मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 20 Neelima Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 20

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 20

लेखिका: अमृता ठाकुर

आईना

मैंने धीरे से रिसीवर रखा। गुस्से से आंखे अभी भी भरी हुई थीं। पता नहीं अब भी जब अपना पक्ष रखने का समय आता है, ज़बान चुप हो जाती और आंखों से बूंदे टपकने लगती । ज़िदगी की आधी लड़ाइयों में तो इन आंखों की वज़ह से ही हथियार डालना पड़ा। कोफ्त होती है अपनी इस कमज़ोरी से। अम्मा सामने खड़ी मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। उनके चेहरे पर अजीब से भाव आ जा रहे थे। उन्हें अपनी तरफ देखता हुआ पा कर और गुस्सा आया।

‘आप ही का बेटा था। मेरी औकात का मुझे एहसास करा रहा था।’ मैने दांतों को चबाते हुए कहा।

‘क्या आप वो गहने लेने आईं हैं जो आपलोगों ने मुझे शादी में दिया था?’ अम्मा ने कुछ नहीं कहा। मेरी तरफ गहरी नज़र से देखा जैसे किसी बात का थाह लेना चाहती हों फिर अपनी नज़रो को समेट वहां से चली गईं। मैं गुस्से में बुदबुदा रही थी ‘क्या घटिया सोच है इनके गहने लेकर मैं कहां भाग रही थी।’ अम्मा को कल दरवाजे पर देख अजीब लगा था। पहले लगा शायद मेरे और तन्मय के बीच चल रही लड़ाई में शांति दूत बन कर आई हैं। पर ये तर्क कुछ जमा नहीं था। अम्मा तो हमेशा से मुझ में ही कमियां निकालती रही हैं उनके लिए तो अच्छा है कि मैं जाऊं और कोई दूसरी आये। मेरी ज़िदगी को हैल बनाने में इनका कम कंट्रीब्यूशन हैं! अम्मा ने कल रात आते ही कहा जैसे आने की सफाई दे रहीं हों ’ कल सुबह मेरी ट्रेन हैं।’ पर यही चार ‘शब्द’ इसी में पूरी रामायण समझ लो -क्यों आईं? किसने भेजा? क्या कहीं जा हीं थीं बीच में ब्रेक लिया?’ पर नहीं! ये सारी रामायण तो खुद ही बांचनी है, और खुद ही अर्थ निकालने हैं।

रात को अपने लिए दो रोटी सेंकी तो दो उनके लिए भी सेंक दी। अम्मा की दो रोटी फिक्स है, न इससे कम न इससे ज्यादा। खाना खाते हुए बिल्कुल चुप्पी थी, दोनों ही जैसे इस चुप्पी से मुंह चुराना चाह रहे हों, पर रास्ता नहीं सूझ रहा था। मैनें उठकर टीवी चला दिया। प्रधानमंत्री का देश के नाम संदेश आ रहा था।

‘क्या!!!! कोई कहीं अब नहीं जा सकता? लॉक डाउन। मेरे टिकट का क्या होगा? अरे लौटना बहुत जरूरी है!’ अम्मा की आवाज़ में चिंता घुली हुई थी। उन्होंने ये सवाल खुद से किया था।

‘अपने आप केंसिल हो जाएगा। दो चार दिन की ही बात है।’ फिर कोरोना की भयावहता को मन ही मन आंका। और अपनी ही बात को काटते हुए मैंने कहा -‘पता नहीं कब तक चलेगा। पर ऐसा क्या है, है तो घर पर आपका बेटा। अब तो ऑफिस भी नहीं जाना है। दो लोग का खाना तो बना ही सकते हैं!’ पर अम्मा के चेहरे पर अभी भी चिंता की रेखाए खिंची हुई थीं।

रात भर उनके पलंग की चरमराहट सुनाई पड़ती रही। शायद उन्हें ठीक से नींद नहीं आई। उनकी पलंग की चरमराहट सुन मुझे खीझ हो रही थी। ‘ऐसा भी क्या.. चार दिन अपने से ये लोग खाना भी नहीं बना सकते!.... इस तरह की टुच्ची चीजों से अपनी इंपोर्टेंस साबित करने में लगती रहती हैं ये औरते! इनका बस चले तो अपनी गोद से पति और बच्चों को उतारे ही नहीं। अम्मा का तन्मय को किचन में मदद करने के लिए मेरे कहने पर, मुंह बिचकाना भी याद आया। उन्होंने तन्मय के हाथ से बरतन छीन लिया और खुद धोने लगीं थी। यह शादी के तुरंन्त बाद की बात है। तब दिमाग पर आइडियलिज्म कुछ ज्यादा ही हावी था। सोचा था सास, ननद के साथ एक दोस्ताना रिश्ता रखेंगे । मां और सहेली जैसा। प्यार से क्या नहीं किया जा सकता है? पर मेरा आइडियलिज्म हवा में ही रह गया। कुछ रिश्तों का अपना गणित होता है।

सुबह होते ही तन्मय का फोन आ गया। पूरी रामायण सामने खुल गई। अम्मा शादी में जो गहने मुझे उनकी तरफ से मिले थे वो लेने आईं थीं। पर क्यों लेने आईं थीं? तन्मय का कहना था उसने ऐसा करने के लिए नहीं कहा। बल्कि वो तो अम्मा के इस व्यवहार से खुद सरप्राइज था। घर में सब को पता था कि मेरे और तन्मय के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। पर गहने वापिस लेना ये तो कुछ ज्यादा ही हो गया।

मां सुबह ही टीवी खोल कर बैठ गईं थीं। देश विदेश की ख़बरे आ रही थीं।

‘च...च... क्या दिन आ गये हैं! बूढ़ों को छोड़ दो मरने के लिए... हां अब उनकी क्या जरूरत है। कितना स्वार्थी नजरिया है। ’ अम्मा उदास सी आवाज में बोली। इटली में मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी और वेंटिलेटर कम पड़ते जा रहे थे। उनके पास कोई उपाय नहीं था किस आधार पर वे एक मरीज को वेंटिलेटर लगायें दूसरे को नहीं। बूढ़े मरीजों से हटाकर वेंटिलेटर अब यंग पेशेंट्स को लगाये जा रहे थे। मेरा मन भी इस ख़बर को सुन कुछ कसैला सा हो गया।

‘कुछ दिखता नहीं है जाने आगे क्या होगा। हम कहां जायेंगे...दुनिया कहां जायेगी?’ अम्मा बुदबुदाई। अम्मा शायद इस ख़बर से खुद को जोड़ कर देख रहीं थीं। एक अजीब सी उदासी उनकी आंखों में थी। मैंने माहौल को थोड़ा हल्का करने के लिए उनसे चुहल की या मान लीजिए कि मेरे अंदर का कहानीकार जाग गया।

‘अच्छा अम्मा, आप जब छोटी थीं.. यही बारह चौदह साल की...तो आपके सपने क्या थे..(.अम्मा का चेहरा बिल्कुल ब्लैंक था...शायद मेरा सवाल नहीं समझी थीं। कहानीकार की कहानी शुरू होने से पहले ख़त्म)....मतलब आप आगे... ज़िंदगी से क्या चाहती थी...जैसे बच्चों के सपने नहीं होते कि हम ये सीखेंगे, ये पढ़ेगे, या या मतलब कुछ भीं....जैसा आपने अभी कहा न! कुछ दिखता नहीं, जाने आगे क्या होगा...वैसे ही क्या तब कुछ इस बारे में आपकी कल्पना थी?’

‘नहीं’ अम्मा ने इतने लंबे चौड़े सवाल को अपने एक जवाब से धाराशायी कर दिया। पर मैं हार नहीं मानने वाली थी।

‘कुछ भी नहीं..ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ तो होगी ही?’

‘उसका समय नहीं मिला। पंद्रह साल की थी तब ‘दी हो गई।’

‘ओह! आपके यहां शादी कम उम्र में हो जाती है?’

‘नहीं मैं पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी थी, मेरे बाद तीन बहने और एक छोटा भाई। उस समय दसवीं में थी जब रिश्ता आया था। पहले भी एक रिश्ता आया था। पर उस समय मां ने मना कर दिया था। घर में भाई बहन को संभालने के लिए मेरी जरूरत थी। मेरे बाद वाली बहन तब तक छोटे भाई और बहन को संभालने लग गई थी।...रिश्ता भी अच्छा लगा, ये काफी पढ़े लिखे हैं.......उस समय उनकी पढ़ाई ख़त्म हो गई थी...तो.... हां.... हो गई।’ अम्मा का चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे कोई पुराना सा बक्सा खोलो तो उसमें पड़े सामान को देखकर लगता है कि ‘अरे! ये इसी में था, इसके बारे में तो भूल ही गई थी कि ये भी मेरे पास है।’ अम्मा शायद इन यादों को बक्से में रखकर भूल ही गई थीं। लग ही नहीं रहा था कि ये वही अम्मा हैं जिनकी तौलती हुई नज़र मुझे मानसिक तौर पर थका देती थीं और एक बहू वाली खीझ मुझ पर सवार होने लगती थी। पर आज उनकी नज़र खुद के भीतर कहीं गड़ी हुई थी।

‘तब तो पापाजी आपसे उम्र में काफी बड़ें होंगे?’ मैंने थोड़ा हिचकिचाते हुए पूछा।

‘बारह साल का अंतर है। पहली बार जब इनको देखा था तब डर गई थी। इतने लंबे चौड़े। पता नहीं कुछ अजीब अजीब सी बातें दिमाग में आ रही थीं। अपने बड़े बड़े हाथों से उन्होंने मुझे दबोच लिया है, और...पता नहीं क्या क्या.... उनकी तरफ खुल कर देखने की हिम्मत ही नहीं होती थी। अरे कित्ते... पढ़े लिखे भी तो हैं। इनके रिश्तों की कोई कमी थी क्या ? इनको भी पता नहीं क्या फितूर थी? ऐसी लड़की से शादी करना है जो घर को संभाल ले। मां को बचपन में ही खो दिया था उन्होंने शायद इसीलिए। तो बस शादी हो गई।’ अम्मा के चेहरे पर जल्दी शादी होने की शिकायत नज़र नहीं आ रही थी बल्कि एहसान के तले दबे होने का भाव था। अब अम्मा को लगने लगा कि शायद उन्होंने अपने अतीत के बक्से को कुछ ज्यादा ही खोल दिया है वो भी बहू के सामने। बात को बदलते हुए बोलीं। ‘कब तक चलेगा ये क्या है बंदी...डाउन?’

‘क्या पता? महीने भर तो लग रहा है रहेगा।’

‘हूं....कहीं नहीं जा सकते है? और कहीं कोई बीमार होगा या किसी का ऑपरेशन का डेट होगा तो वे क्या करेगा? अम्मा ने कुछ सोचते हुए मुझ से पूछा।’

‘अभी तो कुछ भी नहीं हो सकता। पता नहीं अस्पताल खुले होंगे की नहीं? नहीं न्यूज में बताया तो था कि अस्पताल में केवल इमरजेंसी खुला होगा..ओपीडी ऑपरेशन सब बंद।’

‘हूं’ कह कर अम्मा फिर किसी चिंता में डूब गई। अचानक पूछा ‘ ये घर तेरे नाम पर है ना ?’

‘जी’ मैंने कुछ अपराधबोध जैसे भाव के साथ जवाब दिया।

‘हां भई! पढ़ी लिखी औरत हो सब चीज में ‘मेरा है, मेरा है.. तो चलाओगी ही!’ अम्मा को शायद मेरे और तन्मय की वो लड़ाई याद आ गई जो इस घर की रजिस्ट्री के बाद हुई थी। जिसमें तन्मय को उतनी दिक्कत नहीं हुई थी, बल्कि वह तो इस बात की सफाई दे रहा था कि क्या फर्क पड़ता है कि घर उसके नाम पर है या पत्नी के नाम पर। वैसे भी मकान की किस्त तो वो ही देगी। पर ये बात न तो पापाजी को पसंद आई थी न अम्मा को। बल्कि अपनी बातचीत में उन्होंने क्लीयर कर दिया था कि ऐसी औरत कभी घर में घुल मिल नहीं सकती जो खुद को परिवार से अलग खड़ा कर अपने बारे में सोचे। (हालांकि ये लॉजिक मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि घर अगर पुरुष के नाम है तो कोई दिक्कत नहीं है, अगर औरत के नाम हो गया तो परिवार की नींव हिलने लगती है) इस घर में वे इसीलिए कभी नहीं आयें। अम्मा कैसे यहां आ गइंर् इस बात की मिस्ट्री मेरे दिमाग और गहरा गई।

अम्मा को आए हुए दो दिन हो गए थे। लॉक डाउन से पूरे शहर की ज़िंदगी ठहर सी गई थी। शुक्र है कि थर्ड फ्लोर पर बने इस मकान में बालकनी दोनों तरफ़ बनी है। बिल्डिंग में सामने पेड़ ही पेड़ लगे हुए हैं। बॉलकनी से सभी पेड़ों की फुनगियां ही नज़र आती हैं। फुर्सत के दिनों में वहां बैठकर इन पत्तों को देखना मेरा फेवरेट काम रहा है। सभी पेड़ों के पत्तों के रंग हरे हैं लेकिन कोई भी हरा दूसरे हरा जैसा नहीं है। पिछले तीन दिनों से तो जैसे लगभग मेरी रूटीन सी बन गई थी, चाय की प्याली लेकर बॉलकनी में बैठ जाती और मोबाइल में ख़बरों को खंगालती, फिर उन्हें पढ़ कर मन कुछ विरक्त सा हो जाता। जिंदगी क्या है, क्यों हैं, कब तक है, कल का क्या भरोसा, इंसान क्या होता जा रहा है- जैसे दर्शन के मूल सवाल दिमाग पर हावी होने लगते। पेड़ो से आती कोयल की आवाज़ और जुगलबंदी करती चिड़ियों की चहचहाहट में उत्साह खोजने की कोशिश करती। अम्मा की रूटीन में कुछ बदलाव आया था वह अब सुबह तड़के नहीं उठ रही थीं, जैसा घर पर कानपुर में उठ जाया करती थीं। कानपुर में सुबह उठते ही उनकी खटर पटर शुरू हो जाया करती थी। उनके उठ जाने की वज़ह से मुझे भी मजबूरन, दस तरह का बहाना मारने के बाद भी उठ जाना पड़ता था। कई बार ऐसा लगता था कि वह जानबूझ कर खटर पटर करती हैं ताकि मैं उठ जाऊं। और कई बार उनके इस खटर पटर से यह भी साउण्ड होता था कि वह आसपास वालों को खा़सतौर पर बेटे और पति पर यह ज़ाहिर करना चाहती हैं कि उन्होंने ही पूरे घर का वज़ूद अपने कंधों पर संभाल रखा है। पर मुझे तो यह सब बकवास लगता है...पर फिर भी मैं मनमसोस कर उठ ही जाया करती थीं और ऐसे काम करने लगती जैसे मैं उनके कंधों को अपने कंधों से चुनौती दे रही हूं। अपने व्यवहार पर मुझे कई बार ऊंट की कहानी भी याद आती है जिसे व्यापारी ने रात में अपने टेंट में सिर छिपाने का मौका दिया तो उसने धीरे धीरे अपने पूरे शरीर को ही उसमें घुसा लिया...ऊंट अंदर और व्यापारी टेंट से बाहर हो गया। पिछले तीन दिनों से देख रही हूं अम्मा आठ बजे तक उठ रही हैं। शायद उन्हें रात को नींद ठीक से नहीं आ रही है। अम्मा के खांसने की आवाज आई। मैने कुछ नाश्ता आज नहीं बनाया था। अम्मा पता नहीं इस बात पर किस तरह रिएक्ट करें। थोड़ी देर बाद किचन से खटर पटर की आवाज़ आई। मैंने आवाज़ को अनसुना कर दिया। अंदर से अम्मा ने मुझे आवाज़ दी। किचन में देखा तो पोहा और चाय बन कर तैयार था। अम्मा शायद ज्यादा देर पहले उठ चुकी थीं। ‘नाश्ता कर लो, ज्यादा देर खाली पेट गैस करता है।’ आवाज में एक आदेश था या कंसर्न पता नहीं। ज्यादा सोचा नहीं क्योंकि जो भी था मेरे फायदे के लिए था....और सबसे बड़ी बात मेरे फेमिनिज्म को कहीं चुनौती नहीं दे रहा था। हमने साथ साथ नाश्ता किया।

‘तन्मय का कल कोई फोन आया?.... मेरा तो कल से काम ही नहीं कर रहा है। बारबार नो नेटवर्क दिखा रहा है।’ अम्मा ने पूछा।

‘ हां आया था। सब ठीक हैं। ...पापाजी भी ठीक हैं।...आपके बारे में पूछ रहे थे। कहा कि जैसे ही लॉक डाउन में कुछ ढील मिलेगी, आपको ले आयेंगे।’’मैंने उनकी चिंता को दूर करने के लहज़े में कहा।

‘ नहीं उसको कहना कोई आने की जरूरत नहीं है। ख़ुद ही आ जाऊंगी। ’ जैसे तन्मय की आ कर ले जाने की बात सुनकर वह घबरा गई हों। हम दोनों नाष्ते के बाद बालकनी में आ कर बैठ गए। मेरे दिमाग में अभी गहने की बात घूम रही थी। अम्मा ने अभी तक ने गहना मांगा था, और न ही इसका ज़िक्र किया था।

‘तुम लोग अलग होने की जगह बच्चे वच्चे के बारे में क्यों नहीं सोचते हो?...बच्चे रिश्तों को बांधते हैं।’ अम्मा ने कुछ सोचते हुए बात छेड़ी। शायद मेन मुद्दे पर आने के लिए माहौल बना रहीं थीं।

‘अम्मा...वैसा रिश्ता ही क्यों हो जिससे बांधने के लिए तीसरे की जरूरत पड़े! ....और बच्चा मतलब कितनी ज़िम्मेदारियां ...और ये किसके सिर पर आयेंगी...मेरे ही न! ...फिर सब ख़त्म...ये..ये...जो मैंने लग कर अपनी पढ़ाई की...पूरे जुनून के साथ....उससे क्या हासिल हुआ.....तन्मय का ट्रांसफर कानपुर हुआ तो....नौकरी छोड़ कर यहां आ जाओ...अगर ऐसा करने के लिए नहीं तैयार हुई तो....तुम स्वार्थी हो, तुम्हें मुझसे कोई लगाव नहीं है...तुम्हारा असली रंग अब दिख रहा है...मतलब क्या क्या नहीं बोला उसने...प्यार मतलब....खुद को ख़त्म कर देना होता है?..और आपके लिए प्यार कुछ और है.....आपका प्यार... दूसरा व्यक्ति अपनी इच्छा मारकर आपके लिए क्या कर रहा है यही देखता है।’ मेरे गुस्से और शिकायत का बांध लगभग टूट ही गया। मैने खुद को संयमित करने की कोशिश की। ऐसा पहली बार हुआ था कि इस मुद्दे पर मेरे दिमाग के अंदर क्या चल रहा है उसे खुल कर ज़ाहिर किया हो। अपनी मां को भी जब मेरा अकेला नोएडा में अकेले रहने का फैसला पसंद नहीं आया था तो ये तो सास ही हैं उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है। मां ने जब सुना कि मैं अकेले नोएडा में रह रही हूं उन्होंने तो साफ कहा था ‘अगर पति को नज़रों से दूर करोगी तो ज़िदगी भर पछताती रहोगी। आदमी का मन बेल जैसा होता है पड़ोस की मुंडेर पर चढ़ने में टाइम नहीं लगता है। लोग क्या कहेंगे। तेरे पापा को मैं क्या समझाऊं।’ इसके बाद मेरा मन नहीं हुआ कि उन्हें मै समझाऊं कि मैं रिश्तों को लेकर क्या सोचती हूं। जबकि वह अच्छी खासी पढ़ी लिखी हैं। पर अम्मा ने कुछ नहीं कहा बस चुपचाप सुनती रहीं। पर उनकी नज़र नीचे ज़मीन पर थी। माहौल कुछ ज्यादा भारी हो गया तो मैंने उसे थोड़ा लाइट बनाने के लिए अम्मा की तरफ एक सवाल उछाल दिया,

‘अम्मा तन्मय बचपन में कैसा बच्चा था? सबसे छोटा था षैतान तो जरूर होगा? आप चार बच्चों को संभालती कैसे थीं?’

‘ये सोचने का कभी मौका नहीं मिला। सोलह सत्रह की थी तब दीप्ति गोद में आ गई थी। ससुर जी थे तो उनके सामने बच्ची को नहला धुला कर रख देती थी और घर के काम निपटाती थी। तन्मय के पापा को पसंद नहीं था कि नौकर चाकर घर पर हों? कहते थे कि उनको ये नौकर चाकर वाला कल्चर नहीं पसंद है। थोड़े अलग तरह के इंसान हैं ये। फिर मंदिरा आई, रोशनी और फिर तन्मय। शुरू में तन्मय के दादा जी से थोड़ी मदद मिल जाती थी, बच्चे उनके साथ घुले मिले थे, फिर वो भी बीमार रहने लगे। तन्मय बहुत षैतान था पर घर में बहुत लाडला भी था। सबसे ज्यादा दिक्कत होती थी गर्मी की छुट्टियों की। चौबीस घंटे बच्चे घर में रहते। दूसरे बच्चे कहीं नानी, दादी के यहां चले जाते और ये सारे बच्चे घर तक ही सिमट जाते।’ अम्मा फिर से उन बीते हुए समय में खो गईं।

‘ ये लोग अपने नानी के यहां नहीं जाते थे?’ मैंने कभी तन्मय के मुंह से भी उसके ननिहाल का ज़िक्र नहीं सुना था।

‘वहां से तो बहुत पहले संबंध ख़त्म हो गया। शुरू में भाई आता था राखी वाखी में। उसको तो गोद में खिलाया है, बच्चे की तरह प्यार किया है। उसे मेरी बड़ी आदत हो गई थी, मां बताती थीं कि मेरी शादी के बाद मुझे घर में बहुत ढूंढ़ता था। एक दो बार तो वैसे भी आया। पर इनको उसका आना बहुत पसंद नहीं आता था। फिर धीरे धीरे उसने आना बंद कर दिया। मां की मौत की ख़बर आई तब भी हम जा न सकें। एक तो ख़बर भी देर से मिली फिर इनने कहा कि अब जा के क्या फायदा जिसको जाना था ’उ’ तो चला गया। हां! एक बार उसके बाद भी भाई आया था वो कुछ ज़मीन का मामला था। मेरे भी उसमें साइन चाहिए थे। इन्होंने कहा कि लड़की का भी बराबर का अधिकार होता है मां बाप की संपति में तो ये क्यों नहीं लेगी अपना अधिकार। पर भाई बाबा के ऑपरेशन के लिए जमीन बेचना चाहता था। ये इसके लिए तैयार नहीं हुए....उन्होंने कहा कि ये काम बेटे का होता है, शादी के बाद मां बाप बेटी की जिम्मेदारी नहीं है। उसके बाद कभी भाई आया नहीं।’

‘ओह!’ समझ नहीं आया इसके अलावा क्या बोलूं। अम्मा ने अचानक फिर से अपनी बात का ट्रेक बदल दिया।

‘पर तन्मय पढ़ने में भी और खेल कूद में भी बहुत अच्छा था। पढ़ने में उसकी बहने भी अच्छी थीं। अपने पापा पर गए हैं सभी बच्चे। जब वह स्कूल से मेडल ले कर आता था तो उसके पापा पूरा सीना चौड़ा करके बोलते थे मेरा बेटा है कमाल तो करेगा ही। मुझे भी बहुत अच्छा लगता था...लगता था कि तन्मय के पापा जरूर इसके लिए मन ही मन हमारी तारीफ कर रहे होंगे कि हमने बच्चों को कितने अच्छे से पाला हैं। बच्चे तो चारों हमारे अच्छे निकले हैं। बस रोशनी को थोड़ी दिक्कत हुई ससुराल में एडजस्ट होने में। जब रोशनी के पति उसकी शिकायत लेकर इनके पास आए थे तो मुझ पर ये बहुत नाराज़ हुए थे। क्यों नहीं बच्ची को सही चीजें सिखाईं। सही बात है एडजस्ट तो हमें करना ही होता है, करना भी चाहिए, हमेशा आपके हिसाब से चीजे तो होंगी नहीं।’ पता नहीं अम्मा इनडायरेक्टली मुझे कह रही थीं या खुद को। धूप निकल आई थी अब बालकॅनी में बैठना मुश्किल होता जा रहा था। मैने कप उठाते हुए अम्मा को अंदर चलने के लिए कहा।

लॉक डाउन के आज अठारह दिन हो गए। इससे रियायत की कहीं कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है। अब तो ऑन लाइन राशन भी नहीं मिल पा रहा। अभी कल तेल, कार्नफ्लेक्स जैसी चीजें मंगाई तो दस दस किलो का ही मिल पाया, छोटे पैकेट तो सारे ख़त्म हो चुके थे। सब्जी भी मैं कल शाम मदर डेयरी से ले कर आई । मास्क और ग्लव्स से खुद को पूरी तरह से कवर करके गई थी। पर जब भी बाहर निकलो तो डर लगा रहता पता नहीं किस चीज से वायरस शरीर में आ जाए। अचानक महसूस होने लगता कि बुखार हो रहा है तो कभी लगता सांस ठीक से नहीं आ रही। फिर जैसे ही ध्यान दूसरी तरफ करो सब ठीक है। बस यूंही दिन एक एक करके गुजर रहे हैं। मेरी और अम्मा की पिछले अठारह दिनों से यही रोज की रूटीन है। शाम को टीवी, सुबह बॉलकनी में चाय, दोपहर को कभी इधर लेटे कभी उधर लेटे बस दिन ख़त्म। मैं तो नेटफ्लिक्स पर जितने कोरियन सीरियल थे सारे देख चुकी थी। सोशल मीडिया पर आती ख़बरें, अफवाहें और भी परेशान कर रहीं हैं। कल देखा कि किसी करोना पोजेटिव बच्चे को एंबुलेंस से ले जा रहे थे। अकेला बच्चा चुपचाप सहमा सा उसमें बैठा हुआ था...कितना अकेला और डरा हुआ सा दिख रहा था वो बच्चा! उसका चेहरा आंखों में बार बार घूम रहा है। मैंने अम्मा को भी वह तस्वीर दिखाई। पता नहीं ये बीमारी कब पीछा छोड़ेगी। इन सबके सामने ज़िदगी की बाकि समस्याएं ऐसी लगती हैं जैसे क्या फिजूल की बातों में हम अपना वक्त जाया करते हैं जबकि ज़िंदगी का कोई भरोसा ही नहीं है, सब चीजे धरी की धरी रह जायेंगी। तन्मय का हर दूसरे दिन फोन आ रहा है। उसने कल बातचीत में बताया कि आपसी तनाव की वज़ह से वह एक ऐसी मानसिक स्थिति में पहुंच गया था जब वे मुझसे अलग होने की बात सोचने लगा था। और इसी उधेड़बुन में उसने अलग होने की बात का ज़िक्र अम्मा से किया। लेकिन उसे आश्चर्य हुआ कि अम्मा ने पूरे मामले को सुनते ही पहली बात गहने वापिस लाने की ही बोली, जबकि वो इस झगड़े को सुलझाने की कोशिश कर सकती थीं। ऐसा लगा जैसे वो इसी बात का इंतज़ार कर रही थीं। मुझे यह बात तन्मय से ही पता चली कि वो गहने जो मुझे षादी में मिले थे असल में अम्मा के ही थे, जो उन्हें उनकी शादी में मायके से मिले थे। ये गहने पापाजी के लॉकर में तब से ही पड़े हुए थे। ‘तो क्या अम्मा का पूरा प्राण उसी गहने में ही टिका हुआ है?

अम्मा के फोन पर कभी कभी पापाजी का फोन आता था, दो एक बार बेटियों का भी फोन आया। सुबह किसी का फोन आया जिससे उन्होंने लंबी बात की। बस कुछ शब्द ही कान में पड़े , ‘ऑपरेशन’ और ‘बहुत मुश्किल है’ बात करने के बाद देखा मैंने उनकी आंखें कुछ भरी हुई सी थीं। शायद मंझली दी का फोन होगा।

‘अम्मा सब ठीक है न!’ मैंने उनकी तरफ देखते हुए पूछा?

‘हां! हां! सब ठीक है, क्या हुआ?’उन्होंने नज़रे चुराते हुए कहा।

मैंने तन्मय से भी इस बारे में पूछा, लेकिन उसने भी यही कहा सब ठीक है। मुझे गलतफहमी हुई है। उस रात मुझे माइग्रेन के साथ वोमेटिंग शुरू हो गई। मुझे जब भी माइग्रेन होता है उलटियां ष्षुरू हो जाती है। मैं बिल्कुल बेसुध सी थी। अम्मा रात को जब किचन में गई तो उन्होंने शायद मेरा खाना किचन में ही पड़ा हुआ देखा तो मुझे आवाज देती हुए कमरे में आ गईं। मुझे इस हालत में देखकर घंटों बैठी मेरे सिर को दबाती रहीं। मुझे सहारा देकर बाथरूम में ले जाती, वोमेटिंग के दौरान पीठ को सहलाती। ये रात किसी तरह गुजरी मैं सुबह तक कुछ बेहतर हो गई थी। अम्मा रात को पता नहीं सो पाईं की नहीं।

‘मैंने रात को आपकी नींद ख़राब कर दी।’ मैंने धीमी आवाज में उनसे कहा। पर उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया। कुछ उदास सी लगीं। अचानक उनका फोन बजा और वो उसे लेकर अंदर चली गईं। उसके बाद वो कमरे से बाहर नहीं निकलीं। दोपहर में मैने थाली में खाना निकालकर उनके कमरे की कुंडी खड़काई । उन्होंने दरवाजा खोला पर उन्हें देख कर ऐसा लगा जैसे चार घंटो में उनके चेहरे पर चालीस साल गुजर गए हों। आंखें सूजी हुई थी।

‘अम्मा आप ठीक हो? आपने खाना भी नहीं खाया।’ मैंने थाली उनके सामने रखते हुए कहा। उन्होंने कुछ नहीं कहा और चुपचाप रोटियों को टूकने लगीं। खाना देने के बाद मैं वापिस कमरे में आ गई। कुछ देर बाद फिर घंटी की आवाज़ सुनाई पड़ी। वो किसी से बात कर रही थीं। मैंने कमरे में कान लगाया तो कुछ शब्द सुनाई पड़े ‘अंतिम समय में भी बौआ से नहीं मिल पाई। थोड़ी देर रुक जाता.....सब इंतजाम कर लिए थे। कुछ नहीं कर पाई। हम ही से देर हो गई।’ अम्मा की सुबकने की आवाज़ आई। मैं वहां से चली गई। कई तरह के सवाल दिमाग में आ रहे थे पर किससे पुछूं समझ नहीं पा रही थी। तन्मय से पूछती तो उसके दिमाग में भी कई सवाल अम्मा को लेकर आ जाते, ये मैं नहीं चाहती थी। अम्मा तीन चार दिन तक गुमसुम ही रहीं। एक सुबह जब वो पुराने रूटीन पर लौटती हुई दिखीं तो मैं मौका भांपते हुए उनके कमरे में अपने गहने का बक्सा लेकर चली गई। व अधलेटी थीं।

‘अम्मा आपको ये देना था...शायद आप इसी के लिए आए थे।’ मैंने गहने उनके सामने रख दिए। ‘वो एक एक गहने को उठा कर, उसकी नक्काशी को छू कर देखती रहीं जैसे वो गहना नहीं किसी के हाथों की नसों को छू रही हैं जिसमें ज़िंदगी दौड़ रही है। फिर सारे गहने को समेट कर मुझे पकड़ा दिया।

‘बेटा रख ले। ये तेरा है। तू जैसा चाहे इसका वैसा इस्तेमाल कर। ये केवल तेरा है.... किसी का भी नहीं....तन्मय का भी नहीं।’ अम्मा की आंखें पनीली हो गई थीं। उसमें आईने की तरह कई चेहरे नज़र आ रहे...जिसमें एक चेहरा मेरा भी था।

लेखिका परिचय

शिक्षा- हिंदी में स्नातकोत्तर , पत्रकारिता में स्नातकोत्तर

जेंडर एंड डेवलोपमेन्ट स्टडीज में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।

कार्य- पत्रकारिता के क्षेत्र में विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में 13 वर्ष तक रिपोर्टिंग व संपादन का काम किया।

जेंडर के मुद्दे पर एक्टिविस्ट के तौर पर कॉलेज के समय से एक्टिव।

विभिन संस्थाओं के लिए केस राइटिंग व सक्सेस स्टोरी राइटिंग ।

वर्तमान में जेंडर मुद्दे पर काम करने वाली संस्था 'जागोरी' में कार्यरत।

साहित्य : हंस, पाखी, आजकल में कहानी कविता प्रकाशित।

वाणी प्रकाशन औऱ विमेन प्रेस कॉर्प्स द्वारा कहानी प्रतियोगिता में कहानी को तृतीय पुरस्कार।

कहानी संग्रह में कहानी, लेख, पुस्तक समीक्षा प्रकाशित।