अँधेरे का गणित
(कहानी पंकज सुबीर)
(1)
मुँबई जैसे महानगर में जहाँ लोकल ट्रेनें सुबह, दोपहर, शामें अपनी पीठ पर ढोती हैं। वो भला क्या कर रहा है? आईना उससे झूठ बोलता है या सच, कुछ पता नहीं पर आईना प्यास को बुझा नहीं पाता है। गोरे गाँव पश्चिम में शास्त्री नगर के जिस फ़्लैट में वो अपनी प्यास की चिंगारियों के साथ रात गुज़ारता है, वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है जो ख़ालीपन के अँधेरे में समा जाए। मुंबई में काम करने वालों के लिए सुबह से शाम तक तो कुछ भी अपना नहीं है, बस एक रात होती है जब कुछ गणित सुलझाए जाते हैं। पर अकेलेपन के भी भला कोई गणित होते हैं। न कुछ जोड़ सको न कुछ घटा सको। दफ्तर से सी.एस.टी. और सी.एस.टी से अँधेरी, अंधेरी से ट्रेन बदलकर गोरेगाँव और गोरेगाँव में वही फ़्लैट, वही आग, वही सन्नाटा। जब बिस्तर पर पहुँचता तो सामने आईने में नज़र आती अपनी निर्वस्त्र देह के किनारे उसे सुलगते हुए नज़र आते। वो सोचता कि प्रतिबिम्बों को परिभाषा से परे नहीं किया जा सकता क्या? वो जो वहाँ आइने के उस तरफ दूसरा ‘मैं’, सो रहा है वो यहाँ आकर मेरे गणित को पूरा नहीं कर सकता क्या? आइने के उस तरफ़ की देह को देखता तो उस अंधेरे पर नज़र अटक जाती, जहाँ एक गणित रखा हुआ हल होने की प्रतिक्षा करता नज़र आता था। फ़िर दूसरा दिन और कपड़ों में उसी गणित को छुपाए लोकल ट्रेन पर सवार हो जाता।
बचपन और जवानी, हालाँकि फ़ासला ज़्यादा नहीं होता पर परिभाषाओं में ग़ज़ब का परिर्वतन आ जाता है, और फ़िर वो तो मुंबई जैसा महानगर भी नहीं था एक छोटा सा क़स्बा था, जहाँ उसका सबसे पहले अँधेरे के इस गणित से परिचय हुआ था। किसी दोस्त के भाई की बारात में गया था वो। रात को शादी के कार्यक्रम से निपट कर जब सोने वाली जगह पर पहुंचा तो देखा दूल्हे के चार-पाँच दोस्त बैठकर कुछ पी रहे हैं, उसे देखकर उनमें से एक बोला ‘ऐ छोटू आज थोड़ी तू भी ले ले’। शराब समझकर वो थोड़ा झिझका मगर इतनी देर में ही दूसरा बोला था ‘अरे ये शराब थोड़े ही है ये तो बीयर है।’ उफ़्फ़ कितना तीखा स्वाद था उस मटमैले पानी का। कितनी पी थी ये तो याद नही पर हाँ इतना याद है वो बेसुध होकर बिस्तर पर गिर गया था। रात को अचानक लगा कि उसकी देह अनावरित हो गई है, फिर एक दम यूँ लगा कि पसलियाँ टूटने लगी हैं, सांसें उखड़ने लगी हैं। ऐसा लग रहा था मानो बर्फ़ीली चिंगारियाँ उसके बदन में समाती जा रही हैं। फ़िर अचानक सब कुछ शांत हो गया, कुछ देर बाद फ़िर वही, फ़िर वही, रात भर ये सिलसिला चलता रहा। कुछ नशा था और कुछ अँधेरे के इस गणित से अनभिज्ञता, वो समझ नहीं पा रहा था कि उसके साथ हो क्या रहा है। हर एक दौर के बाद एक और दौर, वही पसलियों के चटखने की आवाज़, वही सांसों का उबलना और फिर वही ज्वालामुखी सा कुछ फट पड़ना। हर बार वह क्या पिघल रहा है, क्या ज्यादा शराब के कारण ये हो रहा है?
सुबह उठा तो वही अनावरित अवस्था थी, रात के नशे और उस झंझावत ने सब कुछ तो तोड़कर रख दिया था। क्षितिज के उस पार दर्द इस तरह से चीत्कार कर रहा था मानो मृत्यु से साक्षात्कार कर लिया हो। सामने वही पँाच साए खड़े मुस्कुरा रहे थे, पर वो मुस्कुरा क्यों रहे थे ? उसकी अनावृत अवस्था पर ? आख़िर किस तरह का अनावरण था ये? लौटते समय बस में उसने दोस्त को रात की बातें बताई तो दोस्त भी मुस्कुरा दिया कहने लगा ‘ये कोई बड़ी बात नहीं है घर चल फ़िर कभी आराम से समझा दूंगा।’
बहुत दिनों तक फ़िर वह उसी उलझन में रहा, क्या था वो सब ? अचानक एक दिन दोस्त आया कहने लगा ‘चल घर, तुझे उस रोज़ की बात समझाऊं।’ माँ से उस रात दोस्त के यहाँ रात रुककर पढ़ाई करने की बात कहकर वो चला गया। उस रात दो अनावरण हुए, पर आज ना तो पसलियां चटख रहीं थीं, न ही सांसें उखड़ रहीं थीं, एक भार हीनता थी जो वस्त्रों के जंगल से बाहर आने पर महसूस हो रही थी, उसका दोस्त कोहरे की तरह छाया हुआ था। उसके अंदर भी कुछ उगने लगा था, कुछ ऐसा जो उसे कोहरे में धुंऐ की तरह बिखेरने लगा था। एक कोहरा और धुँआ इस तरह गुंथे हुए थे मानो भौतिक शास्त्र के उस सिद्घांत को आज ही निरर्थक साबित करना है, जिसमें कहा जाता है कि ‘विपरीत ध्रुवों में ही सदा आकर्षण होता है’। अचानक कोहरे के इशारे पर धुंऐ के मौसम बदले और एकाएक फ़िर वही हुआ। वही अछूत अँधेरा फिर चिन्गारियों से सुलगने लगा, शादी वाली घटना में आग में प्रचंडता थी पर यहाँ की आग ठंडी थी बर्फ़ की तरह। जलते-जलते अचानक अँधेरों में एक सन्नाटा टूट कर गिरा और वही मौन वही निःस्तब्धता। कुछ देर तक शांति रही उसे सब कुछ अच्छा तो लगा था पर फ़िर भी कहीं कुछ अधूरापन सा लग रहा था, थोड़ी देर को आँख लगी तो यूं लगा कोहरा फिर छाने लगा है, धुँऐ की बारिशों की परछाइयाँ फिर से जागने लगीं इस बार कोहरा कुछ बोझिल सा था। अचानक उसके दोस्त ने हाथ पकड़ कर उसे अँधेरे की एक देहरी दिखलाई, उसे यूँ लगा कि शायद इस देहरी के उस पार ही ‘वो’ है जिसकी तलाश उसे है। उसके शरीर के रोंऐ खड़े हो गए थे गला सूखने लगा था, क्या है भला इस देहरी में? और कोहरा आंखे मूंदकर निर्लिप्त भाव से किसकी प्रतीक्षा कर रहा है? उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस अँधेरी देहरी का वो क्या करे? अचानक कोहरे ने फिर उसके बर्फ़ीले साए को छुआ और अपनी देहरी पर रख दिया, अँधेरे फिर सुलगने लगे पर इस बार अँधेरे उसके नहीं थे उसकी केवल चिंगारियाँ थीं। जाने कैसी आंधी थी, धुंऐ को कोहरे में इस तरह उड़ाए लिए जा रही थी कि पता ही नहीं चल रहा था कहाँ धुआँ है और कहाँ कोहरा। एकाएक धुँऐ ने उठकर आसमान को छुआ और रेत की तरह कोहरे की ज़मीन पर बिखर गया, उसका बर्फ़ीला साया जब अँधेरे की दहलीज़ से लौटा तो अँधेरे का नया गणित सीख चुका था।
उसके बाद उसने कई बार अपने दोस्त के साथ अँधेरे के इस गणित को हल किया, एक सरल और सीधी प्रक्रिया। न कोई रोक टोक न कोई बंदिशें। जब चाहो अपने क्षितिज बना डालो। अपने दोस्त के साथ मिलकर उसने अँधेरे की कितनी ही पहेलियों को हल किया, उफ़्फ़ कितनी भूल भुलय्याऐं हैं अँधेरे के इस गणित में। बर्फ़ीली चिंगारियों के इस ख़ामोश सफ़र को उन्होंने कितनी बार तय किया ? कुछ याद नहीं, पर कितनी अलग-अलग राहें थीं जो अंधेरे की दहलीज़ से शुरू होती थी और यहीं ख़त्म हो जाती थीं। अपनी प्यास के टूटे हुए टुकड़ों को इस देहरी का रास्ता दिखा देना कितना आसान हो गया था, उसके अँधेरे भी अब चिंगारियों की प्रतीक्षा में रहते थे, लाल सुनहरी, गुलमोहर के फूलों सी चिंगारियाँ जब उसके अँधेरों को छूतीं तो लगता कि उसकी दहलीज़ भी सुनहरी हो गई है। उधर जीवन भी अपनी रफ़्तार से दौड़ रहा था, वही ढर्रा, स्कूल, कॉलेज, नौकरी वही सब। नौकरी के लिए क़स्बा छोड़ कर मुंबई जाने तक उसका साथी वही था जिसने उसे अँधेरों का गणित हल करना सिखाया था। पर मुंबई जाकर उसके अँधेरों का क्या होगा, यह एक प्रश्न चिह्न ही था।
गोरे गाँव मुंबई का एक ख़ूबसूरत उपनगर है, जहाँ प्रदूषण कुछ कम है, नारियल के बड़े बड़े पेड़ और रिहायशी कॉलोनियों के बीच खेल के मैदान बने हुए हैं। रविवार के दिन जब वो, अपने फ़्लैट की खिड़की से मैदान में खेल रहे लड़कों को देखता तो सोचता इनमें से किसी से भी अपने गणित को हल करवा लिया जाए। पर वो जानता था कि ये गणित सभी को हल करना नहीं आता है, और यदि कोई आकर इस गणित के चक्कर में उलझ गया तो उसके लिए और मुश्किल खड़ी हो जाएगी। कितने अकेले रह गए थे उसके अँधेरे, इन दो सालों में उसके अंधेरे तभी आँखें खोलते थे जब वो अपने क़स्बे जाता, जाते ही सबसे पहले अपने अंधेरे को उस साए के हवाले कर देता और आँखें बंद करके रुह में समाती हुई शबनम की आँच को महसूस करता।
पर आख़िर को वापस मुंबई आना पड़ता। वही मुंबई, वही गोरेगाँव, जहाँ ना कोई अंधेरा था ना ही कोई साया, बस एक छटपटाहट थी, वो चाहता था कोई आवाज़ हो जो उसकी निःशब्दता में गूँज जाए, पर यहाँ ऐसा कुछ नहीं था जो अपनी छुअन से चांदनी को अंधेरे की पलकों पर लाकर रख दे। एक साया जो बिना आहट चुपचाप आकर उसके अंधेरों में समा जाए और रेत की तरह बिखर जाए.....। पर यहाँ ऐसा कुछ भी तो दिखाई नहीं देता। आईने के उस तरफ वही एक ‘मैं’ं था, निर्वस्त्र, दिशाहीन सा लेटा हुआ और जिस्म के किनारे-किनारे थक कर ऊंघते हुए वही अंधेरे थे, जिस्म की पगडंडियाँ देखने में कितनी सहज होती हैं पर चलने में कितनी मुश्किल। शायद ये रात भी इसी गुज़र जाएगी।
जिस्म के उस पार मेज़ पर नीला क़ाग़ज़ फड़-फड़ा रहा था, हमेशा की तरह वही मां का पत्र था शादी के लिए, ...शादी ? क्यों हाँ कर दे उस काम के लिए जो उसके लिए असंभव है, अभी तक जीवन में केवल अँधेरे का गणित ही हल किया है फ़िर कैसे सुलझा सकेगा उजाले की पहेली को, उसे तो कुछ भी नहीं आता, और यदि फिर उजाले आ गए तो फिर उसके अंधेरों का क्या होगा ? नहीं, कभी नहीं, वो उजालों के इस खेल में शामिल नहीं हो सकता। मगर अँधेरे का ये गणित तो अब अनसुलझा ही रहता है, कौन है इसे सुलझाने वाला? शादी कर ली और अँधेरों में रहने की आदत नहीं गई तो फिर क्या होगा? फिर न तो अँधेरे उसके रहेंगे और उजाले तो उसके हो ही नहीं सकते, ऐसे में कहाँ जाएगा वो? नहीं शादी तो वो कर ही नहीं सकता क्योंकि तब उसके अँधेरे अपने सन्नाटों के साथ कहीं भटक जाऐंगे, और आने वाले उजाले अपनी प्यास की उदासियाँ लेकर ख़ामोशियों की चादर के सिरहाने बैठे सिसकते नज़र आऐंगे। घबरा कर वह बिस्तर पर बैठ गया। आइने के उस तरफ का ‘मैं’ ग़ौर से उसके जिस्म से उतरते रास्तों पर नज़र डाल रहा था।
कुछ दिनों से वो महसूस कर रहा था कि जब वो सी.एस.टी. से अंधेरी उतर कर ट्रेन बदलता तो इस रोज़ के घटनाक्रम में ऐसा कुछ और भी जुड़ गया था, जो इसी तरह रोज़ होता था यह एक संयोग था या जान बूझकर किया जा रहा था। जब भी किशोरावस्था में भीगे उस चेहरे को वो देखता तो उसमें ना चाहते हुए भी उसे अपने अँधेरे नज़र आने लगे। अँधेरी से गोरेगाँव स्टेशन तक वो तथाकथित अँधेरा उसके साथ चलता। गोरगाँव पर वो उतर जाता और दूसरा साया ट्रेन पर ही सवार जाने कहाँ चला जाता? कभी कभी वो उस साए के आवरण के पीछे अपने अँधेरों का हल खोजता, कहीं कुछ तो निशान मिले कि रास्ता कहाँ से है? जब बहुत खोज हो जाती तो किसी भी टॉकीज़ में लगी शाहरुख़ ख़ान की फिल्म देखने बैठ जाता, ख़ान की रोमरहित देह देखकर जाने क्यों उसके अंधेरे संतुष्ट हो जाते थे, वो ख़ुद ही ख़ान के साथ ख़ुद को जोड़ लेता और अपने अंधेरे के गणित को हल कर लेता। हालांकि ख़ान भी उसके आइने के ‘मैं’ की तरह हमेशा उस तरफ़ ही खड़ा रहता था, पर जाने क्यों अंधेरे ख़ुद ही भर जाते थे। फिल्म में जब ख़ान की रोमरहित देह अनावरित होती तो उसे लगता कि ख़ान उसके अँधेरों से उलझ गया है, खान का साया उसके अँधेरों में समाता जा रहा है, अँधेरे बर्फ़ की चिंगारियों से दहकने लगे हैं, वही तूफ़ान, वही बवंडर, फ़िर अचानक ख़ान का साया उसके अँधेरों में पिघल जाता। उस रोज़ जब घर लौटता तो आइने के उस तरफ का ‘मैं’ अपने अंधेरों की कोई शिकायत नहीं करता। उसके दोस्त के अलावा केवल ख़ान ही था जिससे उसके अंधेरे संतुष्ट होते थे।
गोरगाँव स्टेशन से निकलते ही जो टॉकीज़ है अक्सर वहीं वो ख़ान की फिल्में देखता था, फिल्म देखने के बाद जब स्टेशन से शास्त्री नगर तक पैदल आता तो सड़क वही होती जो फ़िल्मसिटी को शहर से जोड़ती है। शाम को फ़िल्मसिटी से शूटिंग करके घर लौट रहे फिल्म स्टार्स की गाड़ियाँ घर की तरफ़ दौड़ती हैं। उसे ऐसा लगता अभी कोई गाड़ी उसे पहचान कर रुकेगी, उसमें से ख़ान उतरेगा और पूछेगा ‘तुम वही हो न अँधेरे के गणित वाले, जिसके साथ मैंने वो गणित हल किया था।’ और फ़िर ख़ान उसके साथ शास्त्री नगर के फ़्लैट में आएगा और फ़िर, आईने के उस तरफ़ दो अनावरण होंगे, ख़ान की रोमरहित देह उसके अँधेरों में समा जाएगी। आईने के उस पार अपने अँधेरे को वो अपनी आँखों से सुलगता हुआ देखेगा। शायद पहली बार वो आईने के उस पार के ‘मैं’ को मुस्कुराता हुआ देखेगा। पूर्णतः अनावरित ख़ान की चकाचौंध शायद उसके अँधेरों को हमेशा के लिए बुझा दे। घर लौटता तो आइने के उस तरफ का ‘मैं’ उस पर हँसता।
क्रमश...