तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 2 - गुलाबी मौसम Medha Jha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 2 - गुलाबी मौसम



मई महीना बहुतों को गर्मी की चिपचिपाहट से भरा लगता है पर मेरे लिए तो हमेशा से यह रूमानियत वाला रहा है । इसकी शुरुआत उस साल से होती है जिस साल मुझे तुम्हारा खत मिला था । सभी दृश्य मेरी आंखों के सामने स्पष्ट हैं। मई की वह दोपहर, आकाश मेघाच्छादित था और मेरे मन पर तो वसंत ऋतु छाया था। लखनवी गुलाबी कुर्ता पहनी मैं, तन मन से भी गुलाबी हो रही थी। पहला सलवार कुरता था वह मेरा । बड़ी दी की शादी में मम्मी ने दिलवाया था।

आज तुम्हारा खत आने वाला था। सुबह से ही उस क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी मैं । दिन मानो काटे नहीं कट रहा था । फिर अचानक दोपहर में संयोगिता आयी और उसके साथ ही कुछ देर के लिए बाहर घूमने निकल गई मैं। उस क्षण मैं बेताब थी अपने मन की बात किसी से कहने के लिए और संयोगिता तो मेरी प्राण प्रिय मित्र थी , जिसके समक्ष मेरा कुछ भी छुपा हुआ नहीं था । हम निकल गए राजेंद्र नगर पुल की तरफ। वहां से लौटते हुए वह क्षण नजदीक आ रहा था जबकि तुम्हारा खत आने वाला था जोकि आकाश कुसुम समक्ष था मेरे लिये।

एक एक क्षण के साथ मेरे हृदय की गति भी बढ रही थी। मन में कहीं था कि एक बार सामने से तुमसे बात हो जाती, तुम्हें देखना हो जाता। यही सोचते हुये मनीषा के घर पहुंची मैं, जहां पत्र देने आने वाले थे तुम। पर मनीषा ने साफ शब्दों में कह दिया कि अगर मैं वहां रहूंगी तो तुम नहीं आओगे। इसीलिए बेहतर है , मैं घर चली जाऊं ।और उसने वादा किया कि जैसे ही उसे मेरा खत मिलेगा उसी क्षण उसे मेरे पास पहुंचा देगी । अपनी बेताबी को वश में करते हुये किसी तरह से मैं अपने घर पहुंची।

कुछ ही देर बाद मनीषा आई थी तुम्हारा खत लिए हुए । मिलते ही दौड़ पड़ी थी मैं अंदर के कमरे में। कुछ क्षण तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि तुमने मुझे पत्र भेजा है। खुद को विश्वास दिलाते हुये और अपने सांसों को वश में करते हुये, एक ही सांस में पढ गई थी पत्र मैं। उसके एक एक शब्द आज भी याद है मुझे - तुम्हारा वादा , तुम्हारे अक्षर, तुम्हारे शब्द - आज भी उसी तरह मेरी आंखों के समक्ष स्पष्ट है।

दिन रात तुम्हारे ख्वाब , दिन रात तुम्हारे बारे में सोचना , मेरी पढी हर एक किताब के नायक थे तुम। चाहे वह प्रकाश मनु का सत्यकाम हो 'यह जो दिल्लीहै' वाला या फिर सुरेंद्र वर्मा का हर्षवर्धन "मुझे चांद चाहिए" वाला। उसी बीच मैंने 'गुनाहों का देवता' भी पढ़ा था लेकिन चंदर सुधा का प्रेम कुछ ज्यादा अलौकिक था। अपनी प्रेम कहानी का ये अंत मुझे नहीं चाहिए था। अंत तो मुझे "मुझे चांद चाहिए" वाला भी पसंद नहीं था जहाँ बर्षा वशिष्ट का हर्षवर्धन कालकलवित हो जाता है।

हर पल सोचती "यह जो दिल्ली है" वाले सत्य काम की नीलांजना अगर मैं होती तो उसकी आग ठंडी नहीं पडने देती । उस समय सोचा भी नहीं था कि मेरी प्रतीक्षा इतनी लंबी होगी ।

कुछ दिनों बाद पटना कॉलेज में एडमिशन हो गया मेरा और जिस तरह की हर सह शिक्षा प्रणाली में होता है यहां भी लड़कियां काफी कम थी और हर कुछ दिन में पता चलता था कि किसी को मैं अच्छी लगती हूँ । नामांकन वाले दिन जब सौरभ को वहां देखा तो बाँछें खिल गई थी मेरी कि मेरे स्कूल का एक मित्र तो है मेरा यहाँ।