बहीखाता - 40 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 40

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

40

शैल्टर होम

कुछ दिनों से मुझे लग ही रहा था कि अब मुझे इस घर से जाना ही है, पर यूँ इतनी जल्दी जाऊँगी, यह नहीं सोचा था। मैं सोचती थी कि जब अधिक ही बर्दाश्त से बाहर हुआ तो कहीं किराये का कमरा ढूँढ़ लूँगी और ज़िन्दगी दोबारा नए सिरे से शुरू कर लूँगी। कहाँ कभी मैं अपने फ्लैट की मालिक थी और कहाँ घर से निकाली हुई औरत। 15 बरस विवाह को हो चुके हैं और मैं खानाबदोशों की भाँति कहाँ कहाँ भटक रही थी। अब तो नूर साहब भी नहीं रहे जो मुझे सहारा दे सकते। ढिल्लों साहब के साथ तो वैसे ही अब कोई बोचचाल नहीं रही थी।

पहले मैं मनजीत धालीवाल के घर गई। मनजीत धालीवाल का अपना परिवार था। वैसे तो वह मेरी कुलीग भी थी और सहेली भी, पर मैं उस पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। मेरी एक गुजरातिन सहेली थी - पुष्पा। वह मेरी स्टुडेंट भी रही थी। वह हमारे घर प्रायः आया करती थी। चंदन साहब को भैया-भैया कहा करती। मैंने उसको फोन किया और कहा -

“तेरे भैया ने निकाल दिया मुझे।”

“कोई बात नहीं, मेरे घर आ जाओ।”

उसने पूरे हौसले के साथ कहा। मनजीत धालीवाल मुझे पुष्पा के घर छोड़ आई। मुझे ऐसा लगा कि एक व्यक्ति का घर छोड़कर बाकी का संसार मेरे स्वागत में खड़ा था। पुष्पा के घर में मैं कुछ दिन रही। यहीं पर मेरे कालेज से मेरी लाइन मैनेजर मुझसे मिलने आई और मेरी हालत को समझती हुई मुझे एक सप्ताह की छुट्टी दे गई। मैं अब सोच रही थी कि आगे क्या किया जाए। जहाँ हर कोई प्यार दे रहा था, वहीं हर कोई अपनी अपनी सलाह भी दे रहा था। जसवीर का अमेरिका से फोन आया। वह पहले तो मेरी स्थिति को लेकर चिंतित हुई, पर फिर हम दोनों इस पर हँसने लगीं। हालांकि उस हँसी में मेरा दर्द भी शामिल था जिसे मैं छिपाने का यत्न कर रही थी। अब मेरी हालत उस गाने जैसी थी कि चल अकेला...चल अकेला। अगले कदम के लिए किसी सलाह देने वाले ने कहा कि वालसाल में होमलैस लोगों के लिए ‘हैवन होम’ बना हुआ है। मेरे जैसे इमरजैंसी वालों को वहाँ कमरा मिल जाता है। पुष्पा का भाई मुझे वालसाल छोड़ आया।

मैंने हैवन होम के दफ्तर में पहुँचकर अपनी हालत बताई। उन्होंने मेरा नाम वगैरह लिखकर मुझे एक छोटा-सा कमरा दे दिया। बेघरों को सहारा देने वाले इस घर का नाम हैवन होम था, अर्थात् स्वर्ग, पर यह निरा ही नरक दिख रहा था। गंदी सी बू व्याप्त थी। सिगरेटों की गंध भी हवा में तारी थी। इसमें रहने वाली सभी औरतें ही थीं। पतियों से सताई हुईं औरतें। अधिकांश नौजवान लड़कियाँ ही थीं, बच्चों वाली। सभी रंगों की ही लड़कियाँ थीं। उन्हें देखकर मुझे तो वैसे ही कुछ अजीब अजीब सा महसूस हो रहा था। अजीब जगह आ गई थी मैं। खाना बाहर से लाना पड़ता था। वैसे रसोई भी थी। बच्चों के लिए दूध गरम करने की खातिर या चाय बनाने के लिए होगी, पर यह रसोई भी नौ बजे बंद हो जाती थी। पीने के लिए पानी भी इससे पहले पहले ही भरकर रखना पड़ता था। मैंने जैसे तैसे प्रकार रात बिताई। रात में ही जसवीर का फोन आ गया। इस सारे दौर में जसवीर मेरा इस तरह पीछा करती रही मानो मेरे से अधिक उसको मेरी ज़िन्दगी की चिंता थी। मैं उदास थी लेकिन उसने अपनी ज़िन्दगी के कुछ ऐसे हवाले दिए कि मेरी हँसी निकल गई। दिल में आया, ‘भला हुआ मेरा चरखा टूटा, जिंद अजाबो छुट्टी।’ हम फिर इस स्थिति पर खुलकर हँसीं। हँसने के सिवाय और कर भी क्या सकती थीं। जो भी था, यह स्थिति चंदन साहब के घर से बुरी नहीं थी। कम से कम सेंट्रल हीटिंग तो लगी हुई थी।

अगली सुबह ही मेरी कहानी सुनने के लिए और मेरी मदद के लिए सोशल वर्कर आ गई। उसने विस्तार से मेरी सारी कहानी सुनी और केस तैयार करने लगी। वह बोली -

“तेरा केस अब्यूज का केस है और बहुत मजबूत है। हम तुझे रहने के लिए फ्लैट भी दिला देंगे, पर तुझे वालसाल में मूव होना पड़ेगा।”

“नहीं, मैं वालसाल में मूव नहीं हो सकती क्योंकि मेरी जॉब तो वहाँ है।”

“जॉब तो तुम्हें छोड़नी पड़ेगी, पर जॉब जितने बेनिफिट हम तुम्हें दिलवा देंगे।”

जॉब के चले जाने के खयाल ने मुझे डरा दिया। मेरे अस्तित्व की धरती खिसकती प्रतीत हुई। काउंसिल के घरों में रहने वाली स्त्रियों के हालात एक एक करके मेरे सामने से गुज़रने लगे। मेरा स्वाभिमान डोलता-सा लगा। मैंने सारी हिम्मत बंटोरते हुए उस सोशल वर्कर से कहा, “मैं बेनिफिट्स के सिर पर नहीं रहना चाहती।”

मैंने देखा, उन्हें मेरे साथ कोई सहानुभूति नहीं थी। उनके लिए तो मैं सिर्फ़ एक केस थी और वह इस केस को हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी। मैं जानती थी, सोशल वर्कर ज्यादा केस दिखाएँगे तो उनका अधिक बोनस बनेगा। मैंने हैवन होम का कमरा छोड़ दिया। उन्होंने हिसाब करके मेरी तरफ कुछ पैसे निकाल दिए। यदि मैं काम न करती होती तो यह सब मुफ्त में होता, पर नौकरी पर होने के कारण मुझे बिल अदा करना पड़ा। बिल भी अधिक नहीं था, शायद सैंतीस पौंड थे। मैंने पुष्पा को फोन किया। उसका भाई आकर मुझे ले गया। अब मैंने कुछ समय पुष्पा के घर में ही रहने का फैसला कर लिया। मैंने अमेरिका जाने के लिए टिकट बुक करवा रखी थी। जहाँ जसवीर मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। पर मैं असमंजस में थी कि इस हालत में जाना कैसा रहेगा। जसवीर को मैंने अपनी स्थिति के बारे में बताया, उसका कहना था कि उसकी डॉ. साधू सिंह से बातचीत हुई है और वह कह रहे हैं कि वैसे बेशक देविंदर आती या न आती, पर इस हालत में उसको अवश्य आना चाहिए। मेरा डॉ. साधू सिंह की सोच के आगे सिर झुक गया। सोचा, अब अमेरिका से वापस लौटकर ही कुछ करुँगी। कुछ दिनों बाद पुष्पा का भाई मुझे अमेरिका जाने वाली फ्लाइट में चढ़ा गया।

(जारी…)