कुछ ना करो Yasho Vardhan Ojha द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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कुछ ना करो

पटनहिया पंक्तियां
(बिहार की राजधानी पटना का पूर्वी हिस्सा पटना सिटी के नाम से जाना जाता है। पटना जंक्शन से १० किलोमीटर दूर पटना सिटी स्टेशन है जिसे अब तख्त श्री हरमंदिर साहिब के सम्मान में पटना साहिब कहा जाता है। इस ५० वर्ग किलोमीटर के इलाके की अपनी एक बोली है। थोड़ी अजीब सी है पर है मजेदार। पाठक ज़ायके के साथ जायज़ा लें। इस पहली कविता के साथ कुछ और कविताएं भी दे रहा हूं जिस पर सभी का ध्यान चाहूंगा।)

१.कुछ ना करो

नयी बिमारी फैल रही है
ई तुम मेरे नहीं बतायो।
जब पूछा तो एतने बोले,
घर जाओ औ हुंए रहो ना।
काम नहीं है अब तो कुच्छो,
खाओ जी भर, खूब सुतो ना।

घर आ के हम खाना खाया,
तुरत धर लिया नरम बिछौना,
तइयो नींद न आई मेरे,
रहे ताकते छत का कोना।

उबियाए त निकले बाहर,
सोचा, लें रबड़ी एक दोना,
गलियो पार न कर पाए कि
धरिस सिपाही अगियालौना।

डंटा बजड़ दिहिस टंगड़ी पर,
कहिस कि थाना अभी चलोना,
पूछा, हम का किया है भाई,
का गलती है ई त कहो ना।

गरम हो गिया टोपी वाला
धरिस मेरी बु सट का कोना।
दस का नोट देखाया ओ को,
मेरे छोड़ो, ई ले लो ना।

आंख तरेरले नोट ले लिहिस,
कहिस कि जाओ घरे रहो ना।
अंदर से गरियाते लौटे,
चलो हो गिया जो था होना।

सब तोरिए गलती है,
मेरे बीमारी का न बतलायो,
काम त मेरे दियो न कुच्छो
खाली कह्यो की अरे! करोना।

---यशो वर्धन ओझा

२. नवास्त्र

वह भी डरा हुआ था,
मैं भी डरा हुआ,
छह फीट की थी दूरी,
घेरा बना हुआ।

था उसके हाथ झोला,
मेरे भी हाथ था,
बस पास थे तो पैसे,
और कुछ न साथ था।

पिस्तौल भी नहीं थी,
चाकू, छुरी नहीं,
दोनों के पास चीज़ थी,
कोई बुरी नहीं।

हमारे पास असलहा,
कोई तो नहीं था,
हम दोनों का हृदय था,
फिर क्यों डरा हुआ।

वह एक बार खांसा,
खांसी मुझे भी थी,
वह मास्क के बिना था,
था मेरा मुंह खुला।

एक अदना सा विषाणु,
हमको बदल रहा,
था आदमी जो पहले,
अब शस्त्र बन रहा।।

---यशो वर्धन ओझा

३. यादों के द्वीप

मन के समंदर में यादों के द्वीप,
डूबे रहते हैं ज्वार में।
उतरती लहरें छोड़ जाती हैं,
मोतियों वाले सीप,
सोए रहते हैं जो,
खुलने के इंतज़ार में।
कुछ हैं जो खोल पाते हैं,
इन सीपों को,
दिखाते हैं पुरातन,
टिमटिमाते से दीयों को।।

मन के समंदर में यादों के द्वीप,
समेटे रहते हैं दुख, तपती रेत का,
और, अथाह जल से सिंचित सुख का,
जिनके बीच,
हवा से डोलते कुछ वृक्ष,
खड़े रहते सतह पर,
निरपेक्ष, निर्विकार।
कुछ हैं जो संजोते हैं इन्हें,
और, छेड़ते फिर से,
बीते समय के बिसरे तार।

मन के समंदर में यादों के द्वीप,
समुद्र की गर्जना के बीच,
सुनते हैं सब पर रहते हैं मौन,
परम शक्तिशाली से बात करे कौन?
लेकिन, जुड़े रहते हैं एक दूसरे से,
गहरे सागर के तल पर,
बातें करते हैं बहुतेरी,
दबी छुपी सी यादें आ जाती हैं,
बाहर निकल कर।
कुछ हैं जो सुन लेते इन्हें
देते हैं उनकी बातोंको
अपने शब्दों से आकार।

---यशो वर्धन ओझा


४. केकड़ा

बीती ताहि बिसारिये,
आगे की सुधि लेहि,
नवल करोना आ गया,
गर्म पेय सब पीहि।

गर्म पेय सब पीहि,
सीत से कंपै फेफड़ा,
फिर जाएगा चीन,
भोज में मिले केकड़ा।

घर में रह भोजन मिलै,
बना घरनि के हाथ,
उनका हाथ बंटाइये,
मिल-जुल रहिये साथ।

मिल-जुल रहिये साथ,
नाथ पहले ही बोले,
सब का साथ विकास है,
खुशी दरवाजा खोले।।


---यशो वर्धन ओझा