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कर्म पथ पर - 37




कर्म पथ पर
Chapter 37


जय अपने कमरे में जा रहा था जब भोला ने आकर कहा कि बड़े मालिक उसे अपने कमरे में बुला रहे हैं।
जय अपने पिता के कमरे में गया। वह कानून की कोई किताब लेकर बैठे थे। जय को देखकर किताब बंद कर दी। उसे पास पड़ी हुई कुर्सी पर बैठने को कहा।
जय उनके पास बैठ गया। वह इंतज़ार कर रहा था कि श्यामलाल कुछ कहें।
श्यामलाल ने शांत गंभीर स्वर में कहा,
"आजकल तुम घर से गायब रहने लगे हो। पहले मेरठ चले गए थे। दो दिनों से फिर ना जाने कहाँ थे ? बात क्या है ? तुम्हारे लक्षण मुझे ठीक नहीं लग रहे हैं।"
जय जानता था कि उसके पिता उससे यही सवाल करेंगे। वह चाहता भी था कि श्यामलाल यह बात छेड़ें ताकि उसे अपनी बात कहने का मौका मिल सके।
उसने जवाब दिया,
"पापा मेरे लक्षण खराब नहीं हैं। बल्कि अब तो सुधरने शुरू हुए हैं। मैंने आपसे ललित नारायण मिश्र चाचाजी के बारे में पूँछा था। मैं उनसे ही मिलने गया था।"
"ललित से तुम्हें क्या काम पड़ गया ?"
"मुझे किसी के बारे में पता करना था। चाचाजी उसको जानते थे।"
श्यामलाल ने कोई जवाब नहीं दिया। वह कुछ पल चुप रहने के बाद बोले,
"जय मुझे तुम्हारे बारे में अच्छी खबरें नहीं मिल रही हैं। तुम रास्ता भटक रहे हो।"
"पापा मैं तो सही राह पर ही चल रहा हूँ। पर आप तक मेरी खबरें पहुँचाने वाला सही तस्वीर पेश नहीं कर रहा है।"
श्यामलाल गुस्से में बोले,
"मैं बच्चा नहीं हूँ जय। तुमसे बहुत अधिक दुनिया देखी है मैंने। मुझे कोई यूँ ही वरगला नहीं सकता है।"
"पापा आप सही कह रहे हैं। आपके पास मुझसे बहुत अधिक तजुर्बा है। लेकिन मुझे उस इंद्र की नीयत पता है। वो मेरे ज़रिए आपसे पैसे ऐंठने के चक्कर में है। इसलिए चाहता है कि मैं उसके इशारों पर चलूँ। पर मैंने अब अपनी राह चुन ली है।"
श्यामलाल के होंठों पर एक व्यंग भरी मुस्कान तैर गई।
"कौन सी राह जय। वृंदा और उसके जैसे भटके हुए लोगों की राह‌। वह राह जिस पर चलकर सिर्फ एक अंधी खाई ही मिलती है। वही राह चुनी है तुमने अपने लिए।"
श्यामलाल की आँखों में अचानक क्रोध उतर आया।
"जय अब तक तुम मेरी दौलत उड़ाने के अलावा कुछ नहीं करते थे। मैंने भी कभी तुम्हें नहीं रोका। क्योंकी मैं जानता था कि तुम्हारे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है। तुम्हारे अंदर अपनी पहचान बनाने की कोई इच्छा नहीं है।"
श्यामलाल उठकर खड़े हो गए। हाथ में पकड़ी किताब को रैक में रखा। फिर वापस आकर अपनी जगह पर बैठ गए।
जय चुपचाप बैठा था। उसकी तरफ देख कर बोले,
"मुझे दौलत जाने का कोई अफसोस नहीं था। बाप दादा बहुत कुछ छोड़ गए थे। मैंने अपनी योग्यता से उसे कई गुना बढ़ा दिया। मैं आसानी से यह दावा कर सकता हूँ कि अगले दस साल और मेरी वकालत इसी तरह चलेगी। दौलत का वो ढेर लगा दूँगा कि तुम दो हाथों से लुटाते हुए थक जाओ पर दौलत खत्म ना हो।"
श्यामलाल ने उसकी तरफ उंगली दिखाते हुए कहा,
"लेकिन मैंने ये इज्ज़त, ये रुतबा कई सालों की मेहनत से कमाया है। बड़े जतन से अंग्रेज़ी हुक्मरानों की निगाहों में अपने लिए जगह बनाई है। अगर तुम अपने फितूर के चलते मेरे इस रुतबे को नुक्सान पहुँचाओगे तो मैं भी भूल जाऊँगा कि तुम मेरे बेटे हो। इसलिए बेहतर है कि तुम अपने आप को संभाल लो।"
जय ने अपने पिता के चेहरे की तरफ देखा। वह उसी तरह गुस्से से उसे देख रहे थे। उसने कहा,
"पापा आप संभलने को कह रहे हैं। पर मुझे लगता है कि अभी तो मैं संभला हूँ। जिसे आप मेरा भटकाव समझ रहे हैं दरअसल वही मुझे मेरे उद्देश्य की तरफ ले जा रहा है। वृंदा और उसके साथी भटके हुए नहीं हैं बल्कि वो तो अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर, तमाम तकलीफें सहते हुए भी देश की सेवा कर रहे हैं।"
श्यामलाल ने व्यंग करते हुए कहा,
"और कुछ हो ना हो। उस लड़की वृंदा ने तुम्हें तकरीर करना ज़रूर सिखा दिया है। पर इस तरह की तकरीरें तुम मेरे घर में रहकर नहीं कर सकते हो।"
"पापा आपने यह कह कर मेरी मुश्किल आसान कर दी। मैं भी अब इस राह से कदम खींचने को तैयार नहीं हूँ। ना ही आपके साथ रहते हुए आपकी सोंच के खिलाफ कोई काम करना चाहता था। लेकिन एक संकोच था। अब वह भी समाप्त हो गया। मैं यह घर छोड़कर चला जाऊँगा।"
"कहना बड़ा आसान होता है। पर जब सर पर छत नहीं होगी तो ये सब भूल जाओगे। पर याद रखो एक बार घर से बाहर कदम निकाला तो दोबारा घुस नहीं पाओगे।"
"मेरा वापस लौटने का इरादा भी नहीं है पापा।"
"मेरा और तुम्हारा रिश्ता भी समाप्त हो जाएगा।"
जय ने श्यामलाल के पैर छूकर कहा,
"पापा मेरा भी निश्चय नहीं डिगने वाला है। मैं हार कर वापस नहीं आऊँगा। लेकिन जहाँ तक मेरे और आपके रिश्ते का सवाल है। वह ऐसे नहीं टूट सकता है। मुझे पूरा यकीन है कि एक दिन आपको मेरे पापा होने पर गर्व होगा।"

जय चला गया। श्यामलाल को इस बात का यकीन नहीं था कि वह सचमुच चला जाएगा। उन्हें लगा था कि घर छोड़ने की बात सुनकर वह डर जाएगा। अपनी ज़िद छोड़ देगा।
अभी भी उन्हें इस बात का यकीन था कि भले ही जय घर छोड़कर चला गया है पर कुछ ही दिनों में उसका फितूर उतर जाएगा। जय को लेकर अब तक उनका यही अनुभव रहा था। अपने लिए निर्णय पर वह अधिक दिनों तक टिक नहीं पाता था।
पर उन्होंने भी फैसला कर लिया था। जब जय कुछ दिनों तक धक्के खाने के बाद वापस आएगा तो वह भी आसानी से उसे घर में नहीं आने देंगे। जब तक वह यह वादा नहीं कर लेता है कि दोबारा कभी ऐसे खयाल उसके दिमाग में नहीं आएंगे, उसे घर में कदम नहीं रखने देंगे।

जय अपना घर छोड़कर चला तो गया था लेकिन अब उसे चिंता थी कि वह रहेगा कहाँ ? एक ही व्यक्ति था जिसके पास वह मदद के लिए जा सकता था।
उसने मदन के घर का दरवाज़ा खटखटाया। एक बच्चे ने दरवाज़ा खोला। जय ने पूँछा,
"मदन घर पर है ?"
बच्चा कुछ बोलता तभी अंदर से किसी औरत ने पूँछा,
"कौन है दरवाज़े पर ?"
"अम्मा कोई चाचा को पूँछ रहा है।"
बच्चे ने जय को कहा कि वह रुके। अभी वह अपने चाचा को भेजता है।
कुछ देर बाद मदन बाहर आया। जय को देखकर बोला,
"जय तुम...आओ अंदर बैठो..."
जय ने कहा,
"नहीं... क्या तुम मेरे साथ कुछ देर के लिए चल सकते हो ?"
मदन उस समय बनियान पहने हुए था। उसने उसे ठहरने को कहा। कुछ ही क्षणों में वह कमीज पहन कर बाहर आ गया। गली से बाहर निकल कर जय ने एक तांगा रोका और उसे गोमती नदी के किनारे चलने को कहा।
जय की मनोदशा को भांप कर मदन समझ गया था कि मामला गंभीर है। वह इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि जय बात की शुरुआत करे।
जय के मन में भी उहापोह चल रही थी कि वह बात की शुरुआत कैसे करे ? उसे रहने का एक ठिकाना चाहिए था। पर उसके पास किराए के पैसे नहीं थे।
दोनों ही चुप थे। केवल घोड़े के दौड़ने से होने वाली टप टप सुनाई पड़ रही थी।


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