होने से न होने तक
18.
कौशल्या दीदी उठ कर खड़ी हो गयी थीं और खाना शुरू कराने के लिए सबकी प्लेटों में परोसने लगी थीं। सब लोग अपनी अपनी बातें कहने लगे थे। थोड़ी ही देर में अलग अलग अनुभवों से गुज़रते हुए वार्ताक्रम सहज होने लग गया था। शुरू में जब मैं नई नई कालेज आयी थी तब मुझ को अजीब लगा करता था कि ये सब ऐसे कैसे अपने परिवार की, अपने संबधों और समस्याओं की बातें आपस में एक दूसरे के सामने कर लेते हैं...एक दूसरे से अपना दुख सुख मान सम्मान सब बॉट लेते हैं। धीमे धीमे मेरे समझ आने लग गया था कि यह तो सब एक परिवार की तरह ही हैं। अधिकांश की शादी, उनके बच्चे...बच्चो के सुख दुख...उनकी जय पराजय यहीं एक दूसरे के सामने घटती रही है। इनमें से बहुतों के लिए एक दूसरे का कंधा ‘शॉक एबसार्बर’ है।
कुछ सालों में मुझ को यह भी समझ आने लग गया था कि इस विद्यालय में टीचर्स के अपने जीवन में संबधो के धरातल पर शायद इसी लिए बहुत कुछ टूटते टूटते बच गया था। इस जानी अन्जानी कॉउसलिंग के रहते ही बहुत लोगों के लिए मन के भूचाल को मन के अन्दर दबा लेना संभव हो पाया था। नहीं तो कितना कुछ और टूटता। आगे पीछे जो टूटा, वह शायद नियतिबद्ध था। उसे रोक पाना शायद किसी के वश की बात नहीं थी। मुझ को तो यहॉ आए अभी कम ही समय हुआ है फिर भी लगने लगा है जैसे विद्यालय घर का और साथ की टीचर्स संबधों का विस्तार हैं। फिर यह लोग तो वर्षो से साथ हैं।
एनुअल डे के दिन कार्यक्रम से जुड़े हम सब लोग सुबह से तैयारी में जुटे हैं। हॉल और स्टेज की सजावट का काम केतकी देख रही है। कार्यक्रम का संचालन नीता कर रही हैं। विंग्स में एक बड़ी सी मेज़ पर पुरुस्कार सिलसिलेवार लगा दिए गए। उसी क्रम में लड़कियों को एकदम आगे की कुर्सियों पर बैठा दिया गया था। गेट से ले कर मंच तक फूलों की सजावट...आडिटोरियम के खुले हिस्सो में अल्पना। काम करने वाले यह सभी लोग दो बजे तक घर लौट आए थे और झटपट तैयार हो कर चार बजे से पहले ही दुबारा पहुॅच गए थे। पॉच बजे से कल्चरल प्रेग्राम होना है। रोहिणी दी और नीता बीच में भी घर नही जा पाए हैं। उनके लिए वहॉ से हट पाना संभव ही नही। बदलने के लिए कपड़े और अन्य सामान वे लोग अपने साथ लाए थे और कालेज में ही तैयार हो लिए थे। मानसी जी से मैंने अपने ही घर रुकने के लिए कह दिया था। हम दोनो को तैयार हो कर एक साथ आना था। खाने की व्यवस्था मैंने पहले से ही कर के रख दी थी और थोड़ी बहुत मदद मैंने शिवानी से करने के लिए कह दिया था। आज मैंने तय कर लिया था कि मैं मानसी जी का जूड़ा बनाऊॅगी सो मैंने उस के लिये कॉटे,पिन पहले से ला कर रख लिए थे। घर जा कर हम दोनों जल्दी से फ्रैश हुए तब तक शिवानी ने खाने की मेज़ लगा दी। खाना खाने के बाद अपने तैयार होने से पहले मैं ने मानसी जी का ऊॅचा सा जूड़ा बनाया था और माथे पर थोड़ी बड़ी बिन्दी। लगा था उतने भर से उनकी शकल ही नहीं पूरा व्यत्तित्व ही बदल गया हो गया हो। लगा था जैसे वे अपने से भिन्न कोई और लग रही हों, बेहद आकर्षक। वे दर्पण मे अपने आपको निहारती रही थीं और हॅसती रही थीं,‘‘मानसी जी आप कितनी सुंदर लग सकती हैं फिर भी न जाने अपनी तरफ क्यों नही देखतीं। एकदम वर्कर वाली धजा बनाए रहती हैं। अपने आप को सुधार लीजिए नही तो हम कालेज में आपके श्रंगार का साजो सामान ले कर आया करेंगे।’’ सामने लगे बड़े से दर्पण में वे अपने आप को रुक रुक कर देखती रही थीं और रुक रुक कर हॅसती रही थीं। उनके चेहरे पर झिझक है। उस दिन उन्हे ढेर सारे काम्लीमैन्ट्स मिले थे।
मानसी के साथ मैं आडिटोरियम पहॅुच कर कुछ देर के लिए फाटक के सामने खड़ी रहती हूं। वहॉ की सजावट देख कर मैं मुग्ध रह गयी थी। चारों तरफ का माहौल बेहद सांस्कृतिक और बेहद प्रोफैशनल लग रहा है।
अंदर पहुची तो किसी ने कहा था शशिकान्त अंकल सब को स्टेज के पास बुला रहे हैं। हम दोनो लगभग दौड़ते हुए वहॉ पहुंचे थे और नमस्कार करके बाकी मौजूद टीचर्स के बगल में खड़े हो गये थे। मुझे नीता ने बताया था कि जितनी टीचर्स ने काम किया है वे चाहते हैं कि वे सब मुख्य अतिथि का स्वागत करने के लिए गेट के पास मौजूद रहें। नीता क्योंकि मंच का संचालन कर रही हैं इसलिए उसके लिए मंच छोड़ पाना संभव नहीं है इसलिए सब को जुटाने का काम नीता ने मानसी को सौंपा था इस हिदायत के साथ कि कोई भी छूटने न पाए। मुख्य अतिथि संसद में विपक्ष के नेता विख्यात वक्ता देवदŸा जी हैं। उनकी गाड़ी आ कर रुकते ही प्रबंधतंत्र के अनेक सदस्य वहॉ आ कर खड़े हो गए थे। देवदत्त जी अभी गाड़ी से उतर भी नहीं पाए हैं। शशि अंकल ने उन लोगो को जल्दी जल्दी उनसे मिलवाया था फिर वे सब अंदर की तरफ बढ़ लिए थे। मुख्य द्वार पर आ कर शशि अंकल ठिठक कर रूक गए थे। उनके साथ ही देवदत्त जी व अन्य मेहमान भी खड़े हो गये थे। वहॉ आठ दस टीचर्स पॅक्तिबद्ध हो कर खड़ी हैं। सबसे पहले दॉए हाथ को मीनाक्षी है। उन्होने उसे हाथ के सहारे से आगे करके बाकी टीचर्स को भी मुख्य अतिथि के सामने को कर दिया था,‘‘देवदत्त जी यह सब मेरी टीचर्स हैं...आल ब्रिलियंट वन्स। आय एम प्राउड आफ दैम। यह सब मेरे कालेज की पिलर्स हैं।’’
उस थोड़े से अन्तराल में जितना संभव हो सकता है उतना उन्होने आस पास खड़ी टीचर्स का अलग अलग परिचय दिया था। उन सबके हॉल में कदम रखते ही सत्कार के शब्दों के साथ माईक पर नीता की आवाज़ गूॅजी थी। वे सब कुर्सियों पर आ कर बैठे ही थे कि कुछ ही क्षणो में मुख्य अतिथि से दीप जला करके कार्यक्रम का आरंभ करने का अनुरोध मंच से किया गया था और वे कुर्सी से उठ गए थे और उनके साथ कुछ और लोग भी। व्हाइट मैटल की एक सुन्दर सी ट्रे में दियासलाई और मोमबत्ती लेकर तत्पर मुद्रा में मानसी खड़ी हैं। प्रबंधक और मुख्य अतिथि के बीच खड़ी पॉच फुट नौ इंच की मानसी, ऊॅचा सा जूड़ा माथे पर बड़ी सी बिन्दी। मुझे लगता है कि मैं ठीक ही तो संभावनाऐं खोजती थी उनमें। मुझको अच्छा लगा था जैसे उनका सुंदर लगना मेरी उपलब्धि हो। मंच से नीता ने परिचय दिया था,‘‘देवदत्त जी चाहें सत्ता में रहें चाहे विपक्ष में, किसी भी पक्ष की गरिमा उनके होने मात्र से बढ़ती है।’’दीप जलाने के लिए आगे बढ़ते देवदत्त जी के हाथ निमिष भर के लिए ठहर गए थे। उन्होने चेहरा उठा कर मंच पर खड़ी नीता की तरफ देखा था। धीमे से मुसकुराए थे और चेहरा दीप पर झुका लिया था। उसी क्षण माइक पर बिना किसी साज के मीनाक्षी ने संस्कृत का एक श्लोक गाना शुरू किया था। एकदम खुली आवाज़। लगा था जैसे उस बड़े से हाल में उसके खनकते स्वर के साथ कई साज गूॅज रहे हों।
देवदत्त जी के मुख से अनायास ‘‘वाह’’ निकला था। उन्होने प्रबंधक की तरफ देखा था। शशिकांत अंकल के चेहरे से गर्व झांकने लगा था,‘‘हमारे पास बहुत ही टेलैन्टेड स्टाफ है।’’उन्होने कहा था।
देवदत्त जी की निगाहें सभागृह के एक कोने से दूसरे तक घूम गयी थीं,‘‘जी हॉ वह समझ आ रहा है।’’उन्होंने जवाब दिया था।
तभी पर्दा सरका था और नृत्य नाटिका का मंचन प्रारंभ हुआ था और पर्दे के पीछे से मीनाक्षी का सधा हुआ स्वर पूरे सभागृह में जैसे तैरने लगा हो। शशिकॉत अंकल के चेहरे पर गर्व मिश्रित उल्लास फैल गया था। वे फिर देवदत्त जी की तरफ को झुक कर धीमे स्वर में उन्हे कुछ बताने लग गये थे।
स्टेज पर वाद्य यंत्रों और मीनाक्षी के स्वर पर थिरकती लड़कियॉ। सब कुछ किसी विद्यालय की सांस्कृकि संन्ध्या न लग कर किसी कला संगम का कार्यक्रम लग रहा है। मुख्य अतिथि पूरा कार्यक्रम देख कर ही गए थे हॉलाकि आने से पहले ही उन्होने जल्दी चले जाने की बात की थी। शशिकॉत अंकल बहुत ख़ुश हैं। फॅक्शन ख़तम हो जाने के बाद प्रबंधतत्र के सभी लोग चले गये थे पर शशि अंकल सबसे आगे की पकि्ंत मे एकदम बीच की कुर्सी पर बैठे हॉल का समेटा जाना देखते रहे थे और साथ ही दीपा दी और बाकी टीचर्स से बातें भी करते रहे थे।
अगले दिन उन्होने और दीपा दी ने विद्यालय में पूरे स्टाफ को लंच पर आमंत्रित किया है। ऐसा हर साल किया जाता है। हर वर्ष ही एनुअल फ्ंक्शन का समापन इस आत्मीय लंच से होता है। इस में स्टाफ सम्मिलित होने के अतिरिक्त और कुछ भी नही करता। सब लोग ठीक लॅच के समय आते हैं और उसके तुरंत बाद चले जाते हैं और उन सबका स्वागत मेहमानों की तरह से ही किया जाता है।
हर दिन की तरह मैं मानसी जी के साथ ही कालेज पहुंची थी,समय से थोड़ा पहले ही। हम दोनो की तरह जल्दी पहुंचने वाले बहुत से लोग हैं और सभी स्टाफ रूम में बैठे गप्पों मे मशगूल हें। आज छुट्टी है इस लिए चारों तरफ सन्नाटा है। बीच की बड़ी मेज़ पर कल के प्रोग्राम की तारीफ और स्टाफ के प्रति आभार दिखाते हुए एक पत्र रजिस्टर में लगा हुआ है जिसके नीचे प्रबंधक के पूरे हस्ताक्षर बड़े से शब्दों में हैं...शशिकान्त भटनागर, उसके नीचे खिंची हुयी लाईन। अभी काफी समय बाकी है। हम कुछ लोग यू ही विद्यालय का एक चक्कर लगाने निकल पड़े थे। मुख्य भवन से थोड़ी दूर पर बनी साईंस फैकल्टी की बिल्डिंग में कुछ लैक्चर रूम्स और बन रहे हैं और ग्राउन्ड फलोर पर तीस लड़कियों के लिए कैमिस्ट्री का एक और लैब। मज़दूर स्त्री पुरूष काम पर लगे हैं। कितनी संस्थाआे से गुज़रते हुए ज़िदगी ने यहॉ पहुंचा दिया। मैं ने सोचा था और सोच कर मुझे अच्छा लगा था जैसे अन्ततः अपनो के पास अपनो के बीच में आ गयी। लगता है एक गन्ध है अपनेपन की जो यहॉ की हवाओं में बसी हुयी है।
पंद्रह दिन के लिए विद्यालय जाड़े की छुट्टी के लिए बन्द हो गया है। कालेज के बिना लगता है जैसे ज़िदगी एकदम से ख़ाली हो गयी हो।
आने वाले दिनों में मानसी जी का रहने का तौर तरीका बदला था और वे एकदम बदली हुयी सी लगने लगी थीं। एकदम अल्हड़ और अनगढ़ तरीके से रहने वाली मानसी जी ने अनायास साड़ियॉ और सूट्स वग़ैरा ख़रीदने शुरू कर दिये थे। चतुर्वेदी जी मुझ को कहीं मिल जाते तो देर तक हॅसते रहते,‘‘अम्बिका जी, देखिए आपने संभावनाएॅ सुझा दीं। इन्होंने तो घर का बजट बिगाड़ लिया है।’’ मज़ाक चलती रहती और वे अपने नए अवतार में मीठा सा मुस्कुराती रहतीं। वे सच में आकर्षक लगने लगी थीं।
Sumati Saxena Lal.
Sumati1944@gmail.com