बहीखाता - 39 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 39

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

39

प्लैन

जसबीर ने हम दोनों को अमेरिका आने का निमंत्रण दिया हुआ था। वह अपनी सहेली से चंदन साहब को भी मिलवाना चाहती थी, पर चंदन साहब आज कल कुछ दूसरी ही हवाओं में उ़ड़े फिरते थे। पहले तो वह मेरे साथ अमेरिका जाने के लिए राजी हो गए थे, पर अब जब से मुम्बई से वापस लौटे थे, कहानी बदल चुकी थी। अमेरिका जाने का विचार उन्होंने रद्द कर दिया। चंदन साहब ने पहले मुझे मैंटली टॉर्चर किया। कभी रीमा की बातें करके और कभी मुझे पागल होने, बीमार होने की तोहमतें लगाकर। क्योंकि डिप्रैशन की दवाई मैं अभी भी खा रही थी। थोड़ी शुगर भी हो गई थी मुझे। कुछ दवाइयों का साइड इफेक्ट था और कुछ घर का तनाव भरा वातावरण था जो मुझे कई तरह की बीमारियाँ लगा रहा था। मैं इन्सान थी, मेरे अंदर अहसास थे। मैं इनकी तरह बेशरम नहीं बन सकती थी। यह तो शराब, सिगरेट के बहाने गालियाँ भी निकाल लेते और रात में खर्राटे मारते रहते। मेरी रातों की नींद खराब हो गई, डिपै्रशन और बढ़ता गया। फिर भी, मैंने नौकरी नहीं छोड़ी। दवाइयाँ खाकर भी मैं कालेज जाती रही। नया कोर्स भी शुरू कर लिया। जब उनका यह दांव न चला तो उन्होंने मुझे शारीरिक तौर पर यातनाएँ देनी प्रारंभ कर दीं। नवंबर के आखि़री दिन थे। शायद 24 तारीख थी नवंबर की। कड़ाके की ठंड थी। यह वो मौसम था जब यहाँ घरों में चैबीस घंटे सेंट्रल हीटिंग चलती रहती है। परंतु चंदन साहब ने हीटिंग बंद कर दी। अपने स्टडी रूम और बैडरूम के लिए नए हीटर ले आए। मैं लगी ठंड में ठिठुरने। संयोग से, जसवीर का फोन हर उपयुक्त अवसर पर आ जाया करता था। इस समय भी आ गया। हम बातें करते हुए इस स्थिति में भी मज़ा खोजने लगीं। पर मेरी हालत उसको उदास भी कर देती। वह ठहाके लगाती लगाती एकदम खामोश हो जाती। चंदन साहब मुझे घर से बाहर निकालने को बज़िद बैठे थे और मैं ढीठ बनी बैठी थी। उस पर ठंड से मेरा हाल बुरा हो रहा था।

इनकी सिगरेटें भी मेरे लिए टॉर्चर ही तो थीं। यह अकेले, कभी अलका और ये दोनों मिलकर ग्यारह बन जाते। मैं गुरद्वारे में ए लेवल की कक्षायें भी लिया करती थी। गुरद्वारे जाते बहुत सारे लोग मेरे परिचित हो गए थे। कभी कभी राह में भी मिल पड़ते। मुझे यही डर रहता कि चंदन साहब कहीं उनके सामने ही कश न लगाने लग पड़ें। यह अकेले होते तो ज़रा बात मान लेते, पर जब अलका साथ होती तो मैं कहने का साहस न जुटा पाती। कई बार हम कार में जा रहे होते तो दोनों ने ही सिगरेट सुलगा रखी होतीं। मैं मुँह छिपाती फिरती कि राह में कोई देख ही न ले।

इन दिनों अलका एक सप्ताह रहने के लिए आ गई। अलका के आने पर तो यह पहले से भी अधिक नाटक करने लग पड़ते थे। वैसे भी अलका को हमारा एकसाथ बैठना गंवारा नहीं होता था। जब भी वह हमें इकट्ठा बैठे देखती, झट आ जाती और कहती, “डैड, आय थिंक यू डोंट लव मी ऐनी मोर।” इस प्रकार हमारी दूरी और भी अधिक बढ़ने लगती, पर अब तो अलका को रीमा वाली कहानी भी अच्छी नहीं लगी थी। वह समझती थी कि यह अब रीमा पर पैसा लुटाने लगेंगे। अलका शाम के वक्त आई। दोनों स्टडी रूम में जा घुसे और शराब के साथ साथ सिगरेटें भी पीते रहे। फिर हमने मिलकर खाना खाया। अलका के आ जाने पर मैं तो अजनबी ही बन जाती थी। अगले दिन हमने सिटी सेंटर जाना था। चंदन साहब कार चला रहे थे। वुल्वरहैंप्टन के सिटी सेंटर में पहुँचे। कार पॉर्क करने के बाद मैं कुछ सामान खरीदने के लिए बूट्स में जा घुसी और ये दोनों बाहर खड़े मेरा इंतज़ार करने लगे। जब मैं बाहर आई तो ये कहीं नज़र नहीं आए। मैंने आसपास इधर-उधर देखा तो ये एक खुले कैफ़े में बैठे थे। इनकी कॉफ़ी आ गई और मैंने भी अपनी मंगवा ली। ये दोनों एक तरफ बैठे थे और मैं इनके सामने। ये दोनों सिगरेट पीते हुए धुआँ सीधे मेरी ओर फेंक रहे थे। मेरी साँस उखड़ने लगी। मैंने कहा -

“प्लीज़, धुआँ दूसरी तरफ फेंको।”

“अगर तुझे कोई तकलीफ़ है तो उठकर चली जा।”

अलका मेरी तरफ इस तरह मुस्कराकर देखने लगी जैसे वह कोई गेम जीत गई हो। मैं गुस्से में उठ खड़ी हुई और घर की ओर चल पड़ी। घर ज़रा दूर था इसलिए पहुँचने में थोड़ा समय लग गया। ये कार में मेरे से पहले ही पहुँच चुके थे। उस समय तो ये कुछ न बोले। शाम के समय दोनों ने शराब पी और शुरू हो गए। दोनों ही उछल उछलकर मेरी ओर आने लगे। चंदन साहब कह रहे थे -

“यह मेरा घर है। मैं इस घर के हर कमरे में सिगरेट पीऊँगा, तू कौन होती है मुझे रोकने वाली।”

उनके पीछे पीछे अलका भी बोली -

“अगर तुझे ज्यादा ही तकलीफ़ है तो घर से चली जा, यू ब्लडी बिच, जस्ट लीव दिस हाउस।”

कहते हुए वह मुझे उंगली के इशारे से बाहर का रास्ता भी दिखा रही थी। मैं चुप होकर उनको सुनती रही। खूब हंगामा हुआ। आखि़र, मैं कुछ खाये बग़ैर ही अपने कमरे में सोने चली गई। मैंने इन्हें यद्यपि कुछ नहीं कहा, पर मुझे मेरी आने वाली ज़िन्दगी के आसार नज़र आने लगे। पछतावा हुआ कि मैंने अपना फ्लैट क्यों बेच दिया था। पूरी रात कई प्रकार के सोच-विचार में बीती। वुल्वरहैंप्टन में रहने वाली उन सभी स्त्रियों की तस्वीर मेरी आँखों के सामने से गुज़र गई जो अपने पतियों द्वारा सताई हुई अपने बच्चों को पाल रही थीं और उनमें से कइयों ने अपने घर खरीद लिए थे। उन स्त्रियों के साथ मुझे सहानुभूति भी थी और कभी डर भी लगता था कि विलायत में आई हुई ये औरतें कैसी ज़िन्दगी जी रही थीं और उधर भारत में कई लड़कियाँ विलायत आने के लिए कैसे तरस रही थी। मुझे अपने दिल्ली वाले कालेज के वे सभी वर्ष याद आ गए जब मैं अपने डिपार्टमेंट की हैड हुआ करती थी और घर में भी मेरी कितनी इज्ज़त हुआ करती थी। एक लेखक के साथ विवाह करने का जो सपना मैं लेकर आई थी, वह तो कभी का हवा में बिखर गया था। यहाँ तक कि मेरा अपना लिखने का काम भी बहुत मद्धम पड़ गया था। कभी कोई आलेख लिख लेती। पिछले पाँच-छह सालों में आलोचना की केवल दो पुस्तकें ही लिख सकी थी। हाँ, कविता अवश्य लिखी जा रही थी। दरअसल, कविता लिखने से कहीं अधिक मेरे साथ घटित हो रही थी। मुझे बार बार डॉ. हरभजन सिंह की दी हुई आशीष झूठी पड़ती प्रतीत होती।

अगली सुबह बुधवार था। बुधवार को मेरा अवकाश होता था। अलका हफ्ते भर के लिए आई थी, पर सवेरे ही चली गई। शायद कोई प्लैन बना गई थी। जाते समय मुझसे बात करके भी नहीं गई। यह बोतल खोल कर बैठे हुए थे। मैं चाय का कप बनाकर अपने कमरे में चली गई। यह मेरे पीछे ही आ गए और मेरे मुँह पर धुआँ मारते हुए बोले -

“कर, क्या करना है। यह मेरा घर है और मैं इसके किसी भी कमरे में सिगरेट पी सकता हूँ। तूने हिम्मत कैसे की मुझे रोकने की ?”

मैं चुप थी। यह बोले जा रहे थे। कुछ देर बार यह चले गए, पर इनका बड़बड़ाना अभी भी जारी था। पता नहीं कौन कौन सी गाली बक रहे थे। मैं कभी भी इनकी गालियों की तरफ ध्यान नहीं देती थी, पर आज ध्यान से सुनने लगी थी। गालियाँ मुझे चुभने लगीं। ये तीर समान सीधे मेरे सीने में बज रही थीं। मैं भी उठकर फ्रंट रूम में गई और इनके सामने कुर्सी पर बैठ गई। यह अभी भी गंद बके जा रहे थे। मैंने कहा -

“एकबार खत्म कर लो जो बात कहनी है... मेरे से बार बार नहीं मरा जाता।”

इनके करीब ही कॉडलेस फोन पड़ा था। इन्होंने उठाकर मेरे मुँह पर दे मारा। मेरी आँख के बिल्कुल करीब आकर बजा। फोन इतनी ज़ोर से बजा था कि वह बिखरकर दूर जा गिरा। मैं दर्द से कराहने लगी। मैं भी उठ खड़ी हुई और दूसरे कमरे में जाकर मैंने पुलिस को फोन कर दिया। इन्होंने मेरे पीछे से आकर मेरी बांह मरोड़कर पीछे कर दी। इतना दर्द सहने योग्य मैं कहाँ थी। मेरी रोना निकल आया। मैं डर से कांप रही थी। कुछ ही मिनट में पुलिस आ गई।

पुलिस वाला एक नौजवान गोरा लड़का था और उसके संग एक गोरी लड़की। लड़की ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे तसल्ली दी तो मेरा कांपना कुछ कम हुआ। चंदन साहब घबराये खड़े थे और डरे डरे-से मेरी ओर देख रहे थे। ऐसा लग रहा था, मानो उनकी सारी शराब उतर गई थी। मैंने पुलिस वालों को सारी बात बताई। उन्होंने मेरे ज़ख़्म देखे कि कहीं एम्बुलेंस बुलाने की आवश्यकता तो नहीं। फिर वह बोले -

“बताओ, तुम क्या चाहती हो ?”

“मैं इस घर में नहीं रहना चाहती, मुझे इस आदमी से खतरा है।”

“तुझे इस घर से जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। देख कितना सुन्दर घर है। अगर चाहो तो मैं इस घर में रह सकती हूँ।”

उनका इशारा साफ़ था कि घर छोड़कर तो चंदन साहब को जाना चाहिए। मैं भी यह सब समझती थी, पर इसका अर्थ यह होता कि किसी न किसी तरीके से फिर इसी व्यक्ति से वास्ता पड़ा रहना था। मैं इससे बहुत दूर चली जाना चाहती थी। साथ ही, मैं अपने साहित्यिक मित्रों के सामने इस प्रकार की मिसाल नहीं बनना चाहती थी कि वे मेरे बारे में यह सोचें कि मैंने घर के लालच में चंदन साहब को घर से बेघर कर दिया। मुझे सुंदर घर से क्या लेना था। यह मेरे सपनों का घर तो बिल्कुल नहीं था। मैंने पुलिसमैन से कहा -

“मुझे इस सुंदर घर से कोई लेना देना नहीं, मैं अब यहाँ बिल्कुल नहीं रहूँगी।” मैंने अभी कहा ही था कि अंग्रेज पुलिस लड़की कहने लगी -

“पहली बात तो यह कि तू अपना पासपोर्ट, बैंक बुक्स और अन्य आवश्यक डाक्यूमेंट उठा ले और जो अपना सामान लेना है, वह भी ले ले।”

मैंने एक बैग में जितनाभर सामान आ सकता था, डाल लिया। फिर पुलिसमैन पूछने लगा -

“तुम्हारा कोई दोस्त या रिश्तेदार है जहाँ तुम्हें हम छोड़ दें ? नहीं तो शैल्टर होम में छोड़ देते हैं।”

वैसे तो मेरी कार भी खड़ी थी, पर मैं चला सकने की स्थिति में नहीं थी। मेरी सहेली मनजीत धालीवाल नज़दीक ही रहती थी। मैंने उसे फोन किया। वह कुछ ही मिनट में आ गई। वही मेरी कार चलाकर मुझे अपने घर ले गई।

(जारी…)