-:छुआइन:-
"एगो रहे बुढ़िया, एगो ओकर बेटा अउर बेटा के मेहरारू। गांव के बहिरे ओखनी के एगो झोपड़ी बना के रहत रहले सन। मजूरी कऽ के दूनों सांझि के खाए के .….."
दादी की कहानियां कुछ इसी तरह शुरू होती थीं लेकिन अंत हमेशा कुछ सीख दे कर ही होता था। इस कहानी का सार यह था कि बेटा अधिक कमाने की इच्छा से परदेस चला जाता है। घर में बस दो महिलाएं हैं। बहू घर का काम देखती है और सास बाहर के कुछ घरों में काम कर के दो व्यक्तियों के गुजारे का प्रबंध कर लेती है। सास घर के काम के मामलों में अपनी बहू को तरह तरह की हिदायतें देती रहती है। मसलन, बाहर से आने पर पांव, हाथ और मुंह धो कर घर में प्रवेश करना है, स्नान के बाद ही रसोई में लगना है, नमक के हाथ से आटा नहीं छूना, हाथ धो कर सुखाए बिना अंचार नहीं छूना और न जाने ऐसे कितने"नहीं" शामिल थे इन हिदायतों में और उस पर तुर्रा यह कि सास बार-बार इन्हें दुहराती रहती। दुहराई जा रही बातों से बहू को झुंझलाहट होती थी, फिर भी वह कर्त्तव्य परायण व्यक्ति की तरह सास के निर्देशों की अनुपालना करती थी। एक दोपहर सास एक पोटली में बांध कर कुछ ले कर घर आई और उसे छत लटकती एक अंकुसी पर रख दिया। शाम ढलने पर भोजन के समय पोटली खुली तो उसमें थोड़ी दुर्गंध पा कर सास ने बहू से पूछा कि उसने पोटली तो नहीं छुई थी। पता लगा कि बहू ने भूंजे वाले को देने के लिए पैसों की आशा से पोटली को खोला था। सास ने फिर पूछा कि क्या हाथ धो कर पोटली छुई थी। बहू से ना सुन कर सास ने कहा कि इसी से खाना खराब हो गया। बहू चुप रही तो सास ने कहा कि मैं तुम्हें दोष नहीं दे रही, तुम्हें तो पोटली की सामग्री के बारे कुछ पता नहीं था। बहू बड़बड़ाई कि छूने से क्या होता है। सास ने कहा कि छूने से चीजें "छुआइन" हो जाती हैं।
बचपन से यह "छुआइन" शब्द मेरे जेहन में बस गया। वैसे हम बच्चों को कुछ छूने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। दादी के बाद मां को भी दादी के अनुसार आचरण करते रहने के कारण आदतन, छुआइन लगा रहा। मां के जाने के बाद हम इस तरह की बंदिशों से मुक्त होने की कोशिश करने लगे। हमें यह सब आडंबर लगता, लेकिन कमोबेश हम सब भी, बाहर तो बिल्कुल नहीं, पर घर में आधे अधूरे छुआइन में ही चलते रहे। विवाह के बाद घर में यह छुआइन श्रीमती जी के आने के साथ फिर से पूरी तरह काबिज हो गया। मैं कभी-कभी झुंझला भी जाऊं पर वह अपनी मान्यताओं पर अडिग थीं। विवाह के तीसरे वर्ष आम की अच्छी फसल आई तो उन्होंने ढेर सारा अचार बनाया। अचार दो बड़े- बड़े मर्तबानों में भर कर रखे गए। कुछ अचार एक छोटे मर्तबान में भर कर दैनिक उपयोग के लिए अलग रखा गया। कुछ दिनों बाद अपने पिता की अस्वस्थता के कारण वह अपने मायके गई तो मैं स्वपाकी हो गया। दो हफ्ते बाद वह लौट आईं और सब पूर्ववत चलने लगा। एक शाम भोजन के समय उन्होंने रसोई से आवाज़ दे कर पूछा कि क्या मैं ने अचार निकाला था। हां, निकाला तो था। वह छोटा मर्तबान लिए मेरे पास आईं। मैं ने देखा अचार में फफूंद लग गई थी। वह बोलीं कि ज़रूर बिना हाथ धोए ही आपने अचार लिया होगा। वह सही थीं, दुखी थीं तो दुख मुझे भी था। खाना परोसते हुए बोलीं अशुद्ध हाथों से छूने से अचार "छुआइन" हो गया।
फिर से वही छुआइन!
"आप जिनका आदर करेंगे वही टिकेंगे।"
मैंने कहा "ऊपर, बड़े मर्तबान के अंचार भी अगर खराब हुए तो?"
वह बोलीं "देख चुकी हूं, वे ठीक हैं।"
फिर, शेष अचार अगले चार साल खराब नहीं हुए। लेकिन, मैं सोचता रहा क्या सच में "छुआइन" होता है?
अचार का आदर? कैसे-कैसे लोग और कैसी-कैसी बातें। निर्जीव चीजों का भी सम्मान हो सकता है भला? तभी ध्यान आया कि सबसे अधिक सम्मान तो हम नितांत निर्जीव वस्तु "पत्थर" की पूजा करके ही करते हैं। धरती मां ही है, नौ ग्रह, दसो दिशाएं, वृक्ष, वनस्पति, इस ब्रह्माण्ड का कण-कण सब तो जीवंत ही हैं और हमारे शास्त्र हमसे इन सबका आदर करने की अपेक्षा भी करते हैं। सोचता हूं कि कैसे थे हमारे पूर्वज और कैसी थी उनकी निष्ठा अपने परिवेश और प्रकृति पर, जिससे उन्होंने ऐसा अद्भुत और अनहद ज्ञान पाया और इतने सूक्ष्म यम-नियम निश्चित किये।
मुझे लगने लगा है कि इस जीवंत जगत की दो धुरियां हैं- शुचि और सूतक। शुचि अर्थात शुद्धता या पवित्रता और सूतक का अभिप्राय है अपवित्र या गंदी स्थिति में होना। छुआइन संभवतः सूतक का ही अपभ्रंश है। मृत वस्तु या गंदगी में विषाणु पनपते हैं और उससे संपर्क के कारण हम सूतक की स्थिति में आ जाते हैं। इस समय जो हमें छूते या संपर्क करते हैं वह भी "छुआइन" हो जाते हैं और उन्हें भी शुद्ध होना पड़ता है। मृत् वस्तु अग्नि से अपने पंच तत्त्वों में लौट कर और हम अपने-अपने विहित कर्मों से शुद्ध हो जाते हैं। दादी की उपरोक्त कथा का "छुआइन" अब मेरे लिए अनजान नहीं है और न श्रीमती जी का "आदर" मंत्र। सही हो या ग़लत, वर्तमान संकट के परिप्रेक्ष्य में "छुआइन" के बारे मेरा यह नव अर्जित ज्ञान उपयोगी तो है ही।
-- यशो वर्धन ओझा