बड़ा सा राज्य था वह। राजा भी बड़ा प्रतापी था उसका। बुद्धिमान और प्रजापालक।
सदा सच्चे हृदय से प्रजा की भलाई में लगा रहता।
उसने सोचा...बाकी तो सब ठीक है, बस दूर-दराज के गाँवों का विकास जरा धीरे-धीरे हो रहा है। उसके मन में बात जैसे ही आई...एक नई योजना ने जन्म लिया। अपने सभी मंत्रियों को उसने आदेश दिए-
"आज से हम सब एक-एक गाँव को गोद लेंगे। उसकी सारी व्यवस्था, जिम्मेदारी और विकास का जिम्मा हमारा। मैं स्वयं परीक्षा भी करूँगा।"
राजा के इस सुझाव के बाद कुछ मंत्री तो बड़े प्रसन्न हुए। उत्साह में कुछ अच्छा करने की चाह और अपने राजा को प्रसन्न करने की इच्छा से।...और कुछ ने बड़े बेमन से काम आरम्भ किया, आखिर राजा की आज्ञा थी तो माननी तो थी ही।
खैर...एक-एक गाँव को सभी ने गोद लेने का अभियान शुरू कर दिया गया।
बस फिर क्या था, सबसे पिछड़े और छोटे से गाँव नारायनपुर का भी भाग्य बदल गया। बिजली आ गई। सड़कें, आँगनबाड़ी सब ही तो बदल गए। पंचायत के पुराने भवन रंग-रोगन हुए और नए शौचालय, नलकूपों के साथ गाँव का कायाकल्प हो गया।
गाँव में बड़ा ही प्राचीन मंदिर भी था विष्णु भगवान का। उसके जीर्णोद्धार की भी बरसों पुरानी योजना कागजों से निकलकर बृहत रूप में आकार लेने लगी।
...और फिर विष्णु भगवान की पुनः प्राणप्रतिष्ठा की गई। पुराना दिव्य मंदिर अब बड़ा ही भव्य बन गया था।
बाहर दालान, सुंदर सा उद्यान।
संगमरमरी खम्भे और उसपर कुशल शिल्पकारी से वह आसपास के क्षेत्रों का पर्यटनस्थल सा बन गया। सुंदर सजीले मंदिर में उत्सव का आयोजन रखा गया। राजा भी आए। फिर तो भीड़ बढ़ने लगी।
लोग मन्नत का धागा बाँध जाते और मनौतियाँ पूरी होने पर बड़ा भंडारा करते। धीरे-धीरे 'बड़ा ही सिद्ध मंदिर' बन गया।
फिर चढ़ावा भी आने लगा।
नारायण के मंदिर में जब लक्ष्मी आने लगीं तो राजा को लगा कोई उत्पात न हो जाय, आखिर अकेले लक्ष्मी भी तो उल्लू पर सवार होकर ही आती हैं, सो राजाज्ञा से मंत्री ने उस मंदिर को अपने कब्जे में ले लिया।
जगत के पालनकर्ता जगन्नाथ बड़े और विशालकाय फाटकों में बंधक बनकर रह गए। दानपात्र हफ्तेभर से भी कम समय में भर जाता तो देखभाल के लिए मंत्री ने सर्वसम्मति से अपने भाई के बुद्धिमान, ईमानदार और बेरोजगार पुत्र को जनेऊ पहनाया, तिलक लगाया। नारायनकवच के कुछ मंत्र भी कंठस्थ करा दिए।
ऊँ हरिर्विदध्यान् मम् सर्वरक्षां न्यस्ताड़्घ्रिपद्म: पतगेन्द्रपृष्ठे ।
दरारिचर्मासिगदेषुचाप पाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहु:।
...और पुजारी नियुक्त कर दिया गया।
नियम तय हो गए।
मंदिर के पट सुबह पाँच बजे खुलेंगे और सन्ध्या आरती के पश्चात ठीक सात बजे बन्द हो जाएँगे। भगवान के सोने का निश्चित समय होगा।
राजा का बना नियम था सो पुजारी कड़ाई से पालन करता था।
एक दिन राजा को लगा, चलकर जरा परीक्षा की जाय, सब नियम से चल रहा है न।
सो भेष बनाया एक व्यापारी का, और अकेले ही घोड़े पे सवार होकर पहुँच गए नारायनपुर। रात होने को थी। मंदिर के प्रांगण में पहुँच कर घोड़े को बाँध दिया और आवाज लगाई-
अरे! कोई है क्या भला मानुष! मुझे मंदिर में दर्शन करने हैं।
दो तीन बार चिल्लाया तो पुजारी जी बाहर आए, बोले-
क्या है पथिक! कौन हो तुम! इतनी रात गए कैसे आना हुआ? अभी तो मंदिर बन्द हो चुका।कल आना अब तो..।
परन्तु...महाराज! मैं तो बड़ी दूर से आया हूँ। केवल अपने नारायण के दर्शन के लिए ही।
..और अभी नारायण के दर्शन करा दें तो आपकी बड़ी कृपा हो जाएगी।
कल तक तो बहुत देर हो जाएगी, दूसरे शहर पहुँचना है, व्यापारी आदमी हूँ।
नहीं नहीं...कदापि नहीं। चलो बाहर निकलो।
मंदिर के भी कुछ नियम हैं, अब तो प्रातः ही..।
पुजारी का स्वर तनिक कर्कश हो चला था।
पर महाराज! आप तो दयालु हैं। आप चाहें तो..।
हमने कहा न.. नहीं मतलब नहीं। राजा का नियम है ...हम कुछ नहीं कर सकते।
कोई तरीका हो तो बताएँ प्रभु! फिर कभी आना हो कि नहीं इस गाँव।
तुझे कहा न...समझ नहीं आता क्या? कोई तरीका नहीं। दर्शन की इच्छा हो तो सुबह तक बाहर रुको अन्यथा...पुजारी ने सिर हिला कर मना किया और हाथ से बाहर जाने का संकेत भी। वे अब सचमुच क्रोधित हो गए लगते थे।
इस बेकार की बहस से उनको चिढ़ हो रही थी साफ दिखता था।
व्यापारी के भेष में राजा को बड़ा अच्छा लगा। सोचा..मेरे राज में ईमानदारी तो है...। फिर चलते-चलते थोड़ी और परीक्षा कर लूँ.. ऐसा सोचकर कहा-
अच्छा सुनिए! मैं प्रभुदर्शन निमित्त कुछ भेंट भी करना चाहता हूँ।
नहीं भाई! कुछ नहीं चलता यहाँ पर..
जो डालना है दानपात्र रक्खा हुआ है।
पुजारी जी का स्वर थोड़ा मुलायम हुआ था न जाने क्यों? तू से आप पर भी आ गए थे, पहली बार भाई कहकर भी संबोधित किया था पुजारी जी ने।
...और राजा ने ताड़ लिया।
अपने बाएँ हाथ से अंगरखे से चमचमाती पोटली निकाल ली उन्होंने, और खनखनाते हुए दायाँ हाथ ऊपर किया और आसमान में देखकर कहने लगे-
सब उसी दातार नारायण का ही तो दिया हुआ है जी..।
पूरी सौ स्वर्ण मुहरें हैं। बस आप दर्शन करा दें तो ये सब आपकी।
भाई! आप लोग किसी की परेशानी समझते नहीं हैं। अब देखिए नियम को तो हम तोड़ नहीं सकते और आप को भी परेशान नहीं देख पा रहे हैं। क्या करें..किसी की तकलीफ बस देखी ही नहीं जाती हमसे भाई।
अब नहीं मानते तो आओ! इधर पिछवाड़े की तरफ से आना पड़ेगा...हम कहे देते हैं।
और पुजारीजी ने पीछे के दरवाजे से ले जाकर व्यापारी को नारायण विग्रह के दर्शन करा दिए और प्रसन्न भी हो गए।
राजा भी लौटे और अगले ही दिवस पुजारी जी को बुलावा भेजा।
पुजारी जी पहुँच गए राजा के महल में..।
महाराज की जय हो! कैसे याद किया आपने भुवनपति!
पुजारी जी ने सादर नमन करते हुए पूछा।
पुजारी जी! मंदिर का कामकाज कैसा चल रहा है? मंदिर खोलने, बन्द करने... भगवान के सोने का समय...सब नियम कानून से ही चल रहा है या..।
राजा ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।
हाँ महाराज!
बिल्कुल नियम से...सायं सात से प्रातः पाँच तक बन्द ही रहते हैं प्रभु के पट। सोते हैं प्रभु आनन्द से।
और कोई रात को आ जाय...खोलने को कहे मंदिर...?
नहीं महाराज! नियम बिल्कुल पक्का। कोई ढील नहीं।
...और कोई व्यापारी आ जाय...।
..और धन की पोटली देने को कहे...तब।
पुजारी जी का माथा ठनका..।
समझ गए...अरे...रे।
ये तो राजा ही थे। फिर तो पहचान ही गए।
समझ गए कि पकड़े गए..।
चारों ओर देखा उन्होंने...। फिर धीरे से बोले-
वो क्या है महाराज! ...कि गलती नहीं है हमारी... जब लक्ष्मी ही स्वयं नारायण के दर्शन के लिए अड़ जायँ तो कोई कर भी क्या सकता है? हमने कोशिश तो पूरी की। कोई कमी तो छोड़ी नहीं...आपको तो सब पता ही है। अब साक्षात लक्ष्मी को नारायण के दर्शन करने से हम मना भी कैसे करते..।
आप समझ रहे हैं न..।