अँधेरे का गणित
(कहानी पंकज सुबीर)
(2)
ख़ान कब उसके अँधेरों से जुड़ गया था उसे भी नहीं पता। टॉकीज़ में ख़ान से मिलकर आने के बाद अक्सर वो आइने के उस तरफ अनावरित भी नहीं होता था, जैसा आता वैसा ही चादर की सलवटों में समा जाता। सुबह उठकर हैरानी होती आज देह आवरित कैसे है? दरअसल उसके अँधेरों का गणित केवल तीन लोग ही जानते थे, टॉकीज़ वाला ख़ान, उसका दोस्त और आईने के उस तरफ का ‘मैं’ वो भी जब वो अनावरित हो। हाँ किशोरवस्था से भीगा वो चेहरा जो अँधेरी से गोरेगाँव तक उसके साथ जाता था, वो भी तो उसे अपने गणित में शामिल लगता था।
शाम को सी.एस.टी.से लौटती ट्रैनों में इतनी भीड़ होती है कि अपने आप को संभालना ही मुश्किल होता है, दो तीन दिनों में उसे अपने क़स्बे जाना था, इसलिए कुछ ख़रीददारी करने चर्च गेट की फ़ैशन स्ट्रीट गया था, शाम गहरा गई थी स्टेशन पहुँचा तो अँधेरी की ट्रेन जाने में पंद्रह मिनट थे, अचानक वही नज़र आया, शायद ट्रेन की प्रतीक्षा में था। ट्रेन में सवार हुआ तो डब्बा पूरा खाली था, सन्डे को शाम की डाउन ट्रेन में वैसे भी ज़्यादा भीड़ नहीं होती, वो चेहरा भी उसी डब्बे में बैठा हुआ था। जाकर वो उसी के पास बैठ गया, सी.एस.टी.से अंधेरी लगभग आधे घंटे का सफ़र है, उसे लगा कि इतनी देर में वो अपने अँधेरे का हल ढूंढ़ ही लेगा। मस्ज़िद से ट्रेन बढ़ी तो भी पूरे डब्बे में वो दोनों ही थे। वो चेहरा कुछ परेशानी से खिड़की के बाहर देख रहा था। एक सन्नाटा डब्बे में पसरा हुआ था, जब भी वो इधर-उधर देखता तो लगता वो चेहरा कनखियों से उसे ही देख रहा है, उसे यूं लगा कि उस तरफ भी अँधेरे का कोई गणित अवश्य है जो उस चेहरे को यूं परेशान किए हुए है। खिड़कियों के बाहर रात भाँय-भाँय करके जल रही थी, उसे लगा कि यदि आज भी यूँ ही घर पहुँच गया तो आइने के उस तरफ वाला ‘मैं’ उसे रात भर सोने नहीं देगा। परिचय की छोटी सी कील ठोंकते ही उधर का बाँध इस तरह भरभरा के गिर पड़ा मानो इसी की प्रतीक्षा में हो। पता चला उसका नाम तन्मय है, बिहार के किसी शहर से यहाँ काम की तलाश में आया है, गोरेगाँव से आगे किसी चाल में अपनी मौसी के साथ रहता था। काम तो कुछ खास मिला नहीं हाँ मौसाजी ने कहीं और व्यवस्था करने का अल्टीमेटम दे दिया था, इसीलिए सी.एस.टी. गया था वापस घर जाने की व्यवस्था करने के लिए, अभी अँधेरी में जहाँ काम करता है वहाँ से उतना नहीं मिलता कि अपने रहने का बंदोबस्त कर सके। तन्मय उसे रोज़ रात को अंधेरी स्टेशन पर देखता था, बात करने की इच्छा भी होती थी पर स्टेशन की भीड़ भाड़ में मौका नहीं मिल पाता था।
आज पहली बार उसने तन्मय को ग़ौर से देखा, हल्के साँवले चेहरे पर मूछें अभी रोंए की तरह उगना ही शुरू हुईं थीं। किशोरावस्था की छरहरी देह जिस पर साधारण से कपड़े चढ़े हुए थे, पैरों में स्लीपर थी। उसे लगा कि मुंबई के चिपचिपे और भारी वातावरण ने शायद इस चेहरे को थोड़ा छुपा दिया है, इसके पीछे बहुत कुछ है जिसे जिया जा सकता है। तन्मय ने बताया कि वहाँ बिहार में उसका जमा हुआ परिवार है, परन्तु वहाँ उसे अच्छा नहीं लगता था इसीलिए यहाँ चला आया था। उसकी मौसी जब भी बिहार पहुँचती थी, तो मुम्बई के बारे में जिस तरह से बताती थीं, बस उसी से प्रभावित होकर वो यहाँ चला आया था। उसे लगता था मुम्बई में हरेक के लिए कुछ न कुछ अवश्य है। उसने तन्मय से पूछा ‘वहाँ बिहार में तुम्हारा कोई ख़ास दोस्त है?’ एक क्षण के लिए उसे लगा कि तन्मय की आँखों में भी एक अँधेरा ऊग आया है, परन्तु शीघ्र ही बुझ गया वो बोला ‘हाँ वहांँ तो मेरे बहुत से दोस्त हैं, पर यहाँ तो .............?’ उसके अँधेरे अचानक सर पटकने लगे, यूं लगा कि अब ये अँधेरे काबू से बाहर हो रहे हैं। गाड़ी पूरी रफ़्तार से अँधेरी की ओर भागे जा रही थी, खिड़की से बाहर देखता तो उसे लगता भीड़ में कितने ही तन्मय हैं।
आज गाड़ी कुछ ज़्यादा ही तेज़ भाग रही थी, नहीं तो रोज सी.एस.टी.से अँधेरी पहुँचने में कितना समय लगा देती थी? अँधेरी पर जब वो उतरे तो तन्मय की आँखों में कई प्रश्नचिह्न तैर रहे थे। प्लेट फॉर्म पर गोरेगाँव की गाड़ी लगी हुई मिली, पाँच दस मिनट का और साथ बाक़ी था, अँधेरे उस पर जल्द से कोई निर्णय लेने के लिए दबाव डाल रहे थे। थोड़ी देर का सफ़र और था अतः दोनों दरवाज़े पर स्टैंड पकड़ कर खड़े हो गए, एक स्टेशन बीच में आएगा और फ़िर गोरे गाँव आ जाएगा, जब हम समय से उम्मीद करते हैं कि वो धीरे चले, तभी वो सबसे तेज़ चलता है। वो तन्मय का जायजा ले रहा था, क्या वो उसके अँधेरे का गणित हर कर पाएगा? मान भी लिया जाए कि ये हल कर देगा, मगर कौन कहेगा उससे कि ये गणित हल करो? क्या ये अँधेरे के गणित के बारे में जानता भी है? इसकी ही उम्र का तो था वो, जब वो शादी वाली घटना हुई थी, वो तो कुछ भी नहीं जानता था। समय ट्रेन के साथ फिसलता जा रहा था, बस कुछ मिनट और, अगर फ़ैसला नहीं किया तो यहाँ मुंबई में उसके अँधेरे शायद हमेशा के लिए अनसुलझे रह जायेंगे।
गोरे गाँव स्टेशन की लाइटें नज़र आने लगी थीं उसने तन्मय से कहा ‘अभी वापस बिहार मत जाओ, मैं यहाँ गोरे गाँव वाले फ़्लैट में अकेला रहता हूं, तुमको केवल रहने की ही तो समस्या है, तुम मेरे साथ रह लेना, तीन दिन बाद पंद्रह अगस्त की छुट्टी है, तुम अपना सामान लेकर मेरे घर आ जाना।’ इसी बीच वह मन ही मन क़स्बे की अपनी प्रस्तावित यात्रा रद्द कर चुका था। स्टेशन पर उतरते उतरते उसने तन्मय को अपना कॉर्ड दे दिया।
स्टेशन के बाहर पोस्टर पर ख़ान अर्ध अनावरित खड़ा था,पर आज वो वहाँ नहीं रुका। उस रात आइने के उस तरफ़ का ‘मैं’ जब धागों के ताने बाने से बाहर आया तो देह की देहरी पर किनारे किनारे कुछ जगमगाता सा नज़र आ रहा था। मौसम जिस्म की पगडंडियों पर बंजारों की तरह फिर रहा था। पैर गीली रेत पर निशान बनाने लगे थे, आज जब आइने के उस तरफ अँधेरों को छुआ तो लगा बहुत ज़ुल्म हो चुका है इन पर, कितने दिनों से ये सन्नाटे की चादर ओढ़े ख़ामोश खड़े हैं, जो उसने आज किया वो कभी भी कर सकता था, ये अँधेरे अगर सदा के लिए ख़ामोश हो जाते तो क्या होता? एक चिंगारी प्यास के काँटों के लिए बहुत है। शायद छः महीने पहले वो क़स्बे गया था, जब अँधेरों ने बरसाती पानी के सोंधेपन को महसूस किया था, तब से फ़िर वही बिखराव था। आईने के उस तरफ का ‘मैं’ आज शायद बहुत उत्कंठित था बार बार होंठो पर ज़बान फेरता था शायद उसका गला सूख रहा था। उतरते हुए रास्तों के मोड़ पर जाने क्या था जो चादर की सलवटों की छुअन से पानी पानी हो रहा था। आज वो चाह रहा था कि या उसका दोस्त या ख़ान कोई भी आईने के उस पार आ जाए, बहुत कोशिश की पर कोई नहीं आ रहा था, आज अँधेरे भी ज़्यादा चीख नहीं रहे थे, ये ख़ामोशी कैसी है? कुछ समझ नहीं आ रहा। घबरा कर उसने आईने के तरफ वाले ‘मैं’ की तरफ पीठ कर ली, उसकी चुप्पी उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। सामने दीवार पर एक मकड़ी अपने ही जाल में फँसी हुई थी, पर वो जानता था कि मकड़ी की मानसिकता ही फँसे रहने की है, इसीलिए वो फंसी हुई है, नहीं तो अपने ही बनाए जाल को तोड़ना उसके लिए कोई मुश्किल काम नहीं है, उफ़्फ़ ये क्या सोच डाला उसने।
सुबह उठा तो कुछ अच्छा लग रहा था, हालाँकि अँधेरे सुलगे तो नहीं थे, मगर राख भी नहीं हुए थे। मुंम्बई की सुबह इतनी तेज़ गति की होती है कि अगर आप जरा भी सुस्त हुए तो अपने को दोपहर की बांहों में पड़ा पाओगे। आज तो कुछ देर भी हो गई थी, बस से स्टेशन जाना और देर कर सकता था, चौराहे से आटो पकड़ कर स्टेशन पहुँचा और समा गया उस रेले में जो जाने कब से, किस कारण जाने किस दिशा में बहा चला जा रहा है। वही बुझे बुझे चेहरे, मछली की टोकरियाँ, सड़ी हुई गर्मी....उफ़्फ़ ये लोग इतने बुझे से क्यों हैं? क्या उसकी तरह इनके भी कोई गणित हैं? जो अनसुलझे हैं। लोकल ट्रेन में सुबह की यात्रा का सबसे बड़ा कष्ट ये होता है कि भीड़ के कारण आप अंदर तो देख नहीं सकते, और सुबह सुबह ट्रेन के बाहर पटरियों के किनारे जो होता है वो देखने लायक नहीं होता। रोज़ वो भीड़ में से किसी को भी छाँटकर मन ही मन अपने अँधेरे का हिस्सेदार बना लेता था, और फिर सी.एस.टी.तक उसी से उलझा रहता, स्टेशन पर उतरकर उस हिस्सेदार को भुलाकर चल देता, पर आज उसने ऐसा कुछ नहीं किया, क्या ऐसा तन्मय के कारण हुआ था? तन्मय को लेकर वो भ्रम ही पाल रहा था क्योंकि जब उसने तन्मय के सामने वह प्रस्ताव रखा था, तब तन्मय ने कोई जवाब नही दिया था, और फिर तन्मय तो घर वापसी की व्यवस्था करने सी.एस.टी गया था, मात्र रहने का ठिकाना मिल जाने से क्या वो अपना इरादा बदल लेगा? हो सकता है वो वापस बिहार चला भी गया हो।
दफ़्तर से लौटते में जब अँधेरी स्टेशन पर उतरा तो तन्मय कहीं नज़र नहीं आया, वो बुक स्टॅाल के पास जाकर खड़ा हो गया, सामने गोरेगाँव की लोकल ट्रेन धीरे धीरे सरक रही थी, तन्मय उसमें भी नज़र नहीं आ रहा था। जब आप किसी के आने की उम्मीद करते हैं, तो आपका अन्दर खुद ही दो हिस्सों में बट जाता है, एक इधर उधर उम्मीद से देखता है दूसरा कहता है व्यर्थ है वो नहीं आएगा। तीन लोकल ट्रेनें निकल चुकी थीं, अब और खड़ा रहना असंभव था। गोरेगाँव पर उतरा तो बाहर ख़ान उसी अवस्था में खड़ा था, आज वो ख़ान की रोमरहित देह में उलझता, पर आज तो वैसे ही देर हो चुकी थी। शास्त्री नगर की सड़क पर से सारे स्टार्स गुज़र चुके थे, आज तो ख़ान के भी यहाँ मिलने की उम्मीद नहीं थी।
घर पहुँचा तो पैरों से कुछ टकराया, उठाया तो वही माँ का पत्र था, खोलने की तो आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि अंदर तो वही सब कुछ होगा, माँ और उसके उजालों का गणित, क्या अँधेरों में रहने वाला उजालों के गणित को हल नहीं कर सकता ? और वैसे भी, अब उसके अँधेरे तो यूं ही अनसुलझे पड़े रहते हैं। एक गिलास पानी पिया, खाना खाने या और कुछ करने की तो अब इच्छा भी नहीं थी। कमरे में आकर सबसे पहले लाइट बंद की आज आइने के उस पार के ‘मैं’ से नज़र मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। थोड़ी आँख लगी तो लगा माँ आकर सिरहाने बैठ गई है, उसके हाथों में एक उजाला है। निःशब्द उसे ही देख रही है, फिर चुपचाप उस उजाले को उसकी चादर में रखकर बोली ‘कब तक भागता रहेगा इस अँधेरे में, देख कैसा उजाला लाई हूं मैं तेरे लिए’ वो उजाला उठा और उसके साए से लिपट गया और उसे लेकर आसमान पर उठता चला गया, ऊपर बहुत ऊपर और फिर एकदम से उसका साया टूटा और उल्का की तरह गिरा, नीचे धरती पर टकराया और बिखर गया।
वो सोच रहा था, उसने क़स्बे जाने का कार्यक्रम नाहक ही रद्द कर दिया, कम से कम वहाँ तो इन अँधेरों को मुक़ाम मिल ही जाता है। एक उम्मीद पर तन्मय के कारण बेकार ही ये सब किया, कभी कभी वो सोचता है वहाँ क़स्बे में क्या वो उसका दोस्त भी अपने साए के साथ, उसकी तरह ही प्यास के सूखे सूखे सावन लिए फिरता है? उसके दोस्त ने कभी नहीं बतलाया कि उसके मुंबई जाने के बाद वो चिंगारियों के बादल किस पर्वत पर रखता है? या फ़िर उसके बादल भी यूं ही आवारा फिरते हैं उसके मुंबई से लौटने तक? कभी कभी उसे डर लगने लगता है, कहीं उसके दोस्त ने नए मरुस्थल ढूंढ लिए तो उसके अँधेरों का क्या होगा? यहां मुंबई में तो किसी को फ़ुरसत ही नही है, नहीं तो उसने भी अभी तक तो अपने अँधेरों के सवाल का कोई मुँहतोड़ जवाब तो ढूँढ ही लिया होता। फिर वहां क़स्बे में एक तो समय मेड़ पर ऊगी घांस की तरह होता है, जब चाहे जितनी चाहे काट लो, और यदि समय हो तो ही दिमाग में योजनाऐं जन्म लेती हैं। दूसरा वहाँ क़स्बे में अधिकतर अँधेरे के इस गणित को जानते हैं। और इसे हल करना भी जानते हैं फिर क्या वजह है इसकी कि उसका दोस्त उसके मुंबई से लौटने तक अपने अँधेरों को चांदनी से बचाता फिरे, आख़िर को यदि ख़ान उसे मिल जाए तो क्या वो अपने दोस्त को याद रख सकेगा? और फिर हर एक के अपने अपने ख़ान होते हैं,क्या उसके दोस्त ने अभी तक अपने लिए कोई ख़ान नहीं ढूंढा होगा? उसका दोस्त उजालों के गणित में भी तो फँस सकता है, नहीं ऐसा नहीं हो सकता, अगर उसका दोस्त उजालों का गणित हल करने में लग गया तो फ़िर ये अँधेरे ? उफ़्फ़.... वो मुंबई आया ही क्यों?
क्रमश...