होने से न होने तक - 12 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 12

होने से न होने तक

12.

डाक्टर दीपा वर्मा उठ कर खड़ी हो गयी थीं,‘‘चलिए मैं आपको स्टाफ रूम दिखा दूं और आपको सबसे मिलवा दूं।’’ वे बहुत तेज़ी से बाहर निकल गयी थीं...छोटा सा कद, छोटे छोटे कदम। लगा था जैसे वे दौड़ते हुए चल रही हो। उसी तेज़ी से वे सीढ़ियॉ चढ़ने लगी थीं। उनके पीछे पीछे मैं।

हम लोगों के स्टाफ रूम में पहुचते ही कमरे में उपस्थित सभी लोग उठ कर खड़े हो गए थे...नमस्ते दीदी...नमस्कार दीपा दी, गुड मार्निग मैम की अलग अलग आवाज़ें आने लगीं और मिस वर्मा के चेहरे पर एक उत्तेजित सा उल्लास फैल गया था,‘‘आप सब के खिले खिले चेहरे देख कर मेरा ख़ून बढ़ जाता है। मुझे लगता है मुझे रोज़ एक बार स्टाफ रूम में ज़रूर आना चाहिए।’’ सब टीचर्स हॅसने लगी थीं। उनकी बात के उत्तर में सबने अपनी अपनी तरफ से टिप्पणी दी थी पर एक दो लोगो के चेहरे पर अजब सी ऊब है। डाक्टर वर्मा मेरी तरफ को मुड़ गयी थीं,‘‘यह पौलिटिकल साईंस की नयी टीचर अम्बिका सिन्हा हैं। हमारे स्टाफ की नई सदस्य। आज ही से ज्वायन किया है। डाक्टर नसरीन रिज़वी की जगह आई हैं।’’सबने मेरी तरफ देखा था। फिर उन्होने एक एक करके कमरे मे मौजूद पॉचो लोगों से मेरा परिचय कराया था...मिसेज़ दीक्षित...हिस्ट्री पढ़ाती हैं। नीता रस्तोगी-जागरफी पढ़ाती हैं। यह--।मैं सबसे अभिवादन करती रही थी-किसी से बोल कर और किसी से गर्दन हिला कर। सब अभी भी खड़े हैं, ‘‘दीदी आप ऊपर आई हैं हमारे स्टाफ रूम में तो कुछ देर तो बैठिए।’’ किसी ने बहुत अपनेपन से आग्रह किया था। वे हॅस कर बैठ गयी थीं-साथ ही बाकी सब भी। कुछ व्यक्तिगत, कुछ विद्यालय की बाते सब के बीच होने लगी थीं। अधिकांश बातों के संदर्भ पता न होने के कारण मैं कुछ समझ नहीं पाती। वैसे भी मैं नयी हूं, उस बातचीत में मेरी कोई भूमिका नही है। मैं चारों तरफ निगाहें घुमा कर कमरे को देखती हॅू। कमरा काफी बड़ा है जो किसी विद्यालय का स्टाफ रूम कम किसी घर की लॉबी अधिक लग रहा है...सिवाय एक तरफ को पड़ी बड़ी सी गाडरेज टेबल और उसके चारों तरफ रखी स्टील की कुर्सियों के...और दरवाज़े के पास की दीवार पर टंगे टाईम टेबल के कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे इसे स्टाफ रूम का नाम दिया जा सके। दाऐं हाथ को बनी दीवाल पर आपस में मंत्रणा करते गॉधी और टैगोर की एक बहुत ही सुन्दर काफी बड़ी सी आयल पेंटिग टंगी है। दॉए हाथ को एकदम नीचे की तरफ आर्टिस्ट का नाम लिखा है। मैं उतनी दूर से उसे पढ़ नहीं पाती। पर नाम जानने की उत्सुकता बनी ही रही थी। अवश्य ही किसी बड़े आर्टिस्ट की है। इस पेंटिगं की कीमत लाखों में होगी। लगा था कालेज के स्टाफ रूम में क्या कर रही है यह। कमरे के दूसरी तरफ के कोने से सटे दो जोड़ी सोफा सैट रखे हैं...उनके बीच में कार्विगं की सैन्टर टेबल रखी है जिस पर ताज़ा फूलों का एक गुलदस्ता रखा है। दूसरी तरफ दीवाल से लगी एक सैटी रखी है जिस पर पॉच रंग बिरंगे हैण्डलूम के कुशन लगे हैं। बुआ के घर की लॉबी में इसी तरह के रंग बिरंगे कुशन्स के साथ इसी तरह की सैटी रखी हुयी है। बुआ अक्सर इस पर लेटे लेटे घर के काम काज पर निगरानी रखती हैं। मन मे आता है कि यहॉ भी इस पर लोग लेटते होंगे क्या। एक मुस्कान अनायास मेरे होठों पर आयी जिसे मैंने सायास रोक लिया था।

इसी कमरे से जुड़ा एक छोटा सा कमरा और है। उसमें शायद टीचर्स की अल्मारियॉ रखी हैं। बीच में दरवाज़ा नही है। भीतर वाले कमरे के अन्तिम छोर पर ग्रेनाईट का एक छोटा सा प्लेटफार्म बना है जिस पर शायद चाय बनाने की व्यवस्था है। मेज़ के जिस तरफ मैं बैठी हूं उस कोण से अन्दर का वह भाग स्पष्ट दिख रहा है। शायद कोई आया चाय बना रही है।

थोड़ी देर में वह एक ट्रे में बोन चाईना के मग्स में चाय और एक प्लेट में बिस्किट ले कर आ गयी थी। सबसे पहला मग उसने डाक्टर दीपा वर्मा के सामने रखा था। चाय के बीच बातें होती रही थीं। कुछ देर और बैठ कर और चाय पी कर डाक्टर वर्मा उठ गयी थीं। जाते जाते उन्होंने पहले मेरी तरफ, फिर और लोगों की तरफ देखा था। वे धीरे से मुस्कुरायी थीं,‘‘टेक केअर आफ हर।’’ उन्होंने कहा और चली गयी थीं।

मेरी बगल में बैठी नीता मुझसे बात करने लगती हैं। दूसरा पीरियड शुरू होने वाला है। हड़बड़ायी हुयी सी दो तीन टीचर्स कमरे में और घुसी थीं। नीता रस्तोगी ने मेरा सबसे परिचय कराया था। हिस्ट्री डिपार्टमैंण्ट की मोहिनी दीक्षित ने अपना रजिस्टर अल्मारी से निकाल कर मेज़ पर रख दिया था, उसके ऊपर डण्डे पर रोल किया हुआ शायद मैप है। संभवतः उनके क्लास का समय हो गया है। मन में एक मूर्ख सी जिज्ञासा हुयी थी...कहॉ का नक्शा है यह ? पूरी दुनिया का...यूरोप का...या...।...अपने ऊपर झुंझलाहट हुयी थी...ऊॅह...अपने को क्या फर्क पड़ता है कहीं का भी हो।

तभी दोहरे बदन की एक घरेलू सी दिखती महिला अन्दर आयी थीं। नीता रस्तोगी ने परिचय दिया था,’’कौशल्या दी। इंग्लिश पढ़ाती हैं।’’

उन्होंने मेरी तरफ सवाल करती निगाह से देखा था।

‘‘पालिटिकल साईंन्स डिपार्टमैंण्ट की नयी टीचर हैं दीदी।’’ किसी ने धीरे से बताया था।

‘‘अम्बिका सिन्हा ?’’उन्होंने मेरी तरफ प्रश्न सूचक दृष्टि से देख कर पूछा था।

‘‘जी’’ मैं उठ कर खड़ी हो गयी थी।

उन्होंने अपने हाथ का बैग पास की कुर्सी पर रख दिया था और दोनों हाथ फैला कर वे बहुत अपने पन से मेरी तरफ बढ़ी थीं,’’स्टाफ रुम में न्यू एराईवल का स्वागत है।’’

स्वागत के इस अपनेपन से मेरा मन भर आया था। अब तक इस नामी गिरामी अन्जान विद्यालय के लिए मन में बैठा आतंक काफी सीमा तक छटने लगा था।

मेज़ के दूसरे किनारे पर बैठी उन तीनों टीचर्स में से एक ने मुंह बिगाड़ा था और इधर की तरफ देखा था,’’ऊ हूँ।’’

दूसरी मज़ाक के स्वर में फुसफुसाई थीं,’’अब ये कहीं इन्हें गोदी में हीं न उठा लें।’’ और तीनों आपस में खी,खी करके हँसने लगी थीं।

वे तीनों ही बहुत धीरे धीरे बात कर रही हैं पर जहॉ मैं बैठी हूं वहॉ से मुझे सब कुछ सुनाई दे रहा है, साथ ही एक दो और लोगो को भी। शायद वे उस वार्तालाप को सुनाना चाह भी रही हैं। उन तीनो के लिए शायद वह एक सहज सा हास परिहास है, एकदम निर्दोष और बेहद मज़ेदार।

मेरे पास खड़ी इंगलिश डिपार्टमैन्ट की दूसरी टीचर मिसेज़ केतकी शर्मा ने नाराज़ निगाहों से उन तीनों की तरफ देखा था,’’अजीब हैं ये लोग। किसी का लिहाज़ ही नहीं।’’ उन्होंने पास खड़ी मिसेज़ दीक्षित से कहा था। केतकी ने उनसे मेरा विस्तार से परिचय कराया था,‘‘कौशल्या दी, इन्गलिश पढ़ाती हैं। इस विद्यालय में सबसे पुरानी हैं, प्राचार्या से भी पहले से।’’

लगा था उन तीनों ने ही मिसेज़ शर्मा की आखों की नाराज़गी पढ़ी है पर तीनों ने ही उस बात को जैसे कोई महत्व नहीं दिया था। उनमें से एक ने हॅस कर केतकी की तरफ देखा था और टिप्पणी दी थी,‘‘समझ नहीं आता यार कि यह दोनों हर समय इतने एक्साइटेड, इतने चार्ज्ड क्यो रहते हैं।’’

उन्हीं में से किसी ने पूछा था,‘‘दोनों कौन ?’’

‘‘यही कौशल्या दी और दूसरी वह हमारी प्रधानाचार्या।’’

मैं ने घबरा कर कौशल्या दी की तरफ देखा था। पर वे चारों तरफ की बातों से बेख़बर मेरे स्वागत में लगी हैं। उस दिन मैं ने सोचा भी नहीं था कि किसी दिन इन्ही तीनो में से सबसे चपल दिखती मानसी चतुर्वेदी से मेरी घनिष्ट मित्रता होगी। उस दिन तो उनके खुरदुरे व्यतित्व से मैंने विकर्षण ही महसूस किया था। पर एक ही व्यक्ति के व्यिंक्तत्व के कितने आयाम होते हैं। अब समझ पाती हूं कि प्रभावित होने के लिए और अपनापन महसूस करने के लिए ऊपरी रख रखाव-सौन्दर्य, बातचीत का आभिजात्य सलीका ही नहीं और भी बहुत कुछ हो सकता है।

कुछ ही दिनों में ही कालेज में मेरा मन लग गया था। बहुत कम समय में ही मेरी कई लोगों से मित्रता हो गयी थी और ऐसा लगने लगा था जैसे मैं अपनी इन मित्रों को न जाने कब से जानती हूं। लगा था कि यश के अतिरिक्त यह विद्यालय मेरे जीवन में सबसे सुखद चीज़ घटित हुआ है। पता ही नहीं चला था कि कब और कैसे हम कुछ लोग आपस में अंतरंग हो गए थे-मैं,नीता,केतकी और मीनाक्षी। वे तीनो मेरे इस कालेज में आने के पहले से यहॉ हैं। मित्रता करते समय यह कुछ वर्षों का छोटा बड़ा होना, पहले या बाद में आना-यह सब ध्यान ही नहीं आया था। यह सारी बातें महत्वहीन सी थीं। मैं तो नीता का नाम लेती हूं। उन्हें तुम कह कर पुकारती हूं। नीता मेरी अंतरंग मित्र हैं। उनके साथ मैं दुनिया भर की बातें कर लेती हूं। लगता है जैसे पहले मुझे पता ही नही था कि मेरे पास बातों का इतना बड़ा भंडार है। अपने मन को परत दर परत इन मित्रों के सामने खोल पाती हूं-अपना सही ग़लत सब कुछ-इस भरोसे के साथ कि वे मुझे कभी ग़लत नहीं समझेंगी और मुझे सही सुझाव देंगी। मीनाक्षी बहुत सीधी सादी सी है,एकदम बच्ची जैसी। जैसे उसके पास अपनी कोई समझ न हो। वह भी नीता को बहुत मानती है किन्तु पूरी तरह से केतकी के प्रभाव में रहती है। नीता, केतकी और मीनाक्षी यद्यपि एक ही साथ इस विद्यालय में आयी हैं केवल बीस दिन आगे पीछे, पर केतकी नीता का नाम लेती है और मीनाक्षी उन्हे नीता दी कह कर पुकारती है...शायद नीता के उम्र में कुछ वर्ष बड़े होने के कारण या शायद उसके धीर गंभीर व्यक्तित्व के कारण। मैं तो इन तीनों का ही नाम लेती हूं। शुरू में मैंने भी नीता जी कह कर पुकारा था। पर धीरे धीरे ‘जी’ कब पीछे छूट गया पता ही नही चला था। केतकी अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाती है। साहित्य की रुमानियत से प्रभावित, जो सोचती है उसे कहने में...और जो कहती है उसे जीने में विश्वास करती है। उसकी सोच मे कोई अस्पष्टता और कोई दोहरापन कभी नहीं होता भले ही पूरी दुनिया उसकी किसी बात से सहमत न हो तब भी उसे कोई अन्तर नहीं पड़ता। उसका सच उसके लिए पूरा यथार्थ होता है। अपनी बात को बहुत ही विश्वसनीय ढंग से दूसरे के सामने रखने की कला है उसके पास। उसकी बहुत सी बातों से सहमत न होते हुए भी प्रायः हम लोग उसकी बात का खंडन नहीं कर पाते।

कौशल्या दी अपने विभाग की केतकी को ही नहीं हम चारों के पूरे ग्रुप को बहुत मानती हैं। उनकी उम्र शायद पचास से अधिक ही होगी। उनके व्यतित्व में परम्परा और आधुनिकता का अद्भुत सन्तुलन है। लड़कियॅा उन्हें बेहद सम्मान देती हैं। उनसे बात करके हमेशा ऐसा ही लगता है जैसे कि वे विद्यार्थियो के लिए ही जीती हैं। आज तक न उन्हे कभी किसी ने कालेज देर से आते देखा न कभी क्लास में देर से जाते देखा। अपने पर्स में बहुत सारी टाफियॉ रखती हैं। किसी दिन अटैन्डैन्स पूरी हो जाए तो पूरे क्लास में टाफी बॉटती हैं। लड़कियॉ बहुत उत्तेजित हो कर टाफी बॅटने वाले दिन की प्रतीक्षा करती हैं। टाफी मिलने वाले दिन अंग्रेज़ी डिपार्टमैंट मे थेड़ी देर काफी हलचल़ रहती है। कौशल्या दी को अपने विभाग में बच्चो की यह छोटी छोटी ख़ुशियॉ अपरिमित सुख देती हैं।

धीमें धीमें उनके बारे में बहुत कुछ पता चला था। वे इस विद्यालय की संस्थापक सदस्यों में से हैं। इस विद्यालय से उनका रिश्ता प्रिंसिपल से भी पुराना है इसलिए उन्हें दीपा नाम से पुकारती हैं और उन्हे तुम कह कर संबोधित करती हैं। मैनेजर को शशि भाई कहती हैं और बहुत अधिकार से बात करती हैं। विद्यालय से संबधित अनेकों मुद्दों में कभी आमंत्रित किए जाने पर और कभी अनामंत्रित ही अधिकार से हस्तक्षेप करती हैं। उत्तर प्रदेश के नामी गिरामी परिवार चौधरी दीना नाथ सिंह के यहाँ की बेटी हैं और उनके पति किसी बड़ी रियासत के जागीरदार के इकलौते बेटे। बहुत सम्पन्न घराने की बेटी ...उससे भी अधिक बडे घराने की बहू ,पर जिन्दगी ने कुछ भी नहीं दिया। वे रियासतों के सूत्र भी कन्धें पर लदे बोझ थे यह बात धीरे धीर दीदी से निकटता बढ़ने के साथ ही कुछ समय बाद ही मुझे समझ में आने लगी थी। राज गए रजवाण्ो गए ,बस दिखावटी शान शौकत रह गई थी। कुछ घराने एकदम लुट चुके थ्ो। वैसा ही दीदी का घर था अन्दर से एकदम ख़ाली। उस पर चन्दर भाई जैसे अकर्मण्य इंसान। बारह बज्ो तक सो कर उठ ते,शाम तक लंच और आधी रात को डिनर। कौशल्या दी की बेहद छोटी सी सीमित आमदनी,चन्दर भाई की तरफ से कोई योगदान नहीं, ऊपर से आए दिन शान शौकत के दिखावटी आयोजन। फिर रोज़मर्रा का फैलाव तो था ही। पिता हमेशा नाराज़ ही रहे। मॉं जब तक जीवित रहीं बेटे बहू पर अपना लाड़ दुलार बरसाती रहीं। साल में दो बार अवश्य आतीं। पर उनके निधन के बाद वह सूत्र टूट गया था। बाद में उनके पिता को आते मैंने कई बार देखा था। वे आते तो अपने रोब दबदबे के साथ, रुठे से, उस घर में अजनबी से दिखते हुए, अजनबी सा मान सम्मान पाते हुए। उन के आने पर कौशल्या दी के घर की सारी फाईन क्राकरी, चाँदी के टी सैट, कटलरी, बर्तन बाहर आ जाते। वे पिता के सामने उनके बेटे की ऐसी शान बिख्ोर देतीं कि वे हतप्रभ रह जाते। न कौशल्या दी ने कभी अपने श्वसुर को अपने अभाव, अपनी परेशानियॅा बयान की थीं और न कभी राय साहब ने ही उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाया था। शायद दोनों ही दूसरे से पहल की प्रतीक्षा करते रहे। आत्मभिमान के शह और मात के इस ख्ोल के बीच शायद दोनों ही पक्ष एक दूसरे से आहत थे और शायद दोनों ही एक दूसरे का बहुत आदर करते थे। और चन्दर भाई? यह स्थितियाँ भलें ही उनके कारण जन्मी हों, पर उसके आगे उनकी कोई भूमिका नहीं थी।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com