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बहीखाता - 2

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

2

पहाड़गंज

पहाड़गंज का मुल्तानी ढांडा, गली नंबर चार। यह गली सभी गलियों से चैड़ी होती थी। गली के दोनों ओर घर होते थे। हमारे घर के दोनों तरफ जो घर थे, उनमें हमारे वही रिश्तेदार और पड़ोसी रहते थे जो पाकिस्तान में भी साथ-साथ रहते आए थे। गुजरांवाले ज़िले के एक गांव ‘गुरु कीआं गलोटियाँ’ से पाँच-सात घर इकट्ठे ही उठे थे और इकट्ठे ही यहाँ आ बसे थे। इनमें एक घर लाहौरियों का भी आ बसा था, पर शीघ्र ही वे भी दूसरे रिश्तेदारों की भाँति लगने लग पड़ा था। गांव ‘गुरु किआं गलोटियाँ’ का अपना ही इतिहास था। प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्रामी और पंजाबी के प्रसिद्ध कवि दीवान सिंह कालेपानी इसी गांव के डाॅक्टर हुआ करते थे। गांव में ही उनका घर था जहाँ उनका परिवार रहता था। मेरी माँ उनको भलीभाँति जानती थी। वह उनके कोमल स्वभाव और मरीज़ों के प्रति उनकी हमदर्दी की मिसालें पेश करती, उनके प्रति अपना आदर दर्शाती रहती थी। सो, अब करीब करीब आधा गुरु कीआं गलोटियाँ गांव मुल्तानी ढांडा की गली नंबर चार में आ बसा था।

यदि दिल्ली का नक्शा देखा जाए तो पहाड़गंज दिल्ली के दिल वाली जगह पर बसा हुआ है। अभी भी दिल्ली का दिल ही है। हिंदुस्तान का दिल दिल्ली, दिल्ली का दिल पहाड़गंज। इसके आसपास ही नई दिल्ली का रेलवे स्टेशन। स्टेशन के एक तरफ मेन बाज़ार, लड्डू घाटी, चूना मंडी और दूसरी तरफ मुल्तानी ढांडा, सदर बाज़ार, करोलबाग और क्नॉट प्लेस आदि इलाके थे, जो अभी भी हैं। स्टेशन के साथ ही बसते संगतराशा और राम नगर के इलाके थे लेकिन हर इलाके के साथ लिखते समय या बोलते समय पहाड़गंज ही जुड़ता। कोई व्यक्ति रिक्शा या टांगेवाले को कहता - चूना मंडी पहाड़गंज जाना है। या कहता - मुल्तानी ढांडा, पहाड़गंज जाना है। इसी प्रकार संगतराशा, पहाड़गंज या फिर लड्डू घाटी, पहाड़गंज। लड्डू घाटी में हमारे कई रिश्तेदार पाकिस्तान से आ बसे थे। इसी तरह संगतराशा में भी मेरी माँ के रिश्तेदार थे जो पत्थर घड़ने का काम किया करते थे। मेरी माँ उन्हें ‘पत्थरघाड़े’ ही कहा करती। बाद में उनकी अगली पीढ़ी ने तरक्की करके यह काम छोड़ दिया और चाणक्यपुरी के डिप्लोमैट इलाके, मालचा मार्ग में जाकर बस गई थी। मगर माँ के लिए वे हमेशा ‘पत्थरघाड़े’ ही रहे।

मेरा राब्ता उनकी पहली पीढ़ी के लोगों से मिलने तक ही सीमित रहा। उस पीढ़ी ने अपने सभी रिश्तेदारों से सांझ बना रखी थी। मैं अपनी माँ के संग प्रायः उनके घर आती-जाती रहती थी। उस समय भी उनके पास बहुत बड़ी जगह थी। बाहर की ओर उनका पत्थर तराशने का काम चला करता था और अंदर की तरफ हवेलीनुमा बड़े बड़े कमरों वाला घर था। मेरी माँ बताया करती थी कि वह पाकिस्तान बनने के समय शीघ्र ही दिल्ली में आ बसे थे और उन्होंने यह जगह घेर ली थी। जगह बड़ी होने के कारण उनका कामकाज भी अच्छा चल निकला था। हमारा परिवार एकदम दिल्ली नहीं आया था। पाकिस्तान से आकर पहले कांजली गांव, ज़िला- कपूरथला में रुका था। कुछ दिन वहाँ ठहरकर मेरे पिता, माँ और बहन दिल्ली आ गए थे। नाना, नानी और मेरी मामी जिसको माँ की देखादेखी हम भी ‘भाबो’ कहा करते थे, उस समय कांजली ही ठहर गए थे। फिर, आहिस्ता-आहिस्ता जब मेरे पिता ने अपने सिर पर छत का इंतज़ाम कर लिया, तभी उन्हें दिल्ली आने के लिए कहा। परंतु वे दिल्ली तब आए जब मैं स्कूल जाने लग पड़ी थी और मेरी माँ उनसे मिलने लगातार नहीं जा पाती थी। मुल्तानी ढांडा की गली नंबर चार में मेरी मामी की बहन संतो जिसे हम बुआजी कहा करते थे, ने हमें पैंतीस गज़ जगह दे दी थी। पिता ने वहाँ एक कमरा, खुली रसोई और एक गुसलखाना बनवा लिया था। मेरी माँ बताया करती थी कि यहाँ पहले घोड़ों का तबेला हुआ करता था। यह कुल मिलाकर दो सौ गज़ जगह थी जिस पर मेरी मामी की बहन संतों और उसके दोनों भाइयों ने कब्ज़ा कर लिया था। जैसे जैसे हमारे रिश्तेदार पाकिस्तान से आते गए, बुआ संतो उन्हें पैंतीस-पैंतीस गज़ जगह देती रही। इस प्रकार, धीरे-धीरे इस दो सौ गज़ जगह में पाँच परिवार आ बसे। मुझे अभी भी याद है कि इन पाँच घरों की सांझी दीवारें सिर्फ़ गज़भर ऊँची हुआ करती थीं। ऐसा लगता था कि इस दो सौ गज़ के प्लॉट में सिर्फ़ पाँच कमरे हों और शेष सारा आँगन ही हो। सभी घरों की रसोइयाँ खुली थीं। अपनी रसोई में काम करती स्त्रियाँ एक दूसरे को देख सकती थीं। सारे बच्चे इकट्ठे खेला करते, कहीं भी खा लेते। किसी किस्म का कोई अंतर नहीं करता था। सभी एक-दूसरे से प्यार करते, एक-दूजे के दुःख-सुख में खड़े होते, मानो ये पाँच घर न होकर एक ही घर हो। बहुत बाद में समय बदलने के साथ ही वे गज़भर की दीवारें धीरे धीरे ऊँची होने लगी थीं। परिवारों के बड़े होने से एक कमरे के स्थान पर पूरी पैंतीस गज़ की जगह पर पूरा मकान बना लिया गया था। फिर, आवश्यकतानुसार उसके ऊपर दो मंज़िलें भी खड़ी होने लगी थीं।

उपरोक्त बताये गए इलाकों में हर इलाका पहाड़गंज की आगोश में ही पड़ता था। बमुश्किल दो-ढाई किलोमीटर या इससे भी कम दूरी पर ही हर इलाका पड़ता था। आवाजाही की प्रारंभिक सुविधाएँ बहुत थीं। उन दिनों में रिक्शे, तांगे आम चलते थे। पैदल चलने का भी लोगों को खूब शौक था। मेरा स्कूल चूना मंडी में पड़ता था जो कि मुल्तानी ढांडा से पैदल आने-जाने की मामूली दूरी पर था। मैं अपनी बहन सिंदर के साथ ही स्कूल जाती। मेरी बहन का पूरा नाम सुरिंदर कौर था, पर घर में सभी उसे सिंदर ही कहते थे। वह मुझे बहुत प्यार करती थी। एक प्रकार से वह मेरी आइडियल भी थी। मैं हर काम उसकी तरह करने की कोशिश करती। मेरा छोटा भाई काका मुझसे तीन साल छोटा था। काके को मेरी माँ और भाबो ने लाख मनौतियाँ मांगकर लिया था। मेरी स्मृतियों में अभी भी धुँधला-धुँधला सा दर्ज़ है कि जब मेरी माँ गर्भवती थी तो वह पुत्र की आस लगाये बैठी थी। उसका एक पुत्र जो मेरे से चार साल बड़ा था, पाकिस्तान से हिंदुस्तान आते समय राह में ही मारा गया था। तब उसकी आयु मात्र दो वर्ष की थी। माँ उस बेटे को बहुत याद करती और गाहे-बेगाहे रोती रहती। अब गर्भवती होने पर वह हर हालत में पुत्र चाहती थी। इसीलिए पुत्र प्राप्ति के लिए इतनी अरदासें करती रहती थी। अजीब बात यह थी कि घर की सभी स्त्रियाँ - मेरी नानी, मामी, माँ, बहन और बुआ संतो मुझे अपने पास बिठाकर कहा करतीं कि मैं रब से अरदास करूँ कि हे वाहेगुरू, मुझे एक छोटा-सा वीर दे दे, मैं उसका गन्द भी खुशी खुशी खा लिया करूँगी। मैं भी यह सब कह देती। भाई का लालच मुझे भी था, पर यह सब क्या हो रहा था, यह मेरी समझ में नहीं आता था। मैं सोचती कि मुझे गन्द खाने के लिए क्यों कहा जा रहा है। ख़ैर, हमारे घर छोटे वीर ने जन्म लिया और सभी उसको ‘काका’ कहकर बुलाने लगे। मुझे भी घर में गुड्डी कहकर बुलाया जाता था। मेरी माँ कभी अधिक लाड़ में आकर गुड्डो भी कहने लगती। हमारे घर वीर आया तो हमारा छोटा-सा आँगन खुशियों से भर उठा। हमारा आँगन ही नहीं बल्कि पाँचों घर ही खुशियाँ मना रहे थे। यह वह समय था जब खुशियाँ-गमियाँ सबकी सांझी हुआ करती थीं।

मुल्तानी ढांडा, गली नंबर चार का अपना ही अंदाज़ था। इस गली में पाँच घर हमारे अपने थे, हमारे घरों के सामने वाले घर मुल्तानी परिवारों के थे। वे पाकिस्तान बनने के समय मुल्तान से आकर इस चार नंबर गली में बस गए थे। करीब आठ-दस घर होंगे। बाहर दो दरवाजे़, पर अंदर मुल्तानियों का पूरा मुहल्ला बसता था। ये परिवार भी छोटे छोटे कमरों में रहते थे। रोजगार के लिए इन्होंने घरों में ही काम शुरू किया हुआ था। इनमें से एक परिवार मूंग चावल, एक परिवार कुल्फ़ी, एक परिवार गोल-गप्पे और एक परिवार समोसों-पकौड़ों का काम किया करता था। ये सभी परिवार दिन में सामान तैयार करते और शाम के वक्त गली के कोने पर रेहड़ियाँ लगाते। गली के सारे लोग उनके ग्राहक होते। इस प्रकार के काम पूरे मुहल्ले में जगह-जगह पर होते। गलियों से पार खाने-पीने का रौनकभरा बाज़ार लगता। बाज़ार में ही हलवाई की दुकान, मुनियारी की दुकान, दाने भुनाने के लिए भट्ठी, पूरी-छोले की दुकान। ये सब दुकानंे मुल्तानी ढांडे के लोगों के खाने-पीने का मनोरंजक साधन हुआ करतीं। गरमी के मौसम में दोपहर के बाद अक्सर मेरी माँ दाने भुनाने के लिए मुझे भेजा करती। जब तक भट्ठी वाली दाने भूनती, ग्राहक उसके पिंजरे में बंद तोते से बातें करके अपना दिल बहलाते रहते। इसी प्रकार, चूना मंडी में बिस्कुट बनाने वाली छोटी-सी एक बेकरी हुआ करती थी। मेरी माँ पीपे में बिस्कुट बनवाने का सामान रखकर मुझे उस बेकरी पर छोड़ आया करती। वहाँ कम से कम चार-पाँच घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ती। जब बिस्कुट तैयार हो जाते तो मैं माँ के आने का इंतज़ार करती। उन दिनों में फोन न होने के कारण हर काम के लिए प्रतीक्षा ही करनी पड़ती थी।

मेरा बचपन पहाड़गंज के इन इलाकों में व्यतीत हो रहा था। स्कूल के पहले पाँच वर्ष दोपहर की शिफ्ट होती थी। एक बजे दोपहर में स्कूल लगता और शाम पाँच बजे छुट्टी होती। मुझे स्मरण है कि स्कूल से छुट्टी होने से पहले आधा घंटा क्लास में पहाड़े रटाये जाते थे। हर कक्षा में से पहाड़े रटने की आवाजे़ंे आ रही होतीं। पूरी छुट्टी होने पर सारे बच्चे अपने अपने घरों को चल देते। स्कूल से बाहर निकलते ही उबली हुई शकरगंदी के छाबे से बच्चे शकरगंदी लेकर खाते। मुझे वो शकरगंदी बहुत स्वाद लगती। शकरगंदी बेचने वाला भाई छोटी-छोटी उबली हुई शकरगंदियों को काटकर, मसाला और नींबू लगाकर पत्ता बच्चों के हाथों में पकड़ा देता। उन दिनों में एक पत्ता दो पैसे का मिला करता था और दो पैसे ही मुझे रोज़ का जेब खर्च मिलता था। शकरगंदी खाकर हम घरों की ओर चल पड़ते। माई बलाकी इस बात का सदैव ध्यान रखती कि बच्चे अपने घरों की ओर ठीक रास्ते से जा रहे हैं कि नहीं। माई बलाकी का घर भी हमारे मुहल्ले में ही था, इसलिए वह स्कूल से घर जाते समय बच्चों को सड़क पर दिखाई देती रहती। बच्चों को उनके घरों तक ठीकठाक पहुँचाने के लिए वह कोई पैसे नहीं लेती थी। स्कूल से मिलते वेतन में से ही वह सबकुछ करती थी। इतवार के दिन वह चलती-फिरती मुहल्ले में रहने वाले बच्चों के घर भी चक्कर लगा जाती, बच्चों का हाल चाल भी देख जाती और साथ ही साथ, उनके माता-पिता को बच्चों के बारे में रिपोर्ट भी दे जाती। माई बलाकी के कारण ही मुहल्ले के माँ-बाप बच्चों की स्कूल की चिंता से मुक्त रहते। लगता था, बच्चों के स्कूल का मानो सारा बोझ माई बलाकी ने अपने कंधों पर उठा रखा था।

घर में अक्सर मैं घर की स्त्रियों में घिरी रहती। बचपन में मुझे और मेरे छोटे भाई काका को मेरी मामी यानी भाबो जी ही नहलाया-धुलाया करती थी। मेरी बड़ी बहन बताती थी कि भाबो हमारा बदन पोंछने के लिए तौलिये का नहीं बल्कि अपनी नरम चुन्नी का इस्तेमाल किया करती थी। भाबो हम दोनों को इतना प्यार करती कि हमें बीजी (माँ) और भाबो जी में कोई अंतर प्रतीत न होता। बीजी हमेशा घर के कामों में व्यस्त रहते। नाना, नानी, भापा जी, भाबो जी के लिए रोटी-पानी की तैयारी बीजी ही करते। मुल्तानी ढांडे के उस एक कमरे वाले घर में ये सभी सदस्य रहा करते। कमरे में एक निवारी पलंग और एक कपड़ों की पेटी हमेशा होती जिसमें घर के लिए और आने-जाने वालों के लिए बिस्तर रखे होते। सर्दी के मौसम में रात के समय कुछ और चारपाइयाँ बिछा ली जाती। गरमी के दिनों में रात को गली में ही चारपाइयाँ बिछाकर सो जाते। सिर्फ़ हम ही नहीं, गली के सभी लोग ही घर से बाहर चारपाइयाँ डालकर सोते थे। गली के आमने-सामने चारपाइयों के बिछ जाने के कारण पैदल चलने वालों के लिए बीच में जगह कम ही बचा करती। रात में पूरी गली इस तरह लगती मानो कोई बारात रुकी हो। पूरी गली एक परिवार की भाँति ही सांस ले रही होती। मुझे याद है, मैं हमेशा अपनी बहन के साथ सोती थी और हर रात उसको पीठ खुजलाने के लिए कहती थी। कई बार वह ऊब भी जाती, परंतु मैं ज़िद करके उससे अपनी पीठ खुजलवाती रहती। मेरी माँ दिनभर घर के काम में थकी होने के कारण बिस्तर पर पड़ते ही सो जाया करती। मेरा भाई भाबो जी के साथ ही सोता। मैं यद्यपि पहाड़गंज में मुल्तानी ढांडे की गली नंबर चार के छोटे से घर में साझे परिवार के संग रह रही थी, पर उस समय के माहौल के अनुसार सारी गली ही एक साझा परिवार होता था। एक घर में कढ़ी बनती, पूरे मुहल्ले में बांटी जाती। हर घर का दुःख-सुख सारी गली का साझा दुःख-सुख होता। एक घर की लड़की के विवाह में पूरी गली शरीक होती। विवाह पर गली में टेंट लगाकर गीत बिठाये जाते, पूरी गली उसमें उत्साह से भाग लेती। गली का हर परिवार लड़की के विवाह के लिए शगुन डालने आता। इसका कारण शायद यह था कि ये परिवार बेशक दिल्ली में आकर बस गए थे, लेकिन अपने साथ अपनी ग्रामीण सभ्यता को भी लेकर आए थे। सो, कहने को यद्यपि दिल्ली थी लेकिन दिल्ली में गांवों वाला देसी भाईचारा आ घुसा था। शायद इसी कारण लोग उजड़कर भी बस गए थे।

(जारी…)

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