1942 की एक अलिखित कहानी। Ranjeev Kumar Jha द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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1942 की एक अलिखित कहानी।



सन् उन्नीस सौ ब्यालिस ।
अगस्त का महीना ।
शाम के चार बजे ।
स्कूल की छुट्टी होने के बाद हम अपने चार - पांच साथियों के साथ पैदल घर के तरफ जा रहे थे ।
आकाश में काले - काले बादल छाने लगे थे।
चलते - चलते रामावतार ने मुझसे कहा-"त्रिवेणी तुम्हें - मालूम है , बंगाल में अंग्रेजो के खिलाफ बड़ा भारी आंदोलन छिड़ गया है ?"
मैने कहा - " नहीं , मुझे तो नही पता । " उसने आगे कहा - " अरे ! इतना बड़ा आंदोलन है कि लखनऊ छावनी से सिपाहियो को भरकर एक स्पेशल ट्रेन कलकटा ( कोलकाता ) जा रही है , आंदोलनकारियो को दबाने के लिए ।"
मैने पूछा - " कब चली है वह ट्रेन ?"
" आज सुबह आठ बजे ही रवाना हुई है , लखनऊ से । "
उसने जवाब दिया ।
तभी एकदम से बिजली कड़क उठी और बुंदाबांदी शुरू हो गया । हमलोग तेजी से घर के तरफ दौड़ पड़े ।
हमारे साथ भागते हुए रामावतार कह रहा था - " काश ! कहीं पर रेल की पटरी टूट जाती , यह ट्रेन उलट जाती - और सारे सिपाही मारे जाते तो कितना अच्छा होता । "
तभी उसका घर आ गया । वर्षा अब जोर पकड़ चुकी थी ।
वह अपने घर चला गया , कुछ देर के बाद मैं भी अपने घर पहुंच गया ।
उन दिनों भारत छोड़ो आंदोलन अपने - चरम पर था , और जैसे बुझते हुए दीये की रौशनी अचानक खूब तेज हो जाती है , उसी तरह अंग्रेजों का दमनचक्र भी बड़ी तेजी से घूम रहा था ।
गांधी , नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद सरीखे तमाम अग्रणी नेता सलाखों के पीछे कैद किये जा चुके थे , और नेतृत्व - विहीन आंदोलनकारियो का गुस्सा टेलीफोन के तार , रेलवे - लाईन और पूलों आदि को तोड़फोड़ कर निकल रहा था । कुल मिलाकर अंग्रेजो के खिलाफ देश का माहौल गर्म था , और इस गर्मी से हम जैसे हाईकूल के छात्र भी अछूते नहीं थे ।
घर पहुंच कर मैंने ऐसे ही मन ही मन हिसाब लगाया, " कि यदि आठ बजे सुबह स्पेशल ट्रेन लखनऊ से चली है, तो करीब बारह बजे रात में उसे उजियारपुर स्टेशन पार करनी चाहिए । " उजियारपुर स्टेशन हमारे गांव से सिर्फ दो कोस दूर है । रामावतार के बाबूजी वही पर रेलवे में मुलाजिम हैं , इसलिए रामावतार की सूचना गलत नही हो सकती है ।
तभी मुझे कुछ देर पहले रामावतार की कही वो बातें याद आने लगी - " काश ! कहीं पर रेल की पटरी टूट जाती और वह ट्रेन.....!" लेकिन कैसे ?
मैंने सोचा - “ क्या , मैं रात के अंधेरे में जाकर रेल पटरी के फिस - प्लेटें खोल सकता हूं ?"
" नहीं - नहीं मुझ से यह नहीं होगा , कहीं मैं पकड़ा गया तो क्या होगा ? मुझे फांसी हो जाएगी , फिर मेरे बाबू जी का क्या होगा ? मां तो पहले ही भगवान के पास जा चुकी हैं । मां के जाने के बाद कितने टूट गये थे बाबूजी । कितनी बार समझा चुके हैं मुझे कि ' बेटा, अब मैं तुम्हें देख - देखकर ही जी रहा हूं । कुछ गलत काम मत करना , मन लगाकर पढ़ाई करो , कुछ बनकर दिखाओ।' "
" यदि मैं पकड़ा गया तो उनके सारे अरमान टूट जाएंगे , और क्या पता , ये निष्ठुर अंग्रेज उन्हें भी नही छोड़ें , बेटे के अपराध में बाप को भी राजद्रोही बताकर फांसी दे दें । "
मेरे मन में बड़ा घमासान चल रहा था । मुझे क्या करना चाहिए , कुछ समझ में नहीं आ रहा था । क्या मैं रामावतार या किसी अन्य मित्र से इस संबंध में सलाह लेकर देखूं ?
" नहीं - नहीं पता नहीं गावं मे कौन - कौन अंग्रेजों का जासूस बना बैठा है । कहीं काम होने से पहले ही सब गड़बड़ न हो जाए ।"
" फिर क्या करना चाहिए ? कुछ तो करना पड़ेगा , नही तो इतने सारे सिपाहियों के हाथों बंगाल के कितने ही निहत्थे - आंदोलनकारी मारे जाएंगे । वे सब भी तो हमारे भाई - बन्धु हैं , जो भारतवर्ष की आजादी के लिए लड़ रहे हैं । "
" यदि मैं रात के अंधेरे में चुपचाप फिस प्लेटें खोलने जांऊ,और चुपचाप अपना काम करके लौट आऊं , तो कौन जान पायेगा ? इस तरह ट्रेन का एक्सीडेंट भी हो जाएगा और मेरा भी कुछ नहीं बिगड़ेगा ।"
हां यह अच्छी योजना है । मैंने पक्का निश्चय कर लिया ।
शाम के सात बज गये थे । अंधेरा घिरने लगा था और वर्षा थम चुकी थी । आसमान में कहीं - कहीं बादल तो कहीं - कहीं तारे चमक रहे थे।
मैंने अपनी धोती में एक हथौड़ा और एक पाना अच्छी तरह छुपाकर लपेट लिया और घर से निकलकर रेलवे लाईन की तरफ चल पड़ा ।
करीब आधा घंटा चलने के बाद , मैं रेलवे लाईन के किनारे एक सुनसान जगह पर खड़ा था । मैने स्थिति का जायजा लिया , पूरी ट्रैक अंधेरे में डूबी थी । ट्रैक के दोनो किनारों पर कास के घने जंगल उग आये थे । पछुआ हवा सांय - सांय कर रही थी । दूर स्टेशन की लाल बत्ती धुंधली सी दिख रही थी , और वही से किसी आवारा कुत्ते की भोंकने की आवाज भी आ रही थी ।
मैंने पटरी के एक जोड़ पर हथौड़े का वार किया - "टन्न !"
जैसे पूरी पटरी थर्रा गई , फिर भी मैं पाना और हथोड़े की मदद से एक फिस प्लेट को खोलने की कोशिश करने लगा ।
मुझ पर जैसे नशा सवार हो गया था , मैं लगातार हथौड़े से वार करता , मगर प्लेटें टस से मस नहीं हो रही थी । मैं और - और जोर से हथौड़ा मारने लगा , तभी एक प्लेट टूट कर हट गई ।
मैं एक क्षण रूक कर फिर दूसरे प्लेट पर भिड़ गया ।
मैं अपने काम में मशगूल था , कि अचानक वहां तेज रौशनी फैल गई ।
मैं सन्न !! काटो तो खून नहीं ।
मेरी आंखें चुधिया रही थी , फिर भी मैने देखने की कोशिश की तो समझ में आया कि ' मैं घिर चुका था।'
पुलिस के कई जवान एक साथ टार्च जलाकर , मुझे घेरे खड़े थे । उन लोगों के हाथों में शायद बन्दूक या डंडे भी थे । मेरा दिमाग तेजी से चल रहा था , लेकिन तभी एक गरजदार अवाज सुनाई पड़ी - " हिलना मत , नही तो गोली मार देंगे । "
मैं स्तंभित चुपचाप खड़ा रहा ।
सब मुझे घेरकर सावधानी से खड़े थे , मगर उनमे से कोई एक धीरे - धीरे मेरी तरफ बढ़ रहा था , जब वह बिल्कुल मेरे करीब पहुंच गया तो उसे देखकर मैं चौंक पड़ा । वह और कोई नहीं , मेरे सहपाठी रामावतार के बाबूजी थे , लेकिन वह शायद मुझे पहले ही पहचान चुके थे , तभी तो मेरे पास आते ही गरज पड़े - " त्रिवेणी , अब तुम बच नही सकते , चुपचाप खुद को पुलिस के हवाले कर दो ।"
घबराहट में मैंने अपनी धोती कसकर पकड़ी , और सीधे कास की घनी झाड़ियों में कूद गया ।
मेरे हाथ - पैरों में जंगली बेरों के असंख्य कांटे चुभ रहे थे । धोती फटकर तार - तार हो गई थी । कास के पत्तियों से सारा बदन छिल सा गया था , फिर भी मैं बेतहाशा भागा जा रहा था ।
पता नहीं कितनी देर तक और कहां - कहां में भागता रहा , लेकिन जब घर पहुंचा , तब रात का दूसरा पहर बीत रहा था ।
मुझे घर में नहीं देखकर बाबूजी पहले ही परेशान थे । पास जाते ही मैं उनसे लिपट गया । मै बुरी तरह हांफ रहा था , डर के मारे मेरे हाथ - पांव कांप रहे थे ।
मैंने रोते हुए शाम से अभी तक की सारी कहानी बाबूजी को सुना डाली । सुनकर बाबूजी इतना घबड़ा गये , कि उसी समय मुझे थोड़ा सा चबेना देकर , वहां से सात मील दूर अपने नानाजी के घर भाग जाने को कहा ।
मैने रोते हुए चने की पोटली उठायी,और बाबूजी का पैर छुकर उसी समय चल पड़ा ।
गांव के जमींदार चौधरी बालक झा की हवेली के सामने ही गांव का चौपाल था । चौपाल पर पीपल और बरगद का संगम एक विशाल पेड़ था । उस पेड़ की मुख्य तना इतनी मोटी थी , कि दस - दस आदमी एक साथ हाथ जोड़कर भी मुश्किल से पकड़ सकते थे । पत्ते इतने सघन थे कि दिन में भी उसकी डालियों पर अंधेरा - सा छाया रहता था । वैसा पेड़ अबतक के जीवन में मैंने और कहीं नही देखा है ।
मेरे ननिहाल जाने का रास्ता चौपाल से होकर गुजरता था ।
मैं जब चौपाल पर पहुंचा , तब पता नही उस समय मेरे मन में क्या आया , कि मैं उस पेड़ की एक डाल जो जमीन तक झुक आयी थी , को पकड़कर उसपर चढ़ गया , और पता नही कैसे - कुछ क्षण बाद ही , मैं धीरे - धीरे उस पेड़ के ऊपर चढ़ने लगा । पेड़ पर ठहरे हुए पंछी अचानक चहचहाकर उड़ने लगे , पर इन सब से बेखबर मैं ऊपर चढ़ते हुए , अपने लिए कोई सुरक्षित डाल ढुंढ रहा था ।
एक तिकोना डाल पर पहुंचकर मैं रूक गया , यहां आराम से बैठा जा सकता था।
रात का चौथा पहर शुरू हो चुका था । दूर पश्चिम के क्षितिज पर हसिया - सा चांद उग रहा था । चांद की धुंधली - सी चांदनी पेड़ की फुनगी को छूने लगी थी । उस तिकोने डाल के ऊपर से अंधेरे में डूबी जमींदार की हवेली भी साफ - साफ दिख रही थी ।
मैं उसी डाल पर बैठकर , सुबह होने का इंतजार करने लगा ।
दूर पूरब के क्षितिज पर उगते सूरज की लाली फैलने लगी थी । अचानक पश्चिम दिशा से आती एकसाथ कई घोड़ों के टापो की आवाज ने , मेरे उन्नींदी आंखों को चौकन्ना बना दिया ।
मैंने देखा - करीब एक दर्जन अंग्रेज घुड़सवार फौजी कंधे से बंदूक लटकाये , हवेली की तरफ सरपट चले आ रहे थे । उगते हुए सूरज की लाली से उनके कठोर सफेद चेहरे रक्तिम हो रहे थे ।
घोड़ो की टाप से हड़बड़ाकर जमींदार बालक झा हवेली से बाहर निकल चौपाल पर आ गया था । कुछ ही क्षणों में घुड़सवारों का दस्ता भी चौपाल तक पहुंच गया ।
वह अंग्रेज , जो सूरत से ही सभी फौजियों का अफसर लग रहा था , ने कड़क कर जमींदार से पूछा -" टुम हो चोडरी बालक झा , इस गांव के जमींडार ?"
"यस , – हां हां, हमसे कोई गलती हो गई क्या साहब , " जमींदार ने हकलाते हुए कहा ।
" येस , टुमारे गांव का एक लड़का , नाम टिरवेनी सन ऑफ टिरलोकी झा ने नाईट में ट्रेन लाईन को उखाड़ने की खोशिश की है । हम टुमारे गांव पर फाइव थाउजेन्ट रूपीज का फाईन लगाटा है । हमें वह लड़का और फाइव थाउजेन्ट रूपीज टुरंत चाहिए,अभी, इसी वक्ट।"
अफसर ने जमींदार को धमका कर कहा ।
" पर साहब , मुझे तो कुछ भी पता नहीं हैं ।" जमींदार ने चौंकते हुए कहा ।
"झूठ बोलता है टुम , टुमहें कुछ भी पटा नही है ? कैसा जमींडार है टुम ? हम टुमको नहीं .......,"
"नहीं साहब," जमींदार ने बात काट कर कांपते हुए कहा-"आप कुछ मत करो , बस कुछ देर का टेम दे दो । आप यहां बैठो , मैं अभी उस लड़के को आपके हवाले करता हूं।"
" ठीक है , जल्दी करो । "
अफसर ने मुंह बनाकर कहा ।
जमींदार ने अपने एक कारिन्दे को मेरे घर जाकर बाबूजी को बुला लाने का हुक्म दिया , और खुद अंग्रेजों का चाय , शर्बत आदि से स्वागत करने में जुट गया ।
कुछ देर बाद ही , मेरे बाबूजी उस अंग्रेज अफसर के सामने हाथ जोड़कर कांपते हुए खड़े थे ।
अफसर ने कड़कते हुए पूछा - "टुमारा बेटा टिरवेनी कहां है ? "
" हुजूर , हम तो खुद उसे दूढ - ढूढ़कर परेशान हो गये हैं । पता नही , कल शाम से ही कहां गायब हो गया है ?"
बाबूजी ने कांपते हुए झूठ कहा
" यू ब्लडी, ब्लैक डॉग , झूठ बोलता है टुम । हम टुमको छोड़ेगा नहीं ।"
गरज कर वह अफसर उठा , और अपने पैर के बूटों से मेरे बाबूजी को बेरहमी से मारने लगा ।
उसे देखकर दो - तीन दूसरे फौजी भी उन पर टूट पड़े ।
उफ !!
मेरे बाबूजी दर्द से चिल्लाते रहे , और वे सब उन्हें जूतों से ठोकरें मारता रहा ।
कुछ देर बाद , थककर वह अफसर , बाबूजी को छोड़कर जमींदार से चिल्लाकर बोला - "चौडरी , हम टुमको शाम टक का टेम देता है , शाम को हम फिर आयेगा और टब यदि हमें फाइव थाउजेन्ट रूपीज और वह लड़का नही मिला तो हम समझेगा कि इसमें टुमारा भी हाठ है , टब हम टुमको भी नही छोड़ेगा , पूरा गांव जला देगा । वन वाई वन सबको गोली मार डेगा।"
इसके बाद जमींदार के कुछ कहने से पहले ही वे लोग घोड़े पर सवार होकर वहां से चले गए ।
मेरे पिताजी जमीन पर गिरे दर्द से कराह रहे थे।
जमींदार ने उनकी तरफ हिकारत भरी नजर डालकर कहा - "अपने साथ पूरे गावं को ले डुबे तुम,बोलो त्रिलोकी अब क्या करोगे ?" बाबूजी जमींदार की टांगों से लिपटकर गिरगिराये -"भगवान कसम , में कुछ नही जानता माय - बाप । छौरा नादान है , गलती कर बैठा होगा , अब तो आप ही का सहारा है , चाहे मेरी तमाम जायदाद अपने नाम करा लीजिए मालिक , मगर छौरे को किसी तरह बचा लीजिए , मैं जीवन भर आपका गुलामी करूंगा मालिक,जीवन भर!"
फिर बाबूजी जार - जार होकर रोने लगे ।
सच ! अपने बाबूजी की हालत देखकर , उस वक्त मुझे भंयकर पश्चाताप हुआ। काश ! मैंने ऐसा नहीं किया होता!
मगर अब वक्त बीत चुका था ।
जमींदार के चेहरे पर कुटिल मुस्कान उभर आई । उसने उसी वक्त अपने मुंशी से स्टाम्प पेपर मंगवाया , और खाली स्टाम्प पर मेरे बाबूजी के अंगूठे का निशान लेने के बाद कहा - " त्रिलोकी तुमने अपनी तमाम जमीन - जायदाद मेरे नाम लिख दिये हैं । अब मैं अंग्रेजों को पांच हजार देकर तुम्हारे छोरे को बचाने की पूरी कोशिश करूंगा , लेकिन मेरे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि तुम्हारा छौरा है कहाँ ? ताकि मैं उसे बेगुनाह साबित कर सकूँ । "
"मैंने उसे ननिहाल भगा दिया है हुजूर । "
बाबूजी ने हिचकते हुए बताया ।
" हूं , ठीक है ।" जमींदार ने आगे कहा - "मुझे आज शाम तक पांच हजार रूपयों का जुगाड़ करना होगा । तुम एक काम करो , मेरे मुंशी के साथ चले जाओ और पूरे गांव वालों को अभी इसीवक्त चौपाल पर बुलाकर ले आओ । "
"जी , ठीक है । "
कहकर बाबुजी लड़खड़ाते कदमों से मुंशी के साथ चल पड़े ।
अंग्रेज फौजियों के गांव में आने से , लोगों में पहले ही भय की लहर फैल चुकी थी । सो , जमींदार का बुलावा आते ही सबके सब भागते हुए तुरन्त चौपाल पर पहुच गये ।
जमींदार ने सबको पूरा मामला बताकर समझाया कि "यदि बहू - बेटियों की इज्जत बचानी है , और पूरे गांव को सुरक्षित रखना है , तो आज शाम तक हमें अंग्रेजों को पांच हजार रूपये देने पड़ेंगे । इतना रूपया जुटाना , मेरे अकेले के बस की बात नही है । इसलिए आप लोगो के पास जो कुछ भी है , मेरे पास जमा करें , बाद में जो घटेगा , उसे मैं पूरा करूंगा, क्योंकि जमींदार होने के नाते इस गांव को बचाना मेरा कर्तव्य है ।"
सुनकर लोग मुझे और मेरे बाबुजी को गालियां देते हुए , अपने - अपने घरों से नगदी के साथ - साथ गहने वगैरह भी ला - लाकर जमींदार को सोंपने लगे । साथ ही वे सब गांव को बचा लेने की गुहार भी लगा रहे थे । जमींदार उन्हें गांव को कुछ नहीं होने देने का आश्वासन दे रहा था। दोपहर तक जमींदार के पास मोटी रकम इक्कट्टा हो गई ।
दोपहर बाद जब सभी लोग वहां से चले गये तो जमींदार भी अपने घोड़े पर सवार होकर कहीं निकल पड़ा ।
पेड़ पर बैठे - बैठे अब मेरा शरीर अकड़ गया था , भूख और प्यास के मारे बुरा हाल था । मैंने बेचैनी से इधर - उधर नजरें घुमाई तो बरगद के एक मोटे डाल के कोटर में , शाम के बारिश का कुछ पानी रूका हुआ दिखा ।
मैं धीरे - धीरे सरक कर वहां पहुंचा । पोटली से निकालकर कुछ चने खाए ,और कोटर में मुंह लगाकर सारा पानी पी लिया । जब मुझे कुछ राहत महसूस हुई तो फिर से उसी त्रिकोणे डाल पर आकर बैठ गया ।
पश्चिम की क्षितिज लाल होने लगी थी , और सूरज धीरे - धीरे डूबने लगा था । वहां बैठे - बैठे में एकबार पुनः ऊंघने लगा था कि सहसा एकबार फिर घोड़ो के टापों की आवाज सुनाई पड़ी । मैंने देखा - इसबार अंग्रेजी फौज के साथ जमींदार भी चला आ रहा है ।
चौपाल पर पहुंचने के बाद घोड़े से उतरकर अंग्रेज अफसर ने कहा - "चौडरी , टुमने फाईन तो भर डिया । बट उस लड़के के बारे में गलट खबर क्यों डिया ? अपने नाना के घर टो वह नही मिला, हमने उसके ग्रैंड फाडर को इटना मारा , गांव का टलाशी लिया , बट वहां वह पहुंचा नही टो मिलटा कैसे ? "
" मगर साहब , उसके बाप ने तो यही बताया था । पता नही ,और कहां भाग सकता है वह ?"
जमींदार ने डरते हुए कहा ।
"वह झूठ बोलटा होगा , बुलाओ बुढ्ढे को , मैं फिर पूछटा हूं उससे ।"
अफसर ने आदेश दिया ।
कुछ ही देर बाद , जमींदार के एक लठैत के साथ बाबूजी कांपते हुए फिर चौपाल पर आ गए ।
उन्हें देखते ही अफसर चिल्लाकर बोला - "बुढ्ढा हम टुमको फांसी पर लटका डेगा , नही तो सच बटाओ , कहां है टुमारा बेटा?"
"सच कहता हूं हुजूर , मुझे कुछ मालूम नही है।"
बाबूजी ने उसके पैर पकड़ने चाहे,मगर अफसर ने पीछे हट कर उनके चेहरे पर अपने बूट से जोरदार निष्ठुर प्रहार किया |
बाबूजी चारो खाने चित जमीन पर गिर पड़े ।
उनके गले पर अपना फौजी बूट रखते हुए अफसर ने दहाड़ा - "अब भी टेम है बुढ्ढे , सच बता डे - वरना जान ले लूंगा । "
बाबूजी बुरी तरह डकारने लगे । उनकी आंखें बाहर निकलने लगी । वह अफसर बार - बार उनके कंधे और सर पर बंदूक की नाल से निर्मम चोट मार रहा था ।
मारते - मारते वह थक गया, मगर बाबूजी छटपटाना तो दूर , अब तो हिल भी नही रहे थे।
थक कर वह अफसर हांफते हुए घोड़े पर सवार होकर जमींदार से बोला - "चौडरी , टुम चलो मेरे साथ , हम पूरे गांव की तलाशी लेगा , वो यही कहीं किसी घर में छुपा होगा । "
जमींदार बिना कुछ बोले उसके साथ चल पड़ा।
जिस किसी घर में , अंग्रेज फौजी तलाशी के लिए घुसते , वही से औरतों और बच्चों के डरकर चीखने - चिल्लाने , पुरूषों के गिरगिराने और दया की भीख मांगने के समवेत स्वर सुनाई पड़ने लगते ।
ऐसा लगा रहा था , जैसे लोगो के बचे - खुचे नगदी और गहने आदि भी लूटे जा रहे हों। सबसे अंत में मेरे खाली घर से आग की लपटें ऊंची उठती दिखाई पड़ी ।
आकाश में घटाओं की तरह तेजी से काले धुंए फैलते जा रहे थे । धीरे - धीरे उस पेड़ के आसपास , और ऊपर - नीचे धुंआयुक्त अंधेरा फैल गया । अब वहां से कुछ भी देखना मुश्किल था , लेकिन चारो तरफ मची चीखो - पुकार को मैं अच्छी तरह सुन रहा था ।
घोड़ो के टापों की आवाज एकबारगी फिर कहीं नजदीक से उभरकर धीरे - धीरे दूर होती चली जा रही थी ।
मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया था , हाथ-पैर जैसे लूज होते जा रहे थे । मैं किंकर्तव्य विमूढ , सन्न होकर चुपचाप उस विराट घने पेड़ पर बैठा रहा । ऐसा लग रहा था जैसे मेरा अपना कोई अस्तित्व ही नही,मानो उस पेड़ की तरह मैं भी अचल , अविचल सा बन चुका हूं। पता नहीं , मैं होश में था, या बेहोश हो चुका था !
रात की काली चादर ओढ़कर आयी स्याह अंधेरा , धीरे - धीरे पूरे गांव को लील गई थी ।
पछुआ हवा रह - रहकर उस पेड़ के पत्तों में सरसरा रही थी । मानो उन भयानक क्षणों में वह विशाल पेड़ भी डरकर कांप रहा हो ।
दो पहर रात बीतने के बाद , पूरे गांव में नीरवता छा गई । उस पेड़ पर पत्तियों के सरसराहट के सिवा कहीं से काई आवाज तक नही आ रही थी । दूर पश्चिम के आकाश में हंसिया सा टेढ़ा चांद निकल आया था , जिसकी अजीब सी धुंधली और मटमैली सी चांदनी , उस नीरव रात को अपनी उदासी भरी तान सुनाने लगी थी ।
मुझमें फिर से चेतना का संचार होने लगा था । मैं धीरे - धीरे उस पेड़ से नीचे उतर आया ।
चौपाल पर बाबूजी वैसे ही चित्त पड़े हुए थे । उनकी फटी हुई आंखें , जैसे एकटक मेरा ही इंतजार कर रही थीं । उन्हें देखते ही मेरे धीरज का बांध टूट गया । मैं फूट - फूटकर रो पड़ा । अपनी धोती से उनके चेहरे के जख्म पर जमे खून को धीरे - धीरे साफ करते हुए ,मैं बार - बार उनसे क्षमा मांगने लगा।रोते - रोते मेरे आंसू सूख गए । पता नही कब तक , मैं युं ही बाबूजी के लाश के पास जड़वत बैठा रहा ।
दूर कहीं मुर्गे की बांग सुनाई पड़ी ।
शायद रात का चौथा पहर बीत रहा था ।
मैने बाबूजी को जल्दी से अपने कंधे पर उठाया , और धीरे - धीरे चलते हुए , अपनी जलती घर के चिता में डाल दिया।
सुसुप्त हो रही अग्नि की चिंगारियां छिटक उठी,सुलगते लपटों ने फैलकर,बाबूजी को स्वयं में समेट लिया। उनकी देह चटक-चटक कर जलने लगी,मानो वो अब भी सिसक कर मुझे वहां से भाग जाने को कह रहे हों।
मैंने उन्हें अंतिम परिणाम किया और सीधे दक्षिण दिशा की तरफ चल पड़ा ।
उन सहपाठियों से दूर ! उस जमींदार से दूर ! उन गांववालो से दूर ! यहां तक कि उस गांव की मिट्टी से भी दूर ..... बहुत दूर .....!!!!!!

रणजीव कुमार झा (R .k. Jha) भोपाल