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सफर ...

न जाने मैं कहाँ हूँ मुझे कुछ समझ नही आ रहा है शायद किसी बस या ट्रैन की खिड़की के निकट बैठी बाहर देख रही हूँ ट्रैन रफ्तार से भागी जा रही है शायद स्लीपर बर्थ का डब्बा है मैं किसी को जानती नही, पहचानती नहीं, इसलिए बस अपने आप में गुम चुपचाप बैठी ट्रैन के साथ भागते हुए रास्तों को देख रही हूँ। लोगों की भीड़ से डब्बा खचा खच भरा हुआ है। शोर इतना ज्यादा है कि किसी को किसी की कोई बात समझ नही आरही है। फिर भी सब लगा तार बोल रहे हैं। ना जाने क्या चाहते हैं।
मैं अपनी ही दुनिया में खोई हूँ, किन्तु लोगों का शोर मुझे वहां भी चयन से रहने नही देना चाहता। बाहर से आती हुई तेज हवा मेरी पलकों को बंद करने की पुर जोर कोशिश कर रही है। मुझे भी यही लग रहा है कि अब मुझे नींद आ रही है। नींद की खुमारी मुझे से यह कह रही है कि "जबरन आंखों को खोले रखना कोई ज़रूरी नही है तुम्हारे लिए, इसलिए अपनी आंखों का शटर गिराओ और चुप चाप सो जाओ"। मेरी आंखे भी अब झपकी की तरह जरा जरा बंद होने लगी है। इतने में टनल आ जाती है और लोग का शोर गुल थोड़ी देर के लिए शांत हो जाता है, मुझे भी एक अजीब से सुकून का आभास होता है।
परंतु जैसे ही टनल खत्म होती है, मैं क्या देखती हूँ कोई अपने परिवार के साथ ट्रैन की और भागा आ आरहा है। उसके चेहरे पर दुख और परेशानी के भाव साफ साफ दिखाई दे रहे हैं। बच्चों का हाथ थामे वो इशारे से जाने क्या कहने की कोशिश कर रहा है, उसकी पत्नी से अब और ट्रैन के पीछे भाग नही जा रहा। उसने उसका हाथ बीच रास्ते में ही छोड़ दिया है। पर वो अपने रोते हुए बच्चों के साथ अब भी ट्रैन के पीछे भाग रहा है और मुझसे मदद चाहता है।
उसके चेहरे की परेशानी और बेबसी, मुझे भी परेशान कर रही है, कि आखिर यह इंसान चाहता क्या है। इस तरह तो यह हादसे का शिकार हो जायेगा। पर वो है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। मैंने मोबाइल में देखा, अभी तो आस पास कोई स्टेशन भी नही आने वाला है, जहाँ यह ट्रेन रुके, फिर यह ऐसा क्यों कर रहा है।
मैंने अपने सामने वाली बर्थ पर बैठे व्यक्ति को उस इंसान की और देखने को कहा इस उम्मीद में कि शायद वह उसकी कोई मदद कर सके, पर उस व्यक्ति को बाहर कोई नज़र नही आया। उसने एक बार मुझे देखा और फिर एक बार बाहर देखा और फिर एक बहुत ही अजीब सी कुटिल हंसी के साथ वह वहां से उठकर चला गया। मैं अब भी अपनी खिड़की से चिपकी ज्यादा से ज्यादा बाहर देखने की कोशशि कर रही हूँ। लेकिन मुझे समझ नही आरहा है कि मैं उस इंसान की मदद कैसे करूँ, थोड़ी देर बाद मुझे भी वो इंसान दिखाई देना बंद हो जाता है।
इतने में ट्रैन एक छोटे से स्टेशन पर आकर रुकती है, मैं ट्रैन से उतर कर बाहर आती हूँ और यहां वहां उस भागते हुए आ रहे इंसान को ढूंढने का प्रयास करने लगती हूँ। ताकि मैं उससे पूछ सकूँ कि आखिर वह यह पागल पन क्यों कर रहा था। वह भी इतने छोटे-छोटे बच्चो को साथ लेकर, अगर उन्हें कुछ हो जाता तो....! वह क्या करता। पर मुझे वह व्यक्ति बहुत ढूंढने पर भी दिखायी नही दिया। इतने में गाड़ी चलने का सिग्नल हो गया, सभी यात्री अपने अपने डिब्बे की और बढ़ने लगे धीरे-धीरे गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ना आरम्भ कर दिया। मैं भी यहां वहां उस इंसान को तलाशती हुई अपने डिब्बे में चढ़ गयी।
मैंने देखा ट्रैन में सभी अजीब अजीब लोग यात्रा कर रहे है। कुछ ऐसे हैं जो बुरी तरह से घायल है, कुछ ऐसे जो लुटे पिटे से दिखाई देते है, महिलाएं विलाप सा कर रही है, बच्चे तो जैसे मेरे हुए से है। अपनी बर्थ पर आते आते मुझे एक ऐसा नज़ारा नज़र आया कि मुझे अपनी आंखों पर विश्वास ही नही हो रहा है। फिर वो मेरी सामने वली बर्थ पर बैठा व्यक्ति वापस मेरे सामने आकर बैठ गया और उसी कुटिल मुस्कान के साथ वह मुझे निहारने लगा। मानो में कोई इंसान नही, बल्कि गोश्त का कोई टुकड़ा हूँ, जिसे देखकर उसकी राल गिरी जा रही है। मुझे उस व्यक्ति से एक अजीब सी घिन होने लगी है।
मैं किसी तरह अपना ध्यान उस पर से हटाकर वापस बाहर देखने लगती हूँ। और उस इंसान के विषय में सोचने लगती हूँ जो मुझे बाहर दिखयी दे रहा था, कि आखिर कौन था वो और इस तरह से अपने परिवार के साथ क्यों केवल इसी ट्रैन के पीछे भाग रहा था। जबकि यह ट्रेन तो बहुत रफ्तार पकड़ चुकी थी। और अचानक ट्रेन पुल पर से गुज़रने लगती है पुल के धड़धड़ाते शोर से मैं चोंक जाती हूँ। कुछ ही देर में टीटी आकर सभी का टिकट जांचता है, पर यह क्या टीटी के कपड़े भी जगह जगह से फटे और कहीं कहीं से जले हुए से मालूम हो रहें है। पर मेरे आलाव किसी के भी चेहरे पर आश्चर्य के कोई हाव भाव नही है, ना ही टीटी के चेहरे पर किसी तरह कि कोई परेशानी के भाव दिखाई दे रहे है। मैं इससे पहले उससे कुछ पूछुं उसने कहा टिकट दिखाई ये...मैंने टिकिट दिखाया, उसने जांच की और चला गया। मुझे कुछ समझ नही आया।
कुछ देर बाद जब ट्रेन अपने यथा संभव स्टेशन पर पहुंची, तो अचानक ट्रेन पर पथराव शुरू हो गया और कुछ ही देर बाद भीड़ का एक बड़ा जत्था हाथों में मशाल लिए ट्रेन के नज़दीक आया और आग लगाने लगा। देखते ही देखते कई सारे डिब्बे जला दिए गए। मैं किसी तरह अपनी जान बचाकर बाहर आयी, तो देखा धूं धूं कर के पूरी ट्रैन जल रही है। बाहर बसे जल रही है, लोगों के दो पहिया वाहन भी जल रहे हैं। यातायात का कोई साधन मौजूद नही है। पूरा शहर आग से तप रहा है। चारों और बस भीड़ ही भीड़ है, जो पब्लिक प्रोपेर्टी को आग लगा रही है।
आम जनता यहां वहां अपनी जान बचाते फिर रही है। न पुलिस कुछ कर रही है, ना प्रशासन ही कुछ कर पा रहा है। लोग मर रहे हैं, सारा शहर जल रहा है। कुछ हिन्दू हाथों में तलवार लिए मुस्लिम बस्तियों की और हर हर महादेव का नारा लगते हुए मुस्लिम परिवारों के घर बाहर लगे निशानों के हिसाब से, उनके घरों में आग लगा रहे हैं। उनके बच्चों को मार रहे है, और उनकी औरतों को बेनकाब कर रहे हैं। जो देखने में सुंदर है, उन्हें अगवा किया जा रहा है और जो नही है, उन्हें घर से बेघर कर दिया जा रहा है। यही हाल मुस्लिम परिवार हिन्दू परिवारों का कर रहे है।
आग और दहशत इतनी बढ़ चुकी है कि इंसान जानवर से भी बत्तर व्यवहार कर रहा है। जानवरों तक को कोई नही बक्श रहा है, जगह जगह गाय और सुअर के मांस के लोथड़े पड़े है खून ही खून दिखाई दे रहा है। यह सियासी साजिश है या आपसी रंजिश, कहना बहुत मुश्किल है। पर सब खत्म जो चुका है, बहुत सारा शोर, दर्द भारी चीखे, अपनो को खो देना का विलाप, और जलता हुआ शहर जैसे सब कुछ गूंज सा रहा है मेरे कानों में, इसके अतिरिक्त और कुछ शेष नही है। धीरे-धीरे यह शोर, यह विलाप, यह चीखें, भी अब खत्म होती सी महसूस हो रही है।
यह कहाँ आ गयी हूँ मैं, मेरा घर कहाँ है...? मेरे परिवार के लोग कहाँ है....? किसी तरह बचती बचाती, छिपती छिपाती जब मैं अपने घर पहुंचती हूँ, वहां का मंज़र देख कांप जाती हूँ। मेरा पूरा घर जला दिया गया है, घर के हर कमरे की खिड़की के कांच चारों ओर टूटे पड़े है। माँ का गला कटा हुआ है और उसमें से खून की नदी सी बाह रही है, जैसे उन्हें बली का बकरा समझ कर हलाल कर दिया गया। पापा के सीने में गोली लगी हुई है, भाई कहीं दिखाई नही दे रहा है, बहन की सांसे चल रही है, लेकिन उसके तन पर एक भी कपड़ा शेष नही है। मैं भी अब उसी विलाप का हिस्सा हूँ जो अभी तक मेरे कानों में गूंज रहा था।
अपनी बहन को अपने हाथों में लेकर ज़ोर से चीखी थी मैं उस रोज़ और उसे अपने दुपट्टे से ढकते हुए रो पड़ी थी मैं, मेरा सब कुछ खत्म हो चुका था। जीने का भी कोई मकसद शेष नही बचा था। पर अपनी बहन की ज़िन्दगी और भाई का पता लगाना भी मेरी ही जिम्मेदारी थी। मैंने किसी तरह जलते हुई शहर में जाकर जान बचाकर भागते हुए लोगों से सहायता की भीख मांगी, पर कोई मेरी मदद के लिए त्यार ना हुआ। फिर कुछ दूर पर खड़ी एक पुलिस की वेन ने मुझे आकर फटकार लगायी और कहा कि "दिखाई नही देता क्या तुम्हें...? क्या माहौल है, तुम इस वक़्त यहां बाहर क्या कर रही हो....? जाओ अपने घर, मैंने रोते हुए कहा "कैसा घर, किसका घर"
फिर खुद को संभालते हुए,मैंने उनसे अपनी बहन को अस्पताल लेजाने के लिए मदद मांगी और किसी तरह वह राजी हो गए। वहां पहुँच कर मैंने देखा, वहां भी हड़कंप मचा हुआ था चारों और बस वही दुख, दर्द भरी चीखे और विलाप ही विद्यमान था। फिर भी उन्होंने मेरी बहन का इलाज शुरू किया। आपातकाल की ऐसी स्तितिथि मैंने आज से पहले कभी नही देखी थी। पूरे शहर में कर्फ्यू लग चुका था। जो जहां था वह वहीँ कैद होकर रह गया था। मैं अपनी बहन के पलंग के पास बैठी कुछ सोच रही थी कि अचानक मेरी बहन ने जोर जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया नहीं....छोड़ दो मुझे और फिर उसकी आँखों से अश्रु धारा बह निकली और फिर वो एकदम शांत हो गयी।
मैंने किसी तरह उससे संभाला और मन ही मन यह सोचने लगी कि एक बार वह ठीक हो जाये, तो फिर मैं उसे लेकर किसी दूसरे शहर में चली जाऊंगी और फिर वहां हम दोनो जीवन की एक नयी शुरुआत करेंगे। कुछ दिन बाद जब शहर में सब कुछ शांत हो गया। तब मैं उसे लेकर दूसरे शहर जाने की तैयारी करने लगी। घर तो पहले ही पूरा जल चुका था किन्तु बैंक के कुछ पेपर मेरे पास थे जिनसे पैसा ट्रांसफर किया जा सकता था। मैंने उन कागजों की मदद से पापा का पैसा अपने खाते में ट्रांसफर किया और अपनी बहन को साथ लेकर उस शहर को छोड़कर जाने के लिए एक बार फिर स्टेशन पहुँची।
वहां पहुंचते से ही मेरी आंखों के सामने वो जलती हुई ट्रैन का दृश्य घूम गया। मैं जरा डरी, लेकिन फिर तुरंत ही मैंने खुद को संभाल और और अपनी बहन को साथ लेकर अपनी ट्रैन में अपनी बर्थ पर जाकर बैठ गयी। मेरी बहन उस हादसे के बाद बहुत डरी डरी रहने लगी थी। वह एक पल के लिए भी मेरा हाथ छोड़कर नहीं रहना चाहती थी। तभी मैंने देखा की हमारे पास पानी नही है। मैं पानी लेकर आती हूँ ऐसा कह कर मैं ट्रेन से उतर कर जाने लगी, तो मेरी बहन ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और बोली कहीं मत जाओ जीजी...मुझे बहुत डर लगता है। मुझे नही चाहिए कोई पानी वानी, बस तुम कहीं मत जाओ।
मैंने उसे समझाया की अरे डरो नही कहीं दूर नही जाना है, बस सामने की ही दुकान से पानी लेना है। तुम चिंता मत करो, कुछ नही होगा। मैं अभी आती हूँ। उसको ऐसा आश्वासन दे, मैं ट्रेन से उतर गयी। मैंने घड़ी देखी, अभी गाड़ी चलने में समय था। मैंने पानी की दुकान पर जाकर एक बोतल पानी और कुछ खाने पीने की चीजे ख़रीदी, तभी वो इंसान जो मुझे सफर के शुरू में दिखायी दिया था। वही फिर से दिखायी दिया, वह किसी संदिग्ध की भांति यहां वहां कुछ तलाश कर रहा था। मैंने उसके करीब जाकर उनसे पूछा, तुम तो वही हो ना...?
उसने बड़े अजीब ढंग से यहां वहां देखते हुए जवाब दिया कौन...! मैंने उसे उस दिन का सारा वाकया बताया, तो उसने कोई जवाब नही दिया। एक डरावनी सी हंसी हंसता हुआ वह यह कहता हुआ वहां से भाग गया, कि "यहां कोई जिंदा नही है मेम साहब, यह मुर्दों की बस्ती है, क्या तुम ज़िंदा हो" और ज़ोर की डरावनी किन्तु विलाप वाली हंसी के साथ वह मेरी आंखों से ओझल हो गया। जैसे ही उसकी और मैंने, मुड़कर देखा तो मैं क्या देखती हूँ....मेरी ट्रेन जा रही है, मैं सारा सामान छोड़कर ट्रैन के पीछे भाग रही हूँ। ट्रैन धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही है. मेरी बहन ट्रैन के दरवाजे पर खड़े-खड़े अपने दोनो हाथ फैलाये मुझे पुकार रही है। जीजी....जीजी...! मैं बदहवास सी ट्रैन के पीछे भाग रही हूँ और कुछ दूरी बाद, वह एक कुटिल मुस्कान के साथ मुस्कुराती है और मैं भी उसी हंसी के साथ मुस्कुराते हुए उसे एकटक देखती रह जाती हूँ और ट्रैन बहुत दूर निकल जाती है.....

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