बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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अंदर की दुनिया
मेरी हालत अजीब-सी रहने लगी। मैं खोयी खोयी घूमने लगी। यद्यपि मैं पूरी तरह नहीं जानती थी कि मेरे साथ क्या हुआ, पर इतना अवश्य पता था कि कोई गन्दी बात हुई थी। चूचो के मामा ने बहुत गलत हरकत की थी मेरे संग। न किसी को बताने योग्य थी और न कुछ और करने लायक। एक अजीब-सा डर, नफ़रत, अलगाव मेरे अंदर घर करने लगा। मैं घर में उखड़ी-उखड़ी रहती, पर कोई मेरी ओर देखता ही नहीं था, मानो किसी को मेरी चिंता ही नहीं थी। मेरी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। मैंने भी किसी को कुछ नहीं बताया था। पहले मेरा दिल हुआ कि माँ से शिकायत करूँ, लेकिन मैं डर गई कि फिर तो कभी मुझे चूचो के घर जाने ही नहीं दिया जाएगा। मेरा मन होता कि चूचो को बता दूँ या उसकी माँ को जाकर कह दूँ कि मेरे साथ क्या बीती है। लेकिन, उसी पल मेरे मन में सवाल उठता कि चूचो का मामा तो सबका लाड़ला था, उसको तो कोई कुछ कहेगा ही नहीं। पहली बात तो मेरी बात पर कोई विश्वास ही नहीं करेगा। यदि वे विश्वास कर भी लेंगे तो मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैं यह भी सोचती कि क्या फिर मैं उनके घर जा सकूँगी। मेरे छोटे-से मन में जितने भी सवाल उठ सकते थे, उठे, परंतु कोई जवाब न पाकर वे दम तोड़ जाते। यह बात मुझे और अधिक चुप्पा बना जाती। मैं अपने आप में खोई रहने लगी। मैं बहुत दिन तक चूचो के घर न जा सकी। एक दिन चूचो ही मेरे घर आई और मुझसे न आने का कारण पूछने लगी, पर मैं क्या बताती। वह मेरा हाथ पकड़कर अपने साथ ले गई। मैंने उसके मामा को देखा। वह मेरी ओर देखकर मंद मंद मुस्करा रहा था। मेरा दिल हो रहा था कि मैं उसको गोली मार दूँ। मगर मैं कुछ न कर सकी। चूचो के घर के बाकी सभी सदस्य मुझे पहले की तरह ही प्यार कर रहे थे। उनमें से किसी को क्या पता था। मैं शीघ्र ही उनके घर से लौट आई। अगली बार फिर चूचो आकर मुझे अपने संग ले गई। अब कभी कभी मैं चूचो के घर चली जाती, पर उसके मामा से दूर ही रहती। यदि कभी वह घर में अकेला होता तो मैं वहाँ से भाग आती।
ज़िन्दगी अपनी गति से चल रही थी। एक चुप्पी मेरे स्वभाव में आ गई थी। घर का वातावरण इकसार-सा चल रहा था। हर रोज़ वही कुछ। मैं नित्य की तरह तैयार होकर स्कूल जाती। रोज़ की तरह वापस घर लौटने पर खेलने लग पड़ती। मैं अपने स्कूल में पूरी तरह रम गई थी। घर आकर सबसे पहले मैं अपना होमवर्क खत्म करती और फिर दूसरा कोई काम करती। यही कारण था कि घर में मेरी पढ़ाई को लेकर किसी को चिंता नहीं थी। मेरा छोटा भाई काका जिसका नाम सुरजीत सिंह रख दिया गया था, अब बड़ा हो रहा था। अपना होमवर्क समाप्त कर मैं उसके साथ खेलने लगती। देखते ही देखते वह दिन भी आ गया कि काका स्कूल जाने लगा। मैं स्वयं अपने भाई को स्कूल में दाखि़ला दिलाने गई। तब मैं शायद तीसरी या चौथी कक्षा में पढ़ती थी। स्कूल में मेरी शिफ्ट भी दोपहर की होती थी और काके की भी, इसलिए मैं उसको अपने साथ स्कूल ले जाती। काका हमेशा मेरे साथ चिपटा रहता। बड़ा शरीफ-सा बच्चा था, भोला भाला-सा, इसलिए मैं उसके जन्म के समय गन्द खाने वाली बात भूल चुकी थी। फिर, यह तो मेरे घर की स्त्रियों ने कही थी, काके को तो इस बारे में कुछ पता ही नहीं था। यूँ भी घर में मुझे और काके को एक दृष्टि से देखा जाता, बहन भाई का कोई अंतर नहीं रखा जाता था। मैं बड़े चाव से काके के संग खेलती रहती। काके को अलग से कोई खुराक नहीं दी जाती थी। बल्कि पढ़ाई में होशियार होने के कारण मुझे अधिक प्यार किया जाता। काका पढ़ाई में कोई होनहार बच्चा नहीं था। मेरी पंजाबी की पढ़ाई में मेरे नाना जी का बहुत बड़ा हाथ था। काके को ऐसा नसीब नहीं हुआ था, शायद नाना जी काफ़ी वृद्ध हो चुके थे और अब कांजली गांव वाला माहौल भी नहीं था।
भापा जी दिल्ली में न होने के कारण मैं उनको बहुत मिस करती। भापा जी खुद पाकिस्तान में नौंवी कक्षा तक पढ़े हुए थे। वह उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी लिखना-पढ़ना जानते थे। मैं पढ़ाई-लिखाई में ठीक थी इसलिए वह मुझे ख़ासतौर पर प्यार करते थे। मेरी किसी भी मांग को हर हालत में पूरा करते थे। मुझे याद है कि एकबार स्कूल की ओर से एक टूर जा रहा था -आगरा। मैं और काका दोनों जाना चाहते थे, पर भापा जी ने काका को नहीं केवल मुझे भेजा था। हालाँकि मुझे पता था कि इसका कारण रुपये-पैसे की तंगी भी थी लेकिन उन्होंने टूर पर भेजने के लिए लड़के को नहीं, लड़की को चुना था। मैं लाड़ ही लाड़ में भापा जी के कंधों पर चढ़ जाया करती थी। इसलिए भापा जी के सढ़ौरे चले जाने के कारण भी मैं उदास उदास रहने लग पड़ी। हालाँकि ग्रीष्म अवकाश में बीजी हम दोनों बहन-भाई को सढ़ौरे ले जाया करते थे। नाना नानी की देखभाल के लिए मेरी बड़ी बहन सिंदर को छोड़ जाते थे। सढ़ौरे हम बड़ी उमंग से जाते थे क्योंकि वहाँ मेरे भापा जी की नौकरी थी और आरा मशीन खेतों में लगी हुई थी। जिस लाला के पास भापा जी काम कर रहे थे, उसने भापा जी को रहने के लिए दो कमरे, रसोई और गुसलखाना भी दिया हुआ था। यह जगह हमारे दिल्ली वाले घर से बड़ी थी और आसपास खेत थे, आमों का बाग व जामुन के पेड़ थे। और साथ ही शहर को जाने वाली सड़क भी लगती थी। सब कुछ ही दिल्ली की अपेक्षा खुला था। और फिर वहाँ तो मेरे भापा जी थे जो मुझे बहुत प्यार करते थे। इसलिए मैं सढ़ौरे जाने के लिए गरमी की छुट्टियों की प्रतीक्षा करती रहती।
एक दिन सवेरे उठने पर पता चला, नाना जी इस दुनिया को अलविदा कह गए हैं। बस चुपचाप ही चले गए थे। कोई तकलीफ़ नहीं हुई थी। घर की स्त्रियाँ कहतीं, वे कोई इलाही रूह थे इसलिए फूलों की भाँति चले गए। कुछ महीनों बाद नानी जी भी चलते बने लेकिन वह अन्तिम दिनों में काफी तकलीफ़ में रहे थे। हम बच्चे थे इसलिए सारे घटनाक्रम को देख रहे थे, परंतु उसमें शरीक नहीं हो रहे थे। बस जैसे सब कुछ सहज ही घटित हो रहा था। किसी के जाने से कितनी तकलीफ़ होती है, इसका भी कोई अहसास नहीं था।
ज़िन्दगी गुज़र रही थी। मैंने चूचो के घर जाना बहुत कम कर दिया था। उनके घर की एक बात ख़ास थी कि शाम को उनका एक ट्रक बंगला साहिब गुरद्वारे जाता और वे आसपास के सभी लोगों को ट्रक में बिठाकर ले जाते। मुझे बंगला साहिब जाना अच्छा लगता था। शाम को चूचो आकर मुझे अपने संग ले जाती। मुझे भी लालच-सा हो जाता, पर उसके मामा जी की ओर देखते ही मेरे हाथ-पैर सुन्न-से होने लग पड़ते। मैं हर हालत में उससे दूर ही रहती। उसके घरवाले मेरे साथ बहुत प्रेमपूर्वक व्यवहार करते। मैं सोचती कि इन्हें क्या मालूम कि मेरे साथ क्या हुआ था और मेरे मन पर उसका क्या प्रभाव पड़ा था।
(जारी…)