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बेटी - भाग-२

कॉलेज से आने के बाद मेरा नौकरी ढूंढने का सिलसिला शुरू हो गया | जितनी जल्दी नौकरी मिलती उतनी ही जल्दी छूट जाती थी | यह सिलसिला बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था | एक दिन जब मैं अपनी छठी नौकरी छोड़ कर घर आई तो उस समय पिता जी ऑफिस से आकर चाय पी रहे थे | उन्होंने मेरा झुका और परेशान चेहरा देख कर ही अंदाजा लगा लिया था कि मैं आज फिर से नौकरी छोड़ कर आई हूँ | मैं पानी पी कर अपने कमरे की ओर जाने ही लगी थी कि वह बोले ‘लगता है मेरी बेटी एक ओर नौकरी को लात मार कर आई है’ | मैं चाहते हुए भी कुछ न बोल सकी | मुझे चुपचाप खड़े देख वह बोले ‘बेटा ऐसा तो होता ही रहता है | भगवान् का इसी में शुक्र मनाओ कि जितनी जल्दी तुम नौकरी छोड़ती हो उतनी ही जल्दी तुम्हें दूसरी मिल जाती है | इधर आओ यहाँ मेरे पास बैठो और बताओ कि आखिर यह तुम्हारे साथ क्यों हो रहा है’ |

मैं चुपचाप उनके पास सोफ़े पर बैठ गई | मुझे चुप बैठा देख पिताजी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मुस्कुरा कर बोले ‘बेटा तुम्हारे साथ जो हो रहा है ये कोई नया नहीं है | यह उन सब के साथ होता है जो वक्त के अनुसार नहीं बदलते’ | मैंने यह सुन कर उनकी तरफ प्रश्नभरी निगाहों से देखा तो वह मुस्कुराते हुए बोले ‘बेटा मैं भी एक जमाने में तुम्हारे जैसा था | अपने से ज्यादा दूसरों के बारे में सोचता था | बेटा मैंने भी बहुत धक्के खाए हैं | मैंने वक्त के उन धक्कों और अनुभवों से यही सीखा है कि हम में से ज्यादात्तर लोग दूसरों को बदलने में लगे रहते हैं | खुद बदलने की कभी कोशिश नहीं करते’| एक लम्बा साँस ले कर वह फिर बोलने लगे ‘बेटा लगता है तुम अभी तक अपने कॉलेज के माहौल को भूली नहीं हो | बेटा वह कॉलेज था, एक सपनों की दुनिया | आज जहाँ तुम खड़ी हो वह असल ज़िन्दगी है | यहाँ अगर तुमने कुछ करना है या बनना है तो सबसे पहले अपने बारे में सोचो | जब तुम कुछ बन जाओगी तब दूसरों के बारे में सोचना’ |

पिताजी की बात सुन कर मैं चुप न रह सकी और बोल ही पड़ी ‘पापा मैं अपने पर तो जुल्म या नाइंसाफ़ी होते हुए सह सकती हूँ लेकिन कोई बेवजह दूसरों पर करे या स्टाफ के बाकि लोग किसी एक को निशाना बना कर मजाक उड़ाएं तो कैसे सहन करूँ | मेरी बात सुन कर पिता जी हँसते हुए बोले ‘आज जिस कम्पनी को छोड़ कर आई हो उसमें क्या हुआ था’ |

मैं गुस्से में थोड़ा तेज स्वर से बोली ‘यहाँ भी सब वैसा ही था बस एक ही बात अलग थी कि यहाँ बॉस का स्वाभाव बहुत ही चिड़चिड़ा था और वह बोलते हुए किसी भी स्तर पर चला जाता था’ |

पिता जी लगभग हँसते हुए बोले ‘बॉस ने तुमसे कुछ कहा’ |

मैं बोली ‘उसकी हिम्मत कि वह मुझे कुछ बोले | उसने आज स्टाफ की एक लड़की को सबके सामने इतना बेइज्जत किया कि मैं सह न सकी | मैंने भी उसे इतनी सुनाईं कि वह ज़िन्दगी भर याद रखेगा’ |

‘और कुछ’|

‘नहीं बस इतना ही है’ |

पिता जी मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर बहुत ही प्यार और दुलार से बोले ‘बेटा जी मैं भी एक जमाने में आपके जैसा ही था | सुन कर अच्छा लगा कि मेरी बेटी मेरे ही पदचिन्हों पर चल रही है | बेटा यह सब करने और सुनने में ही अच्छा लगता है लेकिन तुमने कभी यह सोचा है कि इसका अंत क्या......’ | मैं बीच में ही बोल पड़ी ‘जो होगा देखा जाएगा लेकिन मैं यह सब होते हुए नहीं देख सकती मतलब नहीं देख सकती’ |

पिता जी मेरा हाथ दबाते हुए बोले ‘ठीक है | मैं तुम से ज़ोर जबरदस्ती नहीं कर रहा हूँ | तुमने अपनी बात रख दी | मैंने सुन ली | अब तुम मेरी भी बात तो सुनो’ | मैं लम्बी साँस लेते हुए बोली ‘जी बोलिए’ |

पिता जी मुस्कुराते हुए बोले ‘मैं जो भी बोलने जा रहा हूँ | उसे ध्यान से सुनो और रात को बैठ कर सोचना कि क्या गलत है और क्या ठीक है | तुम नई कंपनी में जाने से पहले मेरी बातों पर सोच-समझ कर फ़ैसला करना कि तुम्हें किस ओर जाना है और क्या करना है | फ़ैसला तुम्हारा अपना होना चाहिए | ये मत सोचना कि यह मैंने कहा है और तुम्हें उस पर चलना ही है | तुम्हारी ज़िन्दगी है तो फ़ैसला भी तुम्हारा अपना होना चाहिए’ |

पिता जी की बात सुन कर मैंने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया | यह देख कर वह फिर से बोलने लगे ‘बेटा तुमने आज तक जितनी भी कम्पनियां छोड़ी और जिन भी कारणों से छोड़ी वह तुम्हारी सोच थी और मेरे हिसाब से तुमने बचपना ही किया क्योंकि तुमने तस्वीर का एक ही रुख देखा और लात मार दी | तुमने तस्वीर के दूसरी तरफ तो देखा ही नहीं और न ही सोचा | दूसरा रुख यह कि ऐसे लोगों को कम्पनी में रह कर तो सबक सिखाया जा सकता है | छोड़ कर आने पर तो वह बेशर्म स्टाफ के लोग और वह बेवकूफ बॉस और धौंस दिखाएंगे | वह बोलेंगे कि जो हमारे सामने बोलेगा या हम से दब कर नहीं चलेगा उसे कम्पनी छोड़ कर जाना ही पड़ेगा | वह लड़की तुम्हारे चीखने-चिल्लाने या कम्पनी को छोड़ कर आ जाने बाद अब और दब गई होगी | अब उसे और ज्यादा सहना पड़ेगा | तुम्हारा किसी भी कम्पनी को छोड़ने से क्या फ़ायदा हुआ | तुम्हारा भी नुक्सान हुआ और जिसके लिए किया उसका भी नुक्सान ही हुआ होगा | बेटा बुराई को खत्म करने के लिए बुराई में घुसना पड़ता है और उसकी जड़ का पता लगाना पड़ता है | हमें गलत सिखाया जाता है कि बुराई को खत्म किया जा सकता है | बुराई न कभी खत्म हो सकती है और न कभी हुई है | हमें तो उस बुराई को एक दिशा देनी है वह दिशा ही उसे बुराई से अच्छाई की ओर ले जायेगी | इसे बहुत ही सीधे-साधे ढंग से समझा जा सकता है | हम किसी भी उफनती हुई नदी के बहाव को रोक नहीं सकते हाँ उस पर बाँध बनाने के लिए उसके तल पर उतरना पड़ेगा | तल पर उतर कर बाँध बनाते हुए उसके गुस्से को सहना पड़ेगा | लेकिन जिस दिन भी हम उस पर बाँध बनाने में सफल हो गए तो समझो हम जीत गए और वह उफनती नदी हार गई | अब हम बाँध बना कर उस उफनती नदी को छोटी-छोटी धाराओं में तबदील कर दिशा दे देंगे | अब वह उफनती नदी शांत हो हमारी इच्छा के अनुसार चलेगी | लेकिन इतना होने के बाद भी हम उसके बहाव को नहीं रोक पाए | इसलिए नकारात्मक बहाव को मत रोको | कोई नहीं रोक सकता | उसकी तह तक सकारात्मक हो कर उतरो और एक सकारात्मकता का बाँध बनाओ और उस नकारात्मक बहाव को वो दिशा दो जैसा हम चाहते हैं | नकारात्मक बहाव में हमेशा उफ़ान होगा क्योंकि वह बहाव दिशा हीन होता है | जैसे ही ऐसे बहाव को दिशा मिलती है तो वह स्वयम ही शांत होने लगता है | शांत होने का मतलब ही है कि अब उसमें सकारात्मकता आ गई है | ऐसे बहाव को कभी पता ही नहीं लगेगा कि कब उसने बुराई छोड़ी और कब अच्छाई पकड़ी | अब जो मैंने कहा है उसे सोचो समझो और फ़ैसला करो कि तुमने क्या करना....’ | अभी वह अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाए थे कि पिताजी का मोबाइल बज उठा | उन्हें फ़ोन पर बात करता देख मैं उठ कर अपने कमरे में आ गई |

आज मुझे एक कम्पनी में काम करते हुए डेढ़ साल हो गया है | कभी किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं आई क्योंकि मैंने पिताजी की बातों को गाँठ बाँध कर अपने दिलो-दिमाग में संजो लिया था |

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