Andhere ka ganit - 3 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

अँधेरे का गणित - 3 - अंतिम भाग

अँधेरे का गणित

(कहानी पंकज सुबीर)

(3)

आज फ़िर वो सी.एस.टी. की आरक्षण कतार में था, अभी दो रोज़ पहले ही तो उसने यहाँ आकर क़स्बे का रिज़र्वेशन रद्द करवाया था, पर तन्मय तो जा चुका था, यहाँ रुककर वो अपने अंधेरों का आख़री ठिकाना खत्म नहीं करना चाहता था, वो जल्दी से जल्दी भाग जाना चाहता था यहाँ से। दो दिन से रोज़ अँधेरी स्टेशन पर रातें बुझती देखीं थी उसने, पर तन्मय का कुछ पता नहीं चला था, शायद वो वापस जा चुका था। ग़लती भी तो उसी की थी, क्यों उसने सी.एस.टी से गोरेगाँव तक अपना प्रस्ताव नहीं रखा था, रखा भी, तो गोरगाँव स्टेशन पर कूदते कूदते, जिसका जवाब कुछ भी नहीं आया था। इस प्रस्ताव पर बहस हो जाती तो शायद कुछ परिणाम निकल आता, ये भी तो हो सकता है, तन्मय सोच रहा होगा कि फ़्लैट के साथ उसे किराया भी शेयर करना पड़े, शायद यही सोचा होगा उसने, नहीं तो मुंबई में रहने की व्यवस्था अगर हो जाए तो जीने की पचहत्तर प्रतिशत व्यवस्था तो हो ही जाती है। जाने क्यों ऐसा लगता था मानो तन्मय अँधेरे के इस गणित से भली-भाँति परिचित है, कहीं ऐसा तो नहीं कि तन्मय उसकी आँखों में अँधेरों का धुँआ देखकर डर गया हो और नहीं आया हो, उफ़्फ़ कहाँ छुपाए इन्हें हल भी ढूंढते हैं और फुंफकारते भी हैं।

पन्द्रह अगस्त का ही रिजर्वेशन मिला था उसे, चलो ठीक है, एक ही दिन की तो बात है कल बैठेंगे तो परसों अपने ठिकाने पहुंच जाऐंगे। अँधेरी की लोकल में बैठा वो सोच रहा था अगर आज तन्मय मिल गया तो? पर आज तो उसे रिजर्वेशन के चक्कर में बहुत रात हो गई है ये तो फ़िज़ूल की संभावना है। अँधेरी पर उतरा तो न चाहते हुए भी नज़र इधर उधर घूमने लगी, घर जाकर कौन खाना बनाएगा, यहीं कुछ खा ले, पर उसके अंदर कोई कह रहा था, खाने के बहाने इंतज़ार की फ़सल फिर काट रहे हो।

दूध ब्रेड वाले ने आवाज़ लगाई तो सुबह का सन्नाटा टूटा, रात का अनावरण जल्दी से ख़त्म किया कभी कभी उसे लगता है ये दूध वाला दरवाज़े की दरार से उसका अनावरण देखता तो नहीं है, रोज़ दूध देते समय अजीब तरह से मुस्कुराता है। बाहर देखा तो छोटे छोटे बच्चे हाथों में तिरंगा लिए जा रहे हैं, उसे याद आया आज तो स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती है। अंदर आकर लेट गया, आज तो दफ़्तर जाना नहीं है और फिर ट्रेन भी शाम की है, आराम से तैयारी कर लेगा। इस बार क़स्बे में माँ के उजालों के प्रस्ताव से निर्णायक सामना करना है, यह तो तय ही है, जाने क्यों उसे लगने लगा था कि अब सब कुछ ख़त्म होने वाला है, जिस परेशानी का सामना वो कर रहा है शायद वही उसके दोस्त के सामने भी आ रही होगी। उसे भी उजालों के प्रस्तावों से उलझना पड़ रहा होगा। इधर ख़ान भी पोस्टरों की दुनिया से बाहर आने को तैयार नहीं हो रहा था, तन्मय एक उम्मीद की तरह नज़र आया था तो वो भी जा चुका था। अब रह गए थे वो दोनों एक तो वह ख़ुद और दूसरा आइने के उस तरफ का ‘मैं’, दोनों असंतृप्त क्षुधा के दो किनारों पर हैं जिनके एकाकार होने की कोई संभावना नहीं है। और अगर एक ख़ामोशी में दूसरी ख़ामोशी समा भी जाए तो परिणाम तो ख़ामोशी ही होगी।

अगर क़स्बे में उसका दोस्त भी इस बार अँधेरों से भागता नज़र आया तो शायद फिर वो कभी वहाँ नहीं जाएगा, यहीं रह जाएगा मुंबई में, तोड़ देगा इस आईने को जिसके उस पार से ये अँधेरे उसे परेशान करते हैं। फिर न कोई अँधेरा होगा, और ना कोई उजाला, छोड़ देगा ज़िन्दगी को महानगर में बहते इस इंसानी रैले में जो रोज़ उसे घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर तक बहाता रहेगा।

बाहर बारिश शुरू हो चुकी थी, शोर से अनुमान हो रहा था कि काफी तेज़ बारिश हो रही है, छुट्टी और बारिश केवल आलस को बढ़ाने के लिए ही मिलते हैं। बारिश की रफ़्तार बढ़ती जा रही थी, अचानक घंटी बजी, दरवाज़ा खोला तो लगा बरसात में चमकने वाली सौदामिनी कड़कड़ाते हुए उसके दरवाज़े पर आकर गिर गई है। बाहर तन्मय खड़ा था, सर से पांव तक तरबतर, हाथ में एक अटैची कंधे पर बैग और शरीर के कोने कोने से बूंदें रिस रहीं थीं, स्तब्धता की अवस्था बारिश के शोर को नगण्य करते हुए दोनों के बीच बह रही थी। उसने तन्मय का हाथ पकड़ कर अन्दर खींच लिया। सामान रखने के बाद तन्मय ने बताया कि उस दिन घर पहुँचा तो मौसाजी ने उसका सामान बाँध दिया था, आपने पन्द्रह अगस्त को आने को कहा था इसीलिए तीन दिन तक प्लेटफार्म पर ही ठिकाना बना लिया था। मुंबई में फ़्लैट एक कमरा, किचन व टॉयलेट को ही कहा जाता है, एक ही कमरा था, भीगा हुआ तन्मय असहज महसूस कर रहा था अतः उसने तन्मय को टॅावेल देते हुए कहा ‘पूरे भीग गए हो, जाओ बाथरूम में जाकर नहा धो कर कपड़े बदल लो, मैं चाय बनाकर लाता हूं।’ चाय बनाते हुए वो सोच रहा था अब रिजर्वेशन का क्या करूं ? चलो जाने दो फ़िर कैंसिल करते हैं क़स्बे जाने का प्रोग्राम। चाय लेकर कमरे में आया तो तन्मय नहा धोकर आ चुका था, तीन दिनों में प्लेटफॉर्म पर जो गर्द जम गई थी वो धुलने के बाद तन्मय का जो रूप सामने आया था वो शायद वो पहली बार देख रहा था।

उस दिन रात का इन्तज़ार बहुत भारी हो गया था, दिन भर बारिश होती रही, तन्मय ने अपने बारे में काफ़ी कुछ बता दिया था। रात गहराने लगी थी, खाने से निपटकर वो दोनों सारा काम निपटाते रहे, पता ही नहीं चला कब ग्यारह बज गए। बिस्तर पर पहुँचे तो लगा तन्मय कुछ तनाव में है, कुछ है जो वो कह नहीं पा रहा है। अर्ध अनावरित से लेटे लेटे दोनों बहुत सी बातें करते रहे,वो समझ नहीं पा रहा था कहां से शुरू करे? आईने के उस तरफ का ‘मैं’ कुछ क्रोधित नज़र आ रहा था शायद उसे डर था कि कुछ शुरूआत नहीं हो पाएगी। अँधेरे छटपटाने लग गए थे, तन्मय बातें करते करते चुप हो गया था, और आँखें बंद कर जाने क्या सोच रहा था। आईने के उस तरफ अब उसके लिए व्यंग्य और तिरस्कार का भाव छाया हुआ था,अचानक तन्मय उठा और कमरे में जल रहे बल्ब को बंद करके वापस अपनी जगह पर आकर सो गया, कमरे में अंधकार का साम्राज्य पसर गया इतना कि आईने के उस तरफ का ‘मैं’ भी ख़ामोश हो गया। अंधकार और सन्नाटे में कौन ज़्यादा गहरा था कुछ पता नहीं चल रहा था, वो जो शुरू होना था उसकी हिम्मत वो नहीं कर पा रहा था, पलकें धीरे-धीरे बोझिल हो रहीं थीं, शायद नींद अपना प्रभाव दिखाने लगी थी। आईने के उस तरफ का ‘मैं’ अगर अंधकार में नहीं खोता तो भी वो थोड़ी हिम्मत कर लेता, पर यहाँ तो उसकी हौसला अफ़ज़ाई के लिए कोई नहीं था।

नींद की गलियों में वो कुछ दूर ही पहुंचा था कि लगा उसका अनावरण पूर्ण हो चुका है। सरगोशियाँ मरुस्थल में आँधी की तरह उड़ने लगीं, उसे आईने के उस तरफ के ‘मैं’ की फ़िक़्र थी, उसने हाथ बढ़ा कर लाइट चालू की तो, उसका सपना चादर पर रेत की तरह बिखरा पड़ा था, आज आईने के उस तरफ सचमुच दो अनावरण हो चुके थे। आईने के उस तरफ का ‘मैं’ विजयी भाव से मुस्कुरा रहा था। उसने आइने के ‘मैं’ को अलविदा कहा और लाइट को बंद कर दिया। एक छुअन आँधी की तरह आकर उसके साए से टकराई और उसे लगा उसका फ़्लैट छतविहीन हो गया है, बाहर की घनघोर बारिश यहाँ कमरे में भी बरसने लगी है, उसकी देह का कोना कोना एक बादल में समाता जा रहा था, एक अंजान पल वक्त के हाथों से फिसल कर भागने के लिए बैचेन हो रहा था। एकाएक सन्नाटा छा गया, वो बादल पर्वत के साए में पसरा मानो किसी आँधी की प्रतीक्षा करने लगा उसने बादल को हाथों में थामा और अपने साए को बादल की परछाइयों के हवाले कर दिया, उसका साया बादल के अँधेरों में दौड़ने लगा। शायद पृथ्वी रुक गई थी, बाहर बारिश भी बिल्कुल थमी सी लग रही थी, सारी मुंबई निःशब्द लग रही थी, उसका साया बादल के अँधेरों में दौड़ता जा रहा था। मरुस्थल में रेत के टीले लेकर उड़ रहीं आँधियाँ अपनी रफ्तार के कारण दीवानों सी सनसना रहीं थीं। वस्त्र हीनता दौड़त दौड़ते अचानक भारहीनता में बदल गई। और बादल के अँधेरों में समाती चली गई, फिर वही सन्नाटा छा गया, दोनों अनावरण ख़ामोश पड़े हुए थे।

तन्मय शायद सो चुका था, सिगरेट सुलगा कर वो सोचने लगा कि कुछ देर पहले जो भूकंप आया था, उसका परिणाम क्या हुआ, हाथ बढ़ाकर उसने लाइट को चालू कर दिया, आईने के उस तरफ दो अनावरण स्पष्ट नज़र आ रहे थे, उस तरफ का ‘मैं’ कुछ उलझन में था अचानक उसे लगा तन्मय में ख़ान ऊग आया था, पूर्ण अनावरित ख़ान उसकी तरफ़ हसरत से देख रहा था, उसने तन्मय में उगे हुए ख़ान को छुआ तो तन्मय ने आँखें खोली, उसने आंखें बंद कर ली। कुछ ही देर में उसे लगा कि वो मरीन ड्राइव के समुद्र किनारे की चट्टान बन गया है और समुद्र की लहरें पूरी गति से दौड़ती हुई उससे टकरा रही हैं उसने आँखें खोली तो देखा ख़ान कोहरे की तरह छाया हुआ है, उसे बहुत पुराने गीत की पंक्तियाँ याद आ रही थीं ‘तुम प्रलय के देवता हो मैं समर्पित प्राण हूं’। तन्मय में ऊगा ख़ान साकार और निराकार के प्रश्न में उलझा हुआ था, उसने लाइट को फिर ऑफ़ कर दिया, अब ना वो था, ना ख़ान था, ना तन्मय, बस एक अँधेरा था, एक साहिल था और एक बंजारा जो साहिल की गीली रेत पर अपनी उँगलियों से कुछ लिख रहा थ। उसके अँधेरों में एकाएक आहट सी हुई कोई उस अंधेरी देहरी में झांक रहा था, अँधेरों की सीलन सुलगने लगी थी, तन्मय में ऊगा ख़ान अपनी जलती देह लेकर उसके अँधेरों में समा गया, अंधेरे सुलगते जा रहे थे, अनावरित तन्मय समुद्र की लहरों में बदल गया था, एक लहर आँधी का सहारा लेकर उठी और उठती गई और मरीन ड्राइव की चट्टानों से टकराकर बिखर गई, उसे लगा कमरे में रखा आईना फूट गया है और उसकी किरचें उसके अंधेरों में बिखरती जा रही हैं। निःशब्दता में केवल तन्मय की सांसें गँॅूज रही थी, तन्मय में ऊगा ख़ान उसके अँधेरों में बिखर गया था।

रात भर एक धुँआ कोहरे के साए में लिपटा सोता रहा। मोबाइल की घंटी ने सुबह उसे उठाया देखा तन्मय सो रहा है उसी अनावरित अवस्था में। मोबाइल उठाया तो क़स्बे से उसके दोस्त का फोन था, कह रहा था उसकी शादी तय हो गई है वो समय से आ जाए, और भी जाने क्या क्या बोलता रहा था वो, मगर उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। कुछ देर बात करने के बाद उसने मोबाइल बंद कर दिया और स्विच ऑफ़ भी। लौटा तो देखा तन्मय उसी प्रकार सो रहा है, चुपचाप, वो फ़िर बिस्तर पर बैठ गया, आईने के उस तरफ का ‘मैं’ नज़र नहीं आ रहा था, शायद अब वो भी अब उसके दोस्त की तरह नज़र नहीं आएगा। शरीर से लिपटे टॉवेल को उसने अलग किया और तन्मय के पास जाकर लेट गया, तन्मय ने आँखें खोलीं और उसके अनावरित अँधेरों की ओर देखा, तन्मय में फिर ख़ान ऊगने लगा, कोहरा फिर छाने लगा था वो फिर से एक नए सफ़र पर निकल पड़ा था, अपने दोस्त के साथ जो मंज़िलें उसने तय की थीं उससे भी आगे उसे जाना है, तन्मय के साथ। उसके दोस्त ने उसका साथ दस वषरें तक दिया था, तन्मय से भी इतनी ही उम्मीद करें तो अगले दस वषरें तक वो बेफ़िक्ऱ हो सकता था। ख़ान इतने गहरे कोहरे में बदल गया था कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था, उसके अँधेरे फ़िर सुलग रहे थे, आइने के उस तरफ मरीन ड्राइव की चट्टानों से टकराता समुद्र साफ दिख रहा था। अब शायद वो क़स्बे कभी नहीं जाएगा उसे अँधेरों के गणित का एक और अस्थायी हल मिल गया था, अंधेरे बर्फ़ की आंच से सुलगते जा रहे थे, दूध वाला दरवाज़े की दरार पर आँखें लगाए समझने का प्रयास कर रहा था अंधेरे के गणित को।

-:(समाप्त):-

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