जब हमारी वहां बातचीत चल रही थी, तभी कृष्णा को ऐसा लगा जैसे कोई उन्हें देख रहा हो. उसने मुड़कर एक नजर देखा; और तुरंत ही अपना चेहरा वापस मोड़ लिया. उनके चेहरे पर नापसंदगी के भाव उभर आये थे. उसने हमें आँखों के इशारे से उस और देखने को कहा. हमने जब कृष्णा की बताई दिशा में देखा तो हमारे बदन में से एक भय का जलजला गुजर गया. वहां अधेड़ सा दिखने वाला एक आदमी खड़ा था. वह अजीब सी नज़रों से हमें ही घूर रहा था. हमें उसकी नज़रों में भय का एहसास हुआ. हम लोगों ने तुरंत ही अपनी आंखें वहां से मोड़ ली. और बातचीत में अपना ध्यान लगाया.
तब तक नाश्ता आ गया. हमने उन दोनों को भी ऑफर किया. नाश्ते के दौरान बेत के बारें में और बातचीत चलती रही. नाश्ता और वह पेय के प्यालों को खत्म कर, पैसे चुका कर हमने दोनों की रजा ली.
फिर हम जेन्गा बेट पर आगे बढ़े. दोपहर तक हम वहां टहलते रहे. कुछ आवश्यक चीज़वस्तुएं ली और बोट की और रुख किया.
बोट पर लौट आते ही बोट को किनारे के नजदीक रखते हुए पूर्व की और मोड़ दिया. थोड़ी ही देर में चर्च का सिराना दिखाई देने लगा. बोट किनारे लगाई और हम उतर पड़े.
वहां भी कई मछवारे थे. हमने एक मछवारे से अफ्रीका वाले नानू के बारें में पूछा. उसे नानू के बारें में ज्यादा जानकारी की जरूरत न पड़ी; वह तुरंत ही पहचान गया. उसने कहा:
"जी हाँ! वह अफ्रीका वाला नानू यहीं रहता है."
हमने नानू का पता पूछा. उसने एक लड़के को हमारे साथ कर दिया.
जब हम उस लड़के को लेकर बस्ती की और चले; तब एक पेड़ की आड़ से हमारी और ही घूरता हुआ वह आदमी दिखाई पड़ा. हम सब एकबार फिर से सहम गए. हमें लगा की वह अजीब आदमी हमारा ही पीछा कर रहा है.
हम लोगों ने इधर उधर देखा, वहाँ कुछ पेय पदार्थ बेचने वाले खड़े थे. पेय पदार्थ पीने के बहाने हम वहां रुके और खड़े खड़े तुरंत ही यह तै किया की हम सात में से तीन लोग नानू से मिलने जायेंगे. और चार लोग अब बोट पर ही रहेंगे. यदि उस मनहूस आदमी का विचार हमारी गैरहाजिरी में बोट पर हाथ फेरने का कोई बद इरादा हो. इसलिए हसमुख, संकर और मैं नानू को मिलने चले. और बाकी के चार लोग बोट पर लौटे.
हम नानू के घर पहुंचे.
हमने देखा; वहां छोटे बड़े अपनी अपनी प्रवृतियों में व्यस्त थे. एक अधेड़ औरत लकड़ियाँ काट रही थी. इतने में अन्दर से एक अधेड़ उम्र का आदमी निकला. उसे देखते ही हम पहचान गए. वह नानू ही था. उसका एक तेड़ा पाँव और सर पर चोट का निशान ही उसकी पहचान थी. नानू अब पचास की उम्र को पार कर चूका था. बाहर जो लोग थे वे सायद उनके बाल बच्चे और पोते पोतियाँ थी.
नानू के पास जाते हुए हसमुख ने अपना परिचय दिया.
अपने पुराने मालिक का नाम सुन, और उनका कोई रिश्तेदार आया है यह जान वह बड़ा भावुक हो उठा. उनहोंने बड़ी खुशी से हमें घर मे बिठाया. हम सब की उसने अच्छी आगता स्वागता की. उसने हसमुख की दादी और पिताजी का हालचाल पूछा. फिर उनके पुराने मालिक मेघनाथजी के गुणों और अहसान को याद करते हुए अपने मालिक के साथ गुज़ारे पुराने दिनों को याद करने लगा. उसने कहा:
"आज मैं जो भी हूँ उनकी वजह से ही हूँ. मेरा उसने अपने बेटे समान ही पालन किया था. उन्होंने ही मेरी शादी करवा दी और मुझे एक घर व नाव भी दिलवा दी थी. जिससे मेरा गुजारा होता रहे." इतना कहते ही वह भावुक हो उठा.
काफी देर तक हमारी और नानू की बातचीत चलती रही. फिर हसमुख ने अपने यहाँ आने का उद्देश्य जाहिर किया. हमारा मकसद जानकर वह बोला:
"बहुत खुशी की बात है! मैं भी मालिक की दी हुई आख़री जिम्मेदारी को जीते जी पूरा कर मालिक के ऋण से मुक्त होना चाहता हूँ. हाँ, तो वह मालिक की पहचान वाली कड़ी कहाँ है?" उसने पूछा.
फिलहाल तो वह सब हमारी बोट पर है. कल ले आते हैं. हसमुख ने खुश होते हुए कहा.
"अच्छा, तुम कल सुबह आओ." उसने कहा.
नानू से बिदा होकर हम खुशी खुशी बाहर निकले. कुछ ही कदम आगे बढ़ाए थे की नानू के घर के पिछवाड़े से वहीं मनहूस आदमी को तेजी से बाहर निकल कर एक गली में जाते हुए हमने देखा. हम सहम गए.
"तो वह हमारा ही पीछा कर रहा है." मैं बोला.
"आखिर वह हमसे चाहता क्या है? न तो हम उसे जानते हैं न वो हमें जानता है. फिर वह हमारा पीछा क्यूँ कर रहा है?" हसमुख बोला.
"उसने हमारी बोट पर तो कुछ नहीं किया न? हमें जल्दी लौटना चाहिए." संकर ने आशंका प्रगट की.
हम जल्दी जल्दी अपनी बोट की और चले. बोट पर लौटते ही हमने सब कुछ सलामत पाया.
तब अन्य दोस्तों को भी वह मनहूस आदमी वाली बात बताई. वे लोग भी सोच में पड़ गए.
फिर हमने नानू हमारी मदद करने के लिए तैयार है यह खुशी की खबर सुनाई. यह जानकर वे भी बहुत खुश हुए. हमने खाना खाया और सुबह का इंतज़ार करते हुए सो गए. हमारी रात बेचैनी में गुजरी. मुश्किल से नींद आई. बहुत इंतजारी के बाद ख़ुशियाँ लेकर सुबह का किरण निकला. हमने जल्दी जल्दी दैनिक कार्यों का निपटारा किया. और किनारे पर उतर आए.
हमारे अन्दर उस मनहूस आदमी का इस तरह दर बैठ गया था की इस बार भी चार लोग बोट पर ही रहे. हसमुख, संकर और मैं एक बार फिर से वह सब सामान लेकर नानू के घर की और चले.
नानू ने हस्ते हुए हमारा स्वागत किया. हम बैठे. फिर उसने कहा:
"हाँ, तो दिखाइये? वह कड़ी कहाँ है?"
हसमुख ने वह विचित्र नक्शा, तस्वीर और चाबी निकालकर सामने रख दी.
नानू ने इन चीजों को एक नजर देखा, और हसमुख कोई और चीज निकाले इसके इंतज़ार में उसकी और टकटकी लगाए देखता रहा. हसमुख भी प्रश्न सूचक दृष्टि से उनकी और देखने लगा. जरा वक्त बीतने पर जब हसमुख ने कुछ और निकालने की चेष्टा न की तो नानू बोल उठा:
"वह असल कड़ी कहाँ है?" नानू ने पूछा.
"कौन सी कड़ी?" हसमुख ने द्विधा में पड़ते हुए पूछा.
"वही कड़ी, जो सबसे महत्वपूर्ण है. जिसके बिना तुम वहां पहुँच ही नहीं पाओगे." नानू ने कहा.
"हमें तो यही सब मिला है. और दादी ने भी मुझे यही चीजों के बारें में बताया हैं. इससे ज्यादा कोई बात होती तो वह मुझे जरूर बताती. दादी को भी सायद यही चीजें प्राप्त हुई थी." दुविधाग्रस्त हसमुख ने कहा.
"सारी चीजें नकली हैं. इसके दम पर तुम अपने आप को मालिक की संपती का दावेदार नहीं साबित कर सकते." नानू ने रूखे लहजे से कहा.
हम अचरज में पड़ गए! एक नजर में ही चीजों के नकली होने की परख उसने कर ली थी. पर हमारे लिए नकली चीजें भी असल समान ही थी. और हम मान रहे थे की इस नकली चीजों से भी वहीँ काम निकल सकता है जो असल चीजों से निकलता.
फिर तो हम सब ने उसे बहुत समझाया. बहुत बिनती की. उँच नीच भी समझाई. असल चीजें घर पर ही छोड़ आने का मकसद भी समझाया. हसमुख उसके पुराने मालिक मेघनाथजी का ही पोता है, इसके लिए जो भी हमारे पास दस्तावेज उस वक्त उपलब्ध थे, वे भी दिखाए. पर वह बिलकुल न पिघला.
हम बहुत निराश होकर वहां से लौटे. बोट पर लौटकर सारा मामला अपने दोस्तों को कह सुनाया. वे भी इस बात से ज़ेम्प गए. हमारी यहाँ तक पहुँचने की सारी मेहनत पानी में जाता देख हम गुस्से से बिलबिला रहे थे. पर हम कर भी क्या सकते थे?
नानू की नियत पर भी हमें सक पैदा हुआ. हमें लगा की वह मनहूस आदमी और नानू मिलकर हमारे साथ कोई फरेब रचा रहे हैं. दो पांच दिनों तक हम अपने ही बल पर उस धन तक पहुँचने की संभावनाओं को सोचते हुए वहां ठहरे रहे.
***
एक सुबह जब हम सो कर उठे ही थे कि नानू अपने कुछ आदमियों सहित हमारी बोट पर आ धमका. उन लोगों ने हमें बंदी बना लिया. और वे हमें मारने पीटने एवं डराने धमकाने लगे.
नानू ने हमसे पूछा: "वह तस्वीर कहाँ है?"
उनकी बात सुनकर हम सब आश्चर्य और प्रश्नार्थ दृष्टि से उन्हें देखने लगे. हमें यूँ घूरता देख वह चिल्ला उठा:
"वहीँ जो तुम लोगों ने कल रात मेरे घर से चुराई है."
"हमने तुम्हारी कोई तस्वीर नहीं चुराई. हसमुख और विनु ने कहा.
इस पर वह आगबबूला हो उठा. उसने अपने आदमियों को कुछ इशारा किया. उन लोगों ने फिर से हमें बहुत मारा पीटा और दांत डपट लगाकर हमें सच बोलने के लिए और वह तस्वीर लौटा देने के लिए दबाव बनाया. पर हम एक ही बात दोहराते रहे की हमने तुम्हारे घर से कोई चोरी नहीं की है. हमने माँ बाप और कुलदेवता की कसम भी खाई. फिर उन्होंने हमारी बोट का चप्पा चप्पा छान मारा. हमारा पूरा सामान रेंड फेंड दिया. आखिर कुछ न पाकर वे लौट गए.
नानू अब दगाबाजी पर उतर आया था. सबसे पहले हम लोगों ने अपने नक्शे, चाबी और तस्वीर को ढूंढा. हमारी सभी नक़ल सलामत थी. फिर हमने अपने सामान को देखा. वह भी सब सलामत था.
तब हम सोच में पड़े. अगर वह हमारी चीजों पर कब्जा करने के उद्देश्य से ही आया था, तो वह कोई चीज ले क्यूँ नहीं गया? फिर हमने खयाल किया की सायद वह असली चीजों की तलाश में आया हो, पर वह तो हमारे पास है ही नहीं?
हम देर तक सोच विचार करते रहे. हमारे मन में बहुत से संदेह पैदा हो रहे थे. उस मनहूस आदमी और नानू की मिलीभगत पर भी हमने सोचा. पर हम कुछ तै नहीं कर पा रहे थे. अगर नानू सचमुच में दगाबाजी पर उतर आया था तो हमारे पास जो असली चीजों की नक़ल थी वह भी असल समान ही थी, उसकी मदद से वह उस धन तक पहुँच सकता था, फिर वह उसे ले क्यूँ नहीं गया? यहीं हमारे लिए बड़ी भेद की बात बनी रही.
क्रमशः
अब क्या होगा? नानू की सहायता के बिना वे कैसे धन तक पहुंचेंगे? क्या नानू के घर से सच में कोई तस्वीर की चोरी हुई है? अगर हुई है तो किसने की? उस तस्वीर में ऐसा क्या था कि वह इतनी महत्वपूर्ण बन गई? क्या मनहूस सकल वाले आदमी के साथ मिलकर नानू कोई षड्यंत्र रच रहा है? जानने के लिए पढ़ते रहे.