उन दिनों की ये बात है, जब न तो टीवी होता था और न ही स्मार्टफ़ोन। सन्ध्या होते-होते घर में माँ, दादी चूल्हा सुलगा लेते थे। खाना-पीना, चौका-बर्तन करके सब जल्दी फ्री हो जाते थे।...और तब, हर रात बच्चों को दादी-नानी से सुंदर कहानियाँ सुनने को मिलती थीं।
कभी ऐसी कहानी सुनी है आपने भी ? चलिए! ऐसी ही दादी से सुनी एक कहानी मैं आपको सुनाता हूँ--
एक छोटे से गाँव में एक बुढ़िया रहती थी ।
सच में बहुत ही बूढ़ी...पर थी बड़ी चतुर और हँसमुख।
कमर झुककर उसकी दोहरी सी हो गई थी।
अवस्था भी यही कोई सौ साल के आसपास तो रही ही होगी।
उसके सारे शरीर में..सर से पाँव तक झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ थीं, पर बेजान आँखों में जीवन की चमक अभी भी दिखाई देती थी।
छोटी सी टूटी-फूटी झोपड़ी में वह अपने दिन गुजार रही थी । दिन भर लकड़ियाँ बीनती। आसपास के घरों में भी पहुँचा देती । लोगों का छोटा-मोटा काम कर देती, बदले में लोग मुट्ठी भर अनाज दे देते या कभी बची हुई रोटियाँ ।
उसका काम चल जाता था । आसपास के छोटे-छोटे बच्चे उससे बहुत प्रसन्न रहते थे, उन बच्चों को कहानियाँ जो सुनने को मिलती थीं।
उसके परिवार के बारे में न कभी किसी ने पूछा,
और न कभी वो बताती थी।
पर.. किसी भी हाल में प्रसन्नता कभी उसके मुख से न जाती थी।
बेरहम वक्त को भी हँसी-खुशी काटने का हुनर उसे अच्छे से आता था।
पर एक दिन...
यमराज के खाते में उसके दिन पूरे हो गए ।
चला-चली की बेला आई।
यमराज पहुँच गए उसके दरवाजे पर।
झोपड़ी के बाहर पहुंच कर चिटकनी बजाई।
"चलो माई ! दिन पूरे हो गए।"
बुढ़िया चतुर तो थी ही।
बोली--
"आज बहुत काम है भाई, कल आना.."
"नहीं-नहीं । समय खत्म हुआ, अब तो चलना पड़ेगा।"
यमराज अड़ गए। हँसे और बोले--
"मृत्यु कहीं टलती है किसी की।"
" मैं विष्णु भगवान की पूजा कर रहीं हूँ, कह दिया न कल आना ।"
बुढ़िया भी ऐंठी।
यमराज थोड़ा सकपकाए । विष्णु भगवान का अपमान न हो जाय । वैष्णवों से वैसे ही डरते थे। जब से अजामिल वाला किस्सा हुआ, विष्णु जी के भक्तों से डरने लगे थे ।
थोड़ी देर तक सोचते रहे, क्या कहूँ...क्या कहूँ ?
"अच्छा ठीक है, पर किसी भी हाल में कल जरूर चलना पड़ेगा । "
" हाँ-हाँ ठीक। कल जरूर चलूँगी । "
बुढ़िया ने अंदर से ही उत्तर दिया।
यमराज अब भी संशय में थे ।
पूछा- " पक्का वादा रहा न ? "
" हाँ भई ! क्या लिख कर दूँ ? " बुढ़िया हँसी ।
कहने लगी-- " अच्छा एक काम करो ! "
तुम स्वयं ही दरवाजे पर मेरी तरफ से अपने हाथ से लिख दो।
' कल आना '
और देखो अब तुम ही लिख रहे हो तो अब कल तक तंग न करना ।
यमराज ने झोपड़ी के टूटे दरवाजे पर लिख दिया--
'कल आना'
और चले गए, यह सोचकर कि अब एक दिन और धैर्य रख लेते हैं, आखिर अपने बड़के वाले भगवान जी की भक्त है।
यमराज चले तो गए मगर फिर दूसरे दिन सुबह-सुबह ही पहुँच गए।
झोपड़ी के दरवाजे पर आकर फिर दरवाजा खटकाया।
" ऐ माई ! चलो अब। समय पूरा हुआ। "
बुढ़िया चतुर थी। उसने तो कल पूरा खेल ही खेल लिया था।
बोली-- " बड़े विचित्र हो यमराज जी। किसने तुमको इतने जरूरी काम का अधिकारी बना दिया। तुम तो पहले भी आए थे, मैंने पहले ही कहा था कल तक परेशान न करना।
अच्छा ये बताओ...तब अपनी कुछ बात हुई थी कि नहीं ?
कुछ समझौता तुमने ही तो किया था।
तुम अपने ही हाथों दरवाजे पर मेरी तरफ से कुछ लिख कर गए थे।
उसे पढ़ो जरा ! "
यमराज चकराए, देखा...उनके ही हाथों दरवाजे पर लिखा था
'कल आना'
बहुत सारे कामों के बीच शायद कुछ गलती मुझसे ही हुई है।
...और फिर बुढ़िया से अपनी गलती की क्षमा माँग कर लौट गए।
....फिर कई बार लेने आए और स्वयं का लिखा 'कल आना' देख हर बार बुढ़िया से डाँट खाते और लौट जाते।
तब से कान पकड़ लिए यमराज जी ने..।
अब किसी को एक मिनट की भी छूट नहीं देते ।
कहते हैं कि वे आज तक उस चतुर बुढ़िया को न ले जा पाए।
वह बुढ़िया आज भी उन छोटे बच्चों के नाती-पोतों को सुंदर कहानियाँ सुनाया करती है ।
आज भी ढूँढोगे तो मिल जायेगी कहीं न कहीं ।