को लेकर मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा था । मैंने दोनों को घूर कर देखा लेकिन उन पर मेरी घूर का कोई असर नहीं हुआ । ये नियम है, जब तक मुंह बंद रहते हैं तभी तक डर रहता है मुंह खुलने पर फिर बात कहने में इंसान हिचक महसूस नहीं करता ।

"इस बार आपकी घूर से हम डरने वाले नहीं हैं भईया । मां रही नहीं, और कोई है नहीं जो आपसे बात कर सके इस बारे में और आप खुद से इस बारे में कुछ सोचोगे नहीं तो अब हमें ही सोचना होगा और हमने सोच लिया है । आपको मंज़ूर हो तो हम आपके रिश्ते की बात आगे बढ़ाएं। सही कहा ना दीदी ?" ये मेरी छोटी वाली बहन थी । मैं और सुनीता उसकी तरफ हैरानी से देख रहे थे । उसने सुनीता को कोहनी मारी और सुनीता ऐसे चौंकी जैसे नींद से जागी हो ।

"हां हां, सही कहा लक्ष्मी ने । अब हमें ही सोचना है और हमने सोच लिया है ।"

"तुम दोनों पागल हो गई हो ।" इतना कह कर मैं कमरे से बाहर निकल आया । इन दोनों की बातों की वजह से मैं सलोनी का सामना करने से डर रहा था ।

मैं सोचने लगा कि ये बात सलोनी को पता चलेगी तो उसे कैसा लगेगा । उसने हमारी इतनी मदद की और मेरी ये पागल बहनें क्या क्या सोच रही हैं । वो एक प्रतिष्ठित परिवार से संबंध रखती है और हम ठहरे गरीब घर के लोग जिनके सपने अब जा के कहीं पूरे होने की उम्मीद नज़र आई है । ना मेरे पास छत है ना कोई ठिकाना फिर भला कैसे ? नहीं नहीं मेरी बहनें कोई बचपना कर दें उससे पहले उन्हें समझाना होगा । मैं जानता था ये सब तर्क देने से कुछ नहीं होगा । मुझे कुछ और बहाना करना होगा । मैं वापस उनके कमरे में गया ।

सलोनी भी वहां थी । मुझे देख कर तीनों थोड़ा घबराईं मगर अगले ही पल सलोनी ने कहा "कहां थे ? मैं चाय के लिए खोज रही थी । आ जाओ नीचे ही सब साथ में चाय पीते हैं ।"

"हां, तुम चलो, हम बस आते हैं ।" सलोनी ने दोनों की तरफ देखा और चली गई ।

उसके जाते ही मैंने दोनों बहनों से कहा "अब तुम दोनों मेरी बात ध्यान से सुनों । माना कि तुम दोनों अब अम्मा हो गई हो । मेरी देखभाल तुम दोनों ही करोगी मगर अभी ऐसी कोई बेवकूफी मत करना । मैं अपना प्रोबेशन पीरियड पूरा कर लूं फिर आराम से बात करेंगे इस बारे में ?"

"मतलब फिर आप शादी कर लेंगे ?"

"मैंने कहा बात करेंगे ।"

"और शादी कब करेंगे ?"

"बात सही रही तो शादी भी…" मैं आगे बोल ना पाया मगर वो दोनों मुस्कुरा दीं ।

अगले दिन मुझे निकलना था । सलोनी से भी बात हुई लेकिन इस बार मैं उससे नज़रें चुराता रहा । यहां से निकलने के बाद समय ने जैसे पंख लगा लिए थे । मैं अपने काम में हर रोज़ बेहतर हो रहा था । प्रोबेशन पीरियड में मैंने ऐसे ऐसे काम किए कि मैं सबकी पहचान में आने लगा । एक लड़का जो उधारी और कर्जे की ज़िंदगी जीता था, जिसने अपनी मां से झूठ बोला जिसके लिए ये सब सपना था आज वो लोगों की वाह वाही और सरकार से ईनाम ले रहा था ।

मुझे अब सिर्फ़ अपना काम दिखता था, मुझे इस सिस्टम के लिए अपने देश के लिए बेहतर करना था फिर भले ही मुझे इसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े । समय तेजी से भागता रहा । इसी बीच बहनें लगातार मुझ पर शादी का दबाव बनाती रहीं । मैं भी समझ गया था कि मुझे ज़िंदगी में आगे बढ़ना ही होगा । मैं एक ऐसी लड़की के लिए अब और इंतज़ार नहीं कर सकता जिसका कोई वजूद ही ना हो । वो मेरी यादों में हमेशा रहेगी, उसके साथ जो मैंने किया उसका पश्चाताप हमेशा रहेगा मुझे मगर मैं अब और खुद को भटकने नहीं दे सकता ।

सच कहूं तो मैं मतलबी हो गया था । अब मुझे मेरे आसपास कोई ऐसा चाहिए था जो मेरी फिक्र करे, जिसे मेरी चिंता हो, जिसका प्यार सिर्फ़ मेरे लिए हो जिससे मैं मन की हर बात कह सकूं । और सबसे बड़ी बात ये थी कि जो गलती मैं उस लड़की के लिए कर चुका था वो मैं सलोनी को लेकर नहीं करना चाहता था । मैं जानता था कि अगर मुझे शादी करनी ही है तो उसके लिए सलोनी से बेहतर और कोई लड़की नहीं हो सकती ।

काफ़ी सोचने के बाद मैं एक दिन अचानक ही रुड़की पहुंच गया । सलोनी के घर से कुछ दूर पहले रुक कर मैंने उसे फोन किया ।

"अरे, आज ये चमत्कार कैसे ?" उसने फोन उठाते ही हैरानी से मुझे कहा ।

"कैसा चमत्कार ?"

"तुमने खुद से जो फोन किया ।" वो हंसने लगी ।

"कोई आसपास तो नहीं ।"

"वैसे तो मैं अकेली हूं मगर आज ये जासूसों की तरह बात क्यों कर रहे हो ?"

"मिल सकती हो ?"

"अरे तुम ऐसे क्यों बात कर रहे हो और मैं भला क्यों नहीं मिलूंगी ? कहो तो वहां आ जाऊं ।" उसने मज़ाक में कहा ।

"नहीं उसकी ज़रूरत नहीं है । मैं ही यहां आ गया हूं ।"

"यहां कहां ? घर पर तो नहीं आए ।"

"नहीं थोड़ा पीछे हूं ।"

"तो घर आ जाओ ना । ये ब्वायफ्रेंड की तरह बिहेव क्यों कर रहे हो ।"

"कभी ऐसी फीलिंग ली नहीं ना तो सोचा आज ले लूं ।" वो बहुत ज़ोर से हंसी ।

"अच्छा ये बात है । चलो ले लो फीलिंग तुम भी क्या याद करोगे ।"

"जल्दी से तैयार हो के आ जाओ मैं यहां चौक पर इंतज़ार कर रहा हूं । अकेली आना और किसी को बताना मत को मुझसे मिलने जा रही हो ।"

"ऐसी क्या बात है ?"

"कहा ना फीलिंग लेनी है ।" वो फिर हंसी ।

"ठीक है आती हूं ।"

"ज़्यादा टाइम मत लगाना । मुझे आज ही वापस भी जाना है ।"

"अभी आई ।" कुल आधे घंटे बाद वो चौराहे पर पहुंच गई । थोड़ी देर में हम एक रेस्टोरेंट में थे ।

"इतनी क्या ज़रूरी बात थी कि तुम्हें इस तरह से आना पड़ा ? कहीं सुनीता या लक्ष्मी ने कोई शिकायत तो नहीं की ?" उसने कॉफी का सिप लेते हुए शरारती मुस्कान के साथ कहा ।

"तुम्हारा गुणगान करने से उन्हें फुर्सत मिले तभी वो शिकायत करेंगी । पता नहीं क्या जादू कर रखा है तुमने उन पर ।"

"मैं क्या जादू करूंगी । जादू तो उन्होंने कर दिया है मेरे मम्मी पापा पर । ऐसा लगता है वही दोनों उनकी बेटियां हैं और मैं मेहमान आई हूं ।" उसकी बात सुन कर अच्छा लगा मुझे ।

"अच्छा मज़ाक नहीं सिरियस्ली बताओ ऐसी क्या बात है ? कोई घबराने वाली बात तो नहीं ?"

"घबराने वाली बात मेरे लिए है और मैं घबरा भी रहा हूं ।"

"तो मत घबराओ और साफ साफ कहो ।"

मैंने एक लंबी सांस ली और उससे कह दिया "मेरी बहनें चाहती हैं कि मैं और तुम शादी कर लें ।" इतना कहने के साथ मैंने एक लंबी सांस ली ।

"ठीक है लेकिन मेरी तो शादी तय हो गई ।" उसने बहुत ही सहज तरीके से कहा । इतने सहज तरीके से कि जैसे उसे कोई फर्क ही ना पड़ा हो ।

"क्या ?" मैं चौंक पड़ा क्योंकि मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं थी ।

"इसमें चौंकने वाली क्या बात है अब कोई सारी उम्र किसी के इंतज़ार में थोड़े ना बैठा रहता है ।" सलोनी की इस बात ने मुझे फिर एक बार यादों के भंवर में धकेल दिया । ऐसा लगा जैसे ये बात वो कह रही हो । मैं सोचने लगा शायद उसने भी इसी तरह मेरा इंतज़ार किया हो और अंत में हार कर किसी और से शादी कर ली हो ?

"हे, सुनो । अरे बाबा मज़ाक कर रही थी । मुझे क्या पता मेरा मज़ाक तुम्हें इस तरह से सुन्न कर देगा ।" सलोनी ने मेरा हाथ दबाते हुए कहा । मैं जैसे नींद से जाग गया था ।

"ऐसे कौन मज़ाक करता है ?"

"दिल की बात कहने में कोई इतनी देर भी तो नहीं लगाता । तुम्हें पता भी है कि यहां आते हुए मेरी हालत क्या थी । मुझे लगा ना जाने क्या कह के मना कर दो तुम ।" उसे लग रहा था कि मैं अपने दिल की बात कह रहा हूं जबकि ईमानदारी से कहूं तो ये मेरा ज़िन्दगी के साथ एक तरह का समझौता था ।

"वैसे तुम्हें मेरा इस तरह कहना बुरा तो नहीं लगा ?"

"बुरा ? तुम्हें पता भी है ये सुनने के लिए मैंने क्या क्या पापड़ बेले हैं ? ऐसा नहीं कि आज तुम एक अच्छे पद पर हो इसलिए मुझे पसंद हो । मैं तुम्हें दिल्ली में रहने के दिनों से पसंद करती हूं । तब कई बार सोचा कि तुमसे दिल की बात कह दूं मगर फिर जब तुम्हें अपने लक्ष्य को पाने के लिए इतना जुनूनी होते देखा तो सोचा नहीं अगर अभी तुम्हें कुछ ऐसा कहूँगी तो हो सकता है इसका असर तुम्हारी मेहनत पर पड़े । मैं घर से कुछ समय मांग कर बस ये देखने दिल्ली गई थी आखिर लोग कैसे तैयारी करते हैं लेकिन सिर्फ़ तुम्हारे लिए मैं 3 साल वहां रुकी रही । जिस दिन तुम्हारा रिजल्ट आया और तुमने यूपीएससी क्लियर कर लिया सोचा उसी दिन सब कह दूं तुम्हें मगर तुम अचानक ही गायब हो गए । उसके बाद कभी हिम्मत ही नहीं पड़ी । अब जब सुनीता और लक्ष्मी मेरे नजदीक आईं तब उनके बार बार कहने पर मैंने उन्हें अपने दिल का सारा हाल बताया । उन्होंने मेरे लिए तुमसे हमारी शादी की बात कही । तो अब अंदाज़ा लगा लो कि तुमसे हमारी शादी के बारे में सुनना मेरे लिए कितनी खुशी की बात होगी ।" वो एक सांस में अपनी सारी बात कह गई । मैं उसे गौर से देखता रहा ।

मुझे उसमें अपना अक्स दिख रहा था । जैसे मैं उस लड़की के लिए पागल था वैसे ही ये मेरे लिए । किसी को बिना बताए उसे शिद्दत से चाहते रहना दुनिया की सबसे कठिन तपस्या है । मैं इस तपस्या का अनादर नहीं कर सकता था ।

"तुम्हारे मम्मी पापा से कौन बात करेगा ? मैं तुम लोगों की तरह किसी बड़े खानदान...।" उसने मेरी बात पूरी ना होने दी ।

"उन्हें शुरू से ही सब पता है । तुम अगर उस समय यूपीएससी ना भी क्लियर किए होते तब भी हमारी शादी की कोशिश करती मैं । हमारी शादी के बीच हमेशा से सिर्फ़ तुम खड़े थे । तुम मान गये हो तो किसी को कोई दिक्कत नहीं होगी ।" ये बताते हुए उसकी पलकें झुकी थीं और मैं उसे एकटक देखे जा रहा था ।

आसमान में सूरज डूब रहा था मगर मेरी कहानी की नई सुबह होने वाली थी थी ।

*********

भाग नौवां

जब आप आज में ज़िंदगी जी रहे होते हैं तब आपको कुछ खास पता नहीं चलता मगर जब आप कल को पीछे मुड़ कर देखते हैं तब आपको अपनी ही ज़िंदगी किसी सिनेमा जैसी लगती है । मेरे साथ भी ऐसा ही था । जो मैं कर आया था उस पर मुझे यकीन ही नहीं होता था कि ये मैंने ही किया है । आज मेरी ज़िंदगी का नया अध्याय शुरू होने जा रहा था । मेरी बहनों से लेकर सोनल और उसके मां बाप तक सब खुश थे । मैं खुश होने की कोशिश कर रहा था ।

पता नहीं क्यों जब भी मैं इस शादी के लिए उत्सुक होने लगता तभी मुझे वो लड़की याद आती । मुझे लगता कि मैं दूसरी बार उसे धोखा दे रहा हूं । उसकी यादें सर्दियों के मौसम जैसी हो गई थीं, जो धुंध की तरह छंट तो रही थीं मगर कंपकंपी नहीं जा रही थी । लेकिन अब जो तय कर लिया था उससे मुंह भी नहीं फेर सकता था ।

शादी के बाद समय ने गति पकड़ ली । मेरी उलझनें विराम पर चली आईं । अब सिर्फ़ परिवार था और काम । काम की वजह से कई बार ट्रांसफर हुआ लेकिन इसका मुझ पर कोई असर नहीं था क्योंकि ये सब मुझे बता रहा था कि मैं अपना काम सही ढंग से कर रहा हूं । सलोनी ने मेरी बाक़ी सारी जिम्मेदारियां संभाल ली थीं । उसके मम्मी पापा की ज़िद के कारण लक्ष्मी उनके घर ही रुक गई । लक्ष्मी भी वहां खुश थी । सलोनी और सुनीता मेरे साथ साथ ट्रांसफर का मज़ा ले रही थीं ।

समय इसी रफ्तार से भागता रहा । मैं अपने कर्तव्य के प्रति इस तरह से समर्पित हो गया कि मुझे ना दिन बीतने का अहसास होता और ना साल । कम समय दे पाने के बावजूद भी सलोनी कभी शिकायत नहीं करती । शिकायत करने से अच्छा उसने खुद को भी व्यस्त कर लिया । पहले तो उसने सोचा था कि वो घर पर ही रहेगी लेकिन मेरे व्यस्त रहने के कारण उसने पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू कर दी । कुछ समय उसने जॉब भी किया लेकिन फिर पता चला कि सागर आने वाला है । इधर सुनीता और लक्ष्मी ने अच्छी पढ़ाई के साथ साथ अच्छी नौकरियां भी पा ली थी । दोनों अपने जीवन में खुश थीं । परिवार पूरा हो चुका था ।

सागर के आने के बाद मैं घर पर पहले के मुकाबले ज़्यादा समय देने लगा । ऐसा कुछ सोच कर नहीं किया था बस अब घर जल्दी जाने का मन होता था । सोचता था पिता का सुख मैं ना पा सका लेकिन इसे कभी ऐसा महसूस नहीं होने दूंगा । सागर के बाद ही सलोनी से मेरी नज़दीकियां और ज़्यादा बढ़ गई थीं । ये उसके लिए बड़ी राहत की बात थी ।

इन सब बातों में जो एक बात बुरी थी वो ये कि उस लड़की की याद मेरे ज़हन से लगभग मिट चुकी थी या फिर ऐसा कहूं कि वो मेरे लिए बुक शेल्फ पर रखी वो नॉवेल बन गई थी जिसे मैं पसंद तो बहुत करता था लेकिन उसके दर्द में खुद को डुबोने की हिम्मत नहीं हो पाती थी । कुछ खास मौकों पर वो याद आ जाया करती थी । उसे लेकर मेरी उम्मीद और चमत्कार का विश्वास सब कमज़ोर पड़ चुका था । कुल मिला कर वो मेरे लिए मेरी ज़िंदगी की उस डायरी जैसी हो गई थी जिसे मैंने सबसे छुपा कर बड़ी शिद्दत से लिखा और फिर कहीं रख कर समय के साथ उसे भूल गया ।

आज सागर ने जब अचानक से सवाल कर दिया कि पा हैव यू एवर लव सम वन ? तब लगा जैसे उसने अचानक के कानों में कहा हो भूल गए ना मुझे ? खैर अब सोचने का भी क्या फायदा था 18 साल गुज़र गए थे । मैं शायद उन प्रेमियों में से नहीं था जो जन्मों तक अपनी प्रेमिका का इंतज़ार करते हैं ।

सालों बाद आज का सारा दिन उस लड़की के नाम गया था । हर पल मैं उसी को सोचता रहा था । शाम को जब घर पहुंचा तो पता चला लक्ष्मी आई है । सागर उसी के साथ मार्किट गया था । मेरे घर पहुंचते ही सलोनी ने बड़ी सी स्माइल के साथ मेरा स्वागत किया । खूब सारी बातें नहीं होती थीं हम में और खूब सारी बातें ना होने का एक फायदा ये होता है कि आपको सामने वाले को अच्छे से समझने का पूरा मौका मिलता है ।

इतने सालों में मुझे ये कुछ पता चला था कि जब सलोनी अपनी बीच वाली उंगली से लगातार नाखून खुरचती है तो इसका मतलब होता है उसे कोई टेंशन है । जब वो खुश होती है तो अपनी स्माइल नहीं रोक पाती । वैसे तो उसकी आवाज़ प्यारी है, हंसती हुई भी प्यारी लगती है लेकिन जब वो रोती है तो उसकी आवाज़ फंसती है और इसके साथ ही एक अजीब सी आवाज़ आती है । पिछली बार जब उसकी नानी गुजरी थीं तब वो रोई थी । उसके रोने पर मुझे हंसी आ जाती है, बड़ी मुश्किल से खुद को रोका था मैंने । आज वो मुस्कुरा रही थी वो भी दिल से । कोई खास बात ही होगी ।

"तो क्या खास बात है जो आप बताने के लिए घंटों से बेचैन हैं ?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा ।

"तुम्हें कैसे पता ?" वो एकदम हैरान रह गई ।

"अब इतने दिन से साथ हैं आगे भी साथ रहना है तो ये सब तो जानना ही पड़ेगा ना कि कब क्या चल रहा है दिमाग में आपके ।" मैंने पानी का गिलास उठाते हुए कहा ।

"कमाल है डीएम साहब । यूं ही नहीं लोग आपके दीवाने हैं ।" उसने सलाम करते हुए कहा ।

"शुक्रिया आपका इस तारीफ के लिए । अब बता दीजिए कि आखिर खुशख़बरी है क्या ।"

"मैं मां बनने वाली हूं ।" उसने कहा और मैं चौंक गया ।

"क्या ? मगर...।"

"क्या क्या और ये अगर मगर क्यों ? शादी हो चुकी है हमारी और दो बच्चे पैदा करना कोई अपराध नहीं है ।" वो मेरे बगल में आ कर बैठ गई ।

"हां मगर हमने तय किया था कि बस एक ही ।"

"हां तो ये आपको सोचना चाहिए था ना ।" उसे ऐसे कहा कि मेरे पास बोलने को कुछ बचा ही नहीं । सच कहूं तो मैं शर्मा गया ।

"अब तो भूल कर भी नहीं होगा दूसरा बच्चा । मैं तो मज़ाक कर रही थी लेकिन इस मज़ाक से आपकी सच्चाई सामने आ गई ।"

"उफ्फ़ तुम और तुम्हारे ये मज़ाक । वैसे तुम्हें ही दिक्कत थी इसीलिए कहा था कि बस एक । कहो तो दूसरा आ जाएगा ।" अब शर्माने की बारी उसकी थी ।

"अच्छा अब ज़्यादा शर्माओ मत और बताओ कि बात क्या है ।"

"बात ऐसी है डीएम साहब कि मैंने डेली अखबार उदय में अपन रिज़्यूम भेजा था । अब सागर बड़ा हो गया है तो सोच रही थी अपनी डिग्री को वेस्ट क्यों करूं । यही सोच कर भेजा था रिज़्यूम । उन्हें जम गया और आज उनकी तरफ से मुझे कॉल आई था । मेरा ब्लॉग भी पढ़ा उन्होंने । मुझे सब एडिटर के लिए पूछ रहे थे । वैसे मैंने कल तक का समय मांगा है । तो बताओ क्या करना चाहिए ?"

"करना क्या है । वही करिए जो मन कहता है । वैसे भी उदय का रेपुटेशन काफ़ी अच्छा है । बहुत कुछ सीखने को मिलेगा । बस एक बात का ध्यान रखना है... ।"

"हां जानती हूं । मैं खुद नहीं चाहती कि मुझे आपके नाम पर नौकरी मिले । उन्हें नहीं पता कि मैं आपकी बीवी हूं । और कोशिश रहेगी कि जब तक ज़रूरत ना हो तब तक पता भी ना चले ।"

"इसीलिए तो आप पर नाज़ है हमें ।" मैंने सलोनी की पीठ थपथपाते हुए कहा ।

"एक बात इसमें और भी अच्छी है ।"

"वो क्या ?"

"वो ये कि इसकी ब्रांच लगभग हर जिले में है तो ट्रांसफर के बाद कोई दिक्कत भी नहीं आएगी । जहां मन वहां से नौकरी करो ।" एक तरह से ये तंज था मुझ पर जिस पर मैं बस सलोनी को घूर कर रह गया और वो हंसती रही ।

सलोनी को नौकरी मिल गई और वो इसके साथ काफ़ी खुश थी । उसे एकदम नया माहौल मिला था । घर और काम के बीच वो एकदम फिट हो गई थी । देखते ही देखते उसे यहां तीन महीनें बीत गए थे ।

उस दिन मैं जब सुबह उठा तो देखा कि सलोनी तैयार हो कर बैठी थी । अमूमन वो मेरे जागने से पहले उठ जाती थी लेकिन इस तरह से तैयार नहीं हुई होती थी । आज शायद उसे किसी ज़रूरी काम से जाना था ।

"आज सुबह सुबह किधर की तैयारी है ?" वो कुछ कागज़ों में उलझी हुई थी । मेरी आवाज़ से चौंक गई ।

"अरे यार डरा ही दिया । चाय लाऊं ?"

"नहीं मैं बना लेता हूं तुम काम करो अपना । तुम पियोगी ?" ना में गर्दन हिलाते हुए वो ऐसे मुस्कुराई जैसे मैंने उसके मन की बात कह दी हो ।

कुछ देर में मैं उसके पास आ कर बैठ गया । मैं अखबार पढ़ने लगा । कुछ देर में उसका काम पूरा हुआ फिर उसे याद आया कि मैंने कुछ पूछा था ।

"अरे यार वो मैंने खुद से एक आफत नौत ली है ।" उसकी बात से मेरा ध्यान अखबार से हट कर उसके ऊपर चला गया ।

"कैसी आफत ?"

"वो ना एक संस्था जो काफ़ी सालों से बेसहारा बच्चों को आसरा दे रही है । संस्था के संचालक का कहना है पहले सब ठीक था मगर कुछ समय से कुछ लोग उनकी ज़मीन खाली कराने के लिए उन पर दबाव बना रहे हैं ।"

"ये तो गलत बात है ।"

"हां मैंने भी यही कहा । पुलिस में भी कोई खास सुनवाई नहीं हो रही उनकी । संस्था के संचालक ये सोच कर हमारे पास आए कि अगर ये खबर अखबारों में आएगी तो शायद प्रशासन हमारी मदद करे । एडिटर इस स्टोरी को बहुत आम तरीके से ले रहे हैं । मैंने जब उनसे कहा तो बोले कि और कई खबरें हैं जो इससे ज़्यादा ज़रूरी हैं अगर आपको लगता है कि ये ज़रूरी है तो आप खुद से ये स्टोरी कवर करें ।" मेरी चाय में से घूंट भरते हुए सलोनी ने कहा ।

"तो फिर तुम मान गई ?"

"हां, मानना ही पड़ा मुझे लगा चैलेंज कर रहा है एडिटर मुझे ।"

"देखो सलोनी या तो किसी ऐसे काम में हाथ ना डालो जो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे बस का नहीं और अगर हाथ डाल दो तो उसे इतने गहरे तक खोद डालो कि उसकी सारी परतें खुल के सामने आ जाएं । कौन जाने ये तुम्हारे लिए कोई नया रास्ता खोज दे । वैसे भी बेसहारा बच्चों की मदद है । मेरी कोई ज़रूरत हो तो बताना ।"

"हम्म्म्म, बात तो सही कह रहे हो । अभी से सारा ध्यान इसी पर होगा । वैसे तुम कबसे मेरी मदद करने की सोचने लगे ?"

"आपको बता दें कि हम इस जिले के डीएम हैं और यहां का कोई भी काम पहले हमारा होता है फिर आपका ।"

"जी हम जानते हैं और आप अब चलें और मुझे छोड़ आएं मेरी मंज़िल तक ।"

"लेकिन इतनी जल्दी ?"

"हां यार मैं चाहती हूं इसके लिए ऑफिस टाइम मिस ना हो वर्ना एडिटर फिर चिड़ चिड़ करेगा ।"

"लगता है उसे बताना ही पड़ेगा कि किसकी बीवी हो तुम ।" मैंने मज़ाक में कहा ।

"अरे रहने दो । फिर तो चापलूसी कर कर के जीना हराम कर देगा । वैसे अगर डीएम साहब को बीवी का ड्राइवर बनने में दिक्कत हो रही हो तो मैं गौरव को जल्दी बुला लेती हूं ।"

"अरे नहीं, घर पर मैं अपनी बीवी का ड्राइवर रसोइया सब हूं ।" मैंने चाय वाला कप उठाते हुए कहा ।

"अपनी चाय बना कर अहसान मुझ पर लाद रहे हो । वैसे भले ईमानदार हो मगर मेरे मामले में अक्सर बेईमान कर जाते हो ।" हम दोनों हँसे ।

इसके बाद मैं उसे छोड़ने निकल गया । ये जगह शहर से कुछ बाहर थी । कुछ साल पहले तक ये इलाका सुनसान था मगर अब धीरे धीरे शहर इसे अपने में समेट रहा था । ये कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि लोग इस जगह को खाली करवाना चाहते थे । यहां ज़मीन के दाम आसमान छू रहे थे ।

हम उस संस्था के पास पहुंच गए थे । सलोनी को मैंने उतार दिया और कह दिया कि काम हो जाए तो गौरव को फोन कर ले । वहां बच्चे गार्डन की सफाई कर रहे थे । ये संस्था कोई ज़्यादा बड़ी नहीं थी मगर जितनी भी थी सुंदर दिख रही थी । एक तरफ तरह तरह के फूल थे तो दूसरी तरफ हर तरह की सब्जियां । कुछ बच्चे पौधों में पानी दे रहे थे तो कुछ वहांं पड़ा कचरा चुन रहे थे । हर कोई अपना काम मस्ती में कर रहा था । कुछ देर मैं वहां का नज़ारा देखता रहा और फिर मैंने गाड़ी मोड़नी चाही लेकिन इससे पहले ही मैंने कुछ ऐसा देखा कि मेरे पैर अचानक से ब्रेक की तरफ चले गए ।

"नहीं ये वो नहीं हो सकता ? वो तो यहां से बहुत दूर था । लेकिन शक़्ल उसी की लग रही है । वही बड़ी बड़ी आंखें हैं । हां ये वही है ये वही है, वैसे ही थोड़ा सा लंगड़ा कर चल रहा है । वही बाबा जिसने मुझे चाय पीने बुलाया था । जो खुद को उसके घर केयर टेकर बता रहा था । मगर ये यहां क्या कर रहा है ? कहीं मेरे साथ कोई खेल तो नहीं खेला जा रहा । कहीं इसी ने उस लड़की के साथ कुछ कर तो नहीं दिया । मगर इसने तो कहा था ऐसी कोई लड़की ही नहीं ।" ऐसे तमाम सवाल मेरे ज़हन में चल रहे थे और इन सबका जवाब सिर्फ़ उसी बूढ़े के पास था ।

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भाग दसवां



वो बेचैनी जिसे मैंने सालों की कोशिश के बाद दिल के एक कोने में दफनाया था आज अचानक इस शख्स को देखते ही फिर से ज़िंदा होने लगी थी । ज़िंदगी के इस मुकाम पर जहां मेरे कंधों पर इतनी जिम्मेदारियां थीं मैं फिर से उस स्थिति में नहीं जा सकता जिसने मुझे दुनिया की सुध बुध भुला दी थी ।

उस बाबा के साथ साथ उस लड़की को फिर से देख पाने की उम्मीद भी लौट आई थी । ऐसा लग रहा था जैसे मेरी किस्मत से सौदेबाज़ी चल रही हो । पहले मैं इस बात पर अड़ा था कि मुझे उस लड़की का उम्र भर का साथ चाहिए मगर किस्मत से मोल भाव करते हुए मैं अब इतने पर भी राज़ी था कि मैं बस उसे एक बार नज़र भर के देख पाऊं । खुद को इस बात से संतुष्ट कर पाऊं कि वो ठीक है एकदम ।

उस संस्था से लौटने के बाद मैं फिर से वही हो गया था जो सालों पहले था । चेहरे की हंसी उड़ चुकी थी, हर बात से ऊपर उस लड़की का खयाल था । जब घर गया तो सलोनी ने कितना कुछ कहा, सागर ने कितना कुछ बताया मगर मैंने शायद ही उन लोगों की कोई बात सुनी हो । अभी दिल से लेकर आंखों तक में वो इस तरह समाई थी कि नींद के लिए भी जगह ना बची । सारी रात उस बाबा और उस लड़की के बारे में सोचते हुए बीती ।

मेरा काम भी ऐसा नहीं था जिससे दो चार दिन ध्यान हटा कर अपनी उलझने सुलझा लूं मैं । जिस दिन से प्रशासनिक सेवा में आया था उसी दिन से मेरे जीवन पर से मेरा अधिकार खत्म हो गया था । अब ऐसे अचानक से मैं सब कुछ छोड़ नहीं सकता था मगर दूसरी तरफ मैं इस तरह उलझ कर भी अपने कर्तव्य के प्रति पूरी तरह समर्पण नहीं दिखा सकता था । पूरी रात सोचने के बाद मैंने फैसला किया कि मैं इस मसले को अपने हिसाब से सुलझा कर ही दम लूंगा ।

"इतनी जल्दी कैसे उठ गए ?" मैं जूते पहन रहा था तभी सलोनी की आंख खुल गई । वो जानती थी कि मैं सोने में देर करता हूं और उठता भी देर से हूं ।

"काफ़ी दिनों से सोच रहा था जॉगिंग शुरू करूं । महीनों से रूटीन छूट गया है । आज आंख खुल गई तो सोचा आज से ही शुरू कर दूं ।" मैंने जूते के फीते बांधते हुए कहा । मेरे कहने के साथ ही उसकी नज़रें टेबल पर पढ़ी अलार्म क्लॉक में समय टटोलने लगीं ।

"ये तो अच्छी बात है मगर अभी तो चार भी नहीं बजे । जॉगिंग के लिए ये कुछ ज़्यादा ही जल्दी नहीं है ?"

"हां, जल्दी जाऊंगा तो जल्दी वापस भी आ जाऊंगा वर्ना अच्छे से दिन निकलने के बाद कोई ना कोई मिल जाता है और फिर दिन भर का सारा रूटीन गड़बड़ हो जाता है ।"

"हां ये भी सही है । फिर भी ज़्यादा ही जल्दी है ये ।" सलोनी इतना कह कर फिर से सो गई ।

जब आप कोई काम छुप छुपा कर करते हैं तो बेवजह ही पकड़े जाने का डर आपके मन में बना रहता है । जॉगिंग जाना कोई बड़ा इशू नहीं था मगर मैं जॉगिंग के लिए जा कहां रहा था । यही वजह थी कि मैं थोड़ा सा डरा हुआ था । हालांकि सलोनी को बस फिक्र थी इसलिए वो बार बार कह रही थी ।

खैर मैं जॉगिंग के बहाने घर से निकल गया और चौक से ऑटो लेकर सीधा पहुंच गया उस संस्था में जहां मैंने उस बूढ़े को देखा था । अभी पूरी तरह से उजाला नहीं हुआ था । इस इलाके में दिन में भी कोई खास चहल पहल नहीं रहती थी अभी तो फिर भी रात का साया छाया हुआ था । राहत की बात ये थी कि मुझे वहां किसी को जगाने के लिए ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी । कोई था वहां बगीचे में जो मुझे गेट पर देखते ही मेरी तरफ बढ़ा ।

"जी कहिए ?" एक 19-20 साल के लड़के ने बिना गेट खोले ग्रिल के उस पार से पूछा । मेरा चेहरा हुडी में ढका हुआ था ऊपर से अंधेरा भी था । मैं नहीं चाहता था कोई मुझे पहचाने ।

"यहां के वॉर्डन से मिलना है । वो जो बूढ़े से हैं ।"

"बाबा की तबियत ठीक नहीं है वो सोए हुए हैं । आप दिन के समय आइएगा ।" मेरी वेषभूषा से वो लड़का थोड़ा आशंकित था । शायद ऐसा उन लोगों की वजह से था जो ये ज़मीन खाली करने के लिए दबाव बना रहे थे ।

"मेरा मिलना बहुत ज़रूरी है उनसे । वो मुझे जानते हैं ।"

"आपको उनका नाम तक नहीं पता और आप कहते हैं कि वो आपको जानते हैं । जो भी हो मैं इस वक़्त उन्हें नहीं जगा सकता । अब आप जाईए यहां से ।" लड़के ने कड़े शब्दों में कहा । इतना कह कर वो जाने लगा ।

"ठीक है चला जाता हूं मगर एक बार उनसे जा कर कह दो कि क्या वो दोबारा एक कलेक्टर को चाय पिलाना चाहेंगे ?" लड़का मेरी बात सुन के मेरी तरफ मुड़ा ।

"वो मना कर देंगे तो मैं चला जाऊंगा ।" लड़के ने मेरी बात पर गर्दन हिलाई और अंदर चला गया ।

कुछ ही मिनट बीते थे कि सामने से उस लड़के के साथ वो बाबा भी गेट की तरफ आते दिखे ।

"माफ़ी चाहते हैं सर । बच्चा आपको पहचानता नहीं ।" बाबा के हाथ जुड़े हुए थे । इस बार पिछली बार से एकदम अलग व्यवहार था उनका । लड़के ने गेट खोल दिया था ।

"आप पहचान गए इतना ही बहुत है ।" मैंने अंदर घुसते हुए कहा ।

"साहब मेरा कौन सा अफसरों के साथ रोज़ का उठना बैठना होता है । सालों पहले एक लड़के ने कहा था कि आने वाले समय का कलेक्टर हूं । बस पहचान गया कि हो ना हो वही लड़का आया है जो अब कलेक्टर बन चुका है ।" बाबा की बात खत्म होने तक हम एक कमरे में पहुंच गए थे जिसमें ऑफिस और रहने की व्यवस्था एक साथ थी ।

"कैसे हैं आप ?"

"जैसे भी हैं आपके सामने ही हैं बाबू । अब बस यही संस्था हमारी ज़िंदगी है । इसी के लिए समर्पित हैं । आपको देख कर अच्छा लग रहा है । आपके बारे में पढ़ते रहते हैं । सोच कर गर्व होता था कि इस बाबू से हम मिले हैं ।" बाबा की बात पर मैं मुस्कुरा उठा । फिर अचानक से याद आया कि मैं किस काम से यहां आया हूं ।

"चाय नहीं पिलायेंगे ?"

"अरे काहे नहीं । अभी बना के लाते हैं ।"

"अरे आप क्यों तकलीफ कर रहे हैं ये यंग मैन बना लाएंगे ।" लड़का अभी तक जान गया था कि मैं कौन हूं । मेरी बात सुनते ही वो एकदम हरकत में आ गया और बिना कुछ कहे सुने वहां से चला गया ।

"आप हमारे गरीब खाने में कैसे ? और आपको कैसे पता चला कि हम यहां हैं ?"

"बाबा डीएम हैं हम यहां के । पता लगाने पर आएं तो कौन सा चूहा शहर के किस बिल में छुपा है ये भी पता लगा लें । आप तो फिर भी हमारे प्रिय हैं ।" मेरी बात पर बाबा बेमन सी मुस्कान मुस्काए ।

"बाबा अब तो बता दीजिए कि वो लड़की कहां है ? इतने साल इंतज़ार करवा दिया आपने अब तो सच कहिए ।" मैंने बाबा के चेहरे पर नज़रें टिकाते हुए कहा ।

"बेटा अब जो है ही नहीं उसका इंतज़ार करते रहोगे तो इसमें हमारी क्या गलती है बताओ । आपको पहले भी बता दिए थे कि उन साहब की कोई बेटी ही नहीं थी लेकिन आपको तो हम पर कोई विश्वास ही नहीं है ।" बाबा आज भी अपनी उसी बात पर अड़े हुए थे ।

"तो कॉलेज के सारे कागज झूठे हैं ? हम सब पता किए । जिस साल हम उससे अलग हुए उसके अगले साल वो कॉलेज से निकल है । उसका पता भी वही था जहां आपसे हम मिले थे । उसके बाद से उसका कहीं कोई रिकार्ड नहीं है । इतना सब सबूत होने के बाद हम कैसे ये मान लें कि वो थी ही नहीं ।" मेरी आवाज़ ऊंची हो गई थी जो मुझे खुद को ना पसंद आई । मैं चुप हो गया । बाबा मुझे देखते रहे । मैं इतना बड़ा अधिकारी हो कर भी उतना असहाय महसूस कर रहा था कि मैं अगर मर्यादा में ना होता तो रो देता ।

"बाबू ऐसा भी तो हो सकता है कि जिसे तुम खोज रहे हो वो वो हो जी ना कोई और हो ?" थोड़ी देर की शांति के बाद बाबा ने मौन तोड़ा ।

"क्या लगता है आपको हम इतने मूर्ख हैं कि जिससे प्यार करेंगे उसको इतने दिन साथ रहने के बाद भी सही से पहचान नहीं पाएंगे ?" मुझे अब गुस्सा आ रहा था लेकिन मैं बोलने के सिवा कुछ भी नहीं कर सकता था ।

"आप मूर्ख नहीं थे बाबू बस ये प्रेम जो है वो इंसान के सोचने समझने के सारे रास्ते बंद कर देता है । आपने तो सही ही समझा होगा लेकिन...।" चाय आ गई थी । लड़का चाय रख कर वहीं खड़ा हो गया । उसके रहते मैं खुल कर बात नहीं कर सकता था । और शायद बाबा भी नहीं करना चाहते थे इसीलिए चुप हो गए ।

"हम्म्म्म, अच्छा आप इतनी दूर से यहां कैसे ?" मेरे सवाल पर बाबा कुछ हड़बड़ाये लेकिन फिर तुरंत संभल गए ।

"पेट की आग खींच लाई बाबू । वो मकान जहां आपसे मिले थे वो मालिक ने बेच दिया । उसके दो तीन साल किसी स्थाई काम के लिए भटकते रहे । फिर एक सज्जन आदमी से मुलाकात हुई जो हमें यहां ले आए । तब से हम अनाथ आदमी इन बाक़ी अनाथों की देखभाल कर रहे हैं ।" बाबा की कही बात पर मुझे भरोसा नहीं हो रहा था मगर मैं इससे ज़्यादा कुछ कर भी तो नहीं सकता था ।

"सुना है किसी तरह की मुसीबत में हैं ।"

"अब हमारी तो उम्र हो रही बेटा । कोई मुसीबत हमारा क्या ही बिगाड़ेगी । मुसीबत तो इन बच्चों पर है । कुछ लोग हैं जो इनके सिर से छत छीनने पर लगे हैं । ये लड़का आपकी तरह बड़ा बाबू बनना चाहता है । जब इतना सा था तभी आया था यहां । खुद से ही खुद को पाला है इसने । पढ़ने में बहुत होशियार है । अब बताइए कि अगर ये जगह ना रहे तो ऐसे बच्चों का क्या होगा ? ये फिर से सड़क पर आजएंगे । पढ़ाई लिखाई छूट जाएगा ।" बाबा की आंखें भीग गईं ये सब बताते हुए । उन बच्चों के दर्द के आगे मैं अपना दर्द भूल गया ।

"आप बिलकुल चिंता ना करें कुछ नहीं होगा इन बच्चों को । वादा कर रहे हैं । कल कार्यालय में आ कर मिलिए हमसे । इस ज़मीन के कागज़ और बाक़ी जो भी हो इससे सम्बंधित सब ले आइएगा ।" मेरे आश्वासन के बाद बाबा की आंख के रुके हुए आंसू बांध तोड़ कर बह निकले ।

मैं वहां से चला आया । बाबा से मिलने के बाद एक बात तो तय थी कि बाबा उस लड़की के साथ कुछ गलत नहीं कर सकता था । लेकिन सवाल अब भी वहीं था कि आखिर वो लड़की है कहां, किस हाल में है ।

************

बाबा फोन पर थे । सिर्फ़ बाबा के तरह की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी उस तरफ कौन क्या कह रहा था पता नहीं ।

"हां आए थे, अभी तुरंत निकले हैं ।"

"नहीं कुछ खास नहीं वही पहले वाला सवाल ।"

"हमारा क्या जवाब होगा ? वही जो पहले था ।"

"हां ध्यान रखेंगे । लेकिन उनको देख कर दया आता है । इतना बड़ा अधिकारी इस तरह से...।"

"जैसा ठीक लगे तुमको । हां एक बात, जाते जाते कहे हैं कि यहां के ज़मीन वाले मैटर को सुलझा देंगे ।"

"हां सो तो है । नेक दिल इंसान हैं ।"

"ठीक है अपना खयाल रखना । वो कैसी है ?"

"उसे कहना बाबा याद कर रहे थे ।"

फोन कट गया ।

*****************

भाग ग्यारवां


लोग अक्सर कहते हैं चिंता मत करो लेकिन क्या चिंता खुद के करने से होती है ? आपको लगता है कि आप पर आपका पूरा नियंत्रण है ? शायद नहीं । सारी उम्र दिल और दिमाग के बीच उलझे रहते हैं आप । दिल कुछ कहता है दिमाग की कुछ और ही सलाह होती है । आप सिवाए बेचैन होने के और कुछ नहीं कर सकते । ठीक उसी तरह जिस तरह मैं था । दिल और दिमाग की जंग में मैं उलझा हुआ था । दूसरी तरफ नियति ना जाने मेरे साथ कौन सा ना नया खेल खेलने की तैयारी कर रही थी ।

अगले दिन बाबा ऑफिस में आए थे । ज़मीन के सारे कागज़ थे उनके पास । कागज़ों को देखते हुए मुझे एक बात खटकी । जिस ज़मीन पर वो संस्था बनी थी वो सम्पत्ति बाबा के नाम पर थी । एक आम सा केयर टेकर भला इतनी बड़ी ज़मीन का मालिक कैसे हो सकता है, वो भी ऐसी ज़मीन जिससे कोई फायदा नहीं, जो सिर्फ़ बेसहरा बच्चों की मदद के लिए इस्तेमाल की जा रही है । वैसे भी बाबा ने मुझसे कहा था कि उन्हें यहां कोई शख्स लेकर आया था जिसने उन्हें काम पर रखा था । कोई अपनी ही ज़मीन पर बनी संस्था में नौकरी क्यों करेगा ।

हालांकि मैंने ऐसा कोई भी शक़ बाबा पर जाहिर नहीं होने दिया । उन्हें आश्वस्त करा दिया कि उनकी संस्था सिर्फ़ उन बच्चों की है इस पर किसी तरह की दिक्कत नहीं आएगी । लोकल थाने के इंस्पेक्टर से भी इस बारे में बात कर ली कि भविष्य में कोई भी इस संस्था को खाली कराने के लिए दबाव ना बनाए । बाबा बहुत खुश थे । उन्होंने मेरा धन्यवाद किया और वहां से चले गए ।

अब मेरी नज़रें बाबा पर गड़ी हुई थीं । मेरे ओहदे से हट कर भी पुलिस विभाग में अच्छे दोस्त थे मेरे । वो अक्सर अपनी समस्याओं का पिटारा मेरे आगे खोल दिया करते थे आज समय था कि मैं उनसे मदद माँगू । जिस जगह से हमारी कहानी शुरू हुई थी वहां से लेकर अपने शहर तक हर जगह के पुलिस थानों में जल्दी ही बाबा की जन्मकुंडली निकाली जाने लगी ।

इन सब में ज़्यादा वक्त नहीं लगा । बाबा का सारा चिट्ठा शाम तक मेरे पास था । खुद को ये शख्स जितना शरीफ बता रहा था उससे कहीं ज़्यादा काले थे इसकी कहानी के पन्ने । आंखों में आंसू लिए खुद को बच्चों का मसीहा बताने वाला ये शख्स एक ज़माने में खून के जुर्म में उम्र कैद की सज़ा काट चुका था । अब इसका सार झूठ खुल कर मेरे सामने पड़ा हुआ था । हो ना हो इसका उस लड़की से कोई कनेक्शन तो था । ये भी बड़ी बात नहीं कि इसी ने...।

ऐसी तमाम आशंकाएं मेरे दिमाग में घूमने लगी थीं । पिछले कुछ दिनों से मैं जो था वो मैं जैसा रहा ही नहीं था । एक आधे दिन की बात अलग है लेकिन हर रोज़ ऐसा कुछ चलता रहे और ये सलोनी की नज़र से बच जाए ऐसा संभव नहीं था । आज शाम जब मैं इन्हीं उलझनों के साथ घर पहुंचा तो पाया कि सलोनी अपनी पत्रकारिता को घर तक ले आई है और सवालों का पुलिंदा लिए मेरा इंतज़ार कर रही है ।

"पा, कितने दिन हो गए हमने टेबल टेनिस नहीं खेला । चलिए एक एक गेम हो जाए ।" मैं अभी आ कर बैठा ही था कि सागर ने खेलने की फ़रमाइश रख दी सामने । वैसे मैं कितना भी थका रहता उसकी ज़िद को नहीं टालता था मगर आजकल हालात और थे ।

"नहीं बेटा आज नहीं । आज बहुत थका हुआ हूं मैं ।"

"आई टोल्ड यू मां, पा अब मुझे प्यार नहीं करते ।" निराश सागर ने अपनी मां के कंधे पर सिर रखते हुए कहा ।

"ऐसा नहीं है बेटा पापा बस थके हुए हैं ।" सलोनी ने सागर को समझाते हुए कहा ।

"चलिए सागर बाबू हम आपको टेबल टेनिस खिलवाते हैं ।" गौरव कार की चाबी रखने आया था । सागर को ज़िद करता देख उसने उसे अपने साथ खेलने के लिए कहा ।

"गौरव भईया आपको आता है टेबल टेनिस खेलना ।" सागर ने आश्चर्य से पूछा ।

"अरे हमें सब आता है खेलने । आप हरा नहीं पाएंगे हमको ।" सलोनी गौरव की बात सुन कर मुस्कुरा रही थी । उसे पता था गौरव सागर को बहला रहा है । सागर भी उसके झांसे में आ गया और खेलने चल दिया ।

"गौरव, देर तो नहीं हो रही ना ?" सलोनी ने पीछे से आवाज़ लगा कर गौरव से पूछा ।

"अरे नहीं भाभी, कुंवारे लोगों का यही तो आराम है ।" इसके बाद हंसता हुआ वो वहां से चला गया ।

मैं अभी भी गुमसुम सा बैठा कुछ सोच रहा था । इतने में सलोनी के सवाल ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खिंचा ।

"हुआ क्या है तुम्हें ?"

"हं, क्या ? मुझे क्या होगा ? सब ठीक तो है ।"

"ठीक होता तो मेरे इतना पूछने की नौबत ही नहीं आती । मैंने आज तक आपसे कोई सवाल नहीं किया । जानती हूं बहुत तरह की टेंशन होती है, वर्क लोड होता है मगर ऐसी हालत में पहले नहीं देखा तुम्हें । ऐसा लगता है जैसे हमारे बीच हो ही नहीं ।"

"ऐसा कुछ नहीं है । बस थोड़ा स्ट्रेस है काम का ।"

"तुम तो मुझे तब भी बहला नहीं सकते थे जब हमारी शादी नहीं हुई थी । अब तो वैसे भी मैं 14 साल से तुम्हारे साथ हूं । तुम्हारी हर हरकत, हर मूड से अच्छे से वाक़िफ़ हूं । बता दोगे तो मन हल्का हो जाएगा ।"

"ऐसा कुछ नहीं है सलोनी । मैंने आज तक कभी तुमसे कुछ छुपाया है ?"

"हां बिल्कुल छुपाया है । तुमने तो मुझसे अपनी आधी ज़िंदगी छुपाई है । वो तो मैं ही हूं जिसने तुम पर कभी दबाव नहीं बनाया कुछ बताने का । मुझे अभी भी पहले के बारे में कुछ नहीं जानना । मुझे बस जानना है कि ऐसा क्या है जो तुम्हें खुद से खुद को छीन रहा है । ये तुम्हारे लिए ही नहीं हम दोनों के लिए भी बुरा है ।" सलोनी की इस बात से मैं हैरान था । मैं चुप रह जाने वालों में से ज़रूर था लेकिन झूठ बोलना मुझे कभी से नहीं आता था । मरे लब जब झूठ बोलने लगते तो मेरी आंखें सच कह उठतीं ।

"तुम जानते हो ना कि पति पत्नी होने से पहले हम एक अच्छे दोस्त हैं । जितनी बातें तुमने मुझसे शेयर की हैं उतनी शायद किसी से नहीं । हमारे बीच कुछ भी ऐसा नहीं आ सकता जो सब बिगाड़ दे । तुम पर पूरा यकीन है मुझे । जो भी होगा उसे साथ में सुलझा लेंगे । अब जो है सो बता दो ।" सलोनी मेरे पास आकार बैठ गई थी ।

उसका हाथ जो मेरे कंधे को सहला रहा था उसने मेरे अंदर सालों से जमी बेचैनी को पिघलाना शुरू कर दिया था और ये अब मेरे आंखों के रास्ते बह रही थी । वैसे भी मैं उस लड़की को लेकर उठने वाली बेचैनी को अब अकेला नहीं संभाल सकता था । किसी के साथ तो इसे बांटना ही था और इसके लिए सलोनी से बेहतर और कोई नहीं हो सकता था । मेरा सिर उसके कंधे पर टिक गया और और मेरे आंसू उसके बदन को चूमने लगे । उसके हाथ मेरे सिर को सहला रहे थे ।

"सही कहा तुमने, मैंने अपनी आधी ज़िंदगी तुमसे छुपाई है । तुमसे क्या सबसे छुपाई है । मैं ऐसा अभागा हूं कि बिना किसी गलती के सारी उम्र शर्मिंदा होता रहा । जिस बात से मैं किसी को खुशी दे सकता था उसी बात के लिए लोगों को झूठ बोला । कभी भी मेरी टाइमिंग अच्छी नहीं रही । जब मां को सच बताना था तब मैंने झूठ बोल दिया, जब दोबारा सच बताना चाहा उससे पहले वो चली गई । मैं उस लड़की को बीच मजधार छोड़ आया जिसने मुझे जीने का हुनर सिखाया । उसे जब बताने गया कि उसे जिस वजह से छोड़ गया था वो मंज़िल मैंने पा ली है तब तक वो भी जा चुकी थी । तुम्हें ये सब बहुत पहले बता देता लेकिन डर रहा था कि तुम भी चली जाओगी । मैं जीत कर भी हारता रहा । ऐसी जीत की क्या खुशी मनाता जिसने मुझसे मेरे अपने छीन लिए ।" मैं ये सब बताता रहा, सलोनी सुनती रही ।

मैंने खुद को किताब की तरह उसके सामने खोल दिया । वो पन्ने भी उसके सामने आ गए जो मैंने सबके लिए जला दिए थे । मेरे सिर पर उसके हाथों की सहलाहट मुझे ये बताती रही कि वो मुझे सिर्फ़ सुन ही नहीं रही बल्कि समझ भी रही है । सारी बात बताने के बाद मैंने आखिर में उससे कहा "अब सब कुछ तुम्हारे सामने है । फैसला तुम्हें करना है कि मैं सही था या गलत । अपने मन से जो सही लगे वो सज़ा दे सकती हो ।"

मेरी बात पर वो नम आंखों के साथ मुस्कुराई और कहने लगी "जानते हो, जब हम दिल से प्रेम में होते हैं ना तो सबसे अच्छी बात ये होती है कि हम प्रेम को समझने लगते हैं । दुनिया में सबसे बड़ा धर्म प्रेम ही है और मेरा मानना है कि प्रेम में जो भी होता है वो कभी गलत नहीं होता । मेरे लिए तुम्हारी कहानी के पात्र नए हो सकते हैं मगर ये कहानी नई नहीं है । तुम्हें क्या लगता है मैं खुद से तुम्हें नहीं कह सकती थी कि मुझे तुमसे प्यार है ? बहुत पहले ही कह सकती थी मगर मैं समझ चुकी थी कि तुम ये जो गुमसुम से रहते हो, ज़्यादा बात नहीं करते इसकी वजह प्यार ही है । कोई है जिसे तुम बहुत ज़्यादा चाहते हो । मैंने कभी जानना नहीं चाहा और ना तन्हें पाने की उम्मीद छोड़ी । बस सब समय पर छोड़ दिया । मेरे प्यार पर मेरा हक़ था मगर तुम्हारे पर सिर्फ़ तुम्हारा । तुम हमेशा से आज़ाद थे अपने मन का चुनने के लिए और जब तुमने मुझे चुना तो मैं समझ गई कि तुम टूट चुके हो और तुम्हें कोई चाहिए जो तुम्हें संभाल सके । हम सब किसी ना किसी मकसद से पैदा होते हैं और मैंने मान लिया था कि मेरा मकसद तुम्हें संभालना है । हर हाल में तुम्हारे साथ थी, हूं और हमेशा रहूंगी ।"

मैं हैरान था । कोई शख्स इतना कुछ खुद में समेट कर इतना खुश कैसे रह सकता है । उसे सब पता था, हर बात का अंदाज़ा था । वो जानती थी कि कोई तो है जो उसके हक़ पर कब्ज़ा किए बैठी है लेकिन वो मुस्कुराती रही, सिर्फ़ मेरे लिए । प्रेम में इससे बड़ा त्याग भला और क्या हो सकता है । आज उसे पूजने का मन कर रहा था । मैं उसकी गोद में मुंह छुपा के ऐसे रोया जैसे मैं अपनी आंखों से सालों के जमा आंसुओं का हिसाब ले रहा हूं ।

"आज जी भर के रो लो । सालों से जो दबाया है उसे निकाल दो और फिर खुद को तैयार करो इसलिए कि तुम अपनी कहानी का एक सुखद अंत खोज सको और मैं इसमें हर तरह से तुम्हारा साथ दूंगी । मैं नहीं चाहती कि जिससे मैंने प्यार किया उस शख्स की ज़िंदगी किसी अधूरी कहानी सी हो । मैं नहीं चाहती कि तुम पूरी ज़िंदगी एक पहेली को सुलझाते हुए गुजार दो । चलो अब इस पहेली को इकट्ठे सुलझाया जाए ।" उसने मुझे संभाला और ये वादा किया कि अब वो मेरे साथ उस लड़की को खोजेगी ।

मुझे अब पूरा विश्वास था कि हम जल्द ही बाबा की सच्चाई जान लेंगे और उसके बाद उस लड़की तक भी पहुंच जाएंगे । मेरे हाथ जो मेरी मर्यादाओं के कारण बंधे थे उन्हें सलोनी ने खोल दिया था । वो अब खुद मेरे हाथ बन चुकी थी । बाबा के बारे में सच खोजने की ज़िम्मेदारी उसने अपने ऊपर ले ली थी । मेरी उस अधूरी और उलझी हुई कहानी का अंत अब नज़दीक आ रहा था ।

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भाग बारहवां


इस आज कल की हवा में इतना अविश्वास घुल चुका है कि कोई अगर आप पर विश्वास कर भी ले तो आप खुद पर ही हैरान होने लगते हैं । सलोनी को मैं इतने सालों से जानने का दवा कर रहा था लेकिन मैं ये नहीं जानता था कि उसके मन में मेरे लिए इतना प्यार है । आज कहीं ना कहीं मैं खुद पर शर्मिंदा भी था । अब समझ आता है कि इंसान इतना दुखी क्यों रहता है । जब वो निश्चित को छोड़ अनिश्चित के पीछे भागने लगता है तो हंसती खेलती ज़िंदगी में दुख और चिंताओं का समावेश निश्चित तौर पर हो ही जाता है ।

सलोनी ने मुझे और मेरे प्यार को समझा । उसने इस बात से उदास होने की बजाए मेरा साथ देने का फैसला किया । सलोनी को पता चला कि बाबा कहीं जाने की तौयरी में हैं । कहां ? ये नहीं पता था लेकिन अचानक से ही उन्होंने निकलने प्रोग्राम बनाया था । जब तक उनके पीछे कोई जाता नहीं तब तक ये पता चलना मुश्किल था कि आखिर चल क्या रहा है । एक डीएम हो कर मैं ऐसे ही जगह जगह नहीं भटक सकता था लेकिन अब मैं अकेला नहीं था सलोनी मेरे साथ थी ।

मैं ऐसा कुछ सोचता उससे पहले ही उसने सोच लिया था कि वो बाबा के पीछे जाएगी और सच का पता लगाएगी । सलोनी ने जब मुझे ये बात बताई तो मैं थोड़ा डर गया । मैं नहीं जानता था कि ये बाबा असल में चीज़ क्या है, कितना खतरनाक है । मैंने सलोनी को मना भी किया मगर वो नहीं मानी । सलोनी गौरव को साथ लेकर बाबा के पीछे निकल गई ।

मेरे दिमाग के सभी रास्ते अभी एक ही सोच की तरफ जा रहे थे और वो था उस लड़की के बारे में पता लगाना । क्या उस बाबा ने मेरी उस मोहब्बत के साथ कुछ बुरा कर दिया था जिसकी चाहत में मेरी आधी ज़िंदगी गुज़र गई थी ? उस लड़की को लेकर इसने झूठ क्यों कहा था या फिर सच में उसके बारे में इसे कुछ पता नहीं था ? संस्था की ज़मीन का मालिक खुद होते हुए भी इसने ये क्यों कहा था कि वो वहां सिर्फ़ एक नौकरी करता है, अचानक से बाबा को शहर से बाहर जाने की क्यों सूझी ? क्या वो भाग रहा था मुझसे ? इन बातों का जवाब तो बाबा ही दे सकता था ।

यही सब सोच रहा था कि तभी मुझे खयाल आया उस लड़के के बारे में जो मुझे संस्था में मिला था । मुझे यकीन था कि वो कुछ ना कुछ ऐसा बता सकता है जिससे इन सवालों जवाब खोजने में आसानी हो सके । लेकिन समस्या ये थी कि उससे मिला कैसे जाए । मैं कल सुबह तक का इंतज़ार नहीं कर सकता था और अभी मेरा उससे मिलने जाना सही नहीं था । ऐसे में इंस्पेक्टर हरीश ही मेरी मदद कर सकता था । हरीश मेरे मुश्किल भरे दिनों का दोस्त था । सिविल सर्विसेज की तैयारी हमने साथ ही की थी मगर उसका हो नहीं पाया । उसके बाद उसने पुलिस फोर्स ज्वाइन कर ली थी । अभी 7, 8 महीने पहले ही उसकी पोस्टिंग मेरे जिले में हुई थी ।

मैंने उसे फोन किया और उस लड़के को किसी तरह मुझसे मिलवाने के लिए कहा । हरीश का ऐसा था कि वो हर तरह से काम निकलवाने में माहिर था । इसी वजह से मैंने ये काम उसे दिया था और उसने उसे पूरा भी । कुछ ही देर में हरीश उस लड़के को मेरे ऑफिस ले आया था । मैंने उन्हें अंदर बुलाया । लड़का मुझे देख कर जिस तरह घबराया मैं जान गया कि हरीश ने उसे किसी और ही बहाने से बुलाया है ।

"हाऊ आर यू यंग मैन ?" मैंने उसे सहज महसूस कराने की कोशिश की ।

"फाइन सर ।" उसने दबी हुई आवाज़ में कहा और फिर हरीश पर एक नज़र डाली । मैंने हरीश को देखा और वो जान गया कि अब उसका यहां कोई काम नहीं ।

"सर मैं बाहर इंतज़ार करता हूं ।" इतना कह कर वो बाहर चला गया ।

"अरे खड़े क्यों हो बैठो ना ।" मैंने लड़के से कहा ।

"थैंक यू सर ।" लड़का मेरा इशारा पा कर सामने कुर्सी पर बैठ गया ।

"तो तुम भी आईएएस बनना चाहते हो ?" मैंने उससे पूछा ।

"नहीं सर मुझे आईपीएस बनना है । मैं मानता हूं कि सिस्टम को सुधारने से पहले लॉ एंड ऑर्डर को सुधारना ज़्यादा ज़रूरी है । वैसे भी आईएएस बनने वालों की तो लंबी कतार लगी हुई है ।" लड़के के जवाब से मुझे लगा जैसे उसके निशाने पर मैं भी हूं मगर उसने ऐसा कुछ सोच कर नहीं कहा था ।

"बहुत बढ़िया ।"

"सर मुझे क्यों बुलाया है आपने ? वो सर बोले कि मेरा नाम किसी लिस्ट में निकला है जिसके लिए मुझे उनके साथ चलना होगा । मैंने पूछा भी कि कौन सी लिस्ट तो उन्होंने बताया नहीं । क्या मुझे गिरफ्तार...।" लड़का सहम गया था ।

"तुमने कुछ गलत किया है ?"

"नहीं सर ।"

"फिर डर क्यों रहे हो ?"

"इस दौर से डर लगता है सर । आज कल तो बिना बात के लोगों का खून हो जाता है तो जेल हो जाना कौन सी बड़ी बात है । बड़ी मुश्किल से यहां तक पहुंच के कुछ करने का सपना देखा है सर । अगर कुछ भी गलत हुआ तो सपना टूट जाएगा । कोई और ऑप्शन नहीं है सर ।" लड़का भावुक हो गया था । उसमें मुझे मेरी सालों पुरानी झलक नज़र आ रही थी ।

"ऐसी कोई बात नहीं है । वैसे भी गिरफ्तार होते तो भला यहां क्यों आते । तुम जैसे बच्चों की कद्र करता हूं मैं । यकीन मानों आज से 18 साल पहले मैं वहीं खड़ा था जहां तुम आज खड़े हो । यही सपने, ऐसे ही हालात । तो अगर मैं यहां पहुंच सकता हूं तो तुम भी पहुंच जाओगे । बस एक बात याद रखना कुछ भी हो जाए हिम्मत मत हारना ।" किनारे तक पहुंचने के लिए पानी में हाथ मार रहे इंसान को 'तुम कर सकते हो' कह कर हिम्मत देना ही बहुत होता है । मेरी बात से लड़के को भी ऐसी ही हिम्मत मिली थी । वो मुस्कुराने लगा ।

"सर आपने बताया नहीं कि यहां क्यों…?"

"बस यूं ही । मुझे तुमसे मिल कर अच्छा लगा था उस दिन । मैं बस तुम्हारे बारे में जानना चाहता था । अपने बारे में बताओ मुझे ।" हालांकि इतना तो ये लड़का भी जनता था कि एक डीएम के पास इतना खाली समय नहीं होता कि वो किसी को बस यूं ही मिलने के लिए बुलाए फिर भी वो घबराया नहीं । मेरी बातों ने उसे सहज कर दिया था ।

"सर कचरे के ढेर का कोई टैग प्राईज़ थोड़े ना होता है । हम अनाथ कचरे जैसे ही हैं । बहुत छोटा था तभी हैजे से मां पिता जी दोनों चल बसे । उसके बाद मेरे दादा ने मुझे पाला लेकिन फिर उनकी भी मौत हो गई । बताते हैं कि मैं सिर्फ़ दो तीन साल का था जब बाबा मुझे अपने साथ ले आए थे । वो ना होते तो ना जाने मेरा क्या होता । तब से मैं उनके ही साथ हूं । धीरे धीरे मुझ जैसे और भी बच्चे उनके पास आने लगे । जिन्हें पढ़ना था वो बाबा के पास रहे बाक़ी हाथ पैर निकलते ही अपने अपने काम पर लग गए लेकिन बाबा ने बहुत से अनाथों को सहारा दिया है ।" मैं लड़के की बात बहुत गौर से सुन रहा था । उसकी आंखों में सच्चाई और बाबा के प्रति सम्मान साफ दिख रहा था ।

"किसी और को भी बाबा के साथ देखा है कभी ?"

"नहीं सर साथ तो नहीं देखा लेकिन ऐसी ही एक संस्था कहीं और भी है लेकिन उसे कौन चलाता है ये मैं नहीं जानता । बाबा अक्सर वहां जाते रहते हैं । पहले कम जाते थे मगर जब से मैं बाक़ी के बच्चों की देखभाल करने लगा तब से वो अक्सर जाते हैं ।"

"तुमने पूछा नहीं कि वो कहां जाते हैं ?"

"सर जो हाथ भूखे पेट को रोटी खिलाते हैं उनसे ये पूछने की हिम्मत कहां होती है कि खिलाने से पहले हाथ धुले थे या नहीं । बाबा से सवाल करना सही नहीं लगता । वो खुद किसी ना किसी परेशानी में रहते हैं हमेशा ।" लड़के की बातों को सुन कर मेरे मन में आया कि उसे मुफ्त की एक सलाह दे दूं कि वो बाक़ी सब भूल कर लेखक बनने की तैयारी करे । इतनी सी उम्र में उसे ज़िंदगी ने बहुत कुछ सिखा दिया था ।

"अच्छा तुम्हें पता है कि तुम पैदा कहां हुए थे और अपने दादा के साथ किस शहर में रहते थे ।"

"बाबा बताते हैं कि मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के सोमनगर में हुआ था और मेरे दादा नगरलोक के एक कॉलेज में दरबान की नौकरी करते थे । उसके बाद बाबा के साथ दो तीन साल उसी शहर में रहा फिर हम लोग यहां चले आए । तब से यहीं हूं मैं ।" लड़के के मुंह से नगरलोक का नाम सुन कर मैं चौंक गया । ये वही शहर था जहां से मेरी कहानी शुरू हुई थी ।

"क्या तुमने बाबा से कभी पूछा कि तुम्हारे दादा किस कॉलेज में दरबान थे ।"

"हां अभी हाल ही में कोई चर्चा चली थी तब बताया था उन्होंने कि दादा जी मूल चंद कॉलेज में काम करते थे ।" लड़के की बातें अब मुझे हैरान करने के साथ साथ कुछ तारों के जुड़ने की ओर इशारा भी कर रही थीं ।

"तुम्हारे दादा का नाम हरिलाल था ?" मैंने बड़ी उम्मीद से पूछा ।

"हां सर लेकिन आपको कैसे पता ?" लड़का मेरे मुंह से अपने दादा का नाम सुन कर हैरान था । एक डीएम भला सालों पहले के एक दरबान का नाम कैसे और क्यों जानेगा ?

"तुम्हें याद है अच्छे से कि तुमने बाबा के साथ कभी किसी को नहीं देखा ? किसी लड़की को या किसी महिला को । मेरी उम्र की महिला ?" उसके सवाल को नज़रंदाज़ करते हुए मैंने अपने सवाल उसके सामने रख दिए ।

"नहीं सर मैंने कभी नहीं देखा किसी महिला को उनके साथ । हां उन्हें एक फोन ज़रूर आता है मगर किसका आता है ये नहीं पता । वो हर रोज़ बात करते हैं ।" अब मैं अपने खयलों में खो गया था । मेरे दिमाग के घोड़े दौड़ने लगे थे । लड़का कुछ देर तक इंतज़ार करता रहा मेरी तरफ से कुछ बोले जाने का लेकिन मैं अपनी अलग ही दुनिया में उलझा था ।

"सर मैं जाऊं ?" उसकी आवाज़ ने मेरा ध्यान तोड़ा ।

"हं, हां जाओ । और मैंने जो भी पूछा है तुमसे उससे संबंधित कुछ और याद आए तो मुझे इस नंबर पर तुरंत कॉल करना ।" मैंने उसे अपना कार्ड देते हुए कहा ।

"ओके सर ।"

"अरे सॉरी तुम्हारा नाम पूछना ही भूल गया ।" मुझे याद आया कि मुझे अभी तक लड़के का नाम ही नहीं पता था ।

"सर रमन नाम है मेरा । सर आपने मेरे दादा जी के बारे में नहीं बताया कि कैसे जानते हैं आप उन्हें ।" लड़का कुर्सी से उठ गया था लेकिन जाते जाते अपनी जिज्ञासा मिटाना चाहता था ।

"मैं उसी कॉलेज में पढ़ा हूं और हमारे समय में तुम्हारे दादा जी वहां काम करते थे । बहुत अच्छे थे वो और उनसे काफ़ी देर तक बातें भी होती थीं हमारी ।" उसे कैसे बताता कि जिसकी वजह से उसके दादा जी के साथ इतनी देर बातें होती थीं उसी को खोजने के लिए उससे ये पूछताछ कर रहा हूं ।

लड़का मेरे और अपने दादा जी के संबंध को जान कर खुश हुआ । कुछ देर में वो वहां से चला गया और मुझे ना चाहते हुए भी अपने काम में लगना पड़ा । मगर सच पूछिए तो मैं वहां हो कर भी वहां नहीं था । सलोनी को पता नहीं था कि वो कहां जा रही है लेकिन मैं समझ गया था कि बाबा नगरलोक जा रहे हैं । अब मैं एक कदम और पास था । मैंने फैसला किया कि मैं शाम को नगरलोक के लिए निकल जाऊंगा । सलोनी ने सागर को संभालने के लिए पहले ही सुनीता को बुला लिया था ।

मैं काम खत्म कर के ऑफिस से सीधा नगरलोक के लिए निकल गया । सुनीता को फोन कर के बता दिया कि हम दोनों ही आज घर नहीं आएंगे और वो सागर और उसके सवालों दोनों को संभाल ले । मैं निकला ही था कि सलोनी का फोन आ गया ।

वो कुछ बोलती उससे पहले ही मैंने कहा "मैं नगरलोक आ रहा हूं ।"

उसने हैरानी जताई "मगर तुम्हें कैसे पता कि हम नगरलोक की तरफ जा रहे हैं ?"

"क्योंकि बाबा भी वहीं जा रहे हैं ।"

"तो क्या हम रास्ते में रुक कर इंतज़ार करें तुम्हारा ?"

"नहीं नहीं, मुझे अभी 4 घंटे लगेंगे तुम तक पहुंचमे में । तब तक बाबा कहां गायब हो जाएगा पता भी नहीं चलेगा । तुम लोग उनका पीछा करो । लेकिन ध्यान रहे कुछ करना मत । बाबा से छुप कर रहना वो जानते हैं तुम्हें । उनकी लोकेशन पर पहुंच कर मेरा इंतज़ार करना ।"

"ओके बॉस ।" फोन कट गया । मैं एक कदम और आगे बढ़ चुका था उस लड़की की तरफ । अब मुझे उस तक पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता था । कल का सूरज मेरी अधूरी कहानी को पूरा करने वाला था ।

नोट :- शहरों के नाम काल्पनिक हैं ।

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भाग तेरहवां



मैं दिल्ली से निकल गया था । कार हाइवे पर थी और मैं खयलों में । बेचैन कर देने वाले खयाल । सालों पहले इसी रास्ते को तय करते हुए मैं कितना खुश था । सोच रहा था मैंने सबकुछ पा लिया है । यूपीएससी में रैंक और अपना प्यार दोनों मिल गया मुझे । इससे ज़्यादा ज़िंदगी में और चाहिए ही क्या । बहुत कम खुशनसीबों को ये कोम्बो पैक का ऑफ़र देती है किस्मत । वर्ना हर बार तो दो में तुम्हें क्या चाहिए यूपीएससी या कि प्यार वाला सवाल ही सामने खड़ा रहता है । पहले तो लोग इंतज़ार भी करते थे लेकिन अब तो बंदा इस चक्कर में फंस जाता है कि पढ़ाई करे या सारे दिन में कितनी बार आई लव यू बोला गया है इसका हिसाब रखे ।

तैयारी के दिनों में मैंने लड़की लड़कों को देखा था वहां । ऐसा लगता था जैसे इनका इस दुनिया से कोई वास्ता ही नहीं । सिर्फ़ और सिर्फ़ पढ़ाई की दुनिया । ऐसे लोग चाय तक में भी सवाल और उनके जवाब खोजते रहते थे । मुझे लगता था ये भला प्यार को क्या जानते होंगे और एक मुझे देखो मैं प्यार भी जी रहा हूं और मेहनत भी कर रहा हूं । मगर मुझे क्या ही पता था कि ये प्यार मुझे इस तरह से उलझा देगा । इन्हीं उलझनों में खोया हुआ मैं अपनी कहानी के अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहा था ।

हालांकि ये मेरा सोचना था कि मेरी ये कहानी अब पूरी होने वाली है वो लड़की मुझे मिलने वाली है मगर किस्मत ने क्या लिख छोड़ा था मेरे लिए ये कोई नहीं जानता था । इसी उधेड़बुन में मैं आगे बढ़ रहा था तभी मेरा फोन बजा । सलोनी का फोन था । शायद वे लोग पहुंच गए थे ।

"पहुंच गई ?" मैंने फोन उठाते ही पूछा ।

"एक तो तुम्हारी ये आदत मुझे बहुत बुरी लगती है । फोन करने वाला पहले बोलता है मगर तुम हर बार मुझसे पहले अपना सवाल रख देते हो ।" वो पक्का पहुंच गई थी तभी बेबात के भड़क रही थी ।

"अच्छा सॉरी ना । तुम पूछ लो मैं जवाब दे देता हूं ।"

"हां ये सही है । वैसे हम लोग पहुंच गये हैं । शहर में एंटर करते ही डेढ़ किलोमीटर तक आगे चलना पड़ेगा उसके बाद एक चौराहा आएगा और तुम्हें उसके लेफ्ट साइड वाली रोड पकड़नी है ।" सलोनी मुझे रास्ता समझा रही थी ।

"हम्म्म्म, विधि विहार में हो तुम लोग । क्या बाबा इसी इलाके में है ?"

"हां हमारे सामने वाले एक पुराने से घर में घुसा है । ये इमारत बहुत ही पुरानी लग रही है । आसपास कुछ ज़्यादा आबादी नहीं है यहां ।"

"देखने से कैसा लग रहा है कोई रहता भी है यहां ?"

"हां, लग रहा है यहां पर भी बच्चे ही रहते हैं । कपड़े सूखने लटके हैं काफ़ी, बच्चों के ही हैं । कहीं हम बाबा पर बेवजह शक़ तो नहीं कर रहे ?"

"अब वजह है या बेवजह ये तो वहां पहुंचने के बाद ही पता चलेगा । मैं घंटे भर में पहुंच जाऊंगा तब तक तुम अपना ध्यान रखना ।"

"हां और तुम ध्यान से गाड़ी चलाना । अपनी बिछड़ी मोहब्बत से मिलने की बेचैनी में गाड़ी मत भिड़ा देना कहीं ।" इतना कह कर सलोनी बहुत तेज़ हंसी । मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाया ।

"बहुत बदमाश हो तुम । अच्छा गौरव कुछ पूछ तो नहीं रहा था ना ?"

"अरे जानते तो हो उसे वो नहीं पूछता हां लेकिन बोलता बहुत है । ना जाने कौन सी चाची ताऊ मामा सबके किस्से सुना डाले हैं इसने ।"

"कोई ना थोड़ा झेल लो । सागर से बात कर लेना । मैंने कर ली है । तुम्हारे बारे में पूछ रहा था । और हां मुझे ज़रा लोकेशन भी भेज दो वहां की ।"

"हां मैं भेज देती हूं । तुम से बात करने के बाद उसे ही लगाने जा रही थी । सोच रही बता दूं कि उसकी मां नंबर 2 से मिलने आए हैं ।" वो फिर हंसी । इस बार मैं कुछ बोलता उससे पहले उसका फोन कट गया ।

मैं जानता था ये हंसी उसके दर्द को छुपाने का एक ज़रिया है । उसे बहुत सी बातें अंदर ही अंदर खा रही होंगी मगर इन सबका जवाब उसे दूंगा । जो वो मेरे लिए कर रही है वो बहुत बड़ी बात है ।

सलोनी और गौरव घंटे भर से वहीं गाड़ी में बैठे सामने नज़र रखे हुए थे । कोई खास हरकत नहीं हो रही थी । रात होने के कारण लोग भी इतने नहीं थे वहां । माहौल एकदम शांत था कि तभी एक चीख गूंजी । सलोनी अचानक आई इस चीख से कांप गई । ऐसा लगा जैसे ये उसी घर के अंदर से आ रही थी जहां बाबा गया था । सलोनी ने तुरंत फोन लगाया ।

"अंदर से चीखने की आवाज़ आई है । मैं अंदर जा रही हूं ।" गौरव कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि ये हो क्या रहा है ।

"नहीं अकेली मत जाओ । मैं बस पहुंच ही रहा हूं तुम्हारी भेजी हुई लोकेशन पर । मेरा इंतज़ार करो, बस 10 मिनट ।"

"बहुत देर हो जाएगी । शायद कुछ अनहोनी ना हो जाए । मैं जा रही हूं ।" इतना कह के सलोनी ने फोन काट दिया और फिर मैं फोन लगाता रह गया मगर फोन नहीं उठा दोबारा । शंका इंसान की सोच में बहुत से ऐसे खयाल भर देती है जिसका वास्तविकता से दूर दूर तक कोई नाता नहीं होता । सलोनी और फिर मेरा हम दोनों का अभी यही हाल था ।

अचानक ही एक्सलेटर पर मेरे पैरों का दबाव बढ़ गया और गाड़ी अपनी समान्य स्पीड से दुगनी रफ्तार में चलने लगी । मुझे 7 मिनट लगे वहां पहुंचने में और ये 7 मिनट मेरे जीवन का सबसे कठिन समय साबित हुए । कितना कुछ नहीं चल पड़ा था मेरे दिमाग में ।

वहां पहुंचते ही मैंने सबसे पहले सलोनी की गाड़ी को खोजा । कुछ देर नज़र दौड़ाने के बाद मुझे उसकी गाड़ी दिख गई । जैसा कि उसने बताया था गाड़ी उस घर के सामने लगी थी जहां बाबा गया था । सामने मुझे एक पुराना सा मकान दिखा वैसा ही जैसा सलोनी ने बताया था । मैं तेज़ कदमों के साथ उस मकान की तरफ बढ़ा ।

पुरानी हवेलियों जैसा था ये मकान । मैंने बड़े से गेट को धक्का दिया । वो पहले से खुला हुआ था । मेरी आंखें गुस्से से लाल थीं और मन घबराहट से भरा हुआ । लेकिन आगे जो मैंने देखा उसे देख कर मेरी जान में जान आ गई । सामने सलोनी और गौरव कुर्सियों पर बैठे हुए थे और कुछ बच्चों ने उन्हें घेर रखा था । सब आपस में बातें कर रहे थे, हंस रहे थे ।

"सलोनी, ठीक हो तुम ।" मैंने ज़ोर से कहा और भागता हुआ उसके पास पहुंचा मेरी आवाज़ सुन कर बच्चे चौंक गये । सबकी निगाह मुझ पर टिक गई । 10 मिनट के अंदर उनके घर में तीन नए मेहमान आ चुके थे, चौंकना जायज़ था उनका ।

सलोनी ने जबरदस्ती मुस्कुराते हुए कहा "जी डीएम साहब सब ठीक है । आप ना आते अभी तो और ठीक रहता ।" आखिरी बात उसने बहुत धीमे से कही ।

"अरे, साहब आप यहां ? और आप इनको जानते हैं ।" ये बाबा था जिसके हाथ में चाय की ट्रे थी । वो एक दम से हैरान परेशान देखने लगा मुझे ।

"बच्चों को अंदर भेजिए ।" मैंने बहुत ही कड़े लहजे में कहा ।

"हां बच्चे तो चले जाएंगे मगर आप इतनी दूर वो भी रात के समय । ये सब हो क्या रहा है ज़रा बताएंगे आप ?" बाबा के शब्द भी अब सख्त थे । हालांकि उनकी सख्ती बनती भी थी मगर मुझे अभी ये सब कुछ नहीं सूझ रहा था ।

"मैं फिर कह रहा हूं बच्चों को अंदर भेजिए ।" मैंने दांत पीसते हुए कहा । मेरी बात का असर हुआ और बाबा ने सभी बच्चों को अंदर भेज दिया ।

"अब आप मुझे बताएंगे कि ये क्या हो रहा है । आप जैसा बड़ा अधिकारी इतनी दूर से आ कर इतनी रात को मेरे घर पर क्या कर रहा है ?" बाबा ने फिर से अपना सवाल दोहराया ।

"तुम्हारे लिए आए हैं इतनी दूर से । और इस बार बिना सच जाने मैं नहीं जाने वाला । आखिर क्यों इतने झूठ बोले तुमने ? जबकि तुम्हारा मुझसे कोई लेना देना भी नहीं था । क्यों इतना सब छुपा रहे हो ?" मैं बाबा के करीब चला गया था । ये सब मैंने नहीं सोचा था लेकिन ऐसे हालात में बाबा मेरे सामने आया कि मैं सब भूल गया । बस ये याद रहा कि इससे सच उगलवा कर रहूंगा ।

"कैसे झूठ साहब ? आपने जो पूछा उसका सही जवाब दिया है मैंने । अब जब आप अपनी मनगढंत बात को सच मानने को कहेंगे तो भला मैं कैसे मान लूं ?"

"अच्छा और ये भी सच है कि तुम संस्था में सिर्फ़ नौकरी करते हो ?"

"हं, हां तो और क्या हम नौकरी नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे ? गरीब आदमी के लिए नौकरी करना भी गुनाह हो गया ।" बाबा की ज़ुबान लड़खड़ाई और मुझे बहुत तेज़ गुस्सा आया ।

"मुंह पर झूठ बोल रहा है ये इंसान । तुम्हारे कागज़ देखे हैं मैंने, संस्था की ज़मीन तुम्हारे नाम है । बताओ ऐसा दानी कौन है जो अपने नौकर के नाम ज़मीन कर देता है । तुम झूठे हो और तुमने उस लड़की के बारे में भी झूठ ही बोला ।" बाबा की अकबक बंद हो गई थी । उसके तेवर ठंडे पड़ चुके थे, वो बस नज़रें झुकाए खड़ा था ।

"बाबा अब तो सारी बात साफ हो रही है । अब तो सच बता दीजिए । आप नहीं जानते ये शख्स कितने सालों से परेशान है आपके झूठ की वजह से ।" सलोनी ने बाबा के करीब जा कर कहा ।

"बेटा मेरा यकीन करो आप लोग । उन सेठ की कोई बेटी ही नहीं थी । अब ये कह रहे हैं उनकी बेटी के बारे में बताऊं । जो थी ही नहीं उसके बारे में क्या बताऊं बेटा ।"

"और वो ज़मीन वाला झूठ ।" मैंने कुछ बोलना चाहा इससे पहले सलोनी ने एक और सवाल पूछ लिया ।

"ज़मीन मेरी ही है । मैंने ही खरीदी थी लेकिन साहब कहीं मुझसे ये सवाल ना करने लगें कि इतनी महंगी ज़मीन मैंने कैसे खरीदी इसीलिए मैंने झूठ बोला ।"

"वो सवाल तो अभी भी होगा तुमसे मगर उससे पहले उस लड़की के बारे में बता दो बाबा । माना कि तुम्हारे मालिक की कोई बेटी नहीं थी लेकिन कोई तो थी जो वहां रहती थी । तुम नहीं जानते बाबा मैं उससे कितना प्यार करता हूं । इतना कि उसकी वजह से मैंने मुझसे से प्यार करने वालों को भी दूर रखा । उसे बस एक बार देखना है बाबा । उसे आंख भर देख लूंगा तो चैन आ जाएगा । 18 साल से तरस रहा हूं उसे देखने के लिए बाबा । उसके साथ कुछ गलत कर दिया है क्या तुमने ? क्या वो अब नहीं है ? क्या है तुम्हारी असलियत बाबा । कहां है वो मुझे एक बार बता दो । मुझ पर तरस खाओ बाबा । मुझ पर तरस खाओ ।"

कहते हैं मोहब्बत इंसान को भिखारी तक बना देती है । आज ये बात खुद पर साबित होते देख रहा था । मेरी आंखें झर रही थीं, हाथ बंधे थे मैं खुद घुटनों पर था और होंठों पर बस एक ही फरियाद थी कि मुझे बस एक बार उसका पता दे दो । मुझे फर्क नहीं पड़ रहा था कि मुझे मेरी बीवी का ड्राइवर ऐसा करते देख रहा है यहा वहां मौजूद बच्चे । मुझे ये भी खयाल ना आया कि मैं अपनी बीवी के सामने अपने पुराने प्यार को आज भी बरकरार बता रहा हूं ।
उधर ना जाने क्यों बाबा की आंखें भी आंसू बरसा रही थीं कुछ तो था जो उसे चुभ रहा था । कुछ तो था । सलोनी मुझे संभालने की कोशिश कर रही थी लेकिन मेरे आंसू और मेरी फरियाद दोनों रुकने का नाम नहीं ले रहे थे ।

"अब तो पक्का हमें और तुम्हें अदला बदली कर लेनी चहिए डीएम साहब ।"

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भाग चौदहवां

प्रेम में जो भी होता है वो अनपेक्षित होता है । हर कोई जो प्यार करता है वो अपनी तरफ से दुनिया का अनोखा प्यार ही करता है । उसे लगता है कि ऐसा प्यार तो ना आज तक किसी ने किया है और ना ही कोई कर सकता है । शायद ऐसा होता भी हो लेकिन पता कैसे चले ? प्रेम में होने वाली अधिकांश बातें तो कुछ लोगों के बीच में सिमट कर रह जाती हैं । जो प्रेम करते हैं वो ढिंढोर थोड़े ना पीटते हैं । यही कारण है कि लोग खट से कह देते हैं ऐसा प्यार तो बस कहानियों और फिल्मों में होता है जबकि सच तो ये है कि कहानियां तो सच से ही प्रेरित होती हैं ना ।

प्रेम में हर किसी ने अपने अपने हिस्से का दुख भोगा है फिर भी उन्हें लगता है कि प्रेम में झुक जाना, रो देना ये सब बेवकूफी है । जबकि प्रेम में ना बेवकूफी होती है और ना होशियारी जो होता है सो बस प्रेम ही होता है, प्रेम के लिए ही होता है ।

मैं भी इसी प्रेम के लिए अपनी मर्यादा, मान सम्मान और अपनी शादीशुदा ज़िंदगी को दाव पर लगा कर बाबा के सामने सच जानने के लिए रो रहा था । बाबा जितना पिघल रहे थे उतना ही मेरी आस मजबूत हो रही थी । आगे ना जाने मैं और क्या कर देता इससे पहले ही मेरी सिसकियों को दबाती हुई एक आवाज़ गूंजी वहां "अब तो पक्का हमें और तुम्हें अदला बदली कर लेनी चहिए डीएम साहब ।"

वही आवाज़ जिसे सुनने के लिए सालों से मेरे कान तरस रहे थे । मुझे विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि यही आवाज़ मैं इतने सालों से अपने खयलों में इतनी बार सुन चुका था कि अभी भी मुझे लग रहा था कि ये सच नहीं बल्कि खयाल ही है ।

"लड़की मैं हूं और इस तरह से मुझे रोना चाहिए लेकिन आपको तो हर काम उल्टा ही करना होता है । इसीलिए कहती हूं अदला बदली कर लीजिए ।" इस आवाज़ को और इन शब्दों को ना जाने कितनी बार सुना होगा । हर बार इन शब्दों ने चेहरे पर मुस्कुराहट ला दी है । आखिरी बार भी यही तो शब्द थे 'अदला बदली कर लेनी चाहिए ।' मगर आज इस आवाज़ को सुन कर लगा कि ज़िंदगी जैसे यहीं थम गई थी । लगा जैसे कि एक उम्र जी कर अब दूसरे जहां में मिल रहे हों हम । उस आवाज़ में अब वो खनक नहीं थी बल्कि कंपकंपी थी । ऐसे मानों जैसे बड़ी हिम्मत जुटा कर ये बात कही हो । जैसे सालों लग गए हों सिर्फ़ इतनी बात बोलने में ।

दूसरी बार जब आवाज़ आई तब मेरी नज़र उस आवाज़ की तरफ अचानक से घूमी । देखा तो मेरा सपना मेरी हक़ीक़त बन कर सामने खड़ा था । मेरे 18 सालों की बेचैनी की कहानी मैं उसके चेहरे पर पढ़ पा रहा था । सलोनी और गौरव दोनों मूक दर्शक बने हुए थे । गौरव समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या चल रहा है और सलोनी को ये सब समझने के लिए कुछ वक़्त लगने वाला था । बाबा की आंखों से बह रहे आँसूओं की रफ्तार पहले से ज़्यादा तेज हो गई थी और मैं, मैं तो उसकी शक्ल तक सही से नहीं देख पा रहा था । आंखों के आंसू सामने की तस्वीर को धुंधला जो कर रहे थे ।

मैं उठा और लड़खड़ाते कदमों के साथ उसके पास पहुंचा । वो एक कुर्सी पर बैठी थी और मैं उसके सामने घुटनों पर बैठ गया । मेरी आंखें उसके चेहरे को टटोल रही थीं या फिर तसल्ली कर रही थीं इस बात की कि ये वही लड़की है या कोई और । तीन साल से ज़्यादा रहा उसके करीब लेकिन उसे रोते हुए पहली बार आज देख रहा था । कभी ना ऐसी नौबत आई और ना उसका कभी से स्वभाव ऐसा था । मुझे तो लगता था जैसे इसे पता ही नहीं कि रोना होता कैसा है ।

"क्या अब नज़र लगाओगे डीएम साहब ?" उसने आँसूओं की वजह से चमक रहे चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा । मन हुआ उसे गले लगा लूं मगर कुछ था जो मुझे रोक रहा था । सलोनी इस हालात को समझती थी, उसकी दिक्कत नहीं थी लेकिन कुछ तो था जो मुझे उसे गले लगाने से रोक रहा था । मैं कुछ बोल भी तो नहीं पा रहा था । ना जाने क्या हो गया था मुझे । जानते हैं जब भूखे इंसान के सामने तीन दिन बाद खाना रखेंगे ना तो वो एकदम से खा नहीं पाता । उसका मुंह नहीं खुलता, अन्न गले में चुभता है, हिचकियां आने लगती हैं । मैं भी कुछ ऐसी ही स्थिति में था । बहुत से सवाल तो थे लेकिन वो बात नहीं मिल रही थी जिससे मैं शुरुआत कर सकूं ।

"बहुत कुछ पूछना होगा ना ? बहुत गुस्सा भी आ रहा होगा ?" मेरे चेहरे को अपनी हथेलियों के घेरे में लेते हुए उसने पूछा ।

"क्यों किया ऐसा ?" इससे ज़्यादा और कुछ मैं बोल ना पाया । मेरे आंसू मेरे शब्दों को घेरे हुए थे कि जो शब्द निकलने की कोशिश करते वो डूब जाते । गला भरा था, आंखें बह रही थीं ।

"किया नहीं, बस समय का ऐसा चक्र चला कि सब हो गया । कैसे क्यों ये सब समझा नहीं सकती लेकिन यकीन करो ठीक तुम्हारे बराबर ही दर्द और बेचैनी झेली है मैंने, ना रत्ती भर कम और ना रत्ती भर ज़्यादा ।"

"ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि एक बार ये बताना भी सही ना समझा कि तुम ठीक हो ।"

"यही तो मजबूरी थी । तुम्हें बताने सामने आती तो ना तुम वापस जाने देते और ना मैं वापस जा पाती ।"

"तो वापस जाना ही क्यों था ? क्या ऐसी दिक्कत थी मुझमें जो तुमने मेरे साथ ना रहने का फैसला कर लिया ?" मेरे इस सवाल के साथ ही कदमों की तेज आहट दरवाजे से बाहर जाती सुनाई दी । ये सलोनी थी । शायद वो देख नहीं पा रही थी अपने प्यार को बंटते हुए या फिर हमें अकेला छोड़ देना चाहती थी । उसके पीछे बाबा और गौरव भी बाहर चले गए ।

"अब इन बातों का कोई मतलब नहीं । तुम्हारी अपनी ज़िंदगी है ।" उसने इस तरह से रूखे शब्दों में ये बात कही जैसे वो मुझे खुद से दूर करना चाहती हो ।

"मेरी अपनी ज़िंदगी ? किधर है ? कहां है ? मुझे भी मिलवा दो उससे । मैं जान तो सकूं कि आखिर अपनी ज़िंदगी कैसी होती है । जब तक कुछ समझने वाला हुआ तब तक पिता का साया सिर से उठ गया । उसके बाद मेरी ज़िंदगी अपने परिवार के लिए थी । जब वक़्त आया कि परिवार के साथ साथ अपने लिए भी थोड़ा जी लूं तब तुम अचानक चली गई मेरी ज़िंदगी से । उसके बाद से मेरी ज़िंदगी का हर एक लम्हा सिर्फ़ तुम्हारा रहा है । सारा वक़्त यही सब सोचते हुए बीता कि तुम कहां हो, कैसी हो, किसी मुसीबत में तो नहीं हो, तुमने ऐसा क्यों किया । बताओ यहां मेरी ज़िंदगी मेरे पास कहां थी । मेरा तो इस पर इतना भी हक़ ना था कि इसका छोटा सा हिस्सा अपनी पत्नी को बांट कर दे पाता । मैंने तुम्हारे प्यार में खुद को तो तड़पाया ही उसे भी खुद से दूर रखा । ऐसा लगता रहा कि अपने साथ हो रहे इस अन्याय की सज़ा मैं उसे दे रहा हूं । बताओ कि ऐसे में कैसे ना तुमसे सच जानूं मैं ।" मेरे लब जो अभी तक खमोश थे उन्होंने अचानक ही सारी हदें तोड़ दी थीं ।

"सब जानती हूं मैं । मैं तुम्हारे सामने नहीं थी मगर तुम हमेशा मेरे सामने थे । मैंने खुद को हर बार कैसे रोका ये मैं ही जानती हूं ।" उसके चेहरे की बनावटी मुस्कुराहट अब गायब हो चुकी थी । ये खालिस दर्द था जो बह कर सामने आ रहा था ।

"लेकिन क्यों ऐसी भी क्या मजबूरी थी जो तुम सालों तक सामने होते हुए भी छुपी रही ।"

"मजबूरी यही थी कि मैं अब और उधार की ज़िंदगी नहीं जीना चाहती थी । नहीं रहना चाहती थी तुम पर बोझ बन कर रहूं । मैंने सोचा था मैं तुम्हारी हिम्मत बनूंगी मगर मैं ऐसी हालत में पहुंच चुकी थी कि हिम्मत नहीं अब कमज़ोरी हो जाती तुम्हारी । इसीलिए मैं छुप गई तुम से ।" उसके शब्द अब और कड़े हो चुके थे ।

"सुनों अगर तुम्हें इस बुड्ढे का डर है तो ये डर निकाल दो अपने मन से । इसे मैं संभाल लूंगा । तुम सेफ हो अब । यूं ही कुछ भी मत बोलो ।" इंसान जो सोच लेता है उसके लिए वही सत्य होता है । मैं भी अब सोच चुका था कि इस लड़की के साथ बहुत बुरा हुआ है । इंतज़ार नहीं कर सकता था पूरी तरह से सच जानने के लिए । मैं झुंझला चुका था और ये झुंझलाहट मैंने उस पर निकाल दी ।

"उन से डरने की मुझे ज़रूरत नहीं है । मुझे डर सिर्फ़ अपनी किस्मत से रहा है । मेरी असलियत नहीं जानते तुम इसीलिए इस तरह बोल रहे हो ।"

"नहीं जानता तो बता दो मुझे । मैं भी तो जानूं कि आखिर ऐसा क्या है जो मेरे उस प्रेम को कम कर देगा जो मैं इतने सालों से तुम्हें करता आया हूं ।" लड़की कुछ नहीं बोली वो बस रोती रही । मेरा दर्द बेचैनी सब अब गुस्से में बादल चुका था ।

"मैं समझ गया हूं उस बाबा ने ही तुम्हें धमकाया है । उसने ही मुझे तुम से दूर रखा, झूठ बोला मुझसे । वो चाहता तो सालों पहले मुझे तुमसे मिलवा सकता था । तब मैं कमज़ोर था मगर अब मैं उसे ऐसी सज़ा दूंगा कि आज के बाद कोई भी किसी की मोहब्बत को उससे दूर करने की हिम्मत नहीं करेगा ।" मैं इतना कह कर उठ गया । इस समय मेरी जो हालत थी शायद मैं उस बाबा का खून भी कर सकता था ।

"रुक जाओ मेरी बात सुनों । उनकी कोई गलती नहीं है । उन्हें कुछ मत कहना ।" लड़की वहीं से चिल्लाती रही और मैं दरवाजे की तरफ बढ़ता रहा ।

"वो मेरे पिता जी हैं । उन्होंने जो किया वो मेरे कहने पर किया उनकी कोई गलती नहीं है ।" लड़की चिल्ला पड़ी । और इसके साथ ही मेरे कदम जहां थे वहीं रुक गये ।

*********

भाग पंद्रहवां


ज़िंदगी हर रोज़ अपने नए रंग में नज़र आती है । उसे हर रोज़ हमारे साथ खेलने में मज़ा आता है । आज जो जैसा दिखता कल उसका रूप कुछ और होता है । किसी पर कोई ठोस राय नहीं बना सकते आप । मैंने इस बाबा के लिए क्या कुछ नहीं सोचा, इसे क्या कुछ नहीं कहा । मैंने इन पर इस लड़की के साथ कुछ गलत करने तक का इल्ज़ाम लगाया । अब मुझे अहसास हो रहा था उनके उन आँसूओं का जो मेरे तीर समान चुभते शब्दों के साथ निकल रहे थे । मैं ऐसा इंसान था जिसने अपनी आम ज़िंदगी से लेकर अपने सरकारी दायित्व भरे जीवन तक में कड़े शब्दों से किसी का दिल नहीं दुखाया था और आज मैंने ही एक निर्दोष इंसान पर उसकी अपनी बेटी के साथ गलत करने का इल्ज़ाम लगा दिया था ?

मैं नियमों कानून का पालन करने वाला शख्स कैसे खुद को न्यायाधीश मानते हुए किसी को आरोपी ठहरा सकता हूं ? वो भी बिना सच जाने । उस लड़की के इन शब्दों ने मुझे जड़ कर दिया था । मैं चाहता था कि कुछ ऐसा हो कि मुझे फिर से इस लड़की और बाबा का सामना ना करना पड़े । लेकिन सच अभी भी अधूरा था । उसका पूरा होना ज़रूरी था ।

"ये क्या कह रही हो ? कोई पिता अपनी ही बेटी की असलियत क्यों छुपाएगा ? और अगर तुमने इनसे ऐसा करने को कहा तो भला क्यों ?" मुझे इस बात का यकीन नहीं हो रहा था कि मैं इतने सालों से उसे सच साबित करने में लगा हुआ था जिसने खुद अपने झूठे होने की साज़िश रची थी ।

"क्योंकि तुम्हें खुद से दूर करना चाहती थी मैं। क्योंकि खुद को तुम्हारे लायक नहीं समझ रही थी मैं । क्योंकि मेरी सारी ज़िंदगी ही झूठ पर टिकी थी, क्योंकि तुम्हारी ज़िंदगी नर्क नहीं करना चाहती थी मैं ।" उसने चिल्लाते हुए कहा । मैं स्तब्ध था और वो बेचैन ।

"तो जो पहले था वो सब ? तुम्हारा वो घर तुम्हारे पिता वो सब क्या था और क्यों था ?" मैं थर्रा कर वहीं ज़मीन पर बैठ गया ।

"वो सब झूठ था ।" उसके आँसूओं ने सारे बांध तोड़ दिए थे । वो रो रो कर सब बताती रही और मैं पत्थर की तरह चुपचाप सब सुनता रहा ।.....

सालों पहले...

जब तुम दिल्ली चले आए तो मेरे लिए दिन काटने मुश्किल होने लगे । मैंने कॉलेज जाना छोड़ दिया । मुझे हर वो रास्ता चौक चौराहा और जगह काटने को दौड़ती थी जहां मुझे तुम दिखा करते थे । पहली बार जाना कि भीड़ में भी तन्हा होना क्या होता है । तुम्हारे जाते ही ऐसा लगा जैसे दुनिया वीरान सी हो गई है । जिधर जाती सिर्फ़ तुम दिखते । तुम्हारे पास नंबर था घर का, ये सोच कर मैं घंटों टेलीफोन के आगे बैठी रहती फिर खुद को समझा लेती कि तुम हमारे लिए ही तो वहां गए हो । अगर तुम मेहनत नहीं करोगे तो हम एक कैसे होंगे । बस कुछ ही दिनों की तो बात है उसके बाद तो सारी उम्र साथ रहना है ।

सिर्फ़ इतनी बात खुद को समझाने में मुझे 6 महीने लग गए । तुम्हारी याद तो बहुत आती थी मगर मैंने खुद को संभाल लिया था । दिन गिन रही थी मैं । लगता था कि दुनिया में सिर्फ़ मैं तुम और ये वक़्त है लेकिन मैं भूल गई थी कि ज़िंदगी तो हर रोज़ अपना रूप बदलती है । इस बार तो उसने ऐसे अपना रूप बदला कि मैं सब कुछ भूल गई ।

एक दिन अचानक ही पता लगा कि मेरी सारी ज़िंदगी ही झूठ है । जिसे मैं अपना मानती रही असल में वो ज़िंदगी एक उधार थी । एक ऐसा उधार जिसे मेरे एक पिता ने दूसरे पिता के एक अहसान के बदले में चुकाया था । ये जो बाबा हैं ये मेरे पिता हैं । ऐसे पिता जिन्हें मैं पहचानती भी नहीं थी ।

एक दिन पापा अपना सारा काम छोड़ कर एक मैले कुचैले कपड़े पहने साधारण से आदमी के लिए भागे आए । उस शख्स ने पापा के सामने हाथ जोड़े तो पापा ने आगे से उन्हें गले लगा लिया । ऐसा करते कभी देखा नहीं था पापा को । वो आसमान में उड़ने वालों में से थे ज़मीन पर रहने वालों का उन्हें खयाल ही नहीं था लेकिन ये अलग नज़ारा था ।

"मालिक अब हमको हमारी अमानत सौंप दीजिए ।" उस शख्स ने पापा से कहा ।

"हिम्मत तुमने हमारे लिए जो किया है उसका देना नहीं दे सकते हम ।"

पापा की बात आधे में काट कर वो शख्स बोला "आपने भी तो हमारे लिए कितना किया है । लेकिन अब समय आ गया है कि हम अपनी बेटी को अपने साथ ले जाएं । उसका बचपन भी नहीं देख पाए हम सही से । लेकिन अब उसके लिए सब करेंगे ।"

"वो सब ठीक है हिम्मत लेकिन तुम बिटिया को हमारे पास छोड़ गए थे । हमने वादा भी किया था कि जब तक तुम नहीं लौटते तब तक हम उसे अपनी बेटी की तरह पालेंगे और हमने पाला भी लेकिन हिम्मत अब वो सच में हमारी बेटी हो गई है । उसे हमसे मत छीनो । बदले में जो तुम्हें चाहिए वो मांग लो ।"

"लेकिन मालिक उसके सिवा हमारा कोई नहीं । जब वही नहीं होगी तो बाक़ी कोई चीज़ हमारे किस काम की ।"

"ज़रा सोचो, वो कितने आराम में पली बढ़ी है । क्या वो एकदम से खुद को तुम्हारे बनाए हालातों में ढाल पाएगी । बेवकूफी मत करो । अपने स्वार्थ के लिए क्यों उसकी ज़िंदगी बर्बाद करोगे ।" पापा के बहुत समझाने पर बाबा मान गए । बदले में उन्होंने बस इतना मांगा कि वो इसी घर में नौकरी करेंगे जिससे वो मेरे पास रह सकें । पापा ने मान लिया लेकिन उनसे वादा ले लिया कि मुझे इन सब बातों के बारे में ना पता चले ।

उन दोनों को ये कहां पता था कि मैं उनकी बातें सुन रही हूं । मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब सच है । मैं चाहती तो बाबा को जा कर गले लगा सकती थी लेकिन मैं उनके सामने तक नहीं गई । मुझे कुछ वक़्त चाहिए था । लेकिन ये वक्त था कि मुझे मोहलत देने को तैयार ही नहीं था । इस बात को दो ही महीने बीते थे कि पापा ने ये तय किया कि वो मुझे ले कर अमेरिका शिफ्ट हो जाएंगे । उन्हें पता नहीं था कि मैं किन हालातों से गुज़र रही हूं । उन्हें तो बस ये डर था कि कहीं मैं सब सच ना जान जाऊं । मैं जैसे पत्थर हो गई थी । मुझे अपनी पूरी ज़िंदगी एक उधार लग रही थी ।

मैं पूछना चाहती थी बाबा से कि आखिर ऐसा क्यों किया उन्होंने, क्यों नहीं मुझे अपने साथ रखा लेकिन मैं कुछ पूछने या कहने की हालत में नहीं थी । पापा कभी अच्छे से वक़्त नहीं दे पाते थे मुझे लेकिन जितनी देर भी मेरे साथ रहते खुश रहते । मां के बाद उनके लिए सिर्फ़ मैं ही तो जीने का सहारा थी । मैं उनसे उनका ये सहारा नहीं छीन सकती थी ।

पापा सब तय कर चुके थे । हम लोग वीज़ा इंटरव्यू के लिए जा रहे थे । मुझे अचानक से तुम्हारा खयाल आया मैं ये सोच के डर गई कि जब तुम लौटोगे और मैं तुम्हें नहीं मिलूंगी तो तुम्हारा क्या हाल होगा । तुम्हारा कोई फोन या चिट्ठी नहीं आई थी मगर फिर भी मैं जानती थी कि तुम ज़रूर लौटोगे । मैं ऐसे सब छोड़ के नहीं जा सकती थी । मैं अभी पापा से सब कह देना चाहती थी ।

"पापा ।"

"हां बे……।" इससे आगे कोई आवाज़ नहीं आई । एकदम सन्नाटा छा गया । लगा जैसे किसी ने गले की आवाज़ छीन कर घने अंधेरे कमरे में बंद कर दिया हो । हाथ पैर झटके मगर सब स्थिर था । कुछ याद नहीं कि क्या हुआ । जब आंख खुली तो हॉस्पिटल में थी । बाबा मेरे पास थे । मैं बोलने तक की हालत में नहीं थी । मैंने पूछना चाहा पापा कहां हैं ? मगर मैं पूछ ना पाई । हां बाबा के बह रहे आँसूओं ने ज़रूर बता दिया कि पापा नहीं रहे । वो एक भयानक एक्सीडेंट था । मन हुआ की दौड़ कर जाऊं और पापा को खोज लाऊं । मगर तभी अहसास हुआ कि पापा के साथ साथ मेरे दोनों पैर भी मुझसे छीन लिए हैं किस्मत ने ।

एक साल लग गया सिर्फ़ बैठने में । बाबा हर पल साए की तरह मेरे साथ रहने लगे । पहले जो ज़िंदगी उधार की लग रही थी वो अब बोझ लगने लगी । ज़्यादा बात नहीं होती थी हमारी । वो समझ रहे थे कि मुझे सच नहीं पता लेकिन मैं यहां सब जानती थी । उनके पास तो जीने की वजह थी लेकिन उनकी वजह के पास जीने का कोई मक़सद नहीं बचा था । मैं खुद को खत्म करने का मन बना चुकी थी लेकिन किस्मत को तो यहां कुछ और ही मंज़ूर था । जाना मुझे था और चले हरीलाल गए । पापा ने हमेशा मुझे सहेज कर रखा था और उनका सहेजना ही मेरा अकेलापन बन गया था ।

हमउम्र बच्चों के पास अपनी बातें थीं, अपनी बड़ाई थी, लेकिन अपनापन किसी के पास नहीं था इसलिए स्कूल से ही मेरे दोस्त बच्चे नहीं बल्कि वहां काम करने वाले ऐसे लोग होते थे जिनसे कोई नहीं बात करता था । इसी तरह कॉलेज में भी मैं अक्सर हरीलाल और उर्मिला काकी के पास बैठा करती थी । मेरे ऐक्सीडेंट के बाद कई बार मिलने आए थे ये दोनों मुझसे । उर्मिला काकी ने ही बताया कि हरीलाल अपने 3 साल के पोते को अकेला छोड़ इस दुनिया साए चले गए । हरीलाल का पोता रमन ही मेरे जीने की वजह बना । पापा बहुत बड़ी जायदाद छोड़ गए थे जिसे भोगने वाला कोई नहीं था ।

मैंने सोचा मेरे जैसे कई ऐसे बच्चे होंगे जिनकी ज़िंदगी उधार की होगी या फिर कोई संभालने वाला नहीं होगा उन्हें । मैंने तय कर लिया कि मैं ऐसे ही बच्चों को आसरा दूंगी और कोशिश करूंगी कि उन सबका भविष्य संवार सकूं । मैंने बाबा को तुरंत भेजा और रमन की ले आने को कहा । इसके बाद तो बस यही सब चलता रहा ज़िंदगी में ।

इसी बीच पता चला कि तुमने अपनी मंज़िल पा ली है । कॉलेज की तरफ से पूरे शहर में पर्चे बंटवा दिए गए कि उनके यहां के छात्र ने यूपीएससी परीक्षा में 32वां रैंक प्राप्त किया है । हमारा सपना पूरा हो चुका था, अब हम एक होने वाले थे । मैं बहुत दिनों बाद इतनी खुश हुई थी लेकिन इस खुशी में फर्क था । अब मैं हमारे लिए नहीं बल्कि सिर्फ़ तुम्हारे लिए खुश थी । मैंने फैसला कर लिया था कि तुम्हारा मेरा यहीं तक का साथ है । मैं तुम पर बोझ बन कर नहीं रहना चाहती थी ।

मैं ये भी जानती थी कि तुम मुझे खोजते हुए ज़रूर आओगे । मैंने ही बाबा से कहा था कि वो तुम्हें यहां से भेज दें और कहें कि वो मुझे नहीं जानते । वैसे भी उन्होंने झूठी कसम नहीं खाई थी, पापा को कोई औलाद नहीं थी । बाबा ने झूठ नहीं कहा तुमसे बस सच छुपाया । वो वक्त मेरे लिए ज़िंदगी का सबसे मुश्किल वक्त था जब मुझे जान से ज़्यादा प्यार करने वाला शख्स मेरे सामने मेरे लिए ही रो रहा था और मैं उसके आंसू तक ना पोंछ पाई ।

हम लोग किसी नई जगह संस्था शुरू करने जा रहे थे । बहुत याद आ रही थी तुम्हारी । लगा कि नहीं रह पाऊंगी तुम्हारे बिना । मसूरी एकेडमी का नंबर मेरे पास था । स्टेशन से तुम्हें फोन लगाया मगर तुम्हारी आवाज़ सुनने के बाद मन बदल दिया । मैं अपनी खुशी के लिए तुम्हारी मुश्किलें नहीं बढ़ाना चाहती थी । दूसरी तरफ ये भी डर रहता था कि कहीं तुम मेरे लिए अपनी ज़िंदगी ना बर्बाद कर लो । बाबा को हर वक़्त तुम्हारे पीछे लगा रखा था । वो तुम्हारे ही आसपास होते और तुमसे जुड़ी हर जानकारी मुझे मिल जाती । जिस दिन शादी हुई तुम्हारी उस दिन मैंने चैन की सांस ली । उस दिन के बाद से मुझे तसल्ली हो गई कि अब तुम ठीक हो ।

"यही थी मेरी कहानी । यही थी वो वजह जिस वजह से मैं तुमसे दूर रही । और कुछ भी पूछना हो तो पूछ लो ।" अपनी सारी बात बताते हुए उसने चैन की सांस ली । उसने अपनी सांस पूरी भी नहीं की थी कि एक ज़ोरदार थप्पड़ उसकी गाल पर पड़ा । वो बिना किसी भाव के चेहरा लिए मुझे देखती रही । समझ ही ना पाई कि ये क्या हुआ ।

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भाग अंतिम


उसके गालों पर पड़ा चाँटा इतना ज़ोरदार था कि बाहर खड़े तीनों लोग अंदर आ गए भागते हुए । वो लड़की कुछ समझ ही ना पाई कि आखिर मैंने क्यों उसे ये थप्पड़ मारा । उसके गालों पर बना निशान बता रहा था कि मैंने उस पर हाथ उठाया है । मैंने अपराध किया है ।

"तुम पागल हो गए हो ? क्यों मारा इसे ।" सलोनी आगे बढ़ कर उसके चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए मुझ पर चिल्लाई ।

उसे कैसे समझाता कि क्यों मारा मैंने उसे थप्पड़ । आपकी उम्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा बीत गया हो किसी की तलाश करते हुए । सालों तक आप हर पल इस बात की फिक्र करते रहे हों कि वो ठीक तो है, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया । आप अपना मान सम्मान घर परिवार सब दांव पर लगा दो उसे खोजने के लिए और एक दिन वो अचानक से सामने आ कर कह दे कि ये सब उसने जान बूझ कर किया था । इतना ही नहीं बल्कि ऐसा करने का कारण जो बताया जाए वो ये कि मैं तुम पर बोझ नहीं बनना चाहती थी !

उस वक़्त लगता है कि दुनिया आप पर हंस रही है आपका मज़ाक उड़ा रही है । मतलब कि आप सामने वाले को इतना यकीन तक ना दिला पाए कि आप हर हाल में आप उसके साथ रहेंगे ? आपके प्यार की यही मजबूती थी ? शायद कोई हो जो ऐसे हालात में शांत रह जाए मगर वो कोई मैं तो नहीं था । मेरी सालों की खामोशी गुस्से में बदल गई थी । उसकी पूरी कहानी सुनने तक मैंने खुद को रोके रखा लेकिन जब पता लगा कि उसने ऐसा क्यों किया तो मैं बर्दाश्त ना कर पाया ।

"उसे मत रोको सलोनी । ये उसका हक़ है । जितनी बुरी तरह से मैंने उसे तड़पाया है उसके सामने ये एक थप्पड़ कुछ भी नहीं ।"

"ये मेरी तड़प के लिए नहीं था । मेरी तड़प तो मेरे प्यार का सबूत है । प्यार ना होता तो तड़प क्यों होती ? ये थप्पड़ था उस कमज़ोर यकीन के लिए जिसने तुम्हें ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि तुम्हारी हालत तुम्हें मुझ पर बोझ बना देगी । क्या सच में ? सच में तुम्हें ऐसा लगता रहा । मैं यकीन नहीं कर पा रहा । इतने साल मुझे गुमराह कर के रखा, मेरी ज़िंदगी एक उलझी हुई पहेली बना दी सिर्फ़ इसलिए कि तुम चल नहीं सकती ? फिर क्यों अपने बाबा को खुद से दूर नहीं कर दिया तुमने ? क्योंकि वो तुम्हारे पिता थे, जो उन्होंने किया वो उनका फर्ज था ? तो फिर मुझे ये हक़ क्यों ना दे सकी तुम ? कम से कम मुझे आज़माया तो होता । तुम्हें क्या लगता है तुमने जो किया उसके बाद मैं खुश रहा ? नहीं इससे ज़्यादा खुश रहता तब जब तुम मेरे साथ रहती । तुमने ज़िंदगी बर्बाद कर दी हमारी, हम सबकी ।" वो कटघरे में थी और ज़िंदगी के आगे मैं अपनी दलील रख रहा था । हर कोई वहां मूक दर्शक था । मैं मान ही नहीं पा रहा था कि मुझे उसने छल लिया है जो मुझे सबसे ज़्यादा प्यार करता है ।

मेरी बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था । बाबा हमेशा की तरह चुप थे । वो शायद वही बात बोलते जो उन्हें बोलने के लिए कहा जाता था । मेरे अंदर का गुस्सा शांत होने का नाम नहीं ले रहा था ।

"तुम्हें याद था ना कि मुझे तुम्हारा उधार चुकाना है ? तय हुआ था ना कि मेरे अफसर बनने के बाद मैं ये करूंगा । तो कम से कम उस उधार के बदले ही मुझे आवाज़ दे ली होती । सोचो अगर मुझ पर ऐसी कोई विपत्ति आई होती तो तुम क्या करती ? क्या तुम छोड़ देती मेरे हाल पर ।"

"नहीं बिल्कुल नहीं । मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती ।"

"तो तुमने मेरे बारे में ऐसा कैसे सोच लिया ?"

"तुम पहले से अपनी ज़िंदगी में उलझे हुए थे । तुम्हें सिर्फ़ खुद के ही हालात नहीं बल्कि अपने परिवार के हालातों को भी सुधारना था । मैं ऐसे वक़्त में तुम्हारे लिए नई परेशानी खड़ी नहीं करना चाहती थी ।"

"परेशानी ? मेरी ज़िंदगी नर्क कर दी तुमने अपनी परेशानी छुपाते छुपाते ।" मैं चिल्लाता हुआ आगे बढ़ा । उसके पास पहुंचता उससे पहले ही सलोनी ने मुझे ज़ोर से धक्का दिया ।

"बस करो तुम दोनों । तुम्हारी ये सही गलत की बहस का कोई अंत नहीं है । जो कुछ भी हुआ उसमें कुछ सोचा समझा नहीं था । इसने जो भी किया तुम्हारे भले के लिए किया । एक बार इसके नज़रिए से भी तो सोच कर देख । तुम पूछ रहे हो कि तुम्हारे साथ ऐसा हुआ होता तो ये क्या करती मगर खुद से पूछो कि उस हालत में तुम क्या करते ? क्या ये चाहते कि ये सारी उम्र तुम्हारे आगे पीछे करते हुए बिता दे ? क्या तुम्हें मंज़ूर होता इस पर बोझ बनना ? यही तो दिक्कत है कि हम सब सिर्फ़ अपने नज़रिए से देख कर सही गलत का फैसला कर लेते हैं जबकि ज़रूरी है कि एक बार हम सामने वाले के नज़रिए से देखने की कोशिश करें । तुम अच्छे से जानते हो कि इन हालातों में मेरा तुम्हारे साथ होना सामान्य नहीं है । होना ये चाहिए कि इतने सालों तक सच छुपाने की बात जान कर मैं तुम्हारी शक्ल तक ना देखूं । जितना दोषी तुम इस लड़की को मान रहे हो मेरे लिए तुम भी इतने ही बड़े दोषी हो । शायद इससे बड़े ही क्योंकि इसने जो किया तुम्हारे लिए किया मगर तुमने हर बात जानबूझ कर छुपाई मुझसे । बताओ इसके लिए क्या सज़ा हो तुम्हारी ? लेकिन मैं इतना नहीं सोच रही क्योंकि मैंने तुम्हारे नज़रिए से भी देखा है और मुझे ये सही भी लगा । तुम भी एक बार इसे अपने नज़रिए से देख के फैसला करो ।" सलोनी की एक एक बात का असर हुआ था मुझ पर । गलत तो मैं भी था और बहुत ज़्यादा था लेकिन सलोनी ने मुझे समझा ।

"बहुत फैला चुके तुम दोनों अपना रायता । अब खुद को और हमें थोड़ा चैन से जी लेने दो । 15 मिनट का समय है तुम्हारे पास, सब समेट लो और अब उलझन से निकलो बाहर ।" सलोनी इतना कह कर बाबा और गौरव को अपने साथ बाहर ले गई । मैं उसे देखता ही रह गया । पहले कभी उसका इस तरह का रूप नहीं देखा था ।

सलोनी की बातों ने मेरे गुस्से को ग़ायब कर के मुझ में शर्मिंदगी भर दी थी । बहुत सी बातें थीं जो मुझे अब भी गलत लग रही थीं मगर इसके बावजूद अब मुझे उस लड़की से कोई शिकायत नहीं थी । मैं धीरे धीरे उसके पास गया ।

उसके सामने बैठते हुए उसका गाल सहला कर मैंने पूछा "ज़ोर से लगी ?"

ठीक इसी वक़्त एक लहराता हुआ हाथ मेरे गाल पर पड़ा । और इसके बाद वो बोली "इससे थोड़ा ज़्यादा ज़ोर से लगी थी ।" मुझे समझ ही ना आया कि मैं हंसू या फिर गुस्सा करूं ।

"वैसे बीवी कड़क चुनी है तुमने । पहले जब थप्पड़ खाया तुम्हारा तो लगा कि अदला बदली वाली बात सही नहीं है मगर तुम्हारी बीवी को देख कर मैं फिर कहूँगी मुझसे ना सही उसी से अदला बदली कर लो ।" उसकी इस बात पर हम दोनों हंस पड़े । सालों की दूरियां मिट गईं । कुछ देर बाद सब ऐसे था जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं है ।

मुझे सुबह तक लौटना था इसीलिए अभी निकलना ज़रूरी था । सच मानें तो दिल कह रहा था कि उसे अब अपनी आंखों से दूर ना जाने दूं लेकिन इतना कहने की हिम्मत नहीं थी । अब निकलना था । बाबा से मैं नज़रें नहीं मिला पा रहा था लेकिन उन्होंने मुझे माफ कर दिया ।

जब मैं उनके पास गया तो उन्होंने मुझसे कहा "हर पिता चाहता है कि वो अपनी बेटी के लिए एक ऐसा लड़का खोजे जो उसे उससे भी ज़्यादा मानता हो, जिसके लिए वो दुनिया से लड़ जाए । बचपन में हम भी यही चाहते थे । इसकी मां इसको जन्म देते ही चल बसी थी उसके बाद से मेरे जीने का सहारा यही थी । मामूली से ड्राइवर थे हम लेकिन चाहत ये थी कि अपनी बच्ची को राजकुमारी की तरह रखें । अपने भर तो कोशिश करते रहते थे लेकिन गरीब इंसान के लिए तो रोटी तक आफत हो जाता है । हां मगर इसके नसीब में गरीब रहना नहीं लिखा था । करम का खेला है सब ।

मालिक और हम एक दिन कहीं जा रहे थे । लौटते हुए अंधेरा हो गया । हम अपना मस्ती में थे तभी दो लोग हमारा रास्ता रोक दिए । हाथ में पिस्तौल था उनके । हम डर गए । गाड़ी रोक दी और हम मालिक के साथ गाड़ी से उतर गए । दोनों लोग का प्राण सूख रहा था । दोनों बदमाश मालिक का जेब तलाशने लगे, गाड़ी देखने लगे तब तक हम भिड़ गए उनसे । जिसने पिस्तौल पकड़ा था उसके से पिस्तौल छिटक गया । इस हाथापाई में एक तो बेहोश हो गया । दूसरे ने मालिक को दबोच लिया । हम एकदम असहाय हो गए कुछ नहीं सूझा । तभी हमको पिस्तौल दिखा और बिना देर किए उसे उठा कर बदमाश पर तान दिए । हमारा पूरा शरीर कांप रहा था । एक चींटी भी हमको काट लेता था तो उसको मारने की जगह उठा कर अलग रख देते थे । ऐसे में भला किसी आदमी को कैसे मार देते । लेकिन शायद ये बात उस बदमाश को भी पता था कि हम उसको नहीं मार सकते इसीलिए उसका शिकंजा मालिक के गर्दन पर कसता जा रहा था ।

मालिक कहने की कोशिश कर रहे थे कि हम गोली चला दें । हमारा अन्नदाता मर रहा था कब तक खुद को रोकते । गोली चला दिए । वो बदमाश वहीं ढेर हो गया । हम बुरी तरह से डर गए थे । मालिक हमको समझाने लगे । बोले कि पुलिस को पता चल ही जाएगा और वो हम तक पहुंच जाएगी । हमारी छवि बहुत अच्छी है लेकिन अगर हम इस हत्या में फंसे तो हमारा बिज़नेस और प्रतिष्ठा दोनों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा ।

मालिक ने हमको कहा कि तुम्हारी बेटी को हम अपनी बेटी की तरह रखेंगे । उसे हर सुख सुविधा और पिता का प्रेम देंगे बस तुम पुलिस के पास जा कर स्वीकार कर लो कि ये खून तुमने किया है और हम तुम्हारे साथ नहीं थे ।

आत्मरक्षा में मारे थे उसे हम, कोई हत्या नहीं किए थे । मालिक चाहते तो हम दोनों को बचा लेते । लेकिन उनका प्रतिष्ठा पर पड़ रहा था । ऐसे तो हम ना मानते लेकिन बदले में जो मिल रहा था उसके लिए हम फांसी चढ़ने को भी तैयार थे । इस तरह हम अपराधी हो गए । जानते हैं आदमी कितना भी महात्मा काहे ना हो मगर बात जब त्याग का आता है ना तो वो घमंड ज़रूर करने लगता है । बिना फल की इच्छा के तो लोग भगवान तक को नहीं पूजता । हमें भी यही घमंड था कि हम अपनी बेटी के लिए इतने साल का बनवास काटे हैं । एक पिता जिसने अपनी बेटी के नाम आधी ज़िंदगी लिख दी हो वो अपने त्याग पर गर्व कैसे ना करेगा । लेकिन जब आपको देखते हैं तो हमारा घमंड चूर चूर हो जाता है ।

हमें कम से कम ये तो पता था कि हमारी बेटी सुरक्षित ही नहीं बल्कि बहुत बेहतरीन ज़िंदगी भी जी रही है लेकिन आप तो सालों उससे दूर रहे बिना ये जाने कि वो किस हाल में है । हमको इस बात का गर्व है कि हमारी बेटी ने दुनिया के उन चंद लोगों में किसी एक से प्रेम किया जो प्रेम को समझता है । आपके इस प्रेम ने हमारे त्याग को बौना साबित कर दिया साहब । आपसे हर बार सच छुपाते हुए हमारे मन पर क्या बीती है ये हम ही जानते हैं । कई बार मन हुआ कि आपसे सच कह दें लेकिन बेटी के मोह ने हर बार रोक लिया हमें । आप माफ़ी ना मांगिए बल्कि हमको माफ कर दीजिए ।"

बाबा ने रोते हुए अपने हाथ जोड़ लिए । एक पिता का स्नेह अच्छे से नहीं मिल पाया था मुझे और जो चीज़ नहीं मिलती उसकी कद्र आप बहुत अच्छे से जान पाते हैं । मैंने बाबा को गले लगा लिया । सारे गीले शिकवे मिट गए ।

अब हमें निकलना था । सलोनी और गौरव अपनी गाड़ी में बैठ गए और मैं अपनी गाड़ी से निकलने वाला था । भारी मन के साथ गाड़ी स्टार्ट की और उसी वक़्त उसकी आवाज़ सुनाई दे दी ।

"इतनी मुश्किल से खोजा है, अब क्या यहीं छोड़ जाओगे ? फिर से गुम हो गये तो ?" मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई । मैंने सलोनी की तरफ देखा, वो भी मुस्कुरा रही थी । हमने उसे गाड़ी में बिठाया और निकल पड़े ज़िंदगी के एक नए सफर की ओर ।

वो अब यहीं रहती है । हमारे शहर में । यहां की संस्था वही संभालती है । मेरे साथ साथ सलोनी सागर सुनीता और लक्ष्मी सब समय समय पर उससे मिल जाया करते हैं । मेरे लिए थोड़ा मुश्किल ज़रूर हो गया है ये सब क्योंकि मुझे अपने कर्तव्य, परिवार और अपनी इस संस्था वाली को समान्यरूप से लेकर चलना पड़ता है । लेकिन यहां भी सलोनी मेरे लिए मौजूद रहती है । सलोनी को ये डर तो नहीं रहा कि वो लड़की मुझे उससे छीन लेगी मगर अब उसे ये डर ज़रूर रहता है कि कहीं सागर उस लड़की को अपनी नई मां के रूप में गोद ना ले ले । दोनों की बनती ही इतनी है । सागर अब उससे मिलने की जिद करता रहता है । सलोनी कई बार चिढ़ कर कह देती है कि ना जाने क्या जादू कर दिया है इसने दोनों बाप बेटों पर ।

मैं उसकी सभी संस्थाओं के बच्चों के लिए कुछ बेहतर करने की कोशिश करता रहता हूं इस उम्मीद में कि उसका दूध और रिक्शे के किराए वाला उधार चुका सकूं । वैसे सच बताऊं तो मुझे खुद को बहुत अच्छा लगता है अपने जैसे बच्चों के लिए कुछ करना और उन्हें प्रोत्साहन दे कर आगे बढ़ाना । वो लड़की अब हमारा परिवार है । कई बार वक़्त चुरा कर मैं उसे आंख भर देख आया करता हूं । उसका आसपास होना सुकून देता है मुझे और इसी सुकून को देख कर सलोनी भी खुश रहती है । उसका विश्वास अब और बढ़ गया है और मुझे हमेशा इस विश्वास को बनाए रखना है ।

"अब आपको अदला बदली करने की ज़रूरत नहीं दिवाकर बाबू । एक पुरुष को ऐसा ही होना चाहिए जो प्रेम को सही से जान सके और समझ सके और आप ऐसे ही हैं ।"

"सही कहा सुनैना, और बहुत बहुत शुक्रिया ये मानने के लिए कि मैं जैसा हूं सही हूं ।" मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा । जिसके बाद सब हंस दिए । इसी ठहाके के साथ हमारी कहानी का एक अध्याय खत्म हुआ ।

उम्मीद है अब ज़िंदगी इसी तरह हंस कर कटती रहेगी । अगर कभी मन हुआ आपसे बातें करने का तो मिलूंगा नए अध्याय के साथ । तब तक आप भी अपनी ज़िंदगी में मुस्कुराते रहें ।

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नोट : यह कहानी मेरे फेसबुक, मेरी ब्लॉग तथा अन्य पटलों पर भी मेरे नाम से प्रकाशित है । कहानी पूर्णतः मेरी कल्पना है और इस पर मेरा मौलिक अधिकार है ।


धीरज झा

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