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हास्य


(भाषागत अशुद्धियां कालांतर में रूढ़ हो कर स्थान-विशेष की बोली में घुल-मिल जाती हैं। फिर ये वहां की पहचान बन जाती हैं और कभी कभी हास्य भी उत्पन्न करती हैं। इसी विषय पर एक रचना प्रस्तुत है।)


सन्ना भिउ इस्टूडियो

मैं अपना परीक्षा केंद्र खोजता हुआ पटना के एक मुहल्ले के चिलरेन पार्क तक तो पँहुच गया पर अब अगले चिन्हित स्थान का पता कर पाना मुश्किल हो रहा था इस लिए सामने से आते राहगीर का सहारा लिया।
"भाई साहब, ये सन्ना भिऊ इस्टूडियो कहाँ है, बता सकते हैं"।
"कौची?"
इस अजीब से नाम के स्टूडियो को बोलते बताते हुए भी थोड़ी परेशानी सी महसूस हो रही थी पर बताना तो था ही।
"सन्ना भिऊ इस्टूडियो। यहीं चिलरेन पार्क के पास बताया है।"
"को बताइस है?"
"मेरे एक मित्र हैं उन्होंने ही बताया है।"
"गलत बताया है। औसे, काम का है?"
"जी, सन्ना भिऊ इस्टूडियो के सामने एक आफिस में मेरी आनलाइन परीक्षा है, वहीं जाना है।"
"कौची है?"
"जी, परीक्षा, यानी एक्जाम है।"
" हूँ, एक्जाम! सन्ना !! फोटो वाला दुकान है न?"
"जी।"
" त ऊ, हियाँ नहीं है। ई रोड के लास्ट में, ऊ.... पीपल का पेड़ जना रहा है न, हुँए पर है एगो फोटो वाला। अब सन्ना है कि का, ई न पता है। देख लीजिए।"
देखना तो पड़ेगा ही। इस "देखने" के लिए ही तो परीक्षा से दो घंटे पहले इस अनदेखे शहर, पटना, में आ गया हूँ।
पीपल के पेड़ के नीचे प्लास्टिक शीट के छत वाली चाय की एक दुकान थी। कुछ दसेक लोग थे जिनमें से ज्यादातर चाय की चुस्की ले रहे थे बाकी अगली चाय के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं ने लगभग भीड़ को लक्ष्य करके अपना प्रश्न फेंक दिया।
"आप लोगों में से कोई बता सकता है कि यहाँ सन्ना भिऊ इस्टूडियो कहाँ है? "
बड़ों ने तो नहीं पर मेरे हमउम्र तीन चार युवकों के एक झुंड ने मेरा प्रश्न सुना। एक ने कहा कि लगता है कि ई भाई जी दिलिप्पा का दुकान खोज रहे हैं। उन्होंने एक सहायक सड़क की ओर इशारा कर कहा-"ई सड़क पर दाहिने सतवाँ दुकान है, बाकी अभी बंदे होगा। "
मैं उस सहायक सड़क पर बढ़ लिया। वहाँ सातवीं दुकान तो मिली पर मेरा सन्ना भिऊ इस्टूडियो नहीं मिला। मैं निराश होता इससे पहले सड़क के दूसरी ओर एक मकान पर मेरे परीक्षा केंद्र "ग्लोबल एडु सेंटर" का साइन बोर्ड दिख जाने से मेरी जान में जान आई।
दो घंटे का पहला सत्र समय से पूरा हुआ और दूसरे दो घंटे के अंतराल के बाद एक और सत्र होना था। मैं ने घर से लाई रोटी-सब्जी खा ली और कहीं उठंग कर अगले सत्र की विषय-वस्तु दुहराने का उपक्रम किया। पर पता नहीं क्यों सन्ना भिऊ इस्टूडियो को न देख पाने का मलाल मन में था। मैं सड़क पार कर सातवीं दुकान पर जा पँहुचा। वह एक स्टूडियो ही था जिसमें कोई पचीस-छब्बीस वर्षीय युवा बैठे दिखे। मैं ने पूछा कि क्या यही सन्ना भिऊ इस्टूडियो है। उन्होंने सहमति में सिर हिलाया।
"कोई साइनबोर्ड वगैरह नहीं लगाया है?"
" आऽ, देखिए न साइनबोर्ड त थइये था। खराब हो गया था, ऊपर से टीना गल रहा था। कलम्पु के पासे से गल रहा था त का जाने कब लटक जाता। एही से हटा दिया। नया का औडर देवल है। दू तीन दिन में टंका जाएगा।"
"अच्छा। पर एक बात बताइए कि आपने ऐसा नाम क्यों रखा है अपनी दुकान का? आपको कुछ अजीब नहीं लगता सन्ना भिऊ इस्टूडियो नाम?"
" एही नामे है। बहुत दिन से एही नाम चल रहा है।"
"लेकिन "सन्ना भिऊ" का तो कोई मतलब नहीं निकलता।"
" ओसे का?"
" देखिए, आपकी दुकान का नाम रखा गया होगा " सन्नी व्यू स्टूडियो "। बाद में किसी कारण से "सन्ना भिउ" हो गया होगा।"
" हो गया होगा? सो कैसे?"
" मुझे लगता है कि इससे पहले वाले बोर्ड का टिन भी ऊपर से गल गया होगा जिससे "सन्नी" के ईकार की टोपी गायब हो कर वह "सन्ना" रह गई और "व्यू" को पेंटर ने अपनी समझ से "भिउ" पेंट कर दिया तो इस तरह सन्नी व्यू , सन्ना भिउ हो गया।"
" का जाने भाई। एतना हम न जानते हैं। कैमरा और फोटो से फुर्सते न मिलता है। एगो काम कर सकते हैं? आप सही सही लिख के दे दीजिए। पेंटरवा को दे देंगे त ऊ औसिये लिखियो देगा।"
मैं ने एक कागज पर बड़े बड़े अक्षरों में " सन्नी व्यू स्टूडियो " लिख कर दे दिया और मन में एक अच्छा काम करने का संतोष लिए दूसरी पाली की परीक्षा दे कर अपने शहर वापस लौट आया।
मैं आॅनलाइन परीक्षा में सफल हुआ और महीने भर बाद नियत तिथि को सुबह 10 बजे ही साक्षात्कार के लिए पटना सचिवालय के पास के कार्यालय आया। पता लगा कि साक्षात्कार का मेरा नंबर दोपहर दो बजे के बाद आएगा तो समय बिताने के लिए मैं एक बार फिर चिलरेन पार्क आ गया पर पार्क में जाने से पहले मुझे स्टूडियो तक जा कर "सन्नी व्यू स्टूडियो" लिखा देखने की उत्कंठा हुई। मैं उधर ही बढ़ गया।
सातवीं दुकान के साइनबोर्ड पर चमकते अक्षरों में फिर से " सन्ना भिऊ इस्टूडियो" ही लिखा देख कर मुझे घोर निराशा हुई। मन हुआ वापस लौट चलूँ पर सही शब्दों की जानकारी हो जाने के बाद भी गलत लेखन का कारण जानने की इच्छा से मैं दुकानदार महोदय के पास पँहुच गया। अपना परिचय दिया, अपनी पिछली मुलाकात की याद दिलाई और दुकान का नाम सन्ना भिऊ इस्टूडियो ही लिखवाने का कारण बताने का निवेदन किया। उन्हें सब याद आ गया।
" अरे का कहें! घर पर सब कहे लगा कि बाप-दादा का रखा नाम कोई बदलता है का? मुहल्ला वाला सब भी बोला कि सब लोग सन्ना भिऊ इस्टूडियो नाम से ही त जानते हैं ई दुकान को। आ, इस्टूडियो बढ़िया चलिये रहा है त बदले से का फायदा?"
किसी ने दुकान खोली है तो वह नफा-नुकसान तो देखेगा ही। फिर भी, सन्ना भिऊ इस्टूडियो नाम मुझे जरा नहीं रुच रहा था। मन ही मन सन्ना भिऊ इस्टूडियो और सन्नी व्यू स्टूडियो नामों की तुलना करता हुआ पार्क पँहुच गया। पार्क का एक कोना तलाश लिया और आराम की मुद्रा में आ कर साक्षात्कार के लिये कुछ मनन करने की इच्छा से बैठ गया। अपने नोट्स निकाल कर देखने तो लगा लेकिन सन्ना भिऊ इस्टूडियो दिमाग को घेरे बैठा था। पढ़ कुछ रहा था, दिख रहा था सन्ना भिऊ इस्टूडियो। हार कर नोट्स बंद किया और साक्षात्कार की जगह चला आया। ढाई बजे मैं इंटरव्यू बोर्ड के सामने पँहुचा और प्रश्नोत्तर का सिलसिला शुरु हुआ। कुछ आरंभिक बातों के बाद एक सदस्य ने पूछा:
" सो यू हैव ऐप्लायड फाॅर द पोस्ट आॉफ ऐग्रिकल्चरल असिस्टैंट?"
" येस सर"
"प्लीज़ टेल अस व्हाट वेदर इज़ मोस्ट सूटेड फाॅर फार्मिंग आफ पैडी?"
" द वेदर शुड बी सन्ना ... पार्डन मी....सनी विद अ लाॅट आफ रेन्स।"
इस "सन्ना" ने मुझे नर्वस कर दिया। मैं आगे कुछ बोल नहीं पाया।
अगले दो-तीन प्रश्न ठीक-ठाक निकल गये। थोड़ा साहस बढ़ा ही था कि अगला सवाल दगा दे गया।
" व्हाई डू वी रिव्यू द ऐग्रिकल्चरल प्रोडक्शन आफ अ गिवन रीजन?"
" टु भिउ.... सारी सर...टु हैव.... टु इवैलुएट द परफाॅर्मेस...." इस बार "भिउ" ने मुझे सिर्फ नर्वस नहीं किया बाकायदा नर्भसा दिया। आगे क्या बोलना है सब भूल गया। याद रहा तो इतना कि अब बस "इस्टूडियो" बोल लूँ और यहाँ से निकल चलूँ। कुछ और प्रश्न पूछे गये होंगे। क्या पूछा गया और क्या जवाब दिया सब गायब हो चुका था। अंत में "ओके यू कैन गो नाउ" सुन कर बाहर निकला और सीधा स्टेशन की ओर बढ़ गया। ट्रेन में बैठने के बाद मेरा माथा भन्ना ... नहीं "सन्ना" ...अरे नहीं ...भन्ना रहा था। नौकरी नहीं मिलनी थी, नहीं मिली। दुख इस बात का रह गया कि इंटरव्यू बोर्ड के सामने मैं "सन्ना भिऊ इस्टूडियो" में से "इस्टूडियो" का उपयोग भी नहीं कर पाया।

- यशो वर्धन ओझा

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