ये चकलेवालियां, ये चकलेबाज
नीला प्रसाद
(1)
सुबह
दफ्तर में वह दिन और दिनों जैसा ही था– एकरसता की लड़ी में गुथा, जाने - पहचाने स्वाद वाला। जाते वसंत की खिली धूप में चमकदार, कुरमुरा, क्रिस्प -सा सोंधा -सोंधा दिन, जो दरवाजे से घुसते समय के गुड मॉर्निंग, नमस्ते से शुरू होकर शाम को बाय या गुड नाइट पर खत्म हो जाने वाला हो। लगा नहीं था कि उसकी एकरसता यूं पापड़ की तरह चरमरा कर टूटेगी और शाम को सब - के - सब, चूर हो गए पापड़ की तरह ही अपने दिल, अपनी मान्यताओं और सोच के चरमराए टूटे टुकड़े चुनते फिरेंगे। सुबह दस बजे थे और हमारे ओपन ऑफिस में –जहां अपनी सीट से खड़े होते ही पूरा ऑफिस दिख जाता था– सजे-धजे चेहरे नजर आ रहे थे। सुबह की हाय, हलो, नमस्ते, गुड मॉर्निंग जी... चाय-कॉफी की सुगंध, अखबारों -फाइलों की सरसराहट तथा इस -उस के चेहरे पर आदतन परोसी मुस्कराहट!! नेहा के कम्प्यूटर पर बहुत धीमे - धीमे बजते प्रेम गीत - ‘तेरे नैना’, ‘आफरीन - आफरीन’, ‘ये पहला - पहला प्यार है’, ‘आओगे जब तुम साजना’ जैसे गानों से लेकर ‘प्यार हुआ चुपके से’, ‘हमसे एक और मुलाकात का वादा कर लो’, ‘सूनी रे नगरिया’..तक।
रोज की तरह बस से उतरकर रागिनी अपनी चार इंची हील में मुस्कान बिखेरती, बाल और दुपट्टा लहराती ऑफिस घुसी। पर्स मेज पर पटक, चाबी निकाल दराज खोला और उसके अंदर से अपना खास नन्हा -सा पर्स उठाए बाथरूम चली गई। फिर जल्दी ही धुले मुंह, संवरे बाल, मेकअप और गहराई लिपस्टिक के साथ सीट पर वापस आकर बैठ गई। कम्प्यूटर ऑन किया, फाइलें निकालीं, वेद से चाय मांगी और चाय की चुस्कियां लेती फुर्ती से काम में जुट गई। बीच - बीच में एस.एम.एस करती, मुस्कराती, नाटे – बल्कि अति नाटे कद की– ठीक -ठाक चेहरे, कंजी आंखों और लगभग गोरे रंग की, छरहरी, अच्छी -सी आवाज वाली रागिनी से छेड़छाड़ भरी बातें करने में सबों को मजा आता है। वह भी बुरा नहीं मानती - छेड़छाड़ का जवाब छेड़छाड़ से ही देती है। वैसे भी वह बहुत जल्दी घुल-मिल जाती है, हंसती रहती है और अपने औसत दिमाग को काम में कड़ी मेहनत से कॉम्पन्सेट कर देती है। शादीशुदा है, घर से हल्का -सा सिंदूर लगाए ऑफिस पहुंचती है पर ऑफिस आकर हाथ -मुंह धोने के बहाने सिंदूर अकसर मिटा ही देती है। दिन भर प्रेम गीत गाती -बजाती, छेड़छाड़ करती कुंवारी बनी रह, घर वापस जाते वक्त वह बहुत ध्यान से सिंदूर फिर से लगा लेती है। एक ओर तो दिन भर पति को एस.एम.एस भेजना, प्रेम गीत गाना, दूसरी ओर ऑफिस आते ही बहाने से सिंदूर मिटा देना, पर वापस घर जाते समय दुबारा शादीशुदा वेश धारण कर ऑफिस छोड़ना मुझे कुछ अजीब -सा लगता है।
प्रेम गीत तो नेहा भी गुनगुनाती है, पर वह कुंवारी है न! जीवन साथी मिलने तक प्रेम खोजते रहना उसका स्वाभाविक अधिकार है। उसकी आवाज मीठी संगीतमय है, तो मुस्कराहट भी। लो-वेस्ट पेंसिल जींस में सजी डाक पर बैठी मुस्कराती नेहा हर दिन की तरह आज भी फोन बजने पर अटेंड कर ले रही थी, भले यह उसका अपना काम न हो। कोई डाक आए तो एंट्री करके आगे भी भिजवा दे रही थी। उसे कोई डिक्टेशन लेने बुला ले तो भी डिक्टेशन पैड थाम तुरंत उठ खड़ी हो जाए। टेम्परेरी वर्कर होने का दुख उसे छू तक नहीं गया है। बाकी टेम्परेरी वर्कर्स तो जो भी काम बताया जाए – भारी मन से, कुछ इस भाव से करते हैं कि ठीक है, टेम्परेरी हैं तो करना ही पड़ेगा। एक बार हो जाने दो परमानेंट, फिर देखना – करते हैं काम हम इस सरकारी दफ्तर में ठेंगे से!
रोज की तरह संदीप नेहा से छेड़छाड़ भरी बातें कर रहा था और हाजिरजवाब नेहा उनके जवाब देती मुस्करा रही थी। नेहा को परमानेंट होने की जुगत लगाते पांच साल होने को आए – इस बीच चार बॉस बदल चुके। हर बॉस ने नेहा को गेस्ट हाउस की ड्यूटी या अन्य बहानों से देर तक काम करने को रोका और वह रुकी। हर बार ये बात ऑफिस में अगले दिन दबे स्वरों में चर्चा में आई कि उसे रोका गया और वह रुक गई। देर रात ऑफिस की कार से घर लौटी। हर बार नए आए बॉस दिल खोल कर उसकी प्रशंसा करते, जी तोड़ काम लेते, फिर परमानेंट किए बिना विदा हो जाते। नेहा अगले बॉस को खुश करने की जुगत में लग जाती।
इसी क्रम में उसके चौथे बॉस मिस्टर मेहरा कल ही उसे परमानेंट किए बिना विदा हुए थे। नेहा से उन्हें खास लगाव था। डिक्टेशन लेने बुलाते तो देर तक बिठाए रखते। हमारी लेडी पिअन सुलभा बता चुकी थी कि एक बार वह चाय लेकर गई तो उसने देखा कि मेहरा साहब नेहा का हाथ अपने हाथों में लेकर, दबे स्वर में ‘तुमको देखा तो ये खयाल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया...’ गा रहे थे। उन्होंने कमरे के सभी ब्लाइंड्स ऐसे लगा रखे थे कि साउंडप्रूफ शीशे के चैंबर के बाहर किसी को अंदर का कुछ न दिखे, न ही आवाज सुनाई दे। यह सुनते ही बरखा, उनकी पीए कुछ फाइलें लेकर से उनके चैंबर में नॉक करने पहुंच गई। उसका कहना था कि बेटी सरीखी कुंवारी नेहा की देखभाल उसका फर्ज़ है। बरखा को देखते ही मेहराजी ने नेहा को विदा कर दिया। बाद में बरखा ने कड़े स्वर में पूछा -
‘मेहरा साहब बदतमीजी तो नहीं कर रहे थे?’
‘नहीं तो, नाटक कर रहे थे।’ नेहा बिना किसी इमोशन के मुस्करा कर बोली। बरखा चुप लगा गई। गॉसिप शुरू हो गई - ‘लगता है, नेहा है ही ऐसी। इसे कोई फर्क नहीं पड़ता। नए जमाने की फास्ट लड़की है – रोमांस और इश्क के लिए ही ऑफिस आती है। अच्छे घर की है – इसे नौकरी की कोई खास जरूरत भी नहीं। बस शौकिया नौकरी करती है - जेब खर्च और रोमांस का शौक पूरा करने के लिए... पर जो कहो, अदाएं तो गजब की हैं!’ ‘गज़ब की मुस्कान है जी’ – शर्मा जी कहते। ‘उसे तो बस सीने से लगाकर दुलराने का मन करता है, सेक्स के लिए छूने का खयाल तक नहीं आता - उसके करीना कपूर जैसे जिस्म को देखकर भी नहीं, उसके स्मिता पाटिल जैसे फेस को देखकर भी नहीं..’ ‘अरे, अरे... ये किसका नाम ले लिया... स्मिता पाटिल और ये? वह तो इंटलेक्चुअल किस्म की थी। अलग ही ग्रेस, अलग ही अदाएं - साधारण से एकदम अलग! ये तो आजकल की लड़कियों की तरह है - थोड़ी चालू, थोड़ी फ्लर्ट, थोड़े नखरे – जो कमजोर दिल मर्दों को लुभा लेते हैं। कुछ कहे का जवाब फिल्मी गानों की लाइनों से देती है साली! छेड़छाड़ खुलकर करती है। इससे और रागिनी से बात करने में मज़ा तो वैसे बहुत आता है, पर बाद में कुंवारी नेहा का व्यवहार कुछ शर्मिंदा कर जाता -सा लगता है। रागिनी तो चलो शादीशुदा है।’ वर्मा जी, शर्मा जी हों या कपूर जी, कुमार जी... सब एकमत थे।
यह सब सालों से चल रहा था। इसकी-उसकी चर्चा, इसे उठाना, उसे पटकना, ठहाके... शगल, जो अकसर फाइल वर्क के साथ -साथ चलता रहता था – काम भी, मनोरंजन भी। ज्यादातर ये हार्मलेस होता था – मनोरंजन का साधन भर। किसी को व्यक्तिगत हानि पहुंचाने या रेपुटेशन हार्म करने की नीयत से रहित।
नेहा अपने बारे में कहा जा रहा जानती नहीं थी, या जानती थी तो परवाह नहीं करती थी, इसीलिए कोई पूछता– ‘कल फिर देर रात तक काम किया तुमने? कितने बजे घर पहुंची?’ तो वह बोलती– “गेस्ट हाउस से घर पहुंचते-पहुंचते तो साढ़े ग्यारह बज गए थे।’
‘कौन-कौन था वहां उतनी देर तक?’
लोग अलग नीयत से पूछते, वह इनोसेंटली जवाब दे देती – ‘बस जी.एम. और चेयरमैन।’
‘कल का डिक्टेशन चेयरमैन के ऊपर वाले बेडरूम में हुआ था’ – संदीप बाद में महिलाओं की टोली में बोलता।
‘हां, तुमने तो देखा था जैसे’ - कोई महिला टोक देती। वह कभी तो चुप लगा जाता, कभी उद्धतता से कहता – ‘हमने भी घाट-घाट का पानी पिया है – सब जानते है। ऐसे नहीं टिके हैं, बीस सालों से दिल्ली में’।
बड़ी -सी बिंदी लगाए संतानविहीन कविता मैम अपने आप में ही मगन रहती थीं। उनके कपड़े खुद डिजाइन किए और शानदार सिले होते थे। वे लगातार कुछ -न -कुछ सीखती रहतीं और खुश रहने की कोशिश करती जीती थीं। मसलन कभी कार चलाना सीख रहे हैं तो कभी बागवानी में लगे हैं, कभी कम्प्यूटर में पिले पड़े हैं, तो कभी विदेशी भाषा सिखाने वाले इंस्टिट्यूट में नाम लिखा रहे हैं।
‘पर मेरे पति बहुत निराशावादी हैं’, ऐसा वे खुद बताती थीं। ‘इतना कहती हूं, पॉजिटिव सोचो, पॉजिटिव जियो’।
जब भी वे इस तरह का भाषण देतीं, पास बैठा कोई -न -कोई, जाने क्यों, मुस्कराने लगता। मुझे इस ऑफिस में आए इतने माह बीत चुके, पर इस मुस्कराहट का रहस्य अब तक नहीं खुला था।
कविता मैम बहुत लंबी थीं और सूरी सर के साथ चलती, बराबर की लगती थीं। जब भी सूरी सर के यहां कोई मामला फंसता या किसी की अटेंडेंस काट दी जाती, सब कविता मैम से पैरवी करते कि वे सूरी सर से बातचीत करके मामला निपटा दें और वे ऐसा कर भी देतीं। गुस्साए सूरी सर कविता मैम को देखते ही ठंढे पड़ जाते।
‘मैं उनसे मिलकर करवा दूंगी‘, वे कहतीं और सब मान जाते। उन्हें बात करना आता है और अपनी बात मनवा लेती हैं– मैं अकसर सोचती। शायद इसी कारण सभी पिअन और ज्यादातर क्लर्क उनकी हर बात मानते थे और उनसे कभी ऊंचा नहीं बोलते थे।
पुरुष तो सुबह चाय पीने के बाद सिगरेट के चक्कर में एक -एक, दो -दो की संख्या में बाहर निकल जाते थे। सीढ़ियों पर सिगरेट और पॉलिटिक्स.. ऑफिस की, तो देश की भी। इसका -उसका चरित्र -चित्रण– नेताओं का, तो ऑफिस की महिलाओं का भी!! पर जहां तक मैं समझ पाई, ये उनका शगल था–वक्त काटने का बहाना और हॉबी। बहस के तुरंत बाद ही उनमें समझौता हो जाता। आंखों की किरकिरी थी तो बस नेहा– वह नेहा, जो सबों की नजर में कुछ ज्यादा ही फास्ट थी, हर नए बॉस को जाने कैसे पटा लेती थी, बड़े आराम से देर तक चेयरमैन सेक्रेटेरिएट में काम करती और देर रात को ऑफिस की कार से विदा होती थी– वह भी बिना शिकायत! हमेशा मुस्कराती रहती और नहले का जवाब दहले से देकर अलग हो जाती।
क्रमश..