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काश तुमने कह दिया होता

काश तुमने कह दिया होता

कभी- कभी कुछ यादें ऐसी होती हैं जो इंसानियत और रिश्तों से विश्वाश तार-तार कर देती हैं। (पहचान छिपाने के लिए मैंने नाम व स्थान बदल दिया है। मेरे ख्याल से यह जरूरी है।)
सर्दी की एक गुनगुनी दोपहर में मैंने स्कूल से लौटते हुए उनको देखा था। वह सिर झुकाए जा रही थीं। कंधे तक कटे हुए बाल, सफेद शर्ट जिसमें लगातार धुलते- धुलते पीलापन आ गया था और हरे रंग की घुटनों तक की स्कर्ट, काले जूते और सफेद मोजे। एक नजर में वह मुझे बहुत आकर्षक लगीं। मैंने उन्हें स्कूल के गेट से निकलने के बाद अपनी सहेलियों को मुस्कुरा कर बाय करते देखा था। उनकी वह मुस्कान मुझे दुनिया की सबसे सुंदर मुस्कान लगी थी।
यह इत्तफाक था कि जिस सड़क से मैं जा रही थी वह भी उसी सड़क से घर लौट रहीं थीं। वह मेरे आगे थीं। स्कूल से घर का रास्ता मुश्किल से दस मिनिट का रहा होगा। मैं यह देखकर चौंक गई कि उनका घर मेरे घर से थोड़ा सा ही दूर था। ' इतने समय में मैंने इनको कभी देखा कैसे नहीं!', मैं खुद से ही सवाल कर रही थी।
अगले दिन स्कूल में भोजन अवकाश के मध्य मेरी नजर उनको ही ढूंढ रही थी लेकिन इतने बड़े स्कूल कैम्पस में उनको एक जगह बैठे- बैठे ढूंढना भी तो भूसे के ढेर में सुई ढूंढने जैसा था। मेरे साथ मेरी कुछ सहेलियां भी थीं जिनमें से एक वहीं रहती थी जिस गली के घर में मैंने उनको जाते हुए देखा था। मगर मुझे तो उनका नाम भी नहीं पता था तो उससे क्या पूछती वैसे भी वह इकलौता कन्या विद्यालय था। लगभग सभी लड़कियां उसी स्कूल में पढ़ने आती थीं।
छुट्टी के समय वह मुझे कहीं नहीं दिखीं शायद आज वह स्कूल नहीं आई थीं। शाम को साइकिल चलाते हुए मैं जानबूझकर कई बार उसी गली से उनके घर के सामने से निकली पर वह मुझे नहीं दिखीं।
उसके बाद कई दिन तक मैंने उनको नहीं देखा। न जाने क्यों, मैं उनकी उस मुस्कुराहट को देखना चाहती थी। मैं एक आकर्षण में बंध गई थी।
एक दिन मैं अपनी सहेली के साथ घर लौट रही थी।तभी मैंने देखा कि वह एक दूसरी गली पर खड़ी हुई एक लड़के से बात कर रही थीं। उन दिनों यूँ सरे आम किसी लड़के से लडकियों का बातें करना अच्छा नहीं माना जाता था। लेकिन मेरा ध्यान इस बात पर नहीं था।मैं तो केवल उनको मुस्कुराते हुए बातें करते देख रही थी।
मेरी सहेली ने मेरी निगाहों का पीछा करते हुए उनकी तरफ देखा और कहा," वह अच्छी लड़की नही है।"
"क्यों, बात करने में क्या बुराई है!", मुझे उनके बारे में अपनी सहेली का ऐसा बोलना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा।
" वह हर किसी से बात करती है।", कहते हुए उसने मुँह बिचका दिया। अब तक उसका घर आ गया था।
" उनका नाम क्या है रश्मि?"
" सुजाता, उसकी मम्मी पागल हैं इसलिए उनके पापा घर में ही बन्द रखते हैं उनको ।", उसने खुद से ही बता दिया।
मेरी जिज्ञासा बढ़ी," और कोई नहीं है क्या उनके घर में और उनकी मम्मी पागल हैं तो शादी क्यों की अंकल ने?"
" ये सब मुझे नहीं पता कि क्यों की शादी लेकिन एक भाई और है उनका। अब मैं चलती हूँ ,बाय।", कहकर वह चली गई।
मैं घर आने के बाद भी काफी देर तक उनके यानि सुजाता के बारे में सोचती रही। शाम को साइकिल चलाने के बहाने मैं रश्मि के घर चली गई। मैं सुजाता दीदी के बारे में और जानना चाहती थी।
रश्मि के साथ छत पर टहलते हुए मैंने बातों ही बातों में फिर से सुजाता दीदी का जिक्र छेड़ दिया। रश्मि से पता चला कि वह ग्यारहवीं कक्षा में हैं। हम लोग उस समय सातवीं कक्षा में पढ़ते थे। मुझे अब भी समझ नहीं आया था कि रश्मि ने उनको बुरी लड़की क्यों कहा था। तभी मैंने देखा कि वह भी अपनी छत पर किताब पढ़ती हुई टहल रहीं थीं। मैं उनसे बात करना चाहती थी लेकिन संकोचवश चुप ही रही और दूसरी बात रश्मि भी साथ थी।
अचानक वह छत से चली गईं। शायद किसी ने उनको आवाज दी थी।
थोड़ी देर बाद मैं भी अपने घर चली गई। इसके बाद भी अक्सर मैं उनको आते- जाते देखती थी लेकिन उनसे बात करने की हिम्मत ही नहीं कर पाती थी। एक दिन स्कूल में बहुत गर्मा गर्मी थी। हर कोई आपस में किसी एक ही विषय में बात कर रहा था, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन किसी लड़की के बारे में बात हो रही थी।
क्लास में रश्मि ने बताया कि सुजाता दीदी घर से भाग गईं। मैं हक्की-बक्की होकर उसकी शक्ल देखती रह गई। घर से भागना कोई छोटी- मोटी बात नहीं थी। " क्यों भागी? उसी लड़के के साथ?"
लेकिन मेरे सवाल का जबाब रश्मि पर नहीं था। हमारी क्लास टीचर ने जब यह सुना तो एक ठंडी सांस भरकर कहा," चलो, अच्छा ही है एक तरह से!"
मैं उनकी इस प्रतिक्रिया पर हैरान थी। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। सुजाता दीदी का चेहरा बार- बार आंखों के आगे आ रहा था। आखिरकार मुझे इस बात का जबाब मिला हमारी सीनियर दीदी जया से जो उनकी ही क्लास में थीं और हमारे पड़ोस में रहती थीं। उन्होंने भीगी आंखों से बताया कि उनके पापा उनके साथ गलत काम करते थे। माँ की मानसिक स्थिति ठीक न होने के कारण वह भी अपनी बेटी की कोई मदद नहीं कर सकती थीं। बड़े भाई को जब यह सब पता चला तो बजाय बहन की सहायता करने के उसने भी मौके का फायदा उठाया बल्कि वह तो अपने दोस्तों को भी घर ले आता था और पैसों के बदले......।
"जब सुजाता विरोध करती तो उसके पापा और भाई दोनों उनकी बुरी तरह पिटाई करते थे और .... बेहद बुरा करते थे उसके साथ। वह बिस्तर से कई दिन तक उठ नहीं पाती थी।", जया दीदी इतना बताकर चली गईं।
' इसी कारण वह अक्सर स्कूल की छुट्टी कर लेती थीं।', मेरी आँखों से आंसू बहने लगे थे। उस छोटी उम्र में बहुत कुछ न समझते हुए भी मैं काफी कुछ समझ गई थी।
" बाहर जा कर भी इससे बुरा तो आपके साथ नहीं होगा लेकिन आपको कम से कम ये तसल्ली तो होगी कि वे आपके अपने नहीं।", यह कहती हुई मैं सुबुक- सुबुक कर रो उठी थी। इसके बाद मैं बहुत दिन तक अनमनी रही। पापा से भी अनजाने ही दूरी बना कर बैठने लगी थी। फिर से सामान्य होने में मुझे थोड़ा समय लगा। यह एक ऐसी घटना थी जो आज भी याद आती है तो मन ही मन सिसक उठती हूँ एक प्यारे से चेहरे की मुस्कान याद करके। " सभी की तरह मुस्कुराते रहने का उनका भी हक़ था। शायद आपने सही किया लेकिन अच्छा होता अगर आप हिम्मत कर के पुलिस में उनकी रिपोर्ट करवा देती।साथ ही वे लोग भी चुप क्यों रहे जिन्हें सब पता था। काश तुमने कह दिया होता तो एक मुस्कान यूँ न खोती"
मेघा
मौलिक, स्वरचित,

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