अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे-भाग-19
चलो जान छूटी
“तुम्हारी शादी हो गई उस मत्स्यकन्या या जलपरी से अथवा मरमेंड या जो भी तुम कहो, उससे?” उस नवागंतुक डाकू ने व्यंग पूर्वक मुस्कुराते हुये व्यापारी की ओर देखा। व्यापारी की दृष्टि उसकी आंखों पर पड़ी। वे आंखें जैसे बाण की तरह उसकी आत्मा को बेध रही हैं। ये आंखें व्यापारी के स्मृतिपटल पर कौंध उठती हैं। ये आंखें कहीं देखी हुई हैं। कहाँ और कब, इसका जवाब उसके पास नहीं है।
“हाँ।” विचारों में खोये हुये व्यापारी ने उत्तर दिया।
“तो, तुम्हारी पत्नि एक मत्स्यकन्या है?” अपनी तीव्र दृष्टि व्यापारी के चेहरे पर गड़ाये हुये उसने पूछा।
“नहीं, किंतु वह एक अलग कहानी है।” व्यापारी ने थोड़ा खिन्न होकर उत्तर दिया।
“और वो कहानी क्या है?” उस नवागंतुक डाकू ने पूछा।
व्यापारी जैसे विचारों में खो गया।
वे चारों और उनका कुत्ता शेरु, उस मैंदान को पार कर चुके थे और अभी पहाड़ पर चढ़ रहे थे। वे अपनी आगे बढ़ने की गति नहीं बढ़ा पा रहे थे। नीचे मैंदान में जंगली कबीलों और राजा की सेना के बीच युद्ध जारी था। इस कारण इनकी चिंता दुहरी हो गई थी। शायद वे नीचे से किसी की नज़र में आजायें और कोई उन्हें निशाना बना ले अथवा कोई भटका हुआ बाण ही आकर किसी को बेध दे।
इस कारण वे चट्टानो और वृक्षों की आड़ लेकर छुपते छुपाते ऊपर की ओर बढ़े जा रहे थे। अचानक एक तेज़ गड़गड़ाहट की आवाज़ ने उनके कदमो के साथ ही उनकी सांसों को भी रोक दिया। व्यापारी ने ऐसी कोई आवाज़ पहली बार सुनी थी और वह समझ नहीं पा रहा था कि यह आवाज़ कैसी है और किस तरफ से आ रही है। वे स्तब्ध रह गये। ऐसा लग रहा था वह गड़गड़ाहट उनके सिर पर ही थी। प्रथम प्रतिक्रिया स्वरूप वे वृक्षों और चट्टानों के पीछे छिपने का प्रयास करने लगे। क्या कोई भूकम्प आया है? या हम हिमस्खलन में फंस चुके हैं? इस गड़गड़ाहट के साथ पहाड़ पर एक कम्पन सा आभास था।
वे ऊपर की ओर देखने लगे। तभी उनकी दांई ओर से कई चट्टानें लुढ़कती हुई नीचे घाटी में युद्ध स्थल की ओर बढ़ी और वहाँ हाहाकार मच गया। उन चारों से थोड़ी ही दाहिनी ओर ऊपर की ओर जंगलियों ने मोर्चा ले रखा था और वे ऊपर से राजा की सेना पर चट्टाने लुढ़का कर उन्हें अपने निवास स्थलों से दूर रखने का प्रयास कर रहे थे। नीचे घाटी के मुहाने पर एक संकरा रास्ता था जो जंगलियों के क्षेत्र की ओर जाता था। पत्थरों से वह रास्ता आधा पट चुका था।
अब उनके पास ऊपर जाने की बजाये बांई ओर चलते हुये पहाड़ की दूसरी ओर पहुंचने के सिवाय कोई चारा न था। यह रास्ता अपेक्षाकृत आसान तो था लेकिन लम्बा और जोखिम भरा था।
लगातार चलते हुये आधा रास्ता पार करने में उन्हें शाम हो गई। वे युद्धक्षेत्र से तो बहुत दूर आ चुके थे, किंतु अब उन्हें रात गुज़ारने की व्यवस्था करनी थी। नीचे से सागर की लहरों की आवाज़ भी आ रही थी।
“अब यहाँ से सागर तट अधिक दूर नहीं है। सवेरे बांई ओर नीचे को बढते जाने पर एक सागर तट मिलेगा जो पहाड़ों से घिरा हुआ है। कई जहाज़ और नौकायें वहाँ डूब चुकी हैं। वह जगह व्यापारी खजानों से भरी पड़ी है। मुझे विश्वास है वहाँ तुम्हारी खोज ज़रूर पूर्ण होगी।” उसने अर्थपूर्ण नज़रों से व्यापारी की ओर देखा। व्यापारी अब भी चिंतित लग रहा था।
“अब तुम खतरे से बाहर आ चुके हो। आज की रात यहीं विश्राम की व्यवस्था करनी होगी और फिर रात भर इसकी कथा भी तो सुननी होगी; किंतु यह समाचार मुझे जाकर सरदार को सुनाना होगा अतः मैं चलता हूँ।” कहते हुये वह अचानक पीछे मुड़ा और नीचे खाई में कूद गया।
शेरू यह देख बेचैन होकर नीचे खाई की ओर मुंह करके ज़ोर ज़ोर से भौंकने लगा। उसके स्वर में प्रलाप अधिक था। वे तीनों भी अनहोनी की आशंका से नीचे खाई की ओर झांकने लगे। नीचे खाई में उन्हे एक घुड़सवार नज़र आया जो तेज़ी से उनसे दूर जाता हुआ आंखों से ओझल हो गया।
“वह ऐसा ही है।” एक डाकू ने राहत की सांस लेते हुये कहा।
“हाँ, अद्भुत और अविश्वस्नीय कारनामें करने वाला।” दूसरा बोला।
‘चलो जान छूटी...’ व्यापारी ने चैन की सांस ली।
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रात, पहाड़ के आर-पार अपनी काली चादर फैला चुकी थी। वे पहाड़ की आधी ऊंचाई पर स्थित एक विशाल चट्टान पर अपना रात्रिकालीन ठिकाना बनाये हुये थे।
“तो फिर, सेनापति के उस गुप्तचर का क्या हुआ?” उसके दोनो नियमित श्रोता, दोनो डाकुओं में से एक ने पूछा। और रुकी हुई कथा एक बार फिर चल पड़ी। रात गहराती जा रही थी। दूर कहीं बहुत दूर से सागर की लहरों के स्वर रात के साथ मिलकर नई कल्पनाओं और नये रहस्यों का निर्माण कर रहे थे। लेकिन व्यापारी का मन अपनी कथा की दुनिया से दूर किन्ही रहस्यों में उलझा हुआ था।
इन डाकुओं के उस रहस्यमई साथी की बात, किसी रहस्य की ओर इशारा कर रही थी।
“... मुझे विश्वास है, वहाँ तुम्हारी खोज ज़रूर पूर्ण होगी।” यह वाक्य रह-रह कर उसके मस्तिष्क में कौंध उठता और उसकी अर्थपूर्ण दृष्टि जैसे उसे किसी रहस्य का सुराग दे रही है।
फिर भी कथा तो चलती ही रहनी है। क्योंकि उसे पता है जब तक कथा चलती रहेगी उसकी सांसें चलती रहेंगी... जैसे अलिफ लैला में शहरज़ाद का जीवन उसकी कथाओं पर ही टिका था...
“सेनापति ने ठीक उसी समय अपने गुप्तचर पर लगे आरोपों के लिये जिसे उसने स्वयं स्वीकार किया था; अपनी सैन्य परम्परा के आधार पर न्यायिक प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी। वह गुप्तचर सैनिक उसी प्रकार बंधा हुआ था किंतु वह पूरे आत्मविश्वास के साथ खड़ा था। शायद उसे अपने निरपराध होने पर आवश्यकता से अधिक विश्वास था।
“तो नौजवान, अब तक सबके सामने जो बातें कहीं और जिन आरोपों को स्वीकार किया अपनी, उन बातों पर और उन स्वीकृतियों पर तुम अब तक कायम हो?” सेनापति ने पूछा।
“एक सच्चा सिपाही कभी अपनी बातों से नहीं फिरता।” उसने सिर उठाकर बड़े गर्व के साथ कहा।
“क्या तुम अपने ऊपर लगे आरोपों को स्वीकार करते हो।”
“यह जानते हुये भी कि एक सैनिक होते हुये भी देश और सेना के विरुद्ध षड्यंत्र के आरोप में तुम्हे मृत्युदंड दिया जा सकता है।”
“मैंने ऐसा कोई अपराध नहीं किया जिसके लिये मुझे मृत्युदंड मिले। मैंने देश और सेना के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया। मैंने वही किया जो मेरा कर्तव्य था। मैंने तो सिर्फ एक बाहरी घुसपैठिये के विरुद्ध षड्यंत्र किया।”
“क्या तुमने अपने निजी स्वार्थ हेतु सेना को विद्रोह पर उकसाने का प्रयास नहीं किया? क्या तुम इस आरोप से इंकार करते हो?”
“मैंने जो कुछ किया, इस विदेशी घुसपैठिये के विरुद्ध किया है। और ऐसे घुसपैठियों के विरुद्ध मुझे जितनी बार विद्रोह करना पड़े मैं करूंगा।”
“यानि तुम्हारा तात्पर्य यह है, कि तुम्हें अपने अपराध की गम्भीरता का भी अनुमान नहीं? और तुम अपने आचरण को सुधारने का वचन देने की अपेक्षा पुनः विद्रोह की धमकी दे रहे हो?”
“मैं वही कर रहा हूँ जो मुझे करना चाहिये...”
“ऐ नौजवान सिपाही!! क्या तुम अपना विवेक खो चुके हो?” अबकी बार अभियान सहायक ने बीच बचाव की का प्रयास किया, “क्या तुम्हें अनुमान नहीं, कि तुम्हारी इस नादानी से देश में जनतंत्र खतरे में पड़ जाता? क्या तुम्हारा वह पश्चाताप मिथ्या था? क्या तुम्हारे प्रति हमारा विश्वास एक करना अनुचित था?”
“महामहिम, मैं नहीं जानता मैं क्या कर रहा हूँ। मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि मैं अपने प्रेम को प्राप्त करने के लिये जो करना हो करूंगा। चाहे अपने प्राण देने पड़ें।” उसने अभियान सहायक की बात पर अप्रत्याशित प्रतिक्रिया दी।
“इस स्थिती में कि तुम अपना अपराध भी स्वीकार करते हो, और अपने अपराध पर पश्चाताप करने की बजाय, पुनः अपराध करने की धमकी देते हो, हम यह निष्कर्ष लेने पर मजबूर हैं कि तुम मानसिक रूप से ही अपराधिक ग्रंथि का शिकार हो और हमारे देश, हमारे देश की जनतांत्रिक व्यवस्था तथा सेना के लिये भी अनुपयुक्त हो अतः तुम्हें किसी प्रकार से नरमी बरतना भी हमारी महान सेना की न्यायिक परम्परा के विरुद्ध है। अतः यह सैन्य न्यायालय तुम्हारे लिये मृत्युदंड देने की घोषणा करता है।”
“वाह! एक घुसपैठिये को अभयदान और एक देशभक्त को मृत्युदंड?...” वह चीखने लगा, “मैं इस न्यायप्रक्रिया को नहीं स्वीकारता... मैं इसकी आलोचना करता हूँ...”
सेनापति ने न चाहते हुये भी यह दंड सुनाया था और वे स्वयम् अपने निर्णय से अप्रसन्न थे। वह उनका अपना विशेष गुप्तचर था और वे जानते थे कि इसी आत्मविश्वास के कारण वह इतना मुखर था कि सेनापति उसे बचा ही लेंगे। यदि और कोई अवसर होता और वह कितना भी बड़ा अपराध करता तो भी सेनापति उसके अपराध छिपाकर उसे बचा लेते। किंतु उसने स्वयम् ही अपने अपराधों का ढिंढोरा पीट दिया। इस स्थिति में वे स्वयम् लाचार हो गये थे। सेना की न्याय प्रक्रिया का पालन करने के सिवाय उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं बचा था। यदि वे इस प्रक्रिया का पालन नहीं करते तो दूसरे सैनिक भी विद्रोह के लिये प्रोत्साहित होते। किंतु वे मन ही मन किसी चमत्कार के लिये प्रार्थना रत थे।
“सेनापति महोदय, मुझे लगता है यह नौजवान अभी कुछ विचलित सा है और अपनी बातों पर भी स्वयम् निर्णय नहीं ले पा रहा है। वैसे तो मुझे आपके सैन्य विषयों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं किंतु अपने शासकीय और प्रशासनिक अधिकारों के चलते मैं इसके बारे में दया तथा इसे अपनी भूल पर पुनर्विचार का अवसर देने की प्रर्थना करता हूँ।” अभियान सहायक महोदय ने इस कथन के साथ सभी को अचरज में डाल दिया था। किंतु सेनापति को तो जैसे मनचाहा वरदान मिल गया था। तुरंत उसकी मृतुदंड पर रोक लगा कर उसे पुनर्विचार का अवसर देने की घोषणा की गई।
इस घोषणा से मैं और गेरिक दोनो सकते में आ गये।
उसे मुक्त तो नहीं किया गया था किंतु उसे लेजाते समय खुद अभियान सहायक महोदय ने उसके पीठ पर वात्सल्य से हाथ फेरा। इससे वह और अधिक आश्वस्त और शांत हो गया। किंतु इस घटनाक्रम का क्या अर्थ हो सकता है और अभियान सहायक महोदय, अपने इस अप्रत्याशित आचरण के द्वारा किस ओर संकेत कर रहे हैं यह सोंचकर मैं और गेरिक गहरी चिंता में डूब गये।
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जारी...
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग-20/ एक षड्यंत्र
से...
मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा। मेरा शरीर पसीने से तर था। मैंने देखा कक्ष में मैं अकेला हूँ और कक्ष के बाहर से आत्माओं की चीख पुकार और धातुओं के टकराने की आवाज़ें आ रही हैं। दिखाई कुछ नहीं देता, क्योंकि दृष्टि जहाँ तक जा सकती है, बस अंधकार का ही साम्राज्य है। मैं कहाँ हूँ? क्या हम सागर के किन्ही भयानक आत्माओं के लोक में फंस गये हैं?
(मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति)