बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
3
ट्रकों वाले
गली नंबर चार के एक कोने पर ट्रकों वालों का घर था। वैसे गली दोनों तरफ खुलती थी, थी क्या अभी भी खुलती है। इस घर में दो परिवार रहते थे। इस परिवार की दोनों बहनें आपस में देवरानी-जेठानी भी लगती थीं और दोनों भाई साढ़ू भी। दोनों घरों के मुख्य कमरे और रसोइयाँ अलग अलग थीं, लेकिन आँगन और टायलेट साझा ही था। इनके घर का आकार बड़ा होने के कारण आँगन भी काफ़ी खुला-खुला लगता था। ये दोनों परिवार रावलपिंडी से आकर यहाँ बस गए थे। इन दोनों परिवारों में से बड़ी बहन की एक बेटी राजिन्दर जिसे चूचो के नाम से पुकारा जाता था, मेरी क्लास में पढ़ती थी। उसकी दो बहनें और दो भाई और थे। उसकी चाची/मौसी के तीन बेटे और एक बहुत सुंदर बेटी पिंकी थी। यूँ तो चूचो की पाँच और मौसियाँ थीं और एक मामा भी, जो तीन नंबर गली में रहते थे मगर चूचो का मामा अक्सर चूचो की चाची/मौसी के घर पर ही रहता था। सात बहनों का यह लाड़ला भाई रब के विवाह में आया हुआ था जिसकी बहनों के ट्रक चलते थे और मामा इन ट्रकों के सिर पर ऐश करता था। मामा के पहरावे में से शौकीनी स्पष्ट देखी जा सकती थी।
एक दिन कक्षा में बैठे हुए चूचो मेरे पास आई और थैया नाम का खेल खेलने के लिए कहने लगी। मुझे उन दिनों गुड्डे-गुड़ियों के साथ खेलने के सिवाय अन्य किसी खेल का पता नहीं था। मेरी भाबो जी कपड़े बहुत बढ़िया सिल लेते थे और कभी कभी लोगों के कपड़े सिलने का काम भी कर लेते थे। मैं उनसे गुड़ियों के लिए कपड़े सिलना सीखती। थैया कोई नया खेल था जिसमें जब कोई जन खा रहा हो और दूसरा अचानक आकर थैया बोल दे, तो खाने वाले के सिर पर पैसे पड़ जाते थे। इस प्रकार मैं चूचों के साथ मिलकर यह खेल खेलने लग पड़ी। मैं जब भी घर में रोटी खा रही होती, पता नहीं कहाँ से अचानक आकर वह थैया बोल देती। अधिकतर वही जीता करती क्योंकि वह हर वक्त इस खेल को जीतने की ताक में रहती। इस चक्कर में कई बार मेरी जेब खर्च के पैसे उसके पास चले जाते और मैं स्कूल में उबली हुई शकरगंदियाँ खाने से वंचित हो जाती। अंदर ही अंदर मैं बहुत खीझती, पर कर कुछ न पाती क्योंकि यह खेल खेलने के लिए मैंने खुद ही चुना था और अब खुद ही भुगत रही थी।
आहिस्ता-आहिस्ता चूचो से मेरा सखीपना बढ़ने लगा और मैंने उसके घर जाना भी शुरू कर दिया। चूचो का चाचा मुझे बहुत प्यार करता। अपने बच्चों के लिए जब भी वह कुछ खाने के लिए लाता, मुझे अवश्य देता। वह भी मुझे हमेशा गुड्डो कहकर बुलाता। चूचो के दार जी (पिता) ज़रा शर्मीले स्वभाव के थे, लेकिन वे भी मुझे बहुत प्यार देते। चूचो के घर में मेरा दिल खूब लगता क्योंकि मुझे रावलपिंडी की पंजाबी ज़बान बड़ी मीठी लगती। वैसे भी, मेरे घर से उनके घर का वातावरण कहीं अधिक खुला और खूब रौनकवाला था। कभी कभी उसके घर में बहनों के बीच, माँ-बेटी के बीच मीठी-मीठी झड़पें भी देखने को मिल जातीं। हर समय घर में कोई न कोई आ-जा रहा होता। कभी चूचो की मौसियों के परिवार आए रहते। मेरे घर में मेरी माँ सदैव एक सेवादारनी की तरह ही विचरती रहती। घर का कोई भी सदस्य किसी से मजाक तक करता दिखाई न देता। मेरे घर में स्त्रियाँ हमेशा सादे से वस्त्रों में होतीं, दाल-सब्ज़ी भी बग़ैर तड़के के बनती, मगर चूचो के घर की स्त्रियों का पहरावा, उनका खानपान अलग होता और चटपटा भी। मैं अब पढ़ने के लिए भी चूचो के घर ही आने लगी थी।
रोज़ रात में ट्रकों के काम से खाली होकर चूचो का चाचा गली के अन्य लोगों को ट्रक में बिठाकर गुरद्वारा बंगला साहिब माथा टिकाने ले जाता। मैं भी ट्रक में बैठ रोज़ रात को बंगला साहिब जाती। उन दिनों में गुरद्वारे के सामने एक बहुत बड़ा पॉर्क होता था और बीच में एक सड़क होती थी। हम माथा टेकने के बाद पॉर्क में झूले झूलने चले जाते। इस प्रकार धार्मिक श्रद्धा के साथ-साथ खेल-मस्ती भी हो जाती। परीक्षाओं के दिनों में मैं चूचो के घर ही किताबें उठा ले जाती, वहीं बैठकर पढ़ती और कई बार वहीं सो भी जाती। मुझे पढ़ने की अधिक ज़रूरत नहीं पड़ती थी। बार बार उन्हीं पाठों को पढ़ते पढ़ते मैं ऊब जाती। मैं एकबार पढ़कर सो जाती। चूचो रट्टे लगाती रहती। मुझे सोया देख चूचो के चाचा जी कहते, “इस गुड्डो को जब देखो, सोई होती है। पता नहीं पास भी होगी कि नहीं।” पर हर बार उनका अंदाज़ा गलत निकलता और हर बार मैं पास हो जाती। यही नहीं, मेरे नंबर चूचो से भी अधिक आते।
घर में मेरी पढ़ाई की किसी को भी चिंता नहीं थी। पूछता भी कौन। ले देकर मेरी बड़ी बहन ही थी, जो पूछ सकती थी। वह अपनी पढ़ाई में मस्त रहती। नाना जी काफ़ी बुजुर्ग हो गए थे और हमेशा चारपाई पर बैठे रहते थे। नानी भी उनके साथ दूसरी चारपाई पर बैठी रहती। भापा जी दिल्ली से काम छोड़कर अम्बाला के निकट किसी सढोरा शहर में आरे की मशीन पर काम करने के लिए चले गए थे। मामी काके के साथ लगी रहती। मैं भी उसको खिलाती, पर शीघ्र ही या तो गुड्डे-गुडियों को खेल खेलने लगती, या स्कूल में होती, या फिर चूचो के घर में घुसी रहती। मेरी ज़िन्दगी घर से स्कूल, स्कूल से घर, घर से चूचो के घर के इर्दगिर्द ही घूम रही थी। अपने पड़ोसी रिश्तेदारों के घर भी जाती लेकिन मेरा अधिक समय अब चूचो के घर में ही बीतता था। मैं अपने आप को उस घर का सदस्य ही समझने लग पड़ी थी।
चूचो के घर के सभी लोग मुझे बहुत अच्छे लगते थे, पर एक ऐसा व्यक्ति भी था जो मेरी तरफ हर समय अजीब नज़रों से ताकता रहता। उस समय मेरी आयु ऐसी थी कि मुझे उसके इस प्रकार ताकते रहने के अर्थ समझ में नहीं आते थे। हाँ, मुझे डर अवश्य लगता था। गरमियों के दिन थे। दोपहर का समय था। मैं चूचो के घर में थी। आँगन में बैठी किताब पढ़ रही थी। दोपहर के समय आम तौर पर लोग सो जाया करते थे। चूचो की चाची शायद कहीं गई हुई थी। उसका मामा घर में इधर-उधर घूमता-फिरता था और रह रहकर मेरी ओर देख लेता था। मैं सोचती कि शायद मुझे वह पढ़ते हुए देख रहा था। अचानक मामा जी ने एक कमरे में जाकर मुझे आवाज़ दी, “गुड्डो, इधर आना।” मैं उठकर उनके पास चली गई। उन्होंने एक हाथ में स्याही वाली दवात पकड़ रखी थी और दूसरे में पेन। उन्होंने मेरे हाथ में स्याही वाली दवात थमा दी और स्वयं मेरे पीछे की ओर खड़े होकर मुझसे चिपट गए। दोनों बाहों से मुझे दबाते हुए पेन में स्याही भरने लगे। साथ ही साथ, वह अजीब-सी हरकतें भी किये जा रहे थे। मैं खुद को तंग महसूस कर रही थी और घबराई हुई भी थी, परंतु भयभीत-सी ज्यों की त्यों खड़ी भी रही। उस वक्त माई बलाकी का थप्पड़ भी याद आया। उसे याद करते ही मैं और अधिक दुबक गई, कोई प्रतिरोध नहीं कर पाई। कुछ देर बाद वह बोले, “जा, अब चली जा।” मैं डरती, कांपती और घबराई हुई घर पहुँची। मुझे स्पष्ट नहीं था कि मेरे साथ क्या हुआ है, पर इतना अवश्य था कि जो हुआ, वह गलत हुआ है। घर में मेरी तरफ किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। मेरी टांगें कांप रही थीं। मुझे अपना फ्रॉक गीला-गीला महसूस हो रहा था। मैंने फ्रॉक को घुमाकर देखा तो अजीब-सा, लिजलिजा-सा वहाँ कुछ लगा हुआ था। मैंने हाथ लगाकर देखा तो मुझे उल्टी आ गई।
(जारी…)