लॉकडाउन में मन के खुले किवाड़ Dr Jaya Anand द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लॉकडाउन में मन के खुले किवाड़




कितने दिन हो गए हैं घर से बाहर निकले । रोज़ सुबह घर का काम ,नाश्ता खाना ,साफ सफाई ,बरतन धोना ...बाई भी नहीं ,कोरोना जैसी महामारी के वजह से किसी भी बाहरी व्यक्ति को आने की इजाज़त भी नहीं ।सारी दुनियां

घर में क़ैद ...अगर ये नहीं होता तो अपूर्वा बच्चों के साथ समान पैक कर मायके चली गयी होती । पूरे साल भर इसी आस में बीतते कि कब मई आये और वो माँ के घर पहुंचे पर इस बार तो ऐसा हो ही नहीं सकता ...। अपूर्वा ने मन को समझा लिया था कि आखिर वही अकेली तो नहीं उसके जैसी दूसरी लड़कियां भी तो मायके नहीं जा

पा रहीं ।ऐसे में दुःख मानों बंट सा जाता ।

अपूर्वा ने घर को और खुद को सकारात्मक बनाये रखने के लिए काम को नियमित ढाँचे में ढाल लिया था जिससे घर में बंद हो कर भी घर का आरोह अवरोह न बिगड़े और सुरीलापन बरकरार रहे । तीन बजे तक वह घर के काम निपटा कर फ्री हो जाती फिर पढ़ने लिखने का सिलसिला शुरू होता ,कभी नए गाने सीखती और फिर माँ को फोन करती ,कभी किसी मित्र को फोन लगाती । सोशल डिस्टेंसिंग कितनी भी क्यों न हो पर मन तो जुड़े ही हुए थे सबके ।…..उस दिन भी अपूर्वा फोन पर माँ से बाते कर रही थी ।यों तो हर बार घरेलू बातें होतीं या क्या पढ़ा लिखा इस विषय पर चर्चा होती या अपूर्वा के बचपन की बातें होतीं पर उस दिन माँ की कही बातों में एक युवा लड़की हिलोरे मार रही थी "जानती हो अपूर्वा! एक बार मेरे कॉलेज एग्जाम में बड़ी नकल हो रही थी पर मुझसे ये सब नहीं होता " माँ पुरानी यादों में खोई बता रही थी ।

" फिर क्या हुआ माँ" अपूर्वा जिज्ञासा से बोली ।

माँ ने आगे बताना शुरू किया " पता है तुम्हें !क्लास रूम से बाहर आकर मैं ज़ोर ज़ोर से रोने लगी ,तभी एक लड़का मेरे पास आया "

"लड़का "अपूर्वा मुस्कुरायी

माँ थोड़ा झेंपते हुए बोली "अरे साथ मे पढ़ता था ,वो आया मेरे पास औऱ कहने लगा "क्यों रो रही हो कीर्ति ! तुम्हें तो अच्छे मार्क्स आएंगे ही ,तुम तो मेहनती हो ,बहुत अच्छी लड़की हो तुम ! ...माँ इतना बोल कर चुप हो गयी

"अहा!,माँ !वो लड़का कितना लकी है जिसे तुम आज भी याद कर रही हो " अपूर्वा खिलखिला उठी

माँ की भी उन्मुक्त हंसी छूट गयी । ...एक क्षण रुक कर माँ बोली '"अपूर्वा !जानती हो ये अनुभूति कि दुनियां में कोई एक भी ऐसा है जो आपको अच्छा समझता है ,आपके लिए अच्छा भाव रखता है ,जीवन में बहुत बड़ा संबल बन जाती है ,वो अनुभूति जीवन को सुंदर बनाती है और संघर्ष के पथ को सुगम बना देती "

अपूर्वा अपनी इस यौवना माँ की स्मृतियों और अनुभूतियों में डूबती उतराती जा रही थी और उन अनुभूतियों में उसे अपना चेहरा भी दिख रहा था ..हाँ सच ही तो कहा माँ ने कोई एक भी ऐसा है तो दुनियां सुंदर ,सौम्य बन जाती है ..हाँ कोई है ऐसा शायद !! ।…….माँ से बातें करते हुए इस तरह शायद पहली बार माँ उसकी एक पूरी सहेली बन गयी थी ,मन के किवाड़ खुल रहे थे ,जिंदगी भरपूर सांसे ले रही थी चाहे कितना ही लॉकडाउन क्यों न हो ।


डॉ जया आनंद

प्रवक्ता

स्वतंत्र लेखन (मुम्बई आकाशवाणी, विविध भारती,ब्लाग ,पत्रिका)