बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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यूनिवर्सिटी
मैंने कालेज में प्रवेश तो ले लिया था, पर हमारी अधिकतर कक्षायें यूनिवर्सिटी में ही लगा करती थीं। ट्यूटोरियल ग्रुप की क्लास ही कालेज में होती। यहाँ आकर मेरा पंजाबी साहित्य के महारथियों से वास्ता पड़ने लगा। परंतु वे साहित्यकार होने से पहले मेरे अध्यापक थे। डॉ. हरिभजन सिंह, डॉ. त्रिलोक सिंह कंवर, डॉ. अतर सिंह, आत्मजीत सिंह। इनके साथ साथ जोगिंदर सिंह सोढ़ी हमें उपन्यास पढ़ाते थे। ये वही जोगिंदर सिंह सोढ़ी थे जो पंजाबी की प्रसिद्ध गायिका सुरिंदर कौर के पति थे। इनके पढ़ाने का ढंग बहुत बढ़िया था। हरविंदर सिंह जिसको सब मामा जी कहा करते थे, भी कभी कभी हमारी क्लास ले लिया करते थे।
कक्षायें शुरू हुईं। यह सन् 1968 की बात है, अजीब-सा आनंद आने लगा। एक तो हम सिर्फ़ पंजाबी ही पढ़ रहे थे और दूसरा यूँ लगता, मानो एक तालाब में से निकलकर समुद्र में आ गए हों। विषय और विषयों की गहराई ही इतनी विशाल थी। अतर सिंह हमें मॉडर्न पोयट्री पढ़ाते थे। कविता मेरा मनपसंद विषय था इसलिए मेरा ध्यान इस ओर कुछ अधिक ही रहता। वह कविता को पूरी तरह खोलकर हमारे सामने रख देते। मैं साथ के साथ नोट्स लेती रहती थी जिसक कारण मुझे सब कुछ ग्रहण करना सरल होता। डॉ. अतर सिंह एक इन्सान के तौर पर भी बहुत अच्छे थे। डॉ. त्रिलोक सिंह कंवर का पढ़ाने का ढंग तो ठीक था, पर उनकी भाषा ज़रा कठिन होती। हमें समझने में दिक्कतें आने लगतीं, पर उनसे जितनी बार भी पूछते, वे कभी खीझते नहीं थे। परंतु जो अध्यापन डॉ. हरिभजन सिंह का था, वह कमाल का था। वे यूँ पढ़ाते, बात को विद्यार्थियों के दिमाग में इस प्रकार डालते कि उनके पढ़ाये हुए को दुबारा पढ़ने की आवश्यकता न पड़ती। वह पढ़ाते हुए अपने अध्यापन में इतना डूब जाते कि उन्हें किसी अन्य बात की होश ही न रहती। वे अपना लेक्चर शुरू करते ही अपनी घड़ी उतार कर रख देते। फिर पढ़ाते पढ़ाते अपने बूट उतार देते। वह बोर्ड पर लिख लिखकर समझाते। वे पढ़ाने में इतने मस्त हो जाते कि उन्हें पता ही न चलता कि पीरियड खत्म हो गया है। पीरियड बदलने की घंटी ही उन्हें रोक सकती थी। डाॅ. हरिभजन सिंह मेरे आयडियल अध्यापक बन गए थे। मेरा भाग्य अच्छा था कि बाद मंे मैंने अपनी पीएच.डी. भी उनके मार्गदर्शन में की। डॉक्टर साहब स्वयं भी बहुत बड़े कवि थे इसलिए उनके लिए कविता की रूह में उतरना सरल था। उनके पढ़ाने के कारण ही बाबा नानक मेरा मनपसंद कवि बन गया था और मैं बाबा नानक की फिलॉसफी से जुड़ गई थी। इससे पहले मैंने बाबा नानक की बाणी ही पढ़ी थी, उसके अर्थों को इस तरह नहीं समझा था जैसे डॉ. हरिभजन सिंह ने समझाया था। बारां माह, बाबर बाणी, आरती वगैरह बाबा नानक की बहुत ही पॉवरफुल रचनाएँ हैं। डॉ. हरिभजन सिंह ने हमें उतनी ही शिद्दत से इन्हें पढ़ाया। डॉ. साहब कभी कभी हमें अपनी कविताएँ भी सुनाते। वैसे भी मैं उनकी रचनाएँ पत्रिकाओं में पढ़ती ही रहती थी। लेकिन एक बात बहुत ही अजीब लगी थी जो बाद में समझ में भी आ गई थी। वह यह कि एम.ए. फाइनल की विदायगी के समय डॉ. हरिभजन सिंह ने अपने भाषण में विद्यार्थियों को विशेष तौर पर लड़कियों को आशीर्वाद देते हुए कहा था, “बच्चियो, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हें ज़िन्दगी में कभी भी कविता न लिखनी पढ़े।“
ये मेरी ज़िन्दगी के बहुत ही खूबसूरत दिन थे। तीन नंबर गली वाले गुरद्वारे में हमारा आना-जाना फिर से बढ़ गया था। मैं फिर से ‘शबद’ पढ़ने जाने लग पड़ी थी। देविंदर सिंह कीर्तनिये ने अब म्युजिक स्कूल खोल लिया था और उसका गुरद्वारे में आना कम हो गया था। अब मैं हारमोनियम बजाने के साथ साथ शबद पढ़ती और मेरे पिता जोड़ी बजाते। अब गुरद्वारे में नये-नये आए भाई आनंद सिंह भी बहुत बढ़िया कीर्तन करते थे। उन्होंने ही अपने प्रभाव में लेकर मुझे अमृत भी छका दिया था। मैं पूरी ‘रहितों’(मर्यादाओं) में रहने लग पड़ी थी। यह बात अलग थी कि मैं बहुत देर इन मर्यादाओं में नहीं रह सकी थी। लेकिन मेरा गुरद्वारे में आना-जाना निरंतर जारी रहा। गुरद्वारे की कमेटी में कंवलजीत सिंह हुआ करते थे। वह मुझे बहुत प्यार किया करते। एक तो मैं शबद-गायन बहुत अच्छा करती थी और दूसरा पढ़ाई में भी होशियार थी। उनके दो पुत्र थे - गगनजोत और जगजोत। मैं समझती थी कि कंवलजीत सिंह और उसकी पत्नी मुझ पर नज़र रखा करते थे। एकबार गुरपर्व पर मैंने गगनजोत के लिए एक कविता लिख दी। वह स्टेज पर जाकर पढ़ आया। उसके अच्छे-खासे पैसे हो गए। वह बहुत खुश हुआ। उसने उन पैसों की मुझे कमीज़ ले दी। उसके बाद वह हर रक्षा बंधन पर अपनी बहन जीवन जैसा ही मेरे लिए भी सूट लेकर आता। इस बात से मेरी और अधिक इज्ज़त होने लगी थी। कंवलजीत सिंह का परिवार मेरे साथ इतना मोह रखने लग पड़ा था कि कई बार वह मुझे अपने घर भी ले जाया करते। वह आयु में हालांकि मेरे से कई वर्ष छोटा था, पर मैं उसको ‘गगन भाजी’ कहकर बुलाती थी। इसकी वजह उसके घर का रिवाज़ था। उसके मम्मी पापा भी अपने बच्चों को ‘जोत जी’, ‘गगन जी’ कहकर बुलाते थे।
अपने घर में अब मैं मुखिया थी। मेरी हर बात मानी जाती थी। मेरे भापा जी तो मेरे पर बहुत ही गर्व करते थे। मैंने एम.ए. कर ली। मेरी फस्र्ट डिवीज़न आई और साथ ही मैं यूनिवर्सिटी में सेकेंड आई थी। सभी बहुत खुश थे। जून में मेरा परिणाम निकला। जुलाई में मैत्रेयी कालेज में लेक्चरर की नौकरी निकली। मैंने आवेदन कर दिया। मैं जानती थी कि इतनी जल्दी मुझे कौन नौकरी देगा। लेकिन मेरे भापा जी बोले कि मुझे यह नौकरी हर हालत में मिलेगी। मैंने खीझकर कहा था कि अपनी बेटी पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा ठीक नहीं, पर वे ऐसे ही थे। वैसे अब उनकी सेहत खराब रहने लगी थी।
मैंने नौकरी के लिए आवेदन किया तो उन्होंने मुझे इंटरव्यू की तारीख़ दे दी। मैं डरती-सहमती इंटरव्यू के लिए गई। मुझे नकारे जाने का अधिक डर नहीं था। मैं तो अनुभव प्राप्त करने के लिए ही इंटरव्यू देने गई थी। जब इंटरव्यू के लिए मैं अंदर गई तो डॉ. हरिभजन सिंह सामने पैनल में बैठे थे। मुझसे तरह तरह के प्रश्न पूछे गए। मैंने अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार उत्तर दिए। बड़ी बात यह थी कि पढ़ाने का मेरा कोई अनुभव ही नहीं था। मैं तो सीधा ही कालेज से निकलकर आ रही थी। अभी विद्यार्थी ही लग रही थी। और यह तो कालेज की लेक्चरर बनने के लिए इंटरव्यू थी। इंटरव्यू के बाद हमें वहीं बाहर बैठकर जवाब की प्रतीक्षा करनी थी। कुछ देर बाद मुझे प्रिंसीपल के आॅफिस में फिर बुला लिया गया। अचानक मुझे नौकरी मिल गई थी। मैं खुश तो हुई, पर हत्प्रभ भी रह गई। बाद में मुझे डॉ. अतर सिंह जी से पता चला था कि जब मेरे एम.ए. के पेपर चैक किए जा रहे थे, तभी डॉक्टर साहब ने मुझे नौकरी देने का निर्णय कर लिया था। शायद मेरा विचारों को स्पष्ट तरीके से पेश करने का ढंग उन्हें पसंद आया था और उन्होंने इस योग्यता को अध्यापन कार्य के लिए आवश्यक समझा था।
(जारी…)