किसी ने नहीं सुना
-प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 6
‘समझ में नहीं आता कि तुम्हारा पति कैसा है। और साथ ही तुम भी। तुम कहीं से भी कम खूबसूरत नहीं हो। न ही किसी बात से अनजान इसलिए आश्चर्य तो यह भी है कि तुम अपने पति की विरक्ति दूर नहीं कर सकी। बल्कि खुद ही उससे दूर हो गई।’
‘नीरज तुमने बड़ी आसानी से मुझ पर तोहमत लगा दी। मुझे फैल्योर कह दिया। मैं मानती हूं कि मैं फेल नहीं हूं। मेरे पति के विचारों को बदलना उन्हें स्वाभाविक नजरिया रखने के लिए तैयार कर पाना मैं क्या किसी भी औरत के लिए संभव नहीं है। तुम यकीन नहीं कर पाओगे कि शादी के तीसरे दिन हमारे संबंध बने और उन्हें मैंने कहीं पंद्रहवें दिन जाकर बिना कपड़ों के देखा। नहीं तो सेक्स के समय भी बनियान उतारते ही नहीं थे। मेरे कपड़े भी बस ऊपर नीचे कर देते थे। और उन्होंने भी उसी दिन मुझे पूरी तरह से बिना कपड़ों के देखा। और यह भी तब हुआ जब मैंने पंद्रहवें दिन जानबूझकर एक नाटक किया। सोचा कि हम शादी के पंद्रहवें दिन तीसरी बार संबंध बना रहें हैं। जबकि सहेलियों में से कईयों ने बताया था कि उन्होंने पहली ही रात को इससे कहीं ज़्यादा बार संबंध बनाए थे।’
‘बड़ा विचित्र है तुम्हारा अनुभव। पति को देख सको इसके लिए तुम्हें नाटक करना पड़ा। पहली बार सुन रहा हूं यह सब। मगर आश्चर्य यह भी है कि तुमने ऐसा कौन सा नाटक किया था कि तुम्हारे पति जैसा व्यक्ति फंस गया उसमें।’
‘हुआ यह कि उस रात को मैंने जब देखा कि करीब आधे घंटे की फालतू बातों के साथ यह कुछ ज़्यादा खुल गए हैं तो मेरे दिमाग में आया कि आज इन्हें इनके दब्बू उबाऊ खोल से बाहर निकालकर मजेदार खुली दुनिया में ले आऊं। जब यह अपने ऊबाऊ तरीके के साथ आगे बढ़े तो मैंने हल्की सी सिसकारी ली और अलग हटते हुए कहा,‘लगता है कपड़े में कुछ है, काट रहा है।’
फिर कपड़ों में इधर-उधर कसमसाते हुए एक-एक कर सारे कपड़े उतार डाले। और कीड़ा ढंूढ़ने को कहती रही। आंहें भरती रही कि बड़ा दर्द हो रहा है। कुछ देर यही सब बहाना करते हुए इनके भी उतार दिए। मगर हमारे बैरागी मियां जी अपने खोल से बाहर आकर कुछ ही देर में घबरा उठे। कुछ ही देर में पति कर्म पूरा किया और फिर लौट गए अपने खोल में। किसी शर्मीली औरत की तरह बंद कर लिया खुद को कपड़ों में और मुझे भी बंद कर दिया। कुछ पल जो खुली सांस मिली थी कि वह समाप्त हो गई। फिर से घुटन भरी दुनिया में पहुंच गई। अगले दिन उनसे यह भी सुनने को मिला कि मुझमें शर्मों-हया नाम की चीज नहीं।
अब इसी बात से अंदाजा लगाओ कि मेरी ज़िंदगी पति के साथ कैसी बीत रही थी। इतना ही नहीं जब प्रिग्नेंट हुई तो घर में बात मालूम होते ही सास के हुक्म के चलते डिलीवरी के एक महीने बाद जाकर यह मेरे कमरे में सोने आए। इस दौरान मैं तड़प कर रह गई कि पति के साथ अकेले में इन अद्भुत क्षणों को जीयूं। मगर पूरी न हुई यह आस। कुछ बोल नहीं सकती थी क्योंकि पति उनकी सलाह को मानकर खुद ही दूर भाग रहे थे। मैं कैसे घुट-घुटकर काट रही हूं अपनी ज़िन्दगी यह समझना आसान नहीं है नीरज।’
संजना धारा प्रवाह एक से एक बातें बताए जा रही थी। जिनका कुल लब्बो-लुआब यह था कि पति की कट्टर दकियानूसी विचार धारा, आचरण ने उसकी सारी खुशियों को जलाकर राख कर दिया है। जिससे ऊबकर वह खुले में सांस लेने की गरज से उन्हें छोड़ मायके चली आई। लेकिन यहां परिस्थितियों के चलते पूरे घर का ही बोझ उस पर आ पड़ा है। उस पर तुर्रा यह कि लोग उस पर हुकुम भी चलाना चाहते हैं।
भाई एक पैसा कमाकर नहीं लाता है लेकिन चाहता है कि वह उसकी सारी बात माने। साफ-साफ यह बोला कि सारी सैलरी उसे दो। वह चलाएगा घर। जब यह नहीं किया तो झगड़ा करने लगा। इन सारी चीजों से ऊबकर उसने मायके में भी बगावत कर दी कि वह जो चाहेगी वह करेगी। इस खुन्नस से लोग उसके बच्चे को पीटते हैं। इसका अहसास करते ही उसने उसे डे-बोर्डिंग में डाल दिया। और अब वह हर पल को खुशी के पल में बदलना चाहती है। उसकी बातें काफी हद तक यह बता रही थीं कि वाकई उसके साथ हर स्तर पर अन्याय हुआ है। उसकी लंबी बातों को खत्म करने की गरज से मैंने कहा,
‘आखिर इन सारी बातों के बीच मुझ से क्या चाहती हो? मैं क्या कर सकता हूं तुम्हारे लिए, भविष्य में क्या करोगी, क्या सोचा है इस बारे में ?’
‘खुशी के पल चाहती हूं, मुझे पूरा यकीन है कि यह तुम्हीं दे सकते हो। रही बात भविष्य की तो तुम अगर ऐसे ही सहयोग करोगे तो मेरा कंफर्मेशन आसानी से हो जाएगा। और आगे चल कर प्रमोशन भी। और यह भी जानती हूं कि यह सब तुम्हारे हाथ में है। तुम चाहोगे तो कोई रोक नहीं पाएगा।’
संजना की इन बातों से मैं बड़े पशोपेश में पड़ गया था। मुझसे उसकी यह अपेक्षाएं छोटी नहीं बहुत बड़ी थीं। मैं सोच में पड़ गया कि उसकी इतनी सारी अपेक्षाओं को पूरा करने में तो जो मुश्किल है वह है ही। उससे बड़ी बात ये कि यह इतनी ज़्यादा डिमांडिंग है कि इसकी मांगें कभी खत्म नहीं होंगी। कुछ देर पहले तक जहां मेरा मन उसके तन पर लगा हुआ था, मैं उसके साथ गहन अंतरंग पलों में खोना चाहता था बल्कि उतावला था, उसकी इन बातों ने उतावलेपन पर ठंडा पानी उड़ेलना शुरू कर दिया था। अब तक हम दोनों खाने-पीने की अधिकांश चीजें चट कर चुके थे। इस बीच उसका मादक अंदाज में बार-बार पहलू बदलना खुद पर मेरे नियंत्रण को कमजोर करता जा रहा था। मगर इन बातों ने मेरे मन को भ्रमित कर दिया था। वक़्त बीतता जा रहा था तो मैंने कहा,
‘संजना ऑफ़िस में जो कुछ है मेरे हाथ में है उसके हिसाब से मैं तुम्हारी हर मदद करूंगा। लेकिन खुशी के पल दे पाऊंगा इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। क्योंकि तुमने जो कुछ बताया उस हिसाब से तुम पति-ससुराल से सारे संबंध खत्म कर चुकी हो। मायके में भी बस रह रही हो। और जैसे खुशी के पल मुझसे पाने की बात तुम कर रही हो पता नहीं वह तुम्हें दे पाऊंगा कि नहीं। मेरी पत्नी है, बच्चे हैं उन्हें छोड़ पाना मेरेे लिए मुमकिन नहीं है। और जैसी खुशी तुम चाहती हो वह तो पति के साथ ही मिल सकती है। ऐसे में रास्ता यही बचता है कि या तो पति के पास वापस जाओ और उन्हें समझा-बुझाकर अपने रास्ते पर ले आओ। अगर यह संभव नहीं है तो ऐसे में बेहतर यही है कि डायवोर्स देकर दूसरी शादी कर लो।’
मेरी इस बात पर वह बड़ी देर तक मुझे ऐसे देखती रही जैसे मैंने निहायत बेवकूफी भरी बात कह दी है। फिर बोली-
‘यह दोनों ही संभव नहीं है नीरज। पति के पास वापस जाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि उन्हें बदलना असंभव है। कम से कम मेरे वश में तो कतई नहीं है। रही बात डायवोर्स और दूसरी शादी की तो वह भी संभव नहीं है। एक तो वह डायवोर्स नहीं देंगे यह आखिरी बार झगड़े के समय ही उन्होंने कह दिया था। इसलिए यह आसान नहीं। यदि मान भी लूं कि किसी तरह यह हो गया तो दूसरी शादी के बारे में मैं अब सोचना भी नहीं चाहती। पहली शादी का अनुभव ऐसा है। दूसरी शादी में मन की बात हो जाएगी इस बात की क्या गारंटी। वह मेेरे बच्चे को स्वीकार करेगा यह मुझे नामुमकिन ही लगता है। यही सब सोच कर मैंने यह तय कर लिया है कि न पति को डायवोर्स दूंगी न दूसरी शादी करूंगी। कुछ पल खुशी के तुम से मिल सकते हैं यही सोचकर तुम्हारी तरफ बढ़ी। मुझे खुशी मिलेगी या नहीं यह सब अब तुम्हारे हाथ में है।’
‘तुम्हें यकीन है कि इस तरह तुम्हें खुशी मिल जाएगी। जैसा चाहती हो वैसा मिल जाएगा।’
‘हां मुझे लगता है कि इन हालातों में जितना चाहती हूं उतना मिला जाएगा। मगर तुम इतनी बहस क्यों कर रहे हो, नीरज क्या तुम डर रहे हो?’
‘मैं कोई बहस नहीं कर रहा हूं, न ही इसमें डरने या न डरने जैसी कोई बात है। मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि क्या तुम सोच समझकर यह क़दम बढ़ा रही हो। यदि तुम्हारे मन का नहीं हुआ तब क्या करोगी।’
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