होने से न होने तक - 25 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 25

होने से न होने तक

25.

मैं और नीता मीनाक्षी के लिए दुखी होते रहे थें,‘‘मूर्ख लड़की’’ नीता ने कहा था और वह बहुत देर तक केतकी पर झुंझलाती रही थीं,‘‘अभी दो साल पहले ही ओहायो वाले उस लड़के से शादी ठहरने की संभावना भर पर कितनी ख़ुश थी यह लड़की। इस केतकी ने सूली चढ़वा दिया इसे।’’

‘‘घर वालों ने इस शादी को एक्सैप्ट कर लिया केतकी ?’’नीता ने बाद में उससे पूछा था।

केतकी विद्रूप भरी हॅसी थी,‘‘तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो नीता कि वे लोग मान लेंगे इस रिश्ते को?वे लोग इतने सुलझे हुए नही हैं।’’

‘‘तब ?’’नीता ने आश्चर्य से केतकी की तरफ देखा था...मैं ने भी।

‘‘तब क्या। मीनाक्षी ने अभी घर वालों को कुछ बताया थोड़ी है। बस शादी करके आ गयी है। आगे देखेगी कि उसे क्या करना है। सोचा यह भी है कि पहले ऐसे ही अपने घर से ही दिल्ली आना जाना रखेगी। फिर यहॉ पहले एक घर किराए पर ले लेगी और दिल्ली से लौट कर अपने घर में ही उतरेगी और उन लोगों को फोन से या चिट्ठी से बता देगी सब।’’

‘‘अरे यह सब तो बेहद काम्लीकेटेड है।’’नीता ने कहा था।

केतकी ने दोनो हाथ हताशा की मुद्रा में झटके थे,‘‘अब किया ही क्या जा सकता है। वह फैमिली ही काम्लीकेटेड है।’’

नीता और मैं दोनो ही चुप हो गए थे पर केतकी के जाने के बाद काफी देर तक मीनाक्षी के बारे में ही बात होती रही थी। हम दोनो ही परेशान होते रहे थे। यह पूरा प्रसंग कैसे सुलझेगा यह नहीं समझ आ रहा था।

पर जो भी हो मीनाक्षी उन दिनों बहुत अधिक प्रसन्न थी जैसे जग जीत लिया हो उसने। नीता और मैं जब मीनाक्षी को लेकर परेशान होने लगते और उसे ख़ुश देखते तो अपने ऊपर बेहद झुंझलाहट होती जैसे बेवजह ही दुखी हैं। पर मन का क्या किया जाए। मीनाक्षी के ऊपर कितना ही गुस्सा क्यों न आए पर उसके शुभ अशुभ के प्रति ऑखें नहीं मूॅद पाते हम दोनो। चारों मित्रों के बीच अजब सी स्थिति हो गयी है। मीनाक्षी के जीवन से जुड़े जिस प्रकरण से हम दोनों दुखी हैं उसी को लेकर केतकी बेहद ख़ुश है।..और मीनाक्षी? वह तो हवा में उड़ रही है आज कल। सो चारों मित्रों के बीच मीनाक्षी को लेकर कोई ईमानदार संवाद जैसे संभव ही नही हो पाता। एक ही स्थिति में सोच के इतने भिन्न और विपरीत आयाम हो सकते हैं यह तो हम लोग सोच भी नही सकते थे। आपस में हॅसते बोलते बतियाते नीता और मुझ को हर क्षण लगता है जैसे आपस में झूठ का कोई नाटक चल रहा है और मैं और नीता बड़े कौशल से उसमे अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं।

मैं और नीता बातें कर ही रहे थे कि कौशल्या दी हम दोनो के बीच आ कर बैठ गयी थीं। उन्होने सीधा सवाल किया था ‘‘मीनाक्षी की कोई बात है क्या?’’ उन्होने बहुत धीरे से पूछा था,‘‘आजकल बहुत अच्छी दिख रही है।

मैं अचकचा गयी थी। नीता ने उनकी तरफ देखा था,‘‘हॉ दीदी’’ उसके स्वर में पीड़ा है। फिर उसने उन्हें सब कुछ बताया था...शुरू से ले कर अब तक। नीता ने सॉस भरी थी,‘‘दीदी आपसे छिपाने का कुछ नहीं था पर क्या बताते ? मीनाक्षी ने कितनी उलझा ली अपनी ज़िदगी। कोई सिरा पकड़ नहीं आता। अभी तो मूर्खों की तरह बेहद ख़ुश है। पर देखिए कब तक। स्टाफ में किसी और को कुछ नहीं बताया है। हम चार और पॉचवीं आप।’’

‘‘लैट इट टेक इट्स ओन टाइम।’’ दीदी ने कहा था फिर थोड़ी देर के लिए चुप हो गयी थीं।

‘‘अब उसने कर ली है तो भगवान से मनाओ कि उसे इस रिश्ते से ख़ुशी मिले।’’ दीदी का स्वर एकदम दार्शनिक हो गया था,‘‘वैसे भी नीता ऐसा कुछ बुरा नही हुआ कि दुखी हुआ जाए। कभी कभी ज़िदगी भर का लंबा साथ भी इंसान को कुछ नहीं दे पाता। उस रिश्ते से कुछ क्षणों की भी ख़ुशी नही मिलती और कभी कभी चंद दिनो का साथ ही बहुत सुख दे जाता है। प्यार और सुख की और रिश्तों की लंबाई नही गहराई मायने रखती है बेटा। आइ होप शी गैट्स दैट।’’कुछ लंबे क्षणों के लिए वे फिर चुप रही थीं,‘‘शी डिसर्व्स दैट।’’ उनके स्वर में अपनापन झलकने लगा था ‘‘वैसे वह आजकल बहुत ख़ुश दिख रही है। उसे देख कर अच्छा लग रहा है।’’वे खुल कर मुस्कुरायी थीं जैसे मन ही मन उसे आशीष दे रही हों।

उसके बाद दीदी न जाने कितनी देर तक ऐसी शादियों के बारे में बात करती रही थीं ‘‘इतने एज गैप पर शादी करना कोई ऐसा अनहोना नहीं है नीता कि उसे ट्रैजेडी मान लिया जाए। सुचेता जी ने दादा कृपलानी से शादी की थी। पूरे जीवन साथ रहीं और शायद ख़ुश भी रही हीं। कम से कम उनकी मिसाल आदर्श के रूप में दी जाती है। टीचर और स्टूडैन्ट्स की शादी होना और अक्सर उनके बीच इतना गैप होना-यह तो बहुत होता है-हमेशा से होता रहा है। अब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उसके घर वाले और उसकी फ्रैन्ड्स कैसे डील करते हैं और ख़ुद उसमें कितना कनविक्शन है इस रिश्ते को लेकर। नहीं तो ऐसी ही क्या, कैसी ही शादी डिसास्टर हो जाती है।’’

अनायास ही हम दोनो को लगने लगा था कि शायद दीदी सही कह रही हैं। जिस रिश्ते को मीनाक्षी ने इतने व्यवधानों को तोड़ कर वरण किया है उससे उसे निश्चय ही ख़ुशी मिलेगी। उसे उससे ख़ुशी मिलना ही चाहिए। थोड़ी देर के लिए बाकी सारी बातें गौण लगने लगी थीं। लगा था क्या केतकी ही सही है? लगा था कि हम दोनों व्यर्थ ही इतने दिनों से परेशान हैं। अचानक ही मन में हल्कापन महसूस होने लगा था जैसे दिल पर रखा कोई बोझा घटने लगा हो।

पिछले वर्षों की तरह वार्षिकसेत्सव होना है। डाक्टर दीपा वर्मा ने कल्चरल कमेटी को प्रबंधक से मिल कर उचित निर्देश लेने के लिए कहा था। कमेटी से संबद्ध टीचर्स और स्टूडैन्ट्स यूनियन की अध्यक्ष और सचिव भी साथ गए थे। हरि सहाय जी सब से कायदे से मिले थे। उत्सव के लिए हम सब निदेश लेने आये हैं सुन कर वे हॅसने लगे थे,‘‘वह आप लोगों की फील्ड है। आप लोग समझती हैं उसे। इसमें मैं तो आपको कोई राय देने की लियाकत नहीं रखता। आप लोग हैं, डाक्टर दीपा वर्मा हैं। हॉ लाजिस्टिक में अगर कुछ मदद चाहिए हो तो बता दीजिएगा। आपके कालेज के कल्चरल इवैन्ट्स की तो वैसे भी बहुत तारीफ सुनी है-चलिए इस साल देखेंगे।’’वे फिर मुस्कुराए थे,‘‘गो अहैड।’’

...और कल्चरल कार्यक्रम की बातचीत पर उन्होने पूर्णविराम लगा दिया था। हम सब चलने के लिए उठ खड़े हुए तो जैसे उन्हें अनायास कुछ याद आ गया था,‘‘आप लोगों के यहॉ शायद लाइर्बेरी के लिए कोई कमेटी नहीं है। मुझे लगता है उसके लिए एक एक्टिव कमेटी होना चाहिए।’’

हम लोग जब तक उस विषय को आगे बढ़ाते तब तक वे एक बार फिर मुस्कुराए थे,‘‘मैं समझता हूं कि आप लोग हाल फिलहाल इस प्रोग्राम में बिज़ी हैं। एक बार इससे निबट लीजिए तो मैं दीपा जी से बात करूॅगा। वे आप में से कुछ को शामिल करके यह काम शुरु कर सकती हैं। हम लोग खड़े रहे थे और हमारे मन में उत्साह भरने लगा था। हम कुछ कह पाते उससे पहले ही वे एक बार फिर मुस्कुराए थे ‘‘एनी वे पहले आप लोग इस एनुअल फंक्शन से निबट लीजिए,’’उन्होने अपने माथे से हाथ छुआया था,‘‘गुड लक,’’

हम सब के चेहरे पर एक स्वभाविक सी मुस्कान आयी थी,‘‘थैंक्यू सर,’’ लगभग समवेत स्वर में ही हम सब ने कहा था और उन्हे नमस्कार कर के हम लोग लौट आए थे। सच बात यह है कि राम सहाय जी से मिल कर हम सभी को हमेशा ही अच्छा लगता है। एक बेहद ही जैनुइन सा एहसास-बातचीत का बहुत सुलझा सम्मानजनक तरीका।

मेरी पहली कहानी धर्मयुग में छपी थी। कहानी छपने से पहले मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि मैं कहानी लिखूॅगी। शायद वह मानसी जी से निकटता का प्रभाव था। कौशल्या दीदी और केतकी भी साहित्य की कहानी कविताओं के चर्चे होते रहते। इन सब के साथ हर दिन ही साहित्य और साहित्यकारों की ढेरों बातें होती हैं। इधर के कुछ सालों में मैंने हिन्दी और अंग्रेज़ी की न जाने कितनी किताबें पढ़ी हैं। फिर कालेज का माहौल जिसने मुझे छोटी बड़ी बातों को सोचने की आदत डाल दी थी या शायद वह यश के अपने से दूर चले जाने का पीड़ादायक एहसास था कि मन अतिरिक्त रूप से भावुक होने लग गया है।

यश सिंगापुर से आए हुए थे और कहानी देखकर बहुत खु़श थे। वह पहले मुझसे मेरी कहानी के बारे में फिर मुझ से मेरे बारे में बात करते रहे थे। हम दोनों क्वालिटी में बैठे काफी पी रहे थे, ‘‘जिस तरह से तुमने अपने आप को डेवेलप किया है अम्बि, मुझे बहुत अच्छा लगता है। तुम्हारा कैरियर फिर तुम्हारा जॉब...अब ये कहानियॉ।’’

मैं बैठी बैठी मुस्कुराती रही थी। यश का मुझे यूं महत्व देना मुझ को हमेशा अच्छा लगता है। यश ने उसी भावुक दृष्टि से मेरी तरफ देखा था,‘‘अच्छा अम्बि यदि किसी दिन साहित्य में तुम्हारा नाम हुआ तो मेरा भी नाम होगा।’’

‘‘मतलब’’ मेरे मुहॅ से अचानक निकला था।

यश हॅसे थे,‘‘बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। एक राजा था। वह प्रेम का दुश्मन था। उसने अपने राज्य में मुनादी करा दी थी कि यदि किसी ने प्रेम किया तो उसे मृत्यु दंड दिया जाएगा। तभी उसकी बेटी ने एक प्रेम कथा लिखी थी....और राजा ने उसे मौत की सजा दी थी।’’ यश फिर हॅसे थे,‘‘क्योंकि राजा का कहना था कि बिना प्रेम किए वह प्रेम कहानी नहीं लिख सकती थी।’’ यश चुप हो गए थे। मैं भी चुप थी। मेरे समझ नही आया था कि मैं क्या बोलूं या क्या समझॅू।

हम दोनों बहुत देर तक चुप बैठे रहे थे और यश अनायास ही हमेशा की तरह भावुक होने लगे थे,‘‘वहॉ सिंगापुर में मेरा मन नहीं लगता अम्बिका। वहॉ मैंने तुम्हारी चिट्ठियों की एक फाइल बना रखी है। जब मुझे बहुत अकेलापन लगता है तब मैं वह फाईल निकाल लेता हॅू और उन ख़तों को पढ़ता रहता हूं।’’

मैं एकदम अचकचा गयी थी। पर अच्छा लगा था। लगा था जैसे मैं यश के अकेलेपन में शामिल हूं। उसकी ज़िंदगी में भी। पर इस बात के जवाब में मैं क्या बोलूं ?क्या बताऊॅ यश को? शायद यश मुझसे कुछ बोले जाने की उम्मीद भी नहीं कर रहे। यश उसी तरह से सामने रखे हुए पानी के ख़ाली गिलास से खेलते हुए मेज़ पर आगे की तरफ झुके रहे थे। उनका स्वर फिर से भावुक होने लगा था,‘‘मेरा मन वहॉ नहीं लगता अम्बी, अबकी से तुम्हे मेरे साथ चलना होगा।’’

मन में बड़ी देर तक जैसे कुछ ध्वनित प्रतिध्वनित होता रहा था। यश न जाने कितनी बार कितनी ऐसी बातें कह जाते हैं जिनके बहुत गहरे अर्थ होते हैं। जिनके बहुत सारे अर्थ निकाले जा सकते हैं। वे शब्द हमेशा के लिए मन की स्लेट पर लिख भी जाते हैं। पर यश एक बात पर रुकते ही कहॉ हैं जो उनसे किसी विषय पर संवाद संभव हो सके। मैं जब तक कुछ सोचॅू समझूॅ या कहूं तब तक ‘‘अगर तुम्हारा वहॉ मन नही लगा तो वायदा करता हॅू कि पद्रंह बीस दिन के अन्दर वापिस भेज दूंगा।’’यश ने कहा था।

मेरे कुछ समझ नहीं आता। ‘‘वापिस भेज दूंगा मतलब?’’ मैंने सोचा था। पर मैं चुप रही थी। वैसे भी क्या बोलती। मैं क्या समझूॅ कि यश क्या चाहते हैं मुझसे।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com