होने से न होने तक - 21 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 21

होने से न होने तक

21.

डाक्टर उदय जोशी लखनऊ आए थे तो उन्होने मीनाक्षी को सूचित किया था। वह उनसे मिलने गयी थी। जितने दिन भी वे रहे थे लगभग हर दिन ही मीनाक्षी उनसे मिलने जाती रही थी। लगभग डेढ़ साल में उसकी थीसिस पूरी हो गयी थी। उसकी फाइनल प्रति बनाने से पहले वह डाक्टर जोशी के पास दिल्ली गयी थी। वहॉ से लौट कर उसने थीसिस को फाइनल टाइप करा कर उसे जमा कर दिया था।

लगभग एक साल में एन्थ्रोपालिजी डिपार्टमैंण्ट में पी.जी. खुलने की अनुमति आ गयी थी। उसके बाद पूरे बचे हुये सैशन में मीनाक्षी अपने डिपार्टमैंट की लायब्रेरी और लैब सैट करने में लगी रही थी। अगले सत्र से बाकायदा स्नात्कोत्तर कक्षाए शुरू हो गयी थीं। कुछ लोगों की तीखी प्रतिक्रिया हुयी थी। विद्यालय में उसका विभाग सबसे बाद में खुला था। अतः वह अपने विभाग में भले ही सब से सीनियर है किन्तु लगभग अन्य सभी टीचर्स से जूनियर है। लोग तरह तरह से बड़बड़ाए थे,‘‘मीनाक्षी बहुत अच्छी गायिका हैं इसलिए प्रबंधक और प्राचार्या का साफ्ट कार्नर है उनके लिए।’’ कहने वालों ने तो यहॉ तक कहा था कि‘‘भई वे सुंदर हैं, चुलबुली हैं। वह तो सभी को अच्छी लगती ही हैं।’’

‘‘पर पढ़ाई का सुंदरता से क्या लेना देना। फिर गायिका होने का भी पढ़ाई से क्या मतलब। पी.एच.डी. अभी सबमिट ही तो किया है अभी अवार्ड तो नहीं हुआ है न। करने और होने में तो बड़ा लंबा फासला होता है।’’

पर किसी के कुछ भी कहने से क्या होता है। उसे डाक्टरेट भी मिल गयी थी। लगभग एक वर्ष उसने अपने विभाग को जमाने सजाने में निकाल दिया था। लैब के विस्तार के लिये वह दूसरे कालेजों मे और यूनिवर्सिटी जा कर चीज़ो को देखने परखने में लगी रही थी। काफी कुछ सुझाव वह दूर बैठे डाक्टर उदय जोशी से भी लेती रही थी। अधिकाश्तः अब मित्रों की बैठकी स्टाफ रूम मे न हो कर मीनाक्षी के कमरे में होने लगी है। विशेषतः केतकी की। वह दोनो अब स्टाफ रूम में बहुत ही कम दिखती हैं। नीता और मैं भी मीनाक्षी के पास बैठने चले जाते हैं। न जा पाए तो अक्सर मीनाक्षी ही हमे किसी को भेज कर बुलवा लेती है। क्लास में जाते या वहॉ से निकलते कौशल्या दी और मानसी चर्तुवेदी भी कुछ क्षणों के लिए कभी कभी वहॉ बैठ लेती हैं। उन दोनो का ही क्लास रूम मीनाक्षी के कमरे के सामने ही है। मीनाक्षी ने अपने कमरे को काफी सजा कर रखा है। कमरा बड़ा है। उसके एक तरफ को सुंदर सी एकदम नयी मेज़ रखी है। गाडरेज की रिवाल्विंग चेयर पर मीनाक्षी बैठी रहती है और मेज़ के दूसरी तरफ तीन कुर्सियॉ जिन पर हम लोग बैठते हैं। कमरे में दूसरी तरफ को एक छोटा सा केन का सोफा रखा हुआ है और उसके सामने ग्लास टाप के साथ एक सैन्टर टेबल, जिस पर मीनाक्षी ने एक सुंदर सा फूलदान रखा हुआ है। सोफा बहुत ही साधारण सा है पर कालेज में कुछ ही टीचर्स के पास अपने अलग कमरे हैं इसलिए सब कुछ बहुत ही अच्छा सा लगता है, भव्य जैसा। फिर मीनाक्षी ने कमरे को रखा भी बहुत संभाल कर है। काफी कुछ सामान उसने कालेज से जुटा लिया है और कितना कुछ वह अपने घर से ले आयी है। जिस दिन पहली बार मानसी जी मीनाक्षी के कमरे में आयी थीं तो कमरे के बीच में खड़े हो कर चारों तरफ घूम कर देखा था फिर चल कर एक दो चीज़ो को उठा कर या उनके पास जा कर छू कर देखा था,‘‘वाह मीनाक्षी इसको कहते हैं नौकरी करना...बढ़िया सा लैब, बढ़िया सा कमरा, कमरे के बाहर एक आया। एक हम लोग हैं अपना कोई कमरा नहीं, अपनी कोई कुर्सी तक नहीं, जो ख़ाली मिल जाए उसी पर बैठ जाओ।’’हॅसते हुए उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ कर छत की तरफ को कर दिए थे,‘‘हे प्रभो अगले जनम हमें टीचर मत बनाना। यह बात हम आपसे कई बार कह चुके हैं। आज उस बात में करैक्शन कर रहे हैं। टीचर बनाना तो सिर्फ प्रैक्टिकल सब्जैक्ट का ही बनाना।’’ फिर वह नीता की तरफ को देख कर हॅसी थीं,‘‘पर नीता जैसा फटीचर लैब और फटीचर कमरा मत देना। मतलब हमें जागरफी का टीचर नहीं बनना है।’’

सब लोग हॅसते रहे थे। उस दिन मीनाक्षी नें कैंटीन से चाट पकौड़ी मंगा कर सैलिब्रट किया था।

सब तरफ से निश्चिंत हो जाने के बाद मीनाक्षी ने डाक्टर जोशी की किसी बहु चर्चित किताब का अनुवाद शुरू कर दिया था। अनुवाद के काम के लिए वह एकदम सही है...श्रेष्ठतम अंग्रेज़ी स्कूलों मे पढ़ी हुयी और हिन्दी प्रेमी। साधारण बातचीत में भी उसका शुद्ध हिन्दी में बात करने का तरीका बेहद अनूठा है,जो उस पर बहुत स्वभाविक लगता है। साधरण बातचीत में भी वह जब तब हिन्दी के जटिल शब्दों का उपयोग करती है पर उसके मुह से वे अटपटे नहीं लगते। दोनो ही भाषाओं से उसे प्यार है। अंग्रेज़ी वालों में हिन्दी के प्रति ऐसा लगाव कम ही दिखता है। बी.ए. में उसने हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनो साहित्य लिए थे।

मीनाक्षी जब भी डाक्टर उदय जोशी से मिल कर आती है तब हर बार अतिरिक्त रूप से उत्साहित दिखती है। अपने अनुवाद के काम को लेकर पूरी तरह से चार्ज्ड रहती है। उन दिनां मीनाक्षी के पास बात करने के लिए जैसे कुछ ही विषय रह जाते हैं...अपना विभाग,अपना लैब, अपना अनुवाद का काम और उदय जी। उसे उदय जी अच्छे लगते। उनकी असाधारणता उसे आकर्षित करती, साथ ही उनको निकट से जानना उसके लिए जैसे गर्व की बात है। उनके ज़िक्र भर पर लगता उसकी ऑखे चमकने लगतीं। उनका उठना बैठना, उनका बात करने का ढंग, उनके द्वारा बोले गए छोटे से साधारण वाक्य वह दीवानों की तरह दोहराती।

प्रायः की तरह उस दिन भी मीनाक्षी उदय जी की कोई बात कर रही थी। केतकी बड़े ध्यान से उसकी तरफ देखती रही थी और उसके चेहरे पर बड़ी मधुर सी मुस्कान फैल गयी थी,‘‘तुम्हें पता है मीनाक्षी यू आर इन लव विद हिम।’’

नीता ने डपटा था,‘‘क्या बेकार की बात करती हो केतकी ?’’

केतकी ने नीता की तरफ ठहरी हुयी निगाहों से देखा था। उसके व्यतित्व में एक अद्भुत आत्म विश्वास है, एक ज़िद्द जैसा,‘‘कमाल है नीता। इसमें बेकार की क्या बात है? तुम लोग नहीं देख रही हो मीनाक्षी में बदलाव?’’ केतकी ने बारी बारी से हम तीनो की तरफ देखा था और अपने दोनो हाथां को बेहद नाटकीय अंदाज़ में हवा में ऊपर तक उठा कर नीचे की ओर फहराया था जैसे नर्तक वर्षा का अभिनय करते हैं,‘‘आजकल मीनाक्षी जी उदयमय हो गयी हैं। डाक्टर उदय जोशी के रस में भीगी हुयी।’’ वह हॅस रही है।

मीनाक्षी के चेहरे पर संकोच भरी मीठी सी मुस्कान आयी थी और वह क्लास लेने के लिए उठ कर खड़ी हो गयी थी।

उसके चले जाने के बाद भी हम तीनो में मीनाक्षी और उदय जी के संबध के बारे में ही बात होती रही थी,‘‘केतकी अगर कुछ है भी तो भी इस बारे में बात न करो।’’ मैंने कहा था।

‘‘जिस रिश्ते से कुछ हासिल नहीं उसके बारे में सोचने या बात करने से फायदा? केतकी इस बात को उसके दिमाग में मत डालो और न ही उसे इस बारे में इनकरेज करो। इस रिश्ते का न कोई वर्तमान है न भविष्य है। उनकी उम्र...कम से कम तीस साल बड़े होंगे वे उससे।’’नीता ने मन ही मन हिसाब लगाया था,‘‘नही केतकी बल्कि पैंतीस साल तक का अंतर होगा दोनो में...और..’’

केतकी के चेहरे पर हम दोनों के लिए ही झुंझलाहट है। उसने नीता की बात बीच में ही काट दी थी.‘‘कम आन...व्हाट एज हैस टू डू विद लव? वैसे भी मीनाक्षी कोई बच्चा है कि हम लोग उसे बताए कि प्यार करो या मत करो और करो तो किससे करो। प्यार करने की क्या कोई प्लानिंग की जाती है नीता। वह तो बस हो जाता है।’’

थोड़े दिनों मे ही नीता और मैं ने महसूस किया था कि मीनाक्षी और केतकी हम दोनां से कतराने लगे हैं। हम लोगो के बीच अनायास ही रिश्तों के समीकरण बदलने लगे थे। हम दोनों अक्सर महसूस करते कि उसके कमरे मे जाने पर बातें छोटे छोटे टुकड़ों मे टूटने लगी हैं। पहले की तरह आपस में कोई अनवरत सूत्र जुड़ ही नही पाता जैसे। कभी देखते कि मीनाक्षी और केतकी लाइब्रेरी में किसी अल्मारी के पीछे खड़े हुए धीरे धीरे बातें कर रहे हैं या दोनो हम लोगों को बिना बताए कैन्टीन जा रहे हैं। धीरे धीरे नीता और मैं ने भी अपने आप को उन दोनों से दूर कर लिया था। हम लोगों ने मीनाक्षी के कमरे में बैठना कम कर दिया था और पहले की तरह स्टाफ रूम में अधिक बैठने लग गये थे। काफी समय तक यह दूरी भरा अपनापन चलता रहा था।

यश आजकल यू.एस. गए हुए हैं। लौटते पर सिंगापुर भी जाऐंगे,‘‘प्लैज़र कम बिसनैस टूर है।’’यश ने ऐसा ही बताया था। ऑटी भी गयी हैं। लगभग तीन हफ्ते हो गए हैं यश को गए हुए। मुझ को लगता जैसे एकदम ख़ाली हो गयी हूं -जैसे करने के लिए कुछ ख़ास बचा ही नही है। वैसे तो यश प्रायः शाम को ही आते हैं। फिर भी मुझ को लगता जैसे पूरे दिन में शाम का वह थोड़ा सा समय ही मेरी पूरी दिनचर्या को नियमित करता है।

यश का फोन मिला था कि वे लौट आये हैं।। वैसे तो मैं दो तीन दिन से यश के लौटने का इंतज़ार कर रही थी क्योंकि यश को दिल्ली पहुंचे तो तीन चार दिन हो चुके हैं। वहॉ से लौटने का कोई निश्चित प्रोग्राम नहीं था। लखनऊ पहुंच कर यश का फोन आया था, ‘‘दिन में व्यस्त हॅू। शाम को घर आऊॅगा।’’

दुपहर में मैं शिवानी को लेकर हज़रतगंज चली गयी थी। बहुत सारे काम थे। यूनिवर्सल जाना था। कुछ किताबें देखनी हैं और एक दो मैंचिंग ब्लाउज़ लेने हैं। हलवासिया से बाहर निकल रही थी कि सामने ही सहगल ऑटी दिख गयी थीं। मुझे देख कर एकदम से ख़ुश हो गयी थीं, ‘‘आज ही लौटे हैं। यू.एस. टूर पर गये हुए थे। लौटते पर सिंगापुर भी रूके थे।’’उन्होंने बताया था। मैं उस बारे मे चुप ही रही थी। मैं कुछ कह पाती उससे पहले ही शिवानी बड़े अधिकार से बोल बैठी थी,‘‘पर इतने लंबे प्रोग्राम की बात तो यश भैया ने नही बतायी थी।’’

ऑटी ने एक बार चौंक कर मेरी तरफ देखा था और एक बार उसकी तरफ। उन्होने कुछ कहा नहीं था किन्तु उनका चेहरा थोड़ा गंभीर हो गया था या शायद मुझ को ही वैसा लगा था। उनके जाते ही शिवानी ने मेरी तरफ देखा था,‘‘दीदी शायद मुझे नही कहना चाहिए थी वह बात।’’ उसके स्वर में खिसियाहट है और उसका चेहरा उतरा हुआ है।

मैं उसकी बात नहीं समझ पायी थी,‘‘कौन सी बात?’’मैंने पूछा था।

‘‘यश भैया की बात।’’ उसके स्वर में अभी भी खिसियाहट है।

‘‘नहीं कोई बात नहीं शिवानी।’’ मैंने कहा था। क्या कहती मैं उस से कि अपने घर यश के आते रहने की बात उसे ऑटी से क्यों नही करना चाहिए थी। मैं तो स्वयं भी नही जानती यह बात कि क्यों छिपाती हूं मैं ऑटी से यश का आते रहना या यश ही उस बात का ज़िक्र अपने घर पर क्यो नही करते। वैसे भी अब उससे कुछ भी कहने से लाभ। पर मन में इतना ज़रूर आया था कि क्या शिवानी ने भी ऑटी के चेहरे का कसाव महसूस किया था। मन आया था कि पूछू उससे पर क्या पूछती, इसलिए मैं चुप ही रही थी।

सोचा था लौटते समय शिवानी को लेकर रंजना जाऊॅगी। उसे वहॉ कुछ खिलाऊॅगी और यश के लिए पेस्ट्री भी पैक करा लूंगी पर कुछ भी नही किया था। मन मे एक अजब सी बेचैनी होने लगी थी। कुछ करने का जैसे मन ही नहीं किया था।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com