Hone se n hone tak - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

होने से न होने तक - 14

होने से न होने तक

14.

नीता और केतकी दोनो ही कालेज नहीं आए थे। क्लास हो जाने के बाद मेरा रुके रहने का मन नही किया था। कालेज से निकल कर मैं गेट के बाहर रिक्शे के इंतज़ार में खड़ी हो गयी थी। कोई ख़ाली रिक्शा दूर तक नहीं दिख रहा। तभी मानसी चतुर्वेदी का रिक्शा बगल में आकर खड़ा हो गया था,‘‘किसी का इंतज़ार कर रही हैं?’’उन्होने पूछा था।

मैं एकदम चौंक गयी थी,‘‘किसी का नहीं। रिक्शा देख रही हूं। कोई ख़ाली नही मिल रहा।’’

‘‘अरे आज रिक्शे पर जा रही हैं?’’उन्होंने अचरज से मेरी तरफ देखा था।

मैं हॅसती हूं,‘‘क्यों मैं तो रोज़ ही रिक्शे पर जाती हूं।’’

‘‘किस तरफ जाना है आपको?’’

‘‘यूनिवर्सिटि की तरफ। राय बिहारी लाल रोड।’’

उन्होंने चौंक कर मेरी तरफ देखा था‘‘अरे तब आईए न। हम भी उधर ही रहते हैं।’’ वह रिक्शे पर एक किनारे को सरक गई थीं।

‘‘थैंक यू’ कह कर मैं बैठ गई थी।

‘‘हमे थोड़ी सी देर का काम हलवासिया का है अगर आपको कोई दिक्कत न हो तो उस काम को निबटाते चलें। नहीं तो फिर कभी सही।’’उन्होने पूछा था।

‘‘नो प्राब्लम। बिल्कुल भी नहीं।’’

वे ख़ुश हो गयी थीं। उन्होने रिक्शे वाले से हलवासिया होते हुए चलने को कहा था। हम दोनों बातें करने लगे थे। मानसी चतुर्वेदी मुझसे मेरे घर के बारे में सवाल पूॅछती रही थीं...कौन सी सड़क के किस मोड़ पर किस तरफ मेरा घर है। मैं विस्तार से उन्हे सब बताती रही थी।

मानसी ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा था,‘‘उसी के थोड़ा आगे तो हमारा घर है। बहुत ताज्जुब है हमने आपको इधर कभी देखा नहीं था। आप कब से रह रही हैं यहॉ ?’’

‘‘अब तो काफी समय हो गया। विद्यालय और इस घर में लगभग आस पास ही आना हुआ है।’’मैं ने मन ही मन हिसाब लगाया था।

‘‘इसका मतलब है कि आप घर में ही घुसी रहती हैं। निकलती होतीं तो कभी तो देखा होता आपको।’’ वे हॅसी थीं। उन्होने फिर से मेरी तरफ देखा था,‘‘आप रिक्शे पर ही आती जाती हैं?’’यह प्रश्न उन्होने मुझसे दुबारा पूछा है। उनके स्वर में अविश्वास है।

‘‘हॉ’’ मैं ने कहा था।

‘‘पर मैंने आपको गाड़ी पर आते जाते देखा है। कई बार बहुत बड़ी गाड़ी पर भी देखा है आपको। शायद मर्सीडीज़ थी।’’

‘‘हॉ। पर वह मेरी नहीं थी।’’ मैंने दोहराया था,‘‘मैं रिक्शे पर ही आती जाती हूं।’’

‘‘अच्छा हमने सोचा आप वैल्हम,एल.एस.आर. वाले लोग’’ वे हॅसती हैं‘‘कार वाले ही होंगे।’’

मैं भी हॅसती हूं,‘‘नही हम बे-कार ही हैं।’’

फिर हम दोनों इधर उधर की बातें करते रहे थे। तभी मैं ने देखा था कि दॉए हाथ की सड़क से साईकिल पर सवार एक लड़का हवा की तेज़ी से लहराता हुआ अचानक प्रगट हुआ था जैसे आसमान से टपका हो। शायद उसने एक ही हाथ से हैंण्डिल संभाल रखा था। सामने की सीधी सड़क से स्कूटर पर आते सज्जन नें संभलने की बहुत कोशिश की थी पर दोनों ही तेज़ आवाज़ के साथ धराशायी हो गए थे। सड़क पर गिर कर स्कूटर कुछ दूर तक उनको अपने साथ घसीटता हुआ ले गया था। बॉए हाथ को बने सिनेमा हाल में शायद कोई नई पिक्चर आई है। अन्दर से लेकर सड़क तक टिकट लेने वालों की लाईन लगी हुयी है। टक्कर लगने की आवाज़ के साथ ही लोग टिकट खिड़की छोड़ कर बाहर स्कूटर वाले की तरफ को भागे थे,‘‘मारो...मारो साले को’’ की आवाज़ें आने लगी थीं। घबड़ा कर मैं ने अपनी दोनों हथेलियॉ अपनी आखों पर रख ली थीं। मुझे लगा था अब यह लोग स्कूटर वाले को मारेंगे।

तभी रोको के आदेश के साथ ही मानसी चतुर्वेदी रिक्शा रुकने से पहले ही नीचे कूद पड़ी थीं। मैं स्तब्ध सी देखती रह गई थी जैसे कुछ भी समझ न आ रहा हो। दूसरे ही क्षण मैंने देखा था कि पॉच फीट नौ इॅच लम्बी मानसी जी अपने दोनों हाथ हवा में ऊपर उठाए भीड़ के बीच में घुस चुकी थीं ‘‘उनकी तेज़ आवाज़ दूर तक गूॅज रही है,‘‘मारो? क्यां मारो? किसी ने कुछ देखा जो चल पड़े मारने? सिर्फ इसलिए कि वह स्कूटर पर हैं और यह साईकिल पर।’’ तब तक साईकिल वाला लड़का खड़ा हो चुका था। उन्होने उसे कंधे से पकड़ लिया था,‘‘क्यों जी। दिमाग ख़राब है जो सड़क पर लहराते हुए चलते हो। दे दें तुम्हे पुलिस को।’’

अब तक भीड़ का रुख पलट चुका था। मार पीट करने के लिए जुड़े लोग तमाशबीन की तरह खड़े हुए हैं। मानसी जी स्कूटर की तरफ को बढ़ी थीं,‘‘क्यो भईया चोट ज़्यादा तो नहीं लगी?’’ उन्होंने संवेदना जताई थी और वे उसे उठने के लिए सहारा देने लगी थीं। भीड़ में से कुछ लोग आगे बढ़ कर उन्हें उठने में मदद करने लगे थे और कुछ लोग उनका स्कूटर उठा कर उसका हैंडिल आदि परखने लगे थे। वह सज्जन अभी तक कॉप रहे हैं। मानसी जी ने उनके कंधे को थपथपाया था,‘‘आप अपने आप स्कूटर चला कर घर जा पाएॅगे या कोई इंतज़ाम किया जाए।’’

वे सज्जन कुछ कदम अब तक चल कर देख चुके हैं। उनका स्कूटर भी लोगों ने अच्छी तरह से जॉच परख लिया है,‘‘नहीं मैं चला जाऊॅगा।’’ वे थका सा मुस्कुराए थे।

मानसी जी ने उनको स्कूटर पर सवार करा कर विदा किया था। वे कुछ क्षण वैसे ही खड़ी रही थीं और फिर भीड़ में से जगह बनाती हुयी बाहर निकल आई थीं। वे अभी भी बड़बड़ा रही हैं और तद्नुरूप हाथ चलाती जा रही हैं। वे आ कर रिक्शे पर बैठ गयी थीं। मेरे मन में उनके लिए बहुत ठेर सा सम्मान जन्मा था पर मैं समझ नही पायी थी कि उसको कैसे शब्द दूं,‘‘आज आप न होतीं तो पता नहीं यह भीड़ इन सज्जन का क्या हाल करती।’’ मैं केवल इतना ही कह पायी थी। आज के दिन तक मैंने अन्याय को देख कर परेशान होना ही जाना था। पर अन्याय के प्रतिकार में खड़ा हुआ जा सकता है और खड़ा हुआ जाना चाहिए यह मैंने जीवन में पहली बार जाना है। वह भी इतना निकट से। मानसी जी एक टीचर के लहज़े में,‘‘मॉब मैन्टैलेटी’’ के बारे में विस्तार से बोलती रही थीं जैसे किसी विद्यार्थी को समझा रही हों।

रिक्शा गोमती पुल को पार कर के यूनिवर्सिटी के सामने से निकलने लग गया था। यहॉ पहुंच कर मुझे हमेशा अच्छा लगता है जैसे कि यहॉ की हवाओं से तैरता हुआ एक अपनापन मुझ तक पहुंचने लगता है। दो साल तक युनिवर्सिटी में पढ़ने के बाद इसी के पास मेरा अपना घर, अपनी ज़मीन और अपनी छत का अद्भुत सुख।

रिक्शा दॉए हाथ की सड़क पर मुड़ गया है। एक दो साईड लेन्स में मुड़ने के बाद मैंने रिक्शे वाले से अपने घर के सामने रुकने के लिए कहा था। मैं उतर कर नीचे खड़ी हो गयी थी‘‘घर चलिए मानसी जी। कॉफी चाय कुछ पी कर जाईए।’’मैंने आग्रह किया था। मानसी जी के चेहरे पर आश्चर्य है। लगा था उन्होंने इससे बेहतर घर की कल्पना की थी। इससे बड़ा,पॉश और इससे सुन्दर। नीचे के घर में सामने के बराम्दे में बहुत ही बेतरतीबी से प्लास्टिक की दो तीन कुर्सियॉ इधर उधर पड़ी हैं। बान्स की एक चारपाई खड़ी है जिस पर एक पेटीकोट और ब्लाउज़ सूख रहा है। मेरे मन में खिसियाहट भरने लग गयी थी। कभी किसी दूसरे की निगाह से तो मैंने अपने घर को देखा ही नही था। मुझे लगा था कि जौहरी परिवार को नीचे का घर देते समय इस विषय में तो सोचा ही नहीं था।

‘‘मानसी जी ऊपर चलिए न। थोड़ी देर तो रूकिए।’’मैंने अपना आग्रह दोहराया था। शायद अन्जाने ही मैंने ऊपर शब्द पर भी ज़ोर दिया था। शायद मेरा अवचेतन उन्हे यह बताना चाह रहा था कि नीचे का घर मेरा नही है। मानसी चतुर्वेदी की निगाहें छत की तरफ को मुड़ गई थीं,‘‘आप ऊपर के पोर्शन में रहती हैं?’’उन्होंने पूछा था।

‘‘जी,’’ मेरी ऑखें भी उधर की तरफ को ही मुड़ गयी थीं। मैंने अपने घर को मानसी जी की निगाहों से देखा था। चौड़े से बराम्दे में खुलने वाली फ्रैन्च विन्डो...उसी से मिला बड़ा सा दरवाज़ा टीक की चौड़ी सी पैनलिंग के साथ और उसके बगल की पतली सी पूरी दीवार टैरेकोटा कलर में पेन्ट की हुयी और उस पर लगा एक बहुत बड़ा सा फ्रेम किया हुआ फोल्क आर्ट और उसके बगल में किनारे को नीचे तक लटका हुआ बिजली का बड़ा सा हण्डा। मुझे अच्छा लगा था।

‘‘आज तो जल्दी है। आप तो पड़ोस में ही रहती हैं। अब तो मिलना जुलना, आना जाना होता ही रहेगा। अच्छा चलते हैं।’’ उनका रिक्शा चलने लगा तो उन्होंने पलट कर मेरी तरफ देखा था ‘‘कितने बजे का क्लास है कल?’’उन्होने पूछा था।

‘‘साढ़े दस पर। आपका?’’ मैंने पूछा था।

‘‘मेरा तो नौ चालीस का क्लास है।’’ उनके स्वर में हल्की सी निराशा है।

‘‘मैं जल्दी चल सकती हू।’’ मैं ने कहा था,‘‘फिर कल हम और आप साथ चलेंगे।’’

मानसी जी एकदम ख़ुश हो गयी थीं, ‘‘मैं ठीक नौ बजे आ जाऊॅगी।’’

‘‘ओ.के. मैं आपका इंतज़ार करूगी।’’ मैंने हाथ हिलाया था।

मैं ऊपर सीढ़ी पर जाने के लिए अंदर आ गयी थी। जौहरी जी के घर का दरवाज़ा खुला हुआ है। मेरे कदमों की आहट सुन कर आण्टी ने मुझे पुकारा था,‘‘अम्बिका।’’

‘‘जी आण्टी’’ मैं ठिठक कर रूक गयी थी।

मिसेज़ जौहरी बाहर को निकल आयी थी,‘‘अम्बिका, खीर बनायी है बिटिया। खा कर जाना।’’ उन्होने बहुत प्यार से आमंत्रित किया था।

‘‘जी आण्टी आप मुझे दे दीजिए मैं ले जाऊॅगी।’’ मैं उनसे बात करते हुए अन्दर तक आ गयी थी। मैंने पीछे आंगन की तरफ झॉक कर देखा था। वहॉ धूप का नामों निशान तक नहीं। मतलब जौहरी परिवार के कपड़े रोज़ बाहर ही सूखेंगे-मैंने परेशान हो कर सोचा था। पर मैं चुप ही रही थी। भला क्या कह सकती हूं। वैसे भी वे इतने भले लोग हैं कि उन्हें आहत अपमानित करना तो दूर उनके लिए कुछ विपरीत सोचना भी मुझे अच्छा नहीं लगता।

मिसेज़ जौहरी मेरे लिए एक कटोरी में खीर निकाल लाई थीं, ‘‘अब यह तुम अभी खा लो।’’ आण्टी ने शब्दो पर ज़ोर दे कर कहा था। क्षण भर रुक कर उन्होंने अपनी बात पूरी की थी,‘‘हमने यश के लिए एक कटोरी में रख दी है। वह शिवानी के हाथ से अभी थोड़ी देर में भेज देंगे।’’ और हाथ की कटोरी उन्होंने मुझे पकड़ा दी थी। मैं एकदम खिसिया गयी थी और चुपचाप वहीं खड़े खड़े खाने लगी थी। ऐसे ही पहले भी एक दिन उन्होंने मुझे खीर दी थी और मैं उसे ऊपर ले गयी थी। शाम को यश आए थे। नीचे उतरे तो आण्टी सामने पड़ गयी थीं। यश ने बहुत ख़ुश हो कर खीर की तारीफ की थी। आण्टी ने अर्थ भरी निगाह से मेरी तरफ देखा था और हॅस दी थीं। उन की हॅसी में निहितार्थ को मैं आज समझ पायी थी। शायद आण्टी समझ गयी थीं कि मैंने यश को खिलाने के लिए ही नीचे खीर खाने से मना कर दिया था। मैं चुप हूं। वैसे भी इस बात के जवाब में मैं क्या कहूं।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com

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