होने से न होने तक
20.
शशि अंकल मानसी की तरफ देख कर हॅसे थे, ‘‘तू क्यों विरोध कर रही है। मैंने तो सबसे पहले तेरा ही सब्जैक्ट चुना है।’’
‘‘क्यों मानसी के साथ यह फेवर क्यों?’’कई आवाज़े एक साथ आयी थीं।
शशि कान्त अंकल ने अपनी बात जारी रखी थी, ‘‘एक तो सोशालजी अकेला डिपार्टमैंन्ट है जिसमें टीचर्स की संख्या सात है। फिर इस सब्जैक्ट में लड़कियॉ भी बहुत ज़्यादा हैं और मानी हुयी बात है कि एम.ए.के लिए हमें स्टूडैन्ट्स के कम होने का कोई डर नही होगा।’’
मानसी मुस्कुरायी थीं पर साथ ही अपने नज़रिए पर टिकी रही थीं।
सीमा माथुर उठ कर खड़ी हो गयी थीं,‘‘हमारे सब्जैक्ट कठिन हैं। अगर स्टूडैन्ट्स कम आते हैं तो इसमें हमारी तो कोई ग़लती नहीं है न। अगर मानसी के विषय में खोला गया पी.जी. और हमारे में नही तो हम सब मिल कर विरोध करेंगे।’’
रूपाली बत्रा की आवाज़ सुनाई दी थी,‘‘हम भी करेंगे विरोध।’’
शशि अंकल के स्वर में हल्की सी नाराज़गी है,‘‘तुम लड़कियॉ मुझे धमकी दे रही हो?’’
‘‘नहीं सर हम न्याय की मॉग कर रहे हैं। इसे धमकी मत कहिए?’’रूपाली की आवाज़ में मजबरी है।
‘‘मानसी ने हाथ उठाया था ‘‘स्टाफ के जनतंत्रवाद के लिए हम भी उनके साथ हैं भले ही हमारे सब्जैक्ट में पी.जी. खुलने की बात हो।’’
दूसरी तरफ बैठी मोहिनी दीक्षित हॅसी थीं,‘‘भई स्टेटस की यह लड़ाई तुम लोग लड़ो। हम तो जहॉ हैं वहॉ बहुत ख़ुश हैं। एक पेपर नया आ जाता है तब तो पढ़ते पढ़ते पागल हो जाते हैं। एम.ए.के लिए नए सिरे से पूरी तैयारी करना, नो वे। हमें न यूनिवर्सिटी वालों से कोई काम्पलैक्स है और न ही अपने कालेज में पी. जी. वालों से होगा। कोई बेहतरी के लिए मेहनत कर रहा है तो हो जाए बेहतर। हमें क्या परेशानी है।’’
उनके साथ उनकी जैसी बात कहने वाले भी कई हो गए थे।
रेखा नागपाल उठ कर खड़ी हो गयी थीं,‘‘हमे है परेशानी। हम मेहनत भी कर सकते हैं और काब्लियत भी रखते हैं। फिर हमारे सब्जैक्ट में क्यो नहीं।’’
किसी ने यह भी कहा था कि सच तो यह है कि यूनिवर्सिटी वाले यह भी कहते हैं कि ऐफिलियेटेड कालेज वालों कोपी.जी. पकड़ा कर सरकार ने हायर स्टडीज़ का मज़ाक बना दिया है। न उतनी किताबें हैं, न कमरे, न टीचर्स की संख्या। थोड़े से रूपये पकड़ा कर पार्ट टाईमर्स से काम चलाया जा रहा है। कहीं कही तो मुफ्त में पढ़वाया जा रहा है।’’
‘‘कुछ ग़लत भी नही कहते यूनिवर्सिटी वाले। यही तो हो रहा है कालेजों में।’’ मानसी धीमे से बड़बड़ाई थीं। इतना धीमे से कि सिर्फ आस पास बैठे लोग ही सुन पाए थे।
दीपा दी ने हाथ के इशारे से सबको चुप रहने के लिए कहा था,‘‘देखिए आप लोग प्रैक्टिकल प्राब्लम समझिए। हम एक साथ सब विषयों में पी.जी. नहीं खोल सकते। पर इसी कारण से शुरू ही न करे। अपना पहला कदम ही न बढ़ाये तो हम तो पिछड़ जाऐंगे न। देखिए साईंस और कामर्स में तो पी.जी. की कोई बात भी नही की है हमने और इसीलिए आज की मीटिंग तक में उनको शामिल नहीं किया है। जब कालेज में डिग्री खुला था तब भी इस तरह की मुश्किलें आयी थीं। पर हम बढ़े न। शहर के अच्छे कालेजो में गिनती रही हमारी। यूनिवर्सिटी को हमने न जाने कितनी बार टापर्स भी दिए हैं और एम.ए. में भी देंगे हम टापर्स। इसलिए वे क्या कहते हैं इसकी परवाह हम नही करते। हम सब तो परिवार हैं और हम जानते हैं कि आप में से कोई भी उसमें रुकावट नहीं बनना चाहेगा। परिवार की तरक्की आप सब भी चाहते ही हैं।’’ उन्होने चारों तरफ देखा था,‘‘इतना भरोसा है हमे आप सब पर। अपने आप से पहले हमें विद्यालय की तरक्की देखनी है।’’
उन्होने एक तरह से अपने स्टाफ से अपील की थी। टीचर्स के बीच का जोश और रोष थोड़ा थमा था पर थोड़ी सुगबुगाहट, थोड़ी बड़बड़ाहट अभी भी बनी रही थी।
‘‘शुरू की इन्होने इमोशनल ब्लैकमेलिग।’’अंजलि सक्सेना बहुत धीमें से बुदबुदायी थीं।
‘‘दोस्तों इन दोनों को सीधा न समझो। हमारी नब्ज़ दबाना आता है इन्हे।’’ रूपाली बत्रा हॅसी थीं।
शशि अंकल की लच्छेदार बातों ने और दीपा दी की मनुहार ने टीचर्स को काफी सीमा तक शॉत कर दिया था। सच बात यह है कि टीचर्स भी समझ रही थीं इस बात को कि सारे सब्जैक्ट्स में एक साथ एम.ए. खोला जा सकना संभव हो ही नही सकता। वह या तो असंभव की मॉग करना था या कालेज की तरक्की को रोक देना। यह भी सच है कि वे दोनो चाहते तो स्टाफ से बिना कोई संवाद किये मनमाने ढंग से एम.ए. की कक्षॉए खोल सकते थे। पर इस विद्यालय में तो हमेशा ही सबको साथ ले कर आगे बढ़ा जाता है।
चाय,नाश्ता,बहस,और हॅसी मज़ाक के बीच मीटिंग ख़तम हो गयी थी। स्टाफ में सबका अपना अपना नज़रिया था। सबके अलग कारण थे और अलग प्रतिक्रियाए। कौशल्या दी बहुत ख़ुश थीं। अपने कारण से नहीं पूरी तरह से कालेज के लिए। इस संस्था को उन्होने प्रायमरी से डिग्री तक की सीढ़ी चढ़ते देखा है कदम ब कदम। उसी श्रंखला में एक कदम और। यही उनका सुख है।
मीटिंग ख़तम होते ही उन्होने पर्स खोल लिया था,‘‘शशि भाई आपने आज तबियत ख़ुश कर दी। अब हमारा कालेज होगा चन्द्रा सहाय पोस्ट ग्रैजुएट कालेज।’’ हथेली खोल कर उन्होने टाफीयॉ उनके सामने बढ़ा दी थी,‘‘गॉड ब्लैस यू शशि भाई’’ उसके बाद उन्होने दीपा दी को टाफी दी थी। फिर बाकी स्टाफ को एक एक करके। वे काफी ज़ोर से बोलने लगी थीं और हो हो कर के हॅसती रही थीं ‘‘आपको याद है न शशि भाई जब हम लोगों ने इस आर्गेनाइज़ेशन की शुरूआत की थी और इन्सपैक्शन के लिए वह अंग्रेज़ डायरैक्टर आया था और उसने कहा था,‘‘यू आर शार्ट आफ लैंण्ड’’ और मैंने जवाब दिया था कि....’’
उनकी बात बीच में ही काट कर शशि अंकल ने उस वाक्य को पूरा किया था,‘‘हॉ तुमने कहा था,‘‘सर डोन्ट यू सी द स्काई अबव’’ वे हॅसे थे। उनकी हॅसी की आवाज़ कौशल्या दी के ठहाको में घुलमिल गयी थी। कौशल्या दी यह किस्सा न जाने कितनी बार सुना चुकी हैं और हर बार वे इसी तरह से उत्तेजित हो जाती हैं और देर तक हो हो कर के हॅसती रहती हैं।
शशि अंकल की ऑखों में चमक है,‘‘तुमने देखा कौशल्या हम तो ऊपर आसमान में भी चढ़े और हम तो ज़मीन पर भी फैल गए।’’ दीपा दी सहित बहुत सा पुराना स्टाफ उस बातचीत में शामिल हो गया था। उस दिन नए आए लोगो को कालेज के बारे में बहुत कुछ पता चला था कि कैसे यह ईंट ईंट जुड़ कर कदम दर कदम फैल कर गिनती के चार कमरे और उसके आगे बने एक छोटे से बराम्दे से बढ़ कर अपने वर्तमान आकार में पहुॅचा है। ज़मीन पर फैला भवन ऊपर तो चढ़ा ही है साथ ही शशि कॉत अंकल ने आस पास की सरकारी ज़मीन भी अपने संपर्क और सूत्रो के माध्यम से पा ली है। कौशल्या दी खिड़की से बाहर इशारा करके बताती हैं,‘‘शुरू में हमारे पास केवल यहॉ तक की ही ज़मीन ही तो थी। बाकी तो बगल के उस आफिस से काट कर हमें दी गयी है।’’ उन्होने हम सब की तरफ देखा था। सब लोग आश्चर्य से बाहर की तरफ देख रहे हैं। लगा था उन दोनों का नॉस्टैलजिया हम सब महसूस करने लगे हैं। कौशल्या दी ने बहुत सराहना भरी निगाह से शशि अंकल की तरफ देखा था,‘‘ऐसे ज़मीन मिल जाना आसान था क्या? हम लोग तो सोच भी नही सकते थे। आज भी किसी से कहते हैं तो लोग विश्वास ही नहीं करते कि ऐसे कैसे सरकारी ज़मीन किसी प्राईवेट कालेज को दी जा सकती है भला।’’दीदी हो हो करके हॅसती रही थीं,‘‘पर लोग क्या जाने कि एव्री इम्पासिबिल इस पासिबिल फॉर शशि भाई।’’
शशि अंकल के चेहरे पर गर्व भरा संतोष फैल गया था।
‘‘अभी तो सपने और भी हैं कौशल्या, जिन्हे पूरा करना है।’’ शशि अंकल धीरे से बोले थे। न जाने कितने सपने खुशियॉ बन कर उनकी आंखों में चमकने लगे थे।
कालेज में पोस्ट गै्रजुएशन खुलने की बात चलते ही उस संभावना भर से मीनाक्षी अनायास अपने करियर को लेकर उत्साहित होने लगी है और बहुत ही व्यवस्थित ढंग से योजनाबद्ध भी। उसके पापा के कोई पड़ोसी मित्र हैं। प्रसिद्ध ऐन्थ्रोपालिजिस्ट डाक्टर उदय जोशी उनके भाई हैं। वे यदाकदा लखनऊ आते रहते हैं और मीनाक्षी उन्हे अच्छी तरह से जानती है। उदय जोशी आजकल दिल्ली यूनिवर्सिटी में ऐन्थ्रोपालिजी डिपार्टमैंण्ट के हैड हैं और अपने विषय की जानी मानी हस्ती हैं। देश और विदेश के जर्नल्स में उनके चर्चे होते हैं। मीनाक्षी उनकी बात पहले भी करती रही है। इतने निकट से उनसे परिचित होने के कारण मीनाक्षी बहुत ख़ुश है। उसने तय कर लिया है कि वह उनसे हर संभव मदद लेगी। नए वर्ष की शुभ कामनाए भेजते हुए उसने उन्हें ख़त लिखा था कि वह अपनी पी.एच.डी. जल्दी निबटा लेना चाहती है। उसने उन्हे बहुत ही ईमानदारी से बता दिया था कि कालेज में जल्दी ही पी.जी. खुलने वाला है उससे पहले ही वह यह काम कर लेना चाहती है। उसने उन्हे यह भी बता दिया था कि दो साल पहले रिसर्च में दाख़िला ले लेने के बावजूद उसने प्रायः कुछ भी काम नही किया है। कहॉ से और किस तरह से वह अपना काम शुरू करे उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। उसने उनसे दिशा निर्देश मॉगा था।
बहुत जल्दी ही उनका जवाब आया था। विस्तार से बिन्दुवार सुझाव उन्होने उसे दिए थे। मीनाक्षी को लगा था जैसे उतने भर से ही विषय को लेकर अनायास उसकी बहुत सी उलझने सुलझ गयी हैं। अपनी पढ़ाई शुरू करना उसे अचानक आसान और संभव लगने लगा था। मीनाक्षी का थीसिस का टापिक ‘‘एक्सटिंग्यूशिंग ट्राइब्स आफ नार्दन इण्डिया’’ है।
मानसी जी टापिक सुन कर ठहाके लगा कर हॅसती रही थीं,‘‘तुम ऐन्थ्रोपालिजी वाले लोग सारी दुनिया को बेवकूफ बनाए घूमते हो। तुम लोगों का बस चले तो इन आदिवासियों को सिविलाइस्ड मत होने देना। ले जाकर डाल दो उन बेचारों को प्री ‘स्टोन ऐज’ की गुफा कन्दराओं में। सरकार और समाज उन्हें सुधार और संवार कर मेन स्ट्रीम आफ लाइफ मे लाना चाह रहे हैं और ये लोग चिन्तित हैं कि ट्राइब्स लुप्त हुयी जा रही हैं। जैसे ट्राइब्स न हुयीं जानवरों की कोई प्रजाति हो गयी। वाह रे सब्जैक्ट और वाह रे तुम्हारी चिन्ता।’’
हम सब मानसी जी के साथ हॅसते रहते। मीनाक्षी कभी सब के साथ हॅसती रहती और कभी एकदम चिढ़ जाती। पर हम सब के बीच वह हॅसी मज़ाक का एक हल्का फुल्का मुद्दा बना रहता। मीनाक्षी सामने पड़ती तो मानसी जी हॅसते हुए पूछॅतीं,‘‘कहो यार कितने बचे।’’
मानसी जी के साथ ही अक्सर मिसेज़ मोहिनी दीक्षित शामिल हो जातीं,‘‘ऐसा करना चाहिए मानसी कि उनकी घटती हुयी सॅख्या को पूरा करने के लिए इन एन्थ्रोपालिजी वालों को उन्हीं की गुफा कन्दराऔं में उन्ही के साथ उन्ही की तरह रहने के लिए भेज दिया जाना चाहिए। उनकी घटती संख्या भी पूरी करें और उनकी स्टडी भी करें और उनको बचा कर भी रखे रहें। उन्हें किसी भी तरह से शहरी न बनने दें।’’
नीता गंभीर सा चेहरा बना लेतीं,‘‘नहीं मोहिनी दी वे शहरी बन गए अगर तो इट विल बी अ ग्रेट लॉस टू सिविलाइज़ेशन। सोचिये तब इन सोशल एन्थ्रोपालिजिस्ट को कितना दुख होगा।’’वे दोनों एक साथ खिलखिला कर हॅसते।
मैं मोहिनी दी को हॅसते देखती हूं तो कभी कभी देर तक सोचती ही रह जाती हूं। अक्सर मन में आता है कि भगवान इतना बड़ा दुख देता है तो क्या इंसान को भिन्न स्तर पर मोक्ष पा लेने की ताक़त भी दे देता है। मैं जब कालेज में नयी नयी आयी थी तो टुकड़ों में बहुत लोगों के बारे में बहुत कुछ पता चला था। किसी ने बताया था कि कुछ ही साल पहले मोहिनी दी का बेटा रोड एक्सीडैन्ट में नहीं रहा। मैं सुन कर ही सहम गयी थी। फिर अक्सर ऐसा होता कि हम लोग किसी बात पर हॅसते होते और मोहिनी दी कमरे में घुसतीं तो मैं एकदम चुप हो जाती जैसे ब्रेक लग गया हो। पर जब उनको सब लोगों के साथ उन्हीं की तरह हॅसते बोलते देखती तो बड़ी देर तक कुछ अटपटा लगता रहता। फिर लगता कि ऐसे में सबके बीच सबकी तरह जी पाने के लिए कितनी बड़ी साधना और साहस की ज़रूरत पड़ती होगी। यह भी लगता कि ऐसा करके उन्होंने अपने साथ वालों का जीवन कितना सरल कर दिया है। उनके प्रति मन मे एक अजब सा आभार और सम्मान महसूस होने लगता।
Sumati Saxena Lal.
Sumati1944@gmail.com