होने से न होने तक
7.
शाम को मैंने आण्टी को फोन किया था। अपनी नौकरी लगने की बात बतायी थी। आण्टी ने आश्चर्य से दोहराया था,‘‘चन्द्रा सहाय कालेज के डिग्री सैक्शन में ?’’
‘‘जी आण्टी।’’
उनकी आवाज़ में ख़ुशी झलकने लगी थी,‘‘मैं तुम्हारे लिए बहुत ख़ुश हूं बेटा। वेरी प्राउड आफ यू आलसो।’’ उनकी ख़ुशी, उनके उद्गार एकदम सच्चे और स्वभाविक लगे थे।
‘‘आपके कारण आण्टी,’’ मैंने भी सच्चे मन से उनके प्रति अपना आभार व्यक्त किया था। आज मैं यह बात अच्छी तरह से समझ गई थी कि एजूकेशन एकेडमी के प्रंबधक को सब से अधिक मेरी अच्छी स्कूलिंग ने प्रभावित किया है।
‘‘क्यों बेटा’’ उनके स्वर में उलझन है,‘‘मैंने क्या किया ?’’
‘‘नहीं आण्टी आपने मुझे इतनी अच्छी जगहों पर न पढ़ाया होता तो शायद मेरा सैलेक्शन वहॉ न होता।’’
‘‘नहीं अम्बिका वह तुम्हारी मेहनत है। तुम अच्छे नम्बर न लातीं तो मैं भला क्या कर पाती। वीना तुम्हे पहले से लौरेटो में पढ़ा रही थी, नहीं तो मैं तुम्हें वैल्हम कैसे भेज पाती। फिर तुम्हारी पढ़ाई लिखाई का सारा पैसा तुम्हारी मॉ छोड़ कर गई थी मैंने तो कुछ भी नहीं किया।’’ उन्होने निश्च्छल भाव से जवाब दिया था,‘‘मैंने तो बस वीना की इच्छा को पूरा किया है और तुमने सही ढंग से साथ दिया। आई एम रीयली वेरी हैप्पी।’’
‘‘फिर भी आण्टी। फिर भी सब आपने मैनेज किया। हो सकता है कि दूसरा ऐसे न करता। उतने अच्छे स्कूलों में भेजने की बात सोच भी न पाता।’’ मैं ने अपना आभार एक बार फिर से दोहराया था।
सच बात यह है कि सुबह से तरह तरह से मेरे दिमाग में यह बात घूम रही हैं कि आण्टी ने जो स्कूलिंग मेरी करा दी उसका मेरी ज़िदगी मे बहुत महत्व है। मुझे लगा था मॉ ने आण्टी को मेरा गार्जियन बनाने का यह निर्णय बहुत सोच कर लिया था और बहुत सही सोचा था। मुझे याद है बाद में एक बार बुआ बड़बड़ाई थीं। वे फूफा से बात कर रही थीं,‘‘थोड़ा सा पैसा है। पढ़ाई पर इतना ख़र्च करने का मतलब ? पैसे वाले लोगों के नख़रे हैं यह। लखनऊ के तमाम स्कूलों में भी हॉस्टल हैं।’’
पर तब तक मुझे वैल्हम में दो साल पूरे हो चुके थे और मैं वहॉ अच्छी तरह से एडजस्ट कर चुकी थी। शायद बुआ की आण्टी से बात करने की हिम्मत भी नहीं पड़ी थी और शायद उन्हें यह भी लगा हो कि छोटी सी बच्ची लखनऊ आ कर कहीं पूरी तरह से उनकी ज़िम्मेवारी न बन जाए।
‘‘एनी वे अम्बिका, आज मैं बहुत ख़ुश हूं, बहुत रिलीव्ड महसूस कर रही हूं। आत्मा अगर होती होगी तो आज वीना भी बहुत रिलीव्ड होगी। अब मैं तुम्हारे भविष्य की तरफ से एकदम निश्चिंत हॅू। यह तो तुम्हारे करियर की शुरुआत है। इट्स जस्ट अ बिगनिंग। बहुत आगे बढ़ोगी तुम।’’
आण्टी ने यह कहा तब मुझे लगा था कि सच में अभी तो मैं बहुत कुछ कर सकती हूं और मेरा मन कुछ क्षणों के लिए जैसे सपने देखने लगा था। सही तो कह रही हैं आण्टी। अभी तो शुरुआत की है। आगे कितना कुछ हासिल किया जा सकता है बस आगे के वे रास्ते खोजने हैं। उनके लिए कोशिश करनी है। उस दिन क्या पता था कि चन्द्रा सहाय डिग्री कालेज में मिला संतोष, परिवार जैसी मित्र मंडली, वहॉ के माहौल से मिला अपनेपन का अतुलनीय आनन्द मुझे निकम्मा बना देगा-ज़िदगी मे कुछ और पाने की कामना को ही मिटा देगा। इस विद्यालय के बाहर ज़िदगी में कुछ भी नही दिखेगा। जब ऑख खुलेगी तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। ख़ैर वह तो ज़िदगी में बहुत बाद की बात है।
आण्टी के घर आजकल मेहमान आये हुए हैं। लखनऊ में किसी रिश्तेदार के घर शादी है सो आण्टी के भाई बहन उनके घर ही ठहरे हुए हैं। तीन दिन बाद आण्टी के घर जाने की बात तय हुयी थी।
दस बजे के करीब मुझे यूनिवर्सिटी जाना है। पी.एच.डी. का फार्म लेना है। अगर बुआ और आण्टी मेरे अलग रहने की बात पर राज़ी नही हुयीं तो मुझे रिसर्च तो ज्वायन करनी ही होगी। टीचिंग के साथ वह बोझा मैं कैसे संभाल सकूंगी पता नहीं। दिमाग में यह भी आ रहा है कि किसी दूसरे सब्जैक्ट में एम.ए. का फार्म भर दूं। उस में कुछ भी नही करुंगी तो भी चल जाएगा। मैने बुआ को बताया था और चली गयी थी। लौटते समय हज़रतगंज के एक दो काम भी करने हैं। बुआ ने चौधरी से रसगुल्ले लाने के लिये कहा था।
लौटते तक करीब तीन बज गये थे। रिक्शे से उतर कर गेट खोल कर अंदर घुसी थी तो बाहर से ही काफी रौनक लग रही है। फूफा की दोनो गाड़ियॉ बाहर खड़ी हैं...एक पोर्टिको के अंदर दूसरी बाहर। इसका मतलब है फूफा इस समय घर पर ही हैं।
आज दिन भर बहुत ज़्यादा उमस और गर्मी रही है। इस समय अचानक गरज के साथ बादल घिरने लगे थे। मौसम ख़ुशगवार हो गया था। मैं पीछे के टैरेस पर बाहर निकल आयी थी और रेलिंग पर आ कर खड़ी हो गयी थी। गैराज की नीची सी छत के पीछे का वह छोटा सा एनक्लोज़र साफ दिखलायी दे रहा है। यहॉ बुआ के घर का फालतू सामान पड़ा रहता है...कबाड़ जिसे कबाड़ी को देना होता है या घर की ऐसी चीज़े जो बुआ की निगाहों को खटकती रहती हैं, पर बुआ जिन्हें किसी कारण से फेंक नही पातीं। मेरी निगाह उस राइटिंग चेयर पर अटक गयी थी। यह तो नीचे वाले कमरे में रखी थी। श्रेया के बचपन की कुर्सी है। मेज़ के हिसाब से काफी छोटी और थोड़ी हिलती डुलती हुयी, जर्जर सी। लगता है आज बुआ ने उस कमरे से हटा दी। बाबा जी पलंग से उठने पर उसी पर बैठे रहते थे। मैं चुपचाप कमरे में लौट आयी थी
हम लोग आण्टी के घर पहुचे थे तो यश बाहर ही मिल गए थे। अभी थोड़ी देर पहले ही लौटे थे। मेरी नौकरी लगने की ख़बर उन्हे मिल चुकी थी और बहुत ज़्यादा प्रसन्न मिले थे,‘‘अरे अम्बिका तुमने तो कमाल कर दिया। एकदम मज़ा आ गया। तुम न आ रही होतीं यहॉ तो अभी सीधे तुम्हारे घर मिठाई खाने पहुचता।’’
मैंने मिठाई का डिब्बा यश के सामने बढ़ा दिया था। यश ने डिब्बा पकड़ने को हाथ बढ़ाया था कि उससे पहले ही डिब्बा मैंने आण्टी की तरफ बढ़ा दिया था। सब लोग हॅसते रहे थे और हॅसते हुए ही सब एक साथ अन्दर पहुंचे थे। आण्टी सबको सीधे चाय की मेज़ की तरफ ले गयी थीं ‘‘बड़ी देर से हम तुम लोगों का इंतज़ार कर रहे थे।’’
आण्टी ने तो छोटी मोटी पार्टी का ही प्रबंध कर रखा था। मेज़ पर सजे लंबे चौड़े आयोजन की तरफ सब का ध्यान एक साथ गया था। आण्टी हॅसी थीं ‘‘सैलिब्रेशन टी’’ उन्होने पाइनएपल पेस्ट्री की प्लेट सबसे पहले मेरी तरफ बढ़ाई थी, ‘‘अम्बिका आज की गैस्ट आफ ऑनर तुम हो। सो सबसे पहले तुम।’’
मुझे अच्छा लगा था। मेरा मन भावुक होने लगता है। मैंने प्लेट आण्टी के हाथों से ले ली थी। अचानक दीना की याद आई थी। अभी कुछ समय पहले मेरे पास होने की ख़ुशी में उसका चाव से डिनर बनाना और मेज़ लगाना याद आया था। क्षण भर को मेरे हाथ ठहरे थे फिर मैंने प्लेट आण्टी की तरफ बढ़ा दी थी। प्लेट से एक पेस्ट्री उठा कर उन्होने मेरी प्लेट में रख दी थी और प्लेट को मेज़ पर रख कर उन्होंने बुआ की तरफ देखा था,‘‘उमा तुम लो’’।
बड़ी देर तक अलग अलग प्रसंग में चन्द्रा सहाय डिग्री कालेज की बात होती रही थी। तभी बुआ ने वहॉ हॉस्टल न होने की बात कही थी। मैं जानती थी कि वे विशेषतौर से यह बात करने के लिए ही यहॉ आई हैं। मैं कब से इस क्षण का सामना करने के लिए अपने आप को तैयार कर रही हूं। कब से यह क्षण आतंक सा मेरे मन पर बैठा हुआ है। पर मुझे पता ही नहीं चला कि मैंने कब और कैसे अपने घर का एक हिस्सा ख़ाली करा कर उसमें रहने की बात कह दी थी।
यश के मुह से फौरन निकला था,‘‘अरे, अकेले कैसे रह सकती हो तुम। यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. में एडमिशन ले लो। हॉस्टल मिल जाएगा।’’
मैं रुऑसी सी हो गयी थी,‘‘यश डा.अवस्थी बहुत सख्त टीचर हैं। केवल कमरा पाने के लिए मैं रिसर्च ज्वायन नहीं कर सकती। वे काम चाहेंगे, और टीचिंग के साथ एक दो साल मैं रिसर्च की मेहनत करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं हूं। ऐसा न हो जाए कि न ख़ुदा ही मिला न बिसाले सनम न इधर के रहे न उधर के रहे। न पढ़ सकूं, न पढ़ा सकूं । फिर कुछ भी हाथ नहीं आएगा। दोनों दरवाज़े मेरे लिए बंद हो जाऐंगे।’’
‘‘अम्बिका ठीक कह रही है।’’ आण्टी ने सहमति जतायी थी,‘‘अभी उसे पूरी तरह से सिर्फ और सिर्फ अपने लैक्चर्स पर मेहनत करनी होगी। डिग्री क्लासेज़ पढ़ाना कोई खेल नहीं है। इट्स नॉट अ चाइल्ड्स प्ले।’’
यश चुप हो गए थे किन्तु उलझे से लगते रहे थे। आण्टी की बात से सहमति जताते हुए बुआ ने अपनी बात कही थी,‘‘अम्बिका के लिए वाई.डब्ल्यू.सी.ए. सबसे अच्छा आप्शन रहेगा।’’
‘‘पर आण्टी वहॉ सिर्फ क्रिश्चियन ही रहते हैं और शायद वहॉ रहने के लिए उनका मैम्बर होना भी ज़रूरी होता हैं।’’यश ने शंका जतायी थी।
बुआ ने यश की तरफ देखा था,‘‘नहीं ईसाई होना ज़रूरी नहीं है। हॉ उनकी मैम्बरशिप लेनी पड़ती है। उसकी बड़ी मामूली सी फीस है और बड़ा आसान सा तरीका है। उनके हॉस्टल में बहुत सी हिन्दू लड़कियॉ रहती हैं। फीस भी कोई बहुत ज़्यादा नहीं है।’’ बुआ शायद सब कुछ पता लगा चुकी हैं।
मेरी ऑखों में ऑसू भरने लगे थे,‘‘नहीं बुआ। मेरा अब हास्टॅल रहने का मन नहीं है। हॉस्टल का खाना,वहॉ का रुटीन,वहॉ के नियम कायदे। मैं हॉस्टल में रहते रहते थक चुकी हूं।’’ मेरी आवाज़ रुधने लगी थी,‘‘अब मैं घर में रहना चाहती हूं।’’ मुझे अचानक लगा था कि बुआ मेरी बात का ग़लत अर्थ न समझ लें। कहीं यह न समझें कि मैं उनके घर में रहने की बात कह रही हूं इसलिए मैंने अपनी बात स्पष्ट की थी,‘‘मैं अपने घर में रहना चाहती हूं बुआ, अपनी तरह से। मॉ के घर का एक पोर्शन ख़ाली करा कर उसमें रहना चाहती हूं।’’
बुआ ने तेज़ निगाहों से मेरी तरफ देखा था,‘‘यह क्या बात हुयी अम्बिका। वाह भई तुमने तो हमारा और आण्टी का सारा बरसों का करा धरा सब समेट दिया। तुम्हारे पास क्या कोई घर है नहीं? क्या घर में नहीं रहती हो कभी...हमारा घर,आण्टी का घर। मामा चाचा का घर भूल भी जाओ तब भी दो घर तो लखनऊ में ही हैं...और वहॉ रहती भी हो ही।’’
मैं समझ नहीं पायी थी कि बुआ की बात का क्या जवाब दूं। अपनी बात उन लोगों को कैसे समझाऊॅ। आण्टी मेरी तरफ ध्यान से देखती रही थीं। उन्होने बहुत अपनेपन से मेज़ पर रखी मेरी मुठ्ठी के ऊपर अपना हाथ रख दिया था। उसे धीमें से थपथपाया था,‘‘अम्बिका इज़ राइट। उमा ग़लत कहॉ कह रही है वह? हम लोगों के घर आते जाते रहने से क्या होता है। ज़िदगी तो उसकी हॉस्टल में ही कटती रही न। अम्बिका की अपने घर में रहने की इच्छा बिल्कुल सही और नैचुरल है। मुझे भी लगता है कि अब उसे प्रापर ढंग से अपने घर में रहना चाहिए।’’
बुआ ने प्रतिवाद किया था,‘‘हम लोगों के घर इसके लिए क्या अपनों के घर नहीं थे मिसेज़ सहगल?’’
आण्टी ने सीधी निगाह से देखा था,‘‘अपनों के घर थे उमा पर अपने घर नहीं थे। कतई भी नहीं थे।’’
Sumati Saxena Lal.
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