Rjalal ka bhensa raja books and stories free download online pdf in Hindi

राजालाल का भैंसा राजा।

राजालाल का भैंसा राजा।
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( कहानी)
लेखक -रणजीव कुमार झा (R K Jha) भोपाल (स्वरचित और मौलिक)
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आजकल गोपालपुर के लोग दुधपुर नहीं जाते हैं , और दुधपुर के लोग गोपालपुर जाने से कतराते हैं ।
वजह है , दोनो गांवो के बीच चल रही दुश्मनी। उस दुश्मनी की शुरूआत कैसे हुई । यह जानने के लिए , हमें थोड़ी भूमिका में जाने की जरूरत पड़ेगी ।
आप सब तो जानते ही हैं कि हमारी सरकार जनसेवा के कितने सारे काम एक साथ करती है ।
बेचारी सरकार ! प्रत्येक ब्लॉक से लेकर - कहीं - कहीं पंचायत तक में भी मानव - अस्पताल के साथ - साथ पशु - अस्पताल भी चलाती है । अब यह बात अलग है कि वहां समय पर डॉक्टर तो क्या नर्स और कम्पाउन्डर तक नहीं मिलते हैं । दवा - गोली की तो बात ही मत पूछिये ।
लेकिन , यह सिक्के का सिर्फ एक पहलू है । दूसरा पहलु यह है , कि गांव - देहात के लोग भी कम बुद्धिमान नहीं होते हैं । सुदूर गांव के किसानों का पशु जब बीमार पड़ता है , तो उसे एक जने आगे से खींचते हुए , और दूसरा पीछे से पीटते हुए अस्पताल तक लाने की जहमत कदापि नहीं उठाते हैं ।
गावों में झोलाछाप डॉक्टर होते है , जो पशुओं के साथ - साथ मानव का ईलाज भी बखूबी करते हैं। इनके घर - पहुंच सेवा के आगे , ये अस्पताल खुद फेल हैं ।
और कुछ रहे या नहीं , लेकिन प्रत्येक गांव में एक सांड और एक भैसा जरूर रहता है । जब किसानों के गाय या भेसें पाल खाने के लिए गरम होती है , तो किसान सड़क पर आकर जोर - जोर से ढहैत - ढहैत या छिहैत - छिहैत चिल्लाते हैं । अब और जगहो की तो मुझे मालूम नही , पर मिथलांचल के सांड - भैसे इस आवाज को सुनकर खेत - खलिहानो को रौंदते हुए दौड़ पड़ते हैं । ढहैत - ढहैत में सांड और छिहैत -छिहैत में भैसा ।
इस तरह लोगो के पशु आसानी से पाल खा जाती हैं । भले ही सरकारी अस्पताल में पशुओ के कृत्रिम गर्वाधान से , उन्नत नस्ल के बच्चे प्राप्त होते हों , लेकिन इसमें पशुओं को अस्पताल तक घसीटने का परिश्रम भी तो करना पड़ता है । यहां जब सांड - भैसों की भी घर - पहुंच सेवा उपलब्ध है तो फिर परिश्रम करने की मुर्खता कौन करे ।
अस्तु । गांव में सांड - भैसों की प्रसांगिकता आज भी बाकी है । वहां सांड - भैंसा छोड़ना आज भी जनसेवा और पुण्य का काम समझा जाता है ।
अब शुरू करते हैं दुश्मनी की कहानी ।
आज से पांच साल पहले की बात है । दुधपुर के मुखिया राजालाल यादव की एक भैंस का बच्चा पारा ( भैंसा ) पैदा हुआ ।
अब पारा तो किसी काम का नही होता है । कड़ी धूप में हल या गाडी खीचने में जल्दी ही हांफ जाता है । ऊपर से दो जानवरो के बराबर चारा अकेला ही खा लेता है ।
यही सब सोचकर राजालाल ने , दो साल के होते ही उसका एक कान काट डाला और लोहे की छड़ गरमकर उसके पीठ पर मोटे - मोटे अक्षरों में लिख दिया ' राजा ' ।
अब वह पारा जनसेवा के लिए पूरी तरह तैयार था । दो चार दिन बाद ही , सेवा कार्य के लिए , उसे लाठी मार - मारकर पड़ोसी गांव गोपालपुर की तरफ खदेड़ दिया गया ।
गोपालपुर में पहले ही एक राजा ( भैंसा ) रहता था अब एक राज्य में दो राजा का राज तो नही चल सकता है न । सो दोनो में ठन गई।
पुराना राजा मोटा तगड़ा और कड़क जवान था । नया राजा मरियल और छोटा बच्चा । अतः आमने - सामने होते ही , पुराने ने नये को उठाकर दूर फेंक दिया । यदि येन मौके पर गांव वाले लाठी लेकर नहीं दौड़ते , तो राजालाल के राजा का उसीवक्त राम - नाम सत्य हो गया होता ।
इस घटना के बाद , नया राजा उसगांव से भागकर पुनः दुधपुर वापस चला आया । धीरे - धीरे दो साल बीत गये । इस बीच नया राजा फूटकर जवान हो गया । एकदम पूर्ण भैंसा । काले बादलों - सा उमड़ता - घुमड़ता देह । मानो एक ही टक्कर में पहाड़ को गिरा देने की ताकत रखता हो ।
अपनी ताकत में मदमस्त , एक दिन वह गोपालपुर की सीमातक आ पहुंचा । संयोग से पुराना राजा भी वही विचरण कर रहा था । नजरें मिलते ही दोनो एक - दूसरे पर टूट पड़े । सिंग से सिंग भिडाकर खूब लड़े । यहां तक कि दोनो - लहुलुहान हो गये । कोई एकदूसरे से कमजोर नही पड़ता था ।
लेकिन , पुराने राजा की उम्र चुकी ढलान की तरफ थी । सो अब उसका ताव कम पड़ने लगा । अतः धीरे - धीरे वह पीछे हटने लगा । तभी अचानक उसके पिछले दोनों पैर गोबर की ढ़ेर से बने पंक में फंस गये । उसी समय नया राजा ने एक तगड़ा झटका मारा तो वह चकराकर गिर पड़ा ।
वह सम्हलने की कोशिश कर रहा था , लेकिन नये राजा के ताबड़तोर प्रहार के आगे वह विवश हो गया, और देखते ही देखते - उसका थुथना गोबर मे धंस गया ।
एक लम्बी डकार के साथ उसका राम - नाम सत्य हो गया । अपनी विजय की धुन में मस्त नया राजा , झूमते हुए गोपालपुर पहुंचा । गांव की चारो सीमाओं तक घूम - घूमकर काफी देर तक वह अपने नये साम्राज्य में किसी नयी चुनौती को ढुंढता रहा । जब कही से कोई चुनौती नही मिली तो वह आराम से तालाब में घुसकर नहाने लगा ।
अच्छी तरह नहा - धो लेने के बाद वह अपनी रानियों ( भैंसें ) से मिलने निकल पड़ा ।
हरेक थान पर बंधी भैंस को सूघकर वह छेड़ता , फिर आगे बढ़ जाता ।
इस क्रम में कुछ जवान भैंसें तो तड़फड़ा कर रस्सी - खूंटा तोड़ने - सी लगती , मगर कुछ बूढी भैसों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता । यह चुपचाप अपनी जुगाली में मस्त रहती और भैंसा उसे छेड़कर आगे बढ़ जाता ।
गोपालपुर के मुखिया लखनसिंह के पास दो जानवर थे । एक भैंस और एक उसी का बच्चा दो साल की पारी । राजा भैंसा उनके थान पर भी पहुंचा । उसने पहले भैंस को पीछे से सूंघा । भैंस चुपचाप खड़ी रही । अब वह पारी की तरफ बढ़ा । पारी उसे देखकर ऐसा हड़की कि एक ही झटके में खूंटा तोड़कर भाग चली । उसे भागते देखकर राजा को जैसे तैश आ गया । वह भी उसके पीछे भागा । लखनसिंह जब तक लाठी ही ढुंढ़ते रहे , तबतक राजा भैंसा ने पारी को उठाकर दूर उछाल दिया । पारी बेचारी ! अपनी लम्बी जीभ निकालकर जमीन पर डकारने लगी ।
लखन सिंह तो मारे गुस्सा के जैसे अंधे हो गये । उन्होने पीछे से भैंसा के ऊपर जोरदार लट्ट प्रहार किया । भैंसा क्रोध में पीछे घूमा और जैसे आंखे बन्द कर लखन सिंह को रपटने लगा । घबड़ाहट में उनकी लाठी छूट गई अब आगे - आगे लखन सिंह और पीछे - पीछे - भैंसा । मानो दोपाये के साथ चौपाये की रेस लगी हो । लोगों में हाहाकार मच गया । "अरे बचाना रे - मार डाला -मार डाला " के समवेत स्वर उठने लगे । प्रत्येक क्षण भैंसा और लखन सिंह के बीच की दूरी कम होती जा रही थी ।

अब क्या होगा ?
लोग जैसे किंकर्तव्यविमूढ हो गये । इधर लखनसिंह को लगा कि अगले कुछ ही कदमों में यह खूनी भैंसा मेरी जान ले लेगा । अपनी मौत को निकट देखकर वे बहुत ज्यादा घबड़ा गये । सामने बहुत बड़ा गड्ढा आ गया था । उन्होने अपनी आखिरी जोर लगाकर चाहा कि गड्ढे में छलांग लगा दूं ,लेकिन हाथ - पैर जैसे अकड़ गये । दिल जैसे दस हार्स की चलती मशीन बन गई । वे तत्क्षण बेहोश होकर वही गिर पड़े ।
उनके गिरते ही भैंसा पर जैसे खून सवार हो गया । वह अपनी आंखे बन्द कर , उनके गिरे हुए रथान पर सिंग से ताबड़तोड़ प्रहार करने ।
लोगो की तन्द्रा जैसे टूटी । जिसके हाथ जो भी लगा - ईट , पत्थर , लट्ठ ,भाला , फरसी लेकर सबके सब शोर मचाते हुए दौड़ पड़े ।
एक साथ इतना ज्यादा शोर सुनकर भैसा घबड़ा गया और डरकर विपरीत दिशा में सरपट भागता चला गया । पास जाकर लोगों ने देखा - लखनसिंह तो गिरने के बाद लुढ़कते हुए गड्ढे में चले गये थे । उन्हें हुआ कुछ नही था , लेकिन वे अब भी बेहोश थे ।
मगर , जहां लखनसिंह गिरे थे , वहां भैसे की चोट से एक हाथ गहरी खाई हो गई थी । लोग उन्हें उठाकर घर ले आये । कुछ ही देर में उन्हें होश भी आ गया । शाम हो गई थी । पश्चिम में दूर क्षितिज पर विशाल वटवृक्ष के पीछे धीरे - धीरे सूरज छुपता जा रहा था ।
आज पूर्णमासी की रात थी । सूरज के छिपते ही चांद अपनी चांदनी की मनोहारी छटा बिखेरने लगी ।
मुखिया लखनसिंह के दो लड़के थे , सतना और चखना । अपने पिता पर भैंसा द्वारा हमले की घटना सुनकर , वे दोनो गुस्से से तमतमा उठे । और उसी समय अपनी लाईसेन्सी बन्दूक लेकर भैंसा को ढुंढने निकल पड़े ।
गांव से बाहर निकलते ही चांदनी में नहायी रात चमकने लगी ।
राजा भैंसा एक खेत के किनारे बैठकर आराम से पगुरा रहा था । कुछ ही दूर चलने पर सतना और चखना को भैसा स्पष्ट दिखाई देने लगा । ये दोनो धीरे - धीरे आगे बढ़ रहे थे । अब वे भैसा के काफी नजदीक पहुच गये ।
चखना ने निशाना लगाया तो फायर की आवाज से वातावरण थर्रा उठा । भैंसा हड़बड़ाकर सामने की तरफ भागा । उसके पुट्ठे को छीलती हुई । गोली निकल गई थी । चखना ने दूसरा फायर किया , लेकिन निशाना चूक गया । सामने दूर भागता हुआ भैंसा चांदनी की चमक में धुंधला होता चला जा रहा था । सतना और चखना वापस लौट पड़े ।
लखन सिंह के गांव में नारद - मुनि का एक चेला रहता था । इधर की बातें बढ़ा - चढ़ाकर उधर , और उधर की इधर करने में उसे बड़ा मजा आता था ।
रात के एक बजे जब सारा गांव सन्नाटे में डूब गया । तब नारद का चेला साइकिल लेकर दुधपुर की तरफ चल पड़ा । रास्ते में एक - दो आवारा कुत्तों के अलावा , उसे और कोई परेशानी नहीं हुई । कुछ ही देर में वह दूधपुर के मुखिया राजालाल के यहां पहुंच गया । उसने साईकिल की घंटी बजायी तो राजालाल उठ बैठे । आंखें मलते हुए उन्होंने पूछा -" कौन ? " "मैं हूं मुखियाजी - पहचाना , गोपालपुर से आया हूं । "
उसने सरगोशी भरे अंदाज में कहा ।
" हूं । "
राजालाल ने पहचानते हुए पूछा - “ मगर इतनी रात गए , यहां तक कैसे आना हुआ ? "
"अरे मुखिया जी , गजब हो गया । आपको मालूम नहीं , आपके राजा भैंसा को लखनसिंह के बेटों ने गोली मार दी है । "
"क्या!!"
राजालाल उछलकर खड़े हो गए ।
"मगर क्यों , क्यो मार दी उसने उस बेजुबान को गोली ? "
"अब क्या बतायें मुखिया जी ,जानवर तो जानवर होते हैं ,वे छोटे - बड़े में भेद करना क्या जानें । लखन सिंह ठहरे बड़े आदमी । आज जब भैंसा उनके थान पर पहुंचा , तो वे उसे भगाने गए । भैंसा ने उन्हें थोड़ा दौड़ा दिया । बस इसी बात पर आज नौ बजे रात के करीब , उनके बेटे चखना ने , बेचारा सोया हुआ निरीह जानवर पर फायर कर दिया । "
" हूं । " राजालाल गम्भीर होते हुए बोले - "लगता है वे किसी गलतफहमी में हैं । मैं सुबह कुछ लोगो के साथ आपके गांव आ रहा हूं । सारी गलतफहमी नहीं दूर कर दी तो मेरा नाम राजालाल नहीं । "
" हां - हां क्यों नहीं ? - उनका घमंड टूटना ही चाहिए ।"
उसने कहा "-लेकिन मुखियाजी , मेरा नाम बीच में न आने पाये । इतना ख्याल रखिएगा ।" " आप बेफिक्र होकर घर जाएं , आपका नाम कहीं नही आयेगा ।"
इसके बाद नारद का चेला वापस अपने घर आकर सो गया ।
सुबह हुई तो राजालाल ने सारे गांववालों को पंचायत भवन पर जमा करवा लिया , और ऊंची अवाज में कहने लगा - “ भाईयों , मैने जनसेवा के लिए भैंसा छोड़ा था । वह मेरी नही सारे समाज की सम्पत्ति थी । लेकिन लखनसिंह के बेटो ने भैंसा को गाली मार दी है उसने सिर्फ भैंसा को नहीं , सारे समाज के हित को गोली मारी है । यदि आज भी हम चुप रहे , तो कल को वे हमारे ऊपर भी गोली चला सकते हैं । अब वो जमाना लद गया , जब बड़े लोग अपनी मनमानियां चलाया करते थे ।"
वह सांस लेने के लिए रुका फिर आगे बोला-
"इसलिए हम सबको मिलकर अभी गोपालपुर चलना है , यदि भैंसा मर गया होगा तो बतौर जुर्माना, लखन सिंह को दूसरा भैंसा खरीद कर छोड़ना होगा ,यदि घायल हुआ होगा तो इलाज करवाना होगा, नहीं तो हम उन्हें अच्छी तरह सबक सिखा कर वापस आएंगे।"
जन समूह में जैसे उन्माद फैल गया ।
"हां हां मुखिया जी , आखिर वह समझता क्या है अपने आपको? चलिए हम सब आपके साथ चलने को तैयार हैं जुर्माना नहीं देने पर हम वहां की ईंट से ईंट बजा देंगे।"
कई लोगों ने एक साथ कहा ।
फिर सब के सब गोपालपुर की तरफ चल पड़े।
इधर लखन सिंह ने भी सुबह होते ही सभी गांव वालों को बुलाकर कहा "-भाइयों आप सब तो जानते ही हैं कि राजा लाल का भैंसा कल से हमारे गांव में उत्पात मचाए हुए है। भगवान की कृपा नहीं होती तो कल वह मुझे भी मार डालता गुस्से में कल चखना ने भैंसा पर गोली भी चलाई , मगर वह बच गया ।अब मैं नहीं चाहता हूं कि उस भैंसें को मारकर , अपना हाथ खून से लाल करूं , और राजालाल से दुश्मनी मोल लूं । "
कुछ क्षण रूककर वे आगे बोले - "इसलिए आप सब हमारे साथ दूधपुर चलकर राजालाल से पूछें कि उसे भैंसा छोड़ने का इतना ही शौक था तो पागल भैंसा क्यों छोड़ा । अब या तो उसे बांधकर रखे , नही तो हमलोग कोई भी कदम उठाने को स्वतंत्र होंगे और बाद में उसकी कोई बात नहीं सुनेंगे । "
" इतने से बात नही बनेगी मुखिया जी ।"
एक ग्रामीण ने जोश में भरकर कहा - " हम उससे आपके पारी के ईलाज के लिए जुर्माना भी वसूल करेंगे । वह भैंसा उसकी मुसीबत है , उसने अपनी मुसीबत को हमारे गांव में क्यों भेजा । इसका जुर्माना उसे भरना ही पड़ेगा । "

दूसरे ने कहा । " हां हां यह ठीक कह रहा है ।"

"चलिए मुखिया जी , हम - लोग बिना जुर्माना लिए नहीं लौटेंगे । "
एकसाथ कई स्वर उठे । फिर ये लोग भी दुधपुर की तरफ चल पड़े ।
गांव की सीमा पर ही दोनो पक्षों की भेंट हो गई।
राजालाल ने आगे बढ़कर कड़कते हुए कहा - "लखन सिंह , हमलोग तुम्हारे यहां ही जा रहे थे , हमें पता चला है कि तुम्हारे बेटों ने हमारे भैंसा को गोली मार दी है । आखिर वह अपने को समझता क्या है ? तुम्हें इसका जुर्माना देना पड़ेगा । "
लखनसिंह के तलवे का लहर मगज पर पहुंच गया । वे गरज पड़े -" तुम्हारे बाप - दादा ने कभी इस लहजे में बात करने की हिम्मत नही की होगी , पहले तुम बताओ कि तुम अपने को क्या समझते हो ? तुम्हारे पागल भैंसा ने मेरे गांव के बूढ़े भैंसे को मार डाला , मेरी पारी को मारा और कल वह मुझे भी मार डालता ।बोलो , तब मेरी जान का हर्जाना कौन भरता! जुर्माना मुझे नही , तुम्हे देना पड़ेगा । "
"बस - बस बहुत हो गया ।" राजालाल जैसे फट पड़ा - " अब यदि बाप - दादा का नाम बीच में घसीटा तो जबान खींच लूंगा "
"तेरी ये मजाल , तू मेरी जबान खीचेगा ," लखनसिंह लगभग उसपर झपट ही पड़े । "अभी इसीवक्त तेरी खाल खींच कर भुस्स न भर दूं तो मेरा नाम लखन सिंह नहीं । "
लखन सिंह के झपटते ही उनके दल से किसी ने नारा लगाया " बोलो बजरंग बली की जय ।" और इसके साथ ही उनके दल के लोग सड़क पर बिखरे हुए पत्थर उठा - उठाकर फेंकने लगे।
राजालाल समेत उनके दल के लोग भी फौरन तितर - बितर हो गये . और उन्होने भी जवाबी पत्थरबाजी शुरू कर दी ।
किसी ने गगन भेदी नारा लगया - “ जो हमसे टकरायेगा चूर चूर हो जाएगा ।"
उसके बाद तो वहां कोहराम मच गया
"मारो , काट डालो सालों को ,कोई साबुत बचकर जाने न पाये । एक - एक का सर चटका दो । " जैसे उन्माद भरी चिल्लाहट से वातावारण थर्रा उठा । चारो तरफ भागादौड़ी , चीखोपुकार । आह - ओह !!!
लोगो के सर दनादन फूटने लगे । सड़क पर रक्त की बरसात सी होने लगी ।
यदि कुछ देर और यही हालत रहती तो पता नही , वहां क्या होता, लेकिन , भला हो उस भलेमानस का जिसने समय पर पूलिस को फोन कर दिया , और पूलिस तुरंत पहुंच भी गई।
शुक्र था कि वहां सिर्फ पत्थर चल रहे थे , बम और गोली नहीं । नहीं तो पुलिस भी शायद लाशें गिनने ही पंहुचती ।
पुलिस के जीप की सायरन सुनते ही पत्थरबाजी थम गई । लोग अपने - अपने फूटे सर लेकर , जीप के इर्द - गिर्द जमा होने लगे । दारोगा ने कड़कर कर पूछा - "क्या हो रहा है ये सब ?"
राजालाल ने हड़बड़ाते हुए कहा "- सर ये सब योजना बनाकर हमारे गांव को लूटने आ रहे थे, हमे खबर लगी तो हमसब ने रास्ते में ही रोक लिया । इसी का नतीजा है यह सब ।" लखनसिंह ने कड़कते हुए कहा - " यह उलटा झूठ बोल रहा है दारोगा साहब , बल्कि यह सब हमारे गांव को लूटकर भाग रहे थे ,हमने यहां तक खदेडकर पकड़ा है सबको । " थानेदार के मुंह पर धुर्तता - भरी मुस्कान फैल गई । वह लापरवाही से बोला - " ठीक है - ठीक है । तुम सब थाने चलो , और अपनी - अपनी रिपोर्ट दर्ज करा दो । "
इसके बाद दोनो पक्षों ने थाने पहुंचकर एक दूसरे पर लूट का मुकदमा दर्ज करा दिया।

वर्षों बीत गए, पर आज तक कोर्ट में वह मुकदमा चल रहा है । दोनो पक्ष आपस में चंदा करके , वह मुकदमा लड़ते हैं और अपना कीमती समय और पैसा नष्ट करते हैं । जबकि इस घटना के कुछ ही दिन बाद बिजली के एक नंगे तार से सटकर राजा भैंसा अपना इहलीला समाप्त कर चुका है।
R k Jha
Bhopal

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