जो रंग दे वो रंगरेज़ - रोचिका अरुण शर्मा राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो रंग दे वो रंगरेज़ - रोचिका अरुण शर्मा

ये बात 1978-80 के आसपास की है। तब हमारे घर में सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाऐं आया करती थी। बाद में इनमें गृहशोभा और गृहलक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं का नाम भी इसी फेहरिस्त में जुड़ गया। तब उनमें छपी पारिवारिक रिश्तों की गंध में रची बसी कहानियों को मेरी माँ के अलावा मैं भी बड़े चाव से पढ़ा करता था। उस समय जो भी...जैसा भी मिले, मौका पाते ही मैं ज़रूर पढ़ता था। अब उसी तरह के कलेवर से सुसज्जित कहानियों को पढ़ने का मौका मुझे रोचिका अरुण शर्मा जी के कहानी संग्रह "जो रंग दे वो रंगरेज़" से मिला।

अपनी कहानियों के लिए उन्हें अपने पात्रों को कहीं से ढूँढ कर लाना या गढ़ना नहीं पड़ता। वे अपने आसपास के माहौल से ही अपनी कहानी का प्लॉट ले उस पर अपनी सोच के अनुसार कहानी लिखती हैं। उनकी इस किताब की एक कहानी में ऐसी नवविवाहित युवती के दुखों एवं संघर्षों की दास्तान है जो अपने विवाह के कुछ समय बाद ही विधवा हो घर से निकाल दी जाती है। अपने बच्चे के भविष्य और समाज की भूखी नज़रों से बचने के लिए वो मायके वालों के दबाव में आप पुनर्विवाह कर तो लेती है मगर क्या इससे उसके दुखों का अंत हो पाता है?

इसी किताब की एक अन्य कहानी एक ऐसे युवक और युवती की कहानी है जिसमें युवक के बार बार आग्रह करने के पर भी युवती, उसे बहुत चाहने के बावजूद भी, अपनी मजबूरियों के चलते उससे विवाह करने को राज़ी नहीं होती है। ऐसे में किस तरह युवक की समझदारी से एक बड़ी बात छोटी सी बात में तब्दील हुई जाती है।

इस संकलन की एक कहानी ऐसे नवविवाहित जोड़े की कहानी है जिसमें युवती दिन भर तो सामान्य एवं खुश रहती है मगर एकांत पलों में जाने उसे क्या हो जाता है कि उनके आपसी सम्बन्ध सामान्य नहीं रह पाते। इस संकलन की एक कहानी में अपने बच्चों की अवहेलना झेल रहे बुज़ुर्गों की जिंदगी को लेकर कहानी का प्लॉट रचा गया है कि किस तरह वे सब मिल कर अपनी बची खुची ज़िंदगी को खुशनुमा बनाने का प्रयास करते हैं।


रोचक अंदाज़ में सहज..सरल एवं आम बोलचाल की भाषा में लिखी गयी उनकी कहानियां हमें अपने आसपास घट रही घटनाओं सी लगती हैं। अपनी कहानियों के पात्रों की मानसिक अवस्था, उनके भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व को, उनकी मानसिक परेशानियों को, भीतर उमड़ रहे झंझावातों को उकेरना रोचिका अरुण शर्मा जी अच्छी तरह से जानती हैं। पारिवारिक रिश्तों की आपसी उधेड़बुन, उनमें आए उतार चढ़ाव और भावनाओं से लबरेज़ कहानियाँ अपनी सधी हुई भाषाशैली की वजह से प्रभावित करने में सक्षम हैं।

इन कहानियों को पढ़ने के बाद मैंने अनुभव किया कि अपने तमाम उतार चढ़ावों और दुश्वारियों, परेशानियों के बावजूद इन सभी कहानियां का अंत साकारात्मकता लिए हुए है जो कि प्रशंसनीय है।
हालांकि सभी कहानियां पठनीयता के हिसाब से बढ़िया हैं लेकिन अंत की कुछ कहानियों में मुझे एक पाठक की हैसियत से थोड़ा कच्चापन लगा। कुछ जगहों पर मात्रात्मक चिन्हों का ना होना या फिर सही नहीं होना थोड़ा खला।

हालांकि यह किताब मुझे उपहारस्वरूप मिली फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए में बताना चाहूँगा कि उम्दा क्वालिटी के इस 128 पृष्ठीय किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹ 150/- जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।